मानवीय विकासगाथा में काव्य का प्रादुर्भाव मानव के लगातार सांस्कारिक होते जाने और संप्रेषणीयता के क्रम में गहन से गहनतर तथा सुगठित होते जाने का परिणाम है. मानवीय संवेदनाओं को सार्थक अभिव्यक्ति नाट्यशास्त्र और इसकी विधाओं से मिली जहाँ से काव्यशास्त्र ने अपने लिए आवश्यक अवयव ग्रहण किये. इन्हीं अवयवों के कारण ही प्रस्तुतियाँ क्लिष्ट से क्लिष्टतर होती गयीं और निवेदन गहन से गहनतर होते चले गये. गद्य इसी मानवीय मानसिक विकास का अगला रूप है.
मूलभूत शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद मनुष्य के लिए यह कभी संभव नहीं रहा कि वह केवल उन आगामी क्षणों की प्रतीक्षा करता रहे जब उसे पुनः अपने और अपने आश्रितों के शरीर के संकेतों को संतुष्ट करना भर उसके जीवन का उद्येश्य हो जाय. उसके लिए पेट की अस्मिता के आगे वैचारिकता स्थान लेती रही है. यही वैचारिकता मनुष्य की संप्रेषणीयता को समृद्ध करने का कार्य करती है. अनादिकाल से ! काव्यशास्त्र के यही आधारभूत अवयव कविता को समझने और कविता के माध्यम से वैचारिक संप्रेषणीयता को समझाने के भी मूल रहे हैं.
क्यों न आज हम यही समझने का प्रयास करें कि कविता वस्तुतः है क्या.
भाव संप्रेषण की वह शाब्दिक दशा जो मानवीय बुद्धि के परिप्रेक्ष्य में मानवीय संवेदना को तथ्यात्मक रूप से अभिव्यक्त करे, कविता होती है. सपाट भावाभिव्यक्ति सहज और सुगम भले ही हो तथ्यात्मकता को संवेदनाओं का साहचर्य और संबल नहीं दे सकती. इसीकारण भावुकता का अर्थवान स्वरूप जहाँ कविकर्म है वहीं उसकी शाब्दिक परिणति कविता.
इसका अर्थ यह हुआ कि कविता शब्द-व्यवहार के कारण भाषायी-संस्कार को भी जीती है. इसी कारण भाषा -व्यवहार और शब्द-अनुशासन कविता के अभिन्न अंग हैं. अर्थात, भावुक उच्छृंखलता कभी कविता हो ही नहीं सकती. जबकि यह भी उतना ही सत्य है कि भावुकता ही कविता का मूल है. यानि, मात्र एक तार्किक शब्द अपने होने मात्र से कविता का निरुपण कर सकता है. क्योंकि शब्द मात्र इंगित न होकर भाव-भावना-अर्थ का भौतिक समुच्चय हैं. शब्द वृत्तियों के भौतिक निरुपण की भौतिक इकाई हैं. वृत्तियों के निर्वहन में शब्द एक बडी भूमिका निभाते हैं. अतः चित्त का विवेक, यानि बुद्धि, कविता की उत्पत्ति और समझ दोनों के लिए अनिवार्य है.
कविता संप्रेषण के कई साधन हो सकते हैं तथा इन साधनों की कितनी ही प्रासंगिक, अप्रासंगिक विधायें ! छंदबद्धता, छंद-उन्मुक्तता इसके मुख्य साधन हैं और मात्रिकता, गणना, तुकान्तता, गेयता, अलंकार, संप्रेष्य तथ्य आदि-आदि उन साधनों के अवयव.
वर्तमान में व्यावहारिकता के लिहाज से कविता के दो रूप हो सकते हैं -
पहला, कविता, जो भाव-विस्फोट को शब्दों की ऐसी काया दे जो गेय या वाच्य हो
दूसरा, कविता, जो प्राणिगत भावोद्गार को शब्दों का ऐसा प्रारूप दे जिसे बुद्धि द्वारा साधा जा सके
इस तरह से कविता सुनने-गाने के साथ-साथ पढ़ने-गुनने और उसके आगे मनन-मंथन की भी चीज हो जाती है.
