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ओ बी ओ लखनऊ चैप्टर की मासिक गोष्ठी

 

विवार दिनांक 22.06.2014 को 37, रोहतास एंक्लेव, फैज़ाबाद रोड स्थित स्थान पर इस महीने की गोष्ठी का आयोजन किया गया था. आदरणीय मधुकर अष्ठाना जी की अध्यक्षता और कानपुर से आए हुए वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय कन्हैयालाल शुक्ल ‘सलिल’ जी की विशिष्ट उपस्थिति ने इस आयोजन को एक विशेष गरिमा प्रदान की. पूरा कार्यक्रम दो सत्रों में बँटा हुआ था. पहले सत्र में हिंदी साहित्य में पठनीयता की कमी – एक विमर्श  विषय पर उपस्थित विद्वद्जनों ने अपने विचार प्रस्तुत किए.

 

उक्त विमर्श का श्री गणेश करते हुए आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने हिंदी साहित्य के इतिहास पर थोड़ा प्रकाश डाला. आज हिंदी साहित्य की पठनीयता में जो कमी हो गयी है उसके लिए मुख्यत: उन्होंने सिनेमा, टी.वी., इंटरनेट के प्रभाव को दोषी पाया. निवारण स्वरूप वे कहते हैं कि साहित्यकारों को इस विषय में सचेत रहकर गम्भीरता से कार्य करना पड़ेगा.

 

आदरणीया संध्या सिंह ने भी इसी प्रकार के विचार प्रस्तुत किए. उनके अनुसार ग्लैमर की दुनिया से आज के युवा बहुत प्रभावित हैं तथा बच्चों में हिंदी के प्रति अरुचि होने के साथ ही गूढ़ साहित्य की भी कमी है. अत: परिस्थिति में सुधार लाने के लिए साहित्यकार को अहम् भूमिका निभानी पड़ेगी.

 

भाई बृजेश नीरज ने कहा कि हिंदी हमारे देश में राष्ट्रभाषा होते हुए भी दूसरे दर्जे की भाषा है. वे कहते हैं कि यह व्यापार का युग है. स्त्री विमर्श और भ्रष्टाचार की बातें तो होती हैं पर अमल कोई नहीं करता. अभिजात्य वर्ग के लोग हिंदी बोलने में शर्म महसूस करते हैं. सबके सम्मिलित प्रयास से ही हिंदी की उन्नति सम्भव है.

 

आदरणीया सीमा अग्रवाल ने अच्छी पत्रिकाओं की कमी की ओर ध्यान आकर्षित किया. उनका मानना है कि हमें समय के साथ तो चलना होगा परंतु घर में अच्छी किताबों और पत्रिकाओं का होना आवश्यक है. यदि साहित्यकार इन्हें समाज में उपलब्ध नहीं कराता तो पाठक को दोष नहीं दिया जा सकता.

 

आदरणीय मधुकर अष्ठाना जी ने कहा कि हम जो कुछ लिखते हैं उसका आँकलन नहीं करते. जिसका जो मन में आया लिख देता है. साहित्य वही है जो आम जनता की मांग को समझे. इसलिए साहित्यकारों को ऐसी रचना लिखनी है जिससे लोगों में हिंदी के प्रति अनुराग पैदा हो.

ऐसे ही विचारों की प्रतिध्वनि मिली आदरणीय कन्हैयालाल गुप्त ‘सलिल’ जी के वक्तव्य में. उन्होंने कहा कि पठनीयता धीरे-धीरे समाप्त होने के पीछे आज के हिंदी साहित्य का साधारणीकरण और उसके सम्प्रेषणीयता का अभाव है. वे भी यही मानते हैं कि साहित्य को जन-जन तक पहुँचाना चाहिए. इसके लिए पुस्तकों का सहज लभ्य होना आवश्यक है और यह काम प्रकाशक को पुस्तक का मूल्य सीमित रखकर करना होगा. रचनाकार भी अपनी पुस्तकों को सुधी पाठक तक बिना मूल्य अथवा अल्प मूल्य में पहुँचाकर अच्छे हिंदी साहित्य की पठनीयता में बहुमूल्य योगदान दे सकते हैं.

 

डॉ शरदिंदु मुकर्जी ने प्रश्न उठाया कि क्या हम एक नयी पीढ़ी को तैयार कर रहे हैं जो हिंदी और हिंदी साहित्य के प्रति आकर्षित हो? उनका कहना है कि हमें अपने ही घरों में बच्चों के मन में हिंदी के प्रति लगाव का वातावरण बनाना पड़ेगा. आज के पिता-माता का यह बहुत बड़ा दायित्व है. वे मानते हैं कि आधुनिकता को नकारा नहीं जा सकता लेकिन अनुशासित शिक्षा पद्धति, जिसे घर में लागू किया जा सकता है, द्वारा नियमित रूप से प्रतिदिन बच्चों को साहित्य के प्रति आकर्षित किया जा सकता है. फिर पठनीयता भी बढ़ेगी और आने वाले समय में साहित्य का स्तर भी ऊपर उठेगा. बच्चों को लगभग अबोध अवस्था से ही ऐसा माहौल मिलना चाहिए जिससे वे जीवन की अन्य उपलब्धियों के समानांतर अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा का सम्मान करना सीखें.

