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राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने-४३ (दिल ने जब भी खुद को कुरेदा है)

दिल ने जब भी खुद को कुरेदा है, मेरे खून के इलावा नाखून से तेरा खून भी चिपका है. अजब है ये इत्तेफाक.... कि मुसर्रत (खुशी) का न सही तुझसे दर्द का तो रिश्ता है. शायद इसलिए ही कि दर्दज़दा हुए जब भी तो मुझे अपना दर्द गरां (भारी) लगा क्योंकि इसमें तेरे दर्द की भी न चाही गई आमेज़िश (मिश्रण) थी.

 

नाखून से चस्पां (चिपका) खून का इक ज़र्रा ये खबर दे गया कि तुम अभी कहाँ हो, किधर हो, किस हाल हो, तुम्हारे चेहरे का रंग ज़र्द है या सुर्ख, तुम्हारी नसों में दौड़ता खून अभी थका है या पुरजोश, तुम्हारी आँखों में जलते ख्वाब की लौ तेज़ है या मद्धम, तुम्हारे आरिज़ (गाल) पे मेरे तसवव्वुर (ख्याल) से पैदा हुई सुर्ख हया है या ज़िंदगी की दुश्वारियों का फिक्र....

 

मेरी जान! दिल-ओ-रूह-ओ-जिस्म से बनी ज़िंदगी की ये सौगात जब तलक मेरे पास है...जब तलक मेरे पास खोदने को दिल और कुरेदने को नाखून है, तुम मुझसे दूर कहाँ!

 

© राज़ नवादवी, भोपाल

रविवार २७/०१/२०१३ प्रातःकाल ०९.१६

मेरी मौलिक व अप्रकाशित रचना 

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Comment by राज़ नवादवी on August 7, 2013 at 11:29am

आदरणीय राणा साहेब, बात  ले दे के वहीँ पे आके रुकती है- ' मुहब्बत की झूठी कहानी पे रोये, बड़ी चोट खाई जवानी पे रोए'. आपने सही कहा है कि मुहब्बत के दर्द  का सरमाया सब को नहीं मिलता, मैं उपरवाले का शुक्रगुज़ार  हूँ कि उसने मुझे ये अता किया. आपकी शुभकामनाओं पे बेसाख्ता साहिर की इक खूबसूरत ग़ज़ल का ये मतला याद आ जाता है- 'दिल में किसी के प्यार का जलता  हुआ दिया, दुनिया की आँधियों से भला ये बूझेगा क्या'. आपकी शुभकामनाओं का बहुत बहुत शुक्रिया. - राज़ 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on August 6, 2013 at 8:50pm

शायद इसलिए ही कि दर्दज़दा हुए जब भी तो मुझे अपना दर्द गरां (भारी) लगा क्योंकि इसमें तेरे दर्द की भी न चाही गई आमेज़िश (मिश्रण) थी.

राज साहब 

इस तरह की चाहत नसीब बालों को ही नसीब होती है| इसे संभाल के रखिये|

शुभकामनाएं|

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