इस लिहाज से हम कविता की उत्पत्ति के दो रूप मान सकते हैं -
पहला, मानसिक एकाग्रता, जिसके कारण संप्रेषण हेतु निरीक्षण संभव हो पाता है
दूसरा, सतत शाब्दिक अभ्यास ताकि कथ्य सार्थक रूप से संप्रेष्य का निर्वहन कर सके.
वस्तुतः कविता का मुख्य कार्य श्रोता-पाठक की भावदशा को संवेदित करना होता है. इस आधार पर हम यह कहने की स्वतंत्रता ले सकते हैं कि जिस शब्द-व्यवहार से मानवीय संवेदनाएँ प्रभावित हो जायें वही कविता है. इसी कारण ऊपर कहा जा सका है कि एक सान्द्र शब्द अपने आप में एक समृद्ध कविता की भावदशा को जी सकता है. लेकिन, इस निवेदन के साथ कि इस उच्च अवस्था की अनुभूति के पहले भाव-साधना तथा शब्द-साधना के घोर तप से गुजरना होता है. कविता का कोई रूप क्यों न हो उसका हेतु और उसकी प्रासंगिकता मानवीय संवेदना को संतुष्ट या प्रभावित करना है. इस विचार से कविता गेय हो, वाच्य हो या पठनीय ही क्यों न हो.
पुराने मनीषियों की अवश्यकता और समझ के अनुसार कविता श्रव्य थी. इसी कारण, कविता और छंदों में शाब्दिक चमत्कार को निरुपित करने के लिए अलंकारों की आवश्यकता होती थी. उससे पूर्व नाट्यशास्त्र के नव-रसों के माद्यम से कविता को श्रेणीबद्ध करने का साग्रह प्रयास किया गया ताकि कोई शाब्दिक संप्रेषण मानवीय मनोदशा की आवश्यकता के अनुसार हुए शाब्दिक-निवेदन को प्रतिस्थापित कर सके. आज कविता पठनीय हो गयी है. इसके प्रारूपों में मात्र शब्द ही नहीं, बल्कि गणित शास्त्र के मान्य और स्वीक्रुत गणितीय-चिह्न भी कविता का मुख्य भाग बन गये हैं जिनको ध्वनियों के माध्यम से अभिव्यक्त किया ही नहीं जा सकता. अतः कविता श्रव्य मात्र रह ही नहीं गयी है. अपितु, यह विचारों की अति गहन इकाई भी हो चुकी है.
तो प्रश्न उठना सहज ही है कि क्या ऐसा कोई संप्रेषण कविता है ?
उत्तर में प्रति-प्रश्न होगा, कि क्या ऐसा कोई संप्रेषण व्यवहार में समेकित रूप से मानवीय संवेदना को प्रभावित कर पाता है ?
यदि वास्तव में एक बड़ा वर्ग ऐसे संप्रेषण को समझता है और प्रभावित होता है तो वह कविता है. और, यह कविकर्म की मानसिक सम्पन्नता और श्रोता-पाठक की मानसिक व्यवस्था के संयमित मेल पर निर्भर करता है कि कोई संप्रेषण मानवीय मर्म की किस गहराई तक अपनी पहुँच बना पाता है.
यानि, एक स्तर से नीचे की कविता प्रबुद्ध श्रोता-पाठकों को जहाँ संवेदित या संतुष्ट नहीं कर सकती तो एक स्तर से आगे की कविता कतिपय श्रोता-पाठकों के लिये दुरूह हुई उनसे अस्वीकृत हो जाती है. इस के लिए जहाँ तक संभव हो, दोनों इकाइयों का उत्तरोत्तर मानसिक विकास आवश्यक है. अन्यथा, एक विन्दु के बाद कविता अपने कर्तव्य से गिरती दिखती है, तो श्रोता-पाठक अपने मानसिक, वैचारिक, भावप्रधान विकास से वंचित रह जाते हैं.
