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नवगीत // भावना तिवारी

व्याकरण में ही 
उलझ कर ,
रह गईं सब भावनाएँ..!!
 
सारा जीवन 
शिल्प प्रेम का 
गढ़ ना पाए !
पग बहुत रक्खे
संभलकर ,
हाथ आईं वेदनाएँ ..!!
 
सब अपने थे 
दोष हार का 
किस पर आए !
समय ने दर्पण 
दिखा कर 
तोड़ डालीं चाहनाएँ ...!!
 
भोर धूप का
अँधियारे से 
युद्ध बढ़ाए !
सूर्य निज वचनों से 
फिर कर  
दे गया है यातनाएँ ..!!
 
   ~.भावना.~
मौलिक/अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Neelkamal Vaishnaw on June 12, 2013 at 7:37pm

वाह वाह बहुत सुन्दर भावना जी, 'यथा नाम तथा काम' सुन्दर भावनाएं....

Comment by aman kumar on June 10, 2013 at 9:06am

बधाई आदरणीया भावना जी,सुन्दर रचना!

Comment by MAHIMA SHREE on June 8, 2013 at 11:02pm

आदरणीया भावना जी , बहुत ही सुंदर नवगीत .. बधाई आपको  


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Comment by rajesh kumari on June 8, 2013 at 10:40pm
भोर धूप का
अँधियारे से 
युद्ध बढ़ाए !
सूर्य निज वचनों से 
फिर कर  
दे गया है यातनाएँ ..!! वाह बहुत सुन्दर नव गीत सभी पंक्तियाँ दिल तक पंहुचती हैं बहुत बहुत बधाई भावना जी 
 
Comment by JAWAHAR LAL SINGH on June 8, 2013 at 9:43pm

सुन्दर है आपकी भावनाएं! बधाई!

Comment by ram shiromani pathak on June 8, 2013 at 2:32pm

 सुन्दर पंक्तियों के लिए हार्दिक बधाई//////////////

Comment by Shyam Narain Verma on June 8, 2013 at 11:17am
बहुत सुन्दर...बधाई स्वीकार करें ………………
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 8, 2013 at 9:13am
आदरणीया..आपने बहुत ही सुंदर तरीके से, पंक्तियों में विवरण किया है "सब अपने थे दोष हार का किस पर आए, समय ने दर्पण दिखाकर तोड़ डाली चाहनाऐं!! " शुभकामनाऐं स्वीकार कीजीऐ...
Comment by शुभांगना सिद्धि on June 8, 2013 at 2:36am

बहुत सुन्दर!

Comment by D P Mathur on June 7, 2013 at 9:49pm

सारा जीवन शिल्प प्रेम का गढ़ ना पाए ,
पग बहुत रखे संभलकर हाथ आई वेदनाएंँ !
सही है लेकिन जैसे जैसे हमारी आकांक्षाएंँ बढ़ती है
तब ही वेदनाएंँ हाथ आती हैं।

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