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'ज़िन्दगी'... तू "ज़िन्दगी" क्यों है...???


बोझिल मन... आँखें... सांसें...
ऐसा तारतम्य...
ना देखा आज से पहले...
ऐसी सांठ-गाँठ...
क्यों नहीं कर पाती यें... खुशियों में...???
जितना खोलनें की कोशिश करती...
उतनी ही इसकी गांठें और गुथती जाती...
और उन गांठों में फंसती जाती...
ज़िन्दगी... ... ...
धीरे-धीरे घुटती... गिरती... संभलती...
पर उफ़ ना करती...
शायद अब इस घुटन से...
इस उतार-चढ़ाव से...
बाँध ली थी उसने भी गांठें अपनी...

मगर...
ये क्या... धीरे-धीरे... हर गाँठ खुलनें क्यों लगी...???
अब... जब आदत हो चुकी...
फिर ये ढीलापन... ये खुलापन...???
उफ्फ्फ... ... ...
ऐ ज़िन्दगी... क्यों... करती है तू ऐसे...???
ये 'परिवर्तन' हमेशा तब ही क्यों...
जब हमें आदत हो चुकी होती है...
उसमें ढलनें की... ... ...

ज़िन्दगी... क्या हक है तुझे...
यूँ खेलने का... खुद की जिंदगी से...
क्यों नहीं हर तरफ... सुकूँ... शान्ति... मोहब्बत...???
क्यों है हर तरफ... मजबूरी... उदासी... लानत...???
माय-सा ख़ुमार तुझमें...
चढ़नें में बरसों लगाती...
और फिर पानी के चंद छींटों से...
सारा ख़ुमार उतार डालती...

तुझे जीना चाहती तो तू भागती...
जो रुक जाती...
तो साये-सी पीछे आती... ... ...
खुद पे, हक दिया तुझे...
क्या मैं 'अभागन'... नहीं... खुद की ही ज़िन्दगी के...
भरोसे... के 'काबिल'...???
मेरी होके भी तू 'पराई' क्यों है...???
'ज़िन्दगी'... तू "ज़िन्दगी" क्यों है...???

::::::::जूली मुलानी::::::::
::::::::Julie Mulani::::::::

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Comment by Julie on November 25, 2010 at 12:53am
बहुत-बहुत शुक्रिया 'आशीष जी'...!! :-)
Comment by आशीष यादव on November 25, 2010 at 12:05am
waah, zindzgi tu zindzgi kyo hai?
usi se uske wajud par sawaliya nishan.
khubsurat
Comment by Julie on November 24, 2010 at 11:54pm
"बागी जी"... बस सब आप जैसे बड़े लेखकों की ही सांगत में सीख रही हूँ... बहुत बहुत आभार आपका...!! :-)

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 24, 2010 at 7:24pm
जुली, आपको पढ़ना हमेशा ही सुखद लगता है, उसी कड़ी मे यह कविता भी बेहद खुबसूरत है | आपकी शैली कुछ अलग इ फ्लेवर लिये होती है |

कृपया ध्यान दे...

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