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आदरणीय सौरभ भाई , कविता पर आपका लेख , कविता की परिभाषा से लेकर , कविता के अंग , कविता के रूप , उत्पत्ति और कवता के कार्य सभी पक्षों को तार्किक रूप से समझाने मे सफल रहा है । आदरणीय अगर -
// सपाट भावाभिव्यक्ति सहज और सुगम भले ही हो तथ्यात्मकता को संवेदनाओं का साहचर्य और संबल नहीं दे सकती //
सीखने वालों की निचली जमात मे होने के कारण, बस इस वाक्य को समझने मे मुश्किल हो रही है । सही भाव अभिव्यक्ति कैसी हो , और सपाट भाव अभिव्यक्ति कैसी होती है, एक ही भाव को, बात को दोनो ढंग से अगर बता सकें तो उपर के वाक्य का अर्थ साफ समझ आ पाता ।
आदरणीय गिरिराजभाई,
कविता के नाम पर कोरी गद्यात्मकता या निरी तुकबन्दी और सतही मात्रिकता को प्रश्रय देना सपाटबानी कहलाती है. वस्तुतः, कोई कविता तथ्य, विचार, बिम्ब, प्रतीक, शब्द, भाषा के साथ-साथ सार्थक संप्रेषण की मिलीजुली रूप होती है. आपने इसी लेख में पढ़ा होगा कि सभ्यता के उच्चतर सोपानों पर भाषा काव्यमय हो पाती है.
किन्हीं मामलों में, जैसे कि वैचारिकता की अत्यंत गहन अभिव्यक्ति के क्रम में या किन्हीं अपवाद स्वरूप बन आये कारणों के समय, कविता की भाषा सपाट हो जाती है और भली या आवश्यक भी लगती है. परन्तु, ये अपवाद के मामले हैं.
ऐसी सपाटबयानी समय-विशेष में अपरिहार्य होती हुई भी कविता के कुल-व्यवहार की भाषा नहीं बन सकती. कविता की भाषा काव्यमय ही होगी और कविता के पद्यांशों या पंक्तियों में कविताई होनी ही चाहिये.
वैसे, यह जानना रोचक होगा कि मानव समाज सभ्यता की अति उच्च दशा में साहित्यिक संप्रेषण पद्यात्मक से गद्यात्मक होने लगता है. ऐसे ऐतिहासिक उदाहरण हैं.
लेकिन ऐसा कोई गद्य सहज भाषा में न होकर वैचारिक तथा भाषाई रूप से अत्यंत क्लिष्ट गद्य होता है. ऐसा मानव-समाज मानसिक रूप से अत्यंत उन्नत जनों का समुच्चय होता है. किन्तु, ऐसी किसी दशा से पहले की गद्य-भाषा सपाट ही होती है. और कविता (काव्य) से उसकी महत्ता कमतर ही मानी जाती है.
सादर
आदरणीया वन्दनाजी, आपने इस लेख को पढ़ा और अपने बहुमूल्य विचार प्रस्तुत किये इसके लिए हार्दिक धन्यवाद कह रहा हूँ.
लेकिन पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि आपने इस लेख को निबंध मान कर पढ़ा है, जहाँ लेखक द्वारा सम्बन्धित मंतव्यों के समस्त पहलुओं की पूरी शृंखलाबद्ध वैचारिकता प्रस्तुत होती है.
कविता की उत्पत्ति के संदर्भ में आपका प्रश्न कि --'संवेदनशील हृदय की प्रधानता' और 'कल्पना' की भी भूमिका गौढ तो नहीं होती’ पर मैं यही कहूँगा कि मेरे द्वारा प्रस्तुत किये गये दोनों विन्दु कविकर्म के लिए उद्यत व्यक्तियों के लिए हैं, न कि सभी के लिए.
सभी एकाग्रसोची व्यक्ति या शाब्दिक अभ्यास करने वाले कविकर्म नहीं कर सकते यह तो लेख में मैंने पहले ही स्पष्ट कर दिया है जब यह लेख कहता है, कि भाव संप्रेषण की वह शाब्दिक दशा जो मानवीय बुद्धि के परिप्रेक्ष्य में मानवीय संवेदना को तथ्यात्मक रूप से अभिव्यक्त करे, कविता होती है. तथा भावुकता का अर्थवान स्वरूप जहाँ कविकर्म है वहीं उसकी शाब्दिक परिणति कविता.
