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तेरा ही तलबगार हूँ मैं...

प्रेम एक रोग हैं गर,

तो हाँ बीमार हूँ मैं,

चाहत बस मुझे तेरी

तेरा ही तलबगार हूँ मैं ll

 

पूजेंगे तुम्हे अब हम ,

तेरे आगे सर झुकायेंगे,

हैं गर ये खता यारो,

तो हाँ गुनाहगार हूँ मैं ll

 

तुझे जो हो न यकीं,

दिल में झांक ले कभी,

तेरे ही ख्वाब पलते हैं,

तेरा ही वफादार हूँ मैं ll

 

चाँद, तारे बहुत दूर तुमसे,

नजर जब भी उठाओगे,

हर सू मुझे ही पाओगे..

हाँ तेरा ही दरों-दिवार हूँ मैं ll

 

बचा सकते नहीं हो तुम,

खुद को चाहत से मेरी,

नजर बस तुम पे रहती है..

हाँ तेरा ही पहरेदार हूँ मैं ll

---------------------------प्रवीण कुमार ‘पर्व’

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Comment by praveen on January 24, 2013 at 5:49pm

 Yogi Saraswat जी,  Rajesh Kumar Jha जी हिर्दय से आभारी हूँ 

Comment by राजेश 'मृदु' on January 24, 2013 at 3:20pm

आपकी इस रचना पर कुछ नहीं कहूंगा, हां इतना अवश्‍य है कि आपको और पढ़ना चाहता हूं  जो गहरे छुए, बिना सिहरन दिए, बिना यादों को झकझोरे, बस आनंदित करे, सादर

Comment by Yogi Saraswat on January 24, 2013 at 2:55pm

चाँद, तारे बहुत दूर तुमसे,

नजर जब भी उठाओगे,

हर सू मुझे ही पाओगे..

हाँ तेरा ही दरों-दिवार हूँ मैं ll

बहुत खूब ! सुन्दर शब्द ! क्या बात है ! स्वागत है

Comment by praveen on January 23, 2013 at 10:53pm

@ Saurabh Pandey सर जी शुक्रिया 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 23, 2013 at 10:38pm

प्रस्तुति हेतु बधाई, प्रवीणजी.

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