 

अंत में भाई धीरज मिश्र ने सकारात्मक विचार रखते हुए कहा “आप अच्छा लिखिये. पढ़ने वाले मिल ही जाएंगे. साहित्य सिर्फ़ बाँटने के लिये ही नहीं है. रचनाकार की मेहनत को दृष्टि में रखना चाहिये. उसकी कदर होनी चाहिये. बहुत से रचनाकारों की यही रोज़ी-रोटी है अत: आवश्यक नहीं कि पुस्तक बिना मूल्य लिए वितरित किए जाएँ.” वे कहते हैं कि फ़ेसबुक भी रचनाओं के प्रचार-प्रसार का अच्छा माध्यम है लेकिन आवश्यक है कि स्तरीय रचनाएँ लिखी जाएँ.

आयोजन के दूसरे सत्र में काव्य पाठ हुआ. कुछ पंक्तियाँ देखें :

 

“जन्म की खुशी
प्रसव की पीड़ा से उपजी..........
..........
राम नाम का ज्ञान
मरा में छिपा मिला था” -----प्रदीप शुक्ल

 

“आँसुओं का सिला नहीं मिलता
कोई भी बावफ़ा नहीं मिलता” --------धीरज मिश्र

 

“मेरे पाँव में आवारगी है
मुझे संसार नापना है” ---------संध्या सिंह

 

“व्योम के पास चाँद मचला बहुत
पर निकलते निकलते सुबह हो गयी” ---------मनोज शुक्ल ‘मनुज’

 

“पीर न होती, प्यार न होता
यह जग खारा-खारा होता
मधुर गीत कैसे रच पाते
शब्द शब्द आवारा होता” ----------कन्हैयालाल गुप्त ‘सलिल’

 

“बहुत पुराना ख़त हाथों में है
लेकिन,
खुशबू अब तक
बाकी है संवादों की” ------------सीमा अग्रवाल

 

“कभी-कभी
खामोश हो जाते हैं शब्द
जीवन में कब
अपना चाहा होता है सब” ---------बृजेश नीरज

 

“कौन कहता है
मैं कवि हूँ और वह नहीं ?
मैं पेट भर खाने के बाद
बरामदे की गुनगुनी धूप में बैठा हूँ
प्रकृति दर्शन के लिए –
वह,
भूखे पेट
एक कटी पतंग की डोर थामने
आसमान की ओर बेतहाशा भागा जा रहा है” -----------शरदिंदु मुकर्जी

 

“एक शरीर से
कई ज़िंदगियाँ जी कर
मैंने देखा
एक और क्षितिज भी है-
बहुत दिनों बाद” ---------कुंती मुकर्जी

 

“मूल्य का हर हृदय में क्षरण हो गया
लड़खड़ाता चरण आचरण हो गया” -----------मधुकर अष्ठाना

 

इनके अतिरिक्त सर्वश्री केवल प्रसाद ‘सत्यम’, प्रमोद द्विवेदी, नवीन मणि त्रिपाठी, राहुल देव, गोपाल नारायन श्रीवास्तव, आशुतोष बाजपेयी और सुश्री अन्नपूर्णा बाजपेयी ने भी अपनी रचनाओं का पाठ किया.

पूरे कार्यक्रम का अत्यंत सफल संचालन किया आदरणीय मनोज शुक्ल ‘मनुज’ ने.

तपती शाम में आंधी और बारिश ने भी कविता और शायरी का आनंद उठाया. शरदिंदु मुकर्जी द्वारा धन्यवाद ज्ञापन के साथ ही औपचारिक ढंग से आयोजन को पूर्णता मिली.

विशेष : ओ.बी.ओ. लखनऊ चैप्टर ने पिछले एक वर्ष के दौरान प्रति माह स्तरीय काव्य गोष्ठी का आयोजन करते हुए बहुत से नवोदित तथा वरिष्ठ रचनाकारों को एक मंच पर आने का अवसर दिया है. संयोजक शरदिंदु मुकर्जी ने इस संस्था को सुष्ठु ढंग से आगे ले जाने के लिए चैप्टर की औपचारिक सदस्यता ग्रहण करने हेतु उपस्थित सभी से आग्रह किया. लगभग 12 सदस्यों ने तुरंत सदस्यता ग्रहण करके अपना सहयोग दिया.

इति,
कुंती मुकर्जी.
37, रोहतास एंक्लेव,
फैज़ाबाद रोड, लखनऊ-226016.
मोबाईल : 9935394949.

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मासिक कवि गोष्ठी की विस्तृत रिपोर्ट बिंदुवत वक्तव्यों के साथ साझा करने के लिए आ0 कुंती दीदी को हार्दिक बधाई , बहुत अच्छा आयोजन रहा और सबसे मिल कर मन प्रसन्न हो गया । 

महनीया  कुंती जी की ब्रीफिंग से वह सारा माहौल एक बार फिर मेरी आँखों के सामने कौंध सा गया i  इतने सुन्दर आकलन के लिए उन्हें भूरि भूरि बधाई i

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