इन वाक्यों का कुल निहितार्थ ही यही है कि सभी कविताकर्मी भावुक होते हैं लेकिन सभी भावुक व्यक्ति कविताकर्मी नहीं हो सकते. इस निहितार्थ के आगे ही कविता की उत्पत्ति के विन्दु साझा किये गये हैं. संवतः अब स्पष्ट कर पाया होऊँ.
//मानवीय संवेदनाओं को सार्थक अभिव्यक्ति नाट्यशास्त्र और इसकी विधाओं से मिली जहाँ से काव्यशास्त्र ने अपने लिए आवश्यक अवयव ग्रहण किये. इन्ही अवयवों के कारण ही प्रस्तुतियां क्लिष्ट से क्लिष्टतर होती चली गईं/.. वो अवयव कौन से?//
पुनः, आदरणीया, यह प्रस्तुति एक लेख ही है, जिसकी अपनी सीमाएँ हैं.
विशद प्रस्तुतियाँ लेख की अवधारणा अक्सर नहीं हुआ करतीं. सार्थक लेख वस्तुतः मंतव्यों को विन्दुवत रखता हुआ आगे निकलता है. उसीके अनुरूप यहाँ बातें हुई हैं. मैंने नाट्यशास्त्र पर कुछ विशेष न कह कर इंगित भर किया है.
यह सर्वमान्य है कि कविता ने नाट्यशास्त्र से अभिव्यंजनाएँ, नवरस, लाक्षणिक गुण, अलंकार, शब्द-भाव, अर्थ-भाव आदि लिया है. इन अवयवो से यह अवश्य है कि कविता का मात्र बाहरी स्वरूप ही, यानि, शिल्प ही आकार पाता है. भावाभिव्यक्ति के क्रम में भावनाओं को मिली अभिव्यक्तियाँ कविताकर्म का हेतु है.
//और प्रस्तुतियां क्लिष्ट से क्लिष्टतर होती चली गईं...कैसे मैं समझ नहीं पाई आदरणीय।//
भाव संप्रेषण ही यहाँ प्रस्तुति के रूप में इंगित है. अब आप मानवीय विकास के इतिहास को देख जाइये, कैसे संप्रेषण भित्तीचित्रों से होता हुआ शाब्दिक इंगितों के माध्यम से किस प्रारूप में आज विद्यमान है. यही कुछ कविताकर्म की अंतरधारा भी है. सामान्य अभिव्यक्तियाँ शिल्पगत अनुशासन की कसौटियों पर कसी गयीं. और उसके बाद अभिव्यक्तियाँ गूढ़ वैचारिकता को संप्रेषित करने के क्रम में शब्द-संजाल को महत्त्व देने लगी. जो आज गणीतीय चिह्नों के प्रयोग से अति क्लिष्ट हो चुकी हैं. और रचनाओं का प्रारूप एक तरीके गद्य के समानान्तर हो चला है.
यह अलग बात है कि सतही रचनाकार इस गद्यात्मकता का अपने कर्म हेतु आसान रास्ता समझ कर लापरवाह अनुकरण करते हैं. लेकिन इस विन्दु पर यहाँ और अभी नहीं.
सादर
जब ध्येय समझ विकसित करनी हो तब ये सिद्धांत/सीमायें संज्ञान में कहाँ रह पातीं ! आपकी यह प्रस्तुति है क्या, निबन्ध या लेख, इसपर पर मेरा दिमाग ही नहीं गया इसलिए आपको सही लगा आदरणीय।
आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए सादर धन्यवाद।
मतलब कविकर्म जन्मजात होता है.
सर ये क्लिष्ट से क्लिष्टतर उक्ति मुझे अब भी समझ में नहीं आयी क्योंकि विकास सदैव क्लिष्ट ही नहीं होता.
सादर...सादर
//मतलब कविकर्म जन्मजात होता है.//
एक मसल जो अक्सर प्रयुक्त होता है कि माँ शारदे की असीम कृपा बनी रहे.. इसका शायद यही अर्थ होता हो.. :-))
आप लाइटर नोट में सुनना चाहें तो मेरी व्यावहारिक समझ यही बताती है कि समाज में तीन तरह के साहित्यकार ’पाये’ जाते हैं -
१. जनमजात प्रतिभा के धनी जिनकी भावुकता समय के साथ-साथ संकेन्द्रित होती जाती है और इनकी समझ और इनके अध्ययन का प्रभाव साहित्य क्षेत्र में चमत्कार का कारण होता है. जो ऐसी लीक खींचते हैं जिनका अनुसरण भविष्य करता है. ये वास्तविक साहित्यकार होते हैं.
२. थोड़ी-बहुत प्रतिभा के धनी जो अपनी सतत संलग्नता, दीर्घकालिक प्रयास और अपने विशद अध्ययन के बल पर साहित्याकाश में उड़ता दिखते हैं. इनकी उपस्थिति भी साहित्य को यथोचित रूप से, तो कई बार समुचित रूप समृद्ध करती है.
३. अत्यल्प प्रतिभा के धनी जो अपनी पहुँच, अपने सटीक संपर्क और बूझ-अबूझ सम्बन्धों के सहारे साहित्याकाश में ऊँचाइयाँ नापते दिखते हैं. इनमें से कई यों ही कुछ अधिक जमे रह जाते हैं तो आगे चल कर तुरुप के पत्ते साबित होते हैं, जो साहित्यिक-क्षेत्र के हर काल-अवसर-अर्थ के अनुसार स्वयं को ढालते हुए साहित्याकाश को ’घोंटते’ हुए दिखते हैं. कइयो को आगे चल कर कई महान साहित्यिक आयोजनों और पुरस्कारों का लाभकर्ता के रूप में समाज देखता-पाता है. इनमें से अक्सर सभी को कई जानी-अनजानी कृतियों को संभव कर पाने का अभिनव श्रेय मिल चुका होता है !
अब बताइये, कोई है जो मेरे उपरोक्त विचारों से असहमत हो ? .. हा हा हा हा... . :-))))
//क्लिष्ट से क्लिष्टतर उक्ति मुझे अब भी समझ में नहीं आयी क्योंकि विकास सदैव क्लिष्ट ही नहीं होता.//
आप क्लिष्ट से क्लिष्टतर वाले क्लॉज को अन्यथा अतिक्लिष्ट करती जा रही हैं. .. हा हा हा हा..
मैंने तो संप्रेषणीयता, जो कि रचनाकर्म का मूल है, के संदर्भ में एक पंक्ति मात्र साझा किया है.
भित्तिचित्रों से अभिव्यक्त हुई ’तबकी’ ’रचनाधर्मिता’ शब्दों और भाषाओं के गठन के साथ-साथ क्लिष्ट ही तो होती गयी ! अब आप गहन प्रस्तुतियों को भी अपनी समझ से सरल हुआ देख पाती हैं, तो यह आपकी जन्मजात प्रतिभा ही है न ! अन्यथा, कई-कई साहित्यकारों को हमने एक पाठक के रूप में कई-कई प्रस्तुतियों पर हठात् अँटकते-लसरते भी देखा है. अपने भी देखा होगा ! .. :-))))
वैसे आपसे मिले कई टिप्स मेरी इस प्रस्तुति को समृद्ध कर रही हैं और आने वाले समय में तदनुरूप सुधार भी कर लूँगा ताकि इस आलेख की प्रासंगिकता बहुमुखी हो.
इसके लिए वास्तव में आपको हार्दिक धन्यवाद कह रहा हूँ.
सादर
असहमत क्या इतना कहूंगी आदरणीय यदि इस मंच का सदस्य होना और कुछ टूटी फूटी रचनाएँ प्रस्तुत करसीखना ध्येय बनाकर चलने को,साहित्यकार मनवाने का दावा माना जाता हो तो मैं quit करना उचित समझूँगी,क्योंकि इससे भी नीचे कई भेद बनाये जाये,साहित्यकारों के,उनमे शायद मैं शरीक़ हो पाऊं!
हा हा हा...(आपके सुर में सुर मिलाते हुए)
मुझे एक बात समझ में आती है आदरणीय जबतक कोई तथ्य समझ में नहीं आता तब तक वो क्लिष्ट से क्लिष्ट तर ही होता जाता है,भले अभिव्यक्त न किया जाये,आपको अन्यथा लगा,इसके लिए मैं क्या कहूँ सर!
ये जन्मजात प्रतिभा भले न हो पर कोई बात जबतक भेजे में घुसती तबतक प्रश्नों की धुंध मुझे घेरे रहती है,हा हा हा.. ये जन्मजात जरुर है।
आपकी विनोदी प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
स्नेह बनाये रखें आदरणीय.
सादर:):)
आदरणीया वन्दना जी , एक बात सोच के देखिये , जब कोई फूल खिलता है तो बस खिलता है , इसलिये कि उसे वो वातावरण मिला है जिसमे वो खिल सके , और खिलने की क्षमता उसके अन्दर है । सुगन्ध भी वह इंगित करके नही बिखेरता , स्वाभाविक रूप से सबके लिये बिखेरता है । इस बात से उसे कोई मतलब नही होता कि वनस्पति शास्त्री उसे किस केटेगरी मे रखेंगे , उसका नाम क्या रखा जायेगा , रखा जायेगा या नही । ये काम तो वनस्पति शास्त्री का है , वो अपना काम अपने ढंग से करेंगे , फूल को अपनी स्वाभाविकता से खिलते रहना चाहिये ।
कबीर दास जी ने एक बार खुद के लिये कहा था , " मसि कागद छुये नही , कलम गह्यो नही हाथ " । वो अपनी स्वाभाविकता से दोहे कह देते थे , आज जानकार उनके दोहो को रहस्यवादी भी बताते हैं । पर स्वयम कबीर दास जी क्या ये बात जानते थे कि मेरे दोहे रहस्य वादी श्रेणी के है । आज उनके एक दोहे के एक लाइन " गूंगे केरी शरकरा " पर पूरी किताब लिखी गई है ॥
जब तक कोई बात आपके अन्दर है , वो आपकी है , जब बाहर आगई तो वो आपकी नही रहेगी , जानकार उसे अपने अनुसार पढेंगे , अर्थ लगायेंगे , आलोचना , समालोचना करेंगे , और श्रेणियाँ भी तय करेंगे । ये भी अपनी जगह जरूरी है , ये उनका धर्म है , उनका अधिकार है । मुझे नही लगता इससे सहमत या असहमत होने की कोई आवश्यकता है । हमे अपने रचना कर्म को केन्द मे रखना चाहिये ।
मै खुद 60 साल की उम्र मे गज़ल सीखने की शुरुवात किया हूँ , और प्रयास रत हूँ , बाक़ी काम गुरू जनों और जानकारों है ॥ अगर कुछ सार्थक कह पाया तो ध्यान दीजियेगा अन्यथा छोड़ दीजियेगा ॥ सादर॥
आदरणीय भंडारी जी क्षमाप्रार्थी हूँ जो आपकी इतनी आत्मीय और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया तक मैं विलम्ब से पहुंची।
मुझे आपकी बात बहुत सार्थक लगी आदरनीय, जो स्वछन्द रचनाकर्म को प्रेरित भी कर रही है...
स्नेहात्मक प्रतिक्रिया के लिए आपका आभार।
सादर
आदरणीय गिरिराजजी,
आपका कहना बिल्कुल सही है कि फूल मात्र खिलता है. अपने खिलने की वह स्वयं व्याख्या नहीं करता. समस्त उपलब्धियाँ अनायास ही होती हैं. उसके बाद ही समस्त उपलब्धियों को सूचीबद्ध कर उनकी श्रेणियाँ बनायी जाती हैं.
आपके संदर्भ से यह प्रश्न अवश्य उठता है कि आखिर इन श्रेणियों और उनके अनुसार नियमों की फिर आवश्यकता ही क्यों पड़ी जब ’कबीर जैसों को जो करना था कर गये, आगे समस्त अर्थ निकाले गये’ ?
तो इसका मुख्य कारण यही है कि समस्त संप्रेषणों को संयत कर समाज को उनकी महत्ता बताना है, साथ ही साथ, वैज्ञानिक समझ को विकसित करना है. ताकि मानव समुदाय का एक बहुत-बहुत बड़ा वर्ग सार्थक रूप से लाभान्वित हो सके. इसी क्रम में हमें सदा याद रखना होगा कि भाषाएँ पहले बनती हैं और व्याकरण बद में निरधारित होते हैं. साधनायें मूल हैं, नियमादि और उसके फलाफल की कसौटी बाद की प्रक्रिया हैं. लेकिन उस समुदाय के बाद के समस्त सदस्यों से अपेक्षा रहती है कि उन नियमों का शिष्टवत पालन करे. सभ्यता के विकास का यही मूल है. ध्वनियों को रूढ़ि बना कर शब्द पहलेधारे जाते हैं उसके बाद ही वाक्य आदि की अवधारणा जन्म लेती है. और उनके संयत होने के बाद भाषा का निर्धारण होता है जिसपर व्याकरण की कसौटी साधी जाती है.
लगभग हर आविष्कार अनायास होता है किन्तु बाद में उनके बरतने की प्रक्रिया को साध कर नियमबद्ध किया जाता है.
इसे ऐसे समझें कि मेरे कहे का बहुत बड़ा भाग आध्यात्मपरक अनुभूतियों और उसकी नियमावलियों से तौल सकते हैं जहाँ प्रत्येक पाद पर सभी प्रयोगकर्ताओं और अनुभूति-संप्रेषणर्ताओं की अनुभूतियाँ एक तरह की ही होती हैं, जिनके आधार पर बाद में सूत्र स्थापित कर दिये जाते हैं ताकि बाद के अभ्यासकर्ताओं के लिए सारा प्रयास सूत्रवत सधा रहे.
यही कुछ समस्त मानवीय समझ पर आधारित प्रक्रियाओं के साथ होता है, जहाँ भाषा और उसके संप्रेषण भी अछूते नहीं हो सकते. काव्य एक् संप्रेषण ही तो है.
सादर
आदरणीय सौरभ भाई , आपका बहुत शुक्रिया , आपने मेरे अधकचरे प्रश्न का भी उत्तर दिया , कुछ समझ ज़रूर बढी । आदरणीय ऐसे ही कभी उदाहरणो के माध्यम से भी आम तौर पर होने वाली गलतियों पर और उन्हे सुधारने के तरीकों पर भी प्रकाश डालें । हमारे जैसे एकदम नौसीखियों के लिये बहुत बड़ा सहारा होगा । एक ही भाव को व्यक्त ,अलग अलग ढंग से व्यक्त करके , बिम्बों के साथ , बिना बिम्ब के , दोष युक्त कहन भी हो , फिर उसे ही सुधार कर भी कहा गया हो , आदि आदि । इसके लिये इस लेख मे अनुरोध नही कर रहा हूँ , लेकिन एक ऐसे ही दूसरे लेख के लिये आपने अनुरोध ज़रूर सभी नौ सीखियों की ओर से कर रहा हूँ । सादर ।
आदरणीय गिरिराजभाई, अधकचरा तो खैर कुछ भी नहीं होता, जबतक कि किसी प्रयोजन का उपादेय ही निरर्थक साबित न हो जाय.
आपनेमुझसे जो कुछ अपेक्षा की है, आदरणीय, वह किसी कार्यशाला, यानि वर्कशॉप, का हिस्सा है, जिसके लिए इस मंच पर पहले से ही तीन-तीन आयोजन चल रहे हैं. लेकिन ऐसे प्रयास एकांगी नहीं होते.
उधर आयोजनों को लेकर भी कई दिक्कते हैं. आयोजनों को लेकर कई सदस्यों ने अपने-अपने ढंग से अपनी-अपनी कैटेगरियाँ बना ली हैं. कि, मात्र ग़ज़ल के आयोजन में ही हिस्सा लेंगे, तो कुछ मात्र महोत्सव में ही हिस्सा लेते हैं. फिर, कई छंदोत्सव में हिस्सा लेते भी हैं तो विधान के विन्दु साझा होते रहने के बावज़ूद एक ही विलम्बित सुर (गलतियाँ पढ़िये) को साधे चले जा रहे हैं.
ख़ैर, आपने उत्सुकता दिखायी है तो शायद एक सकारात्मक माहौल बने.
सादर
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