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ग़ज़ल - रोज़ करवट हम बदल के देखते हैं ( गिरिराज भंडारी )

2122    2122      2122 

 

नाम  अपना  चल  बदल  के देखते हैं

घेरे से  बाहर  निकल  के  देखते   हैं

 

चाँद  सुनता  हूँ  कि थोड़ा पास आया

आ  ज़रा  फिर से  उछल के देखते हैं

 

पैरों  को  मज़बूतियाँ  भी  चाहिये कुछ

चल  ज़रा  काटों पे चल  के  देखते हैं

 

रोशनी  की  चाह में तो  हैं  बहुत, पर 

कितने हैं ? जो ख़ुद भी जल के देखते हैं 

 

कुछ मज़ा फिसलन में है,गर है यक़ीं तो  

हम  कभी  यूँ  ही  फिसल के देखते हैं

                                              

ख़्वाब  शायद  हो सुनहरा, क़िस्मतों में

रोज़  करवट  हम  बदल  के  देखते हैं

 

बह  के  जाने का  कहाँ  तक दायरा है

आ  किसी दिन हम पिघल के देखते हैं 

 

क्या  ख़रीदें ,  हम  बजारों  में हमेशा

जेब खाली , बस  टहल  के  देखते  हैं 

 

बचपने की फिर उन्हीं खुशियों की खातिर 

हम  भी  बच्चों  सा  मचल के देखते हैं  

 

आधुनिकता  क्या  बला है  जान तो लें 

एक दिन आ , हम भी  ढल के देखते हैं

 

शर्म  जैसी  बात  बरसों  से  नहीं पर

आज  भी ‘ उनको ’ सँभल के देखते हैं

************************************ 

मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 21, 2014 at 11:26pm

आपही का आपही को समर्पित .. .

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 21, 2014 at 11:16pm

आदरनीय सौरभ भाई , अपना किया भुगतने के लिये हमेशा तैयार हूँ ॥ क्षमा चाहूंगा अब की आपको वो संतुष्टि नही दे पाया ॥ आगे प्रयास रत रहूंगा ॥

इज़ाजत हो तो आपका सुझाया मतला मै ले लूँ ?

यथोचित सलाह के लिये आपका आभारी हूँ ॥


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 21, 2014 at 2:43am

आदरणीय गिरिराज भाई, इस ग़ज़ल पर सही कहूँ ? .. वो मजा नहीं आया जैसा कि आपकी पिछली कुछ ग़ज़लों में मैंने लिया है.
कुल मिला कर आदत खराब आपने की है, तो भुगतेगा कौन ? .. सो, भुगतिये. ..  :-)))

भाई, ऐसा लगता है, यह ग़ज़ल पूरी पकने के पहले ही उतार ली गयी बिरयानी की तरह सामने आ गयी है. जबकि इसे मद्धिम आँच पर कुछ देर और पकना था.

देखिये न, जान तो है मतले में. मगर मैं इस निहायत ज़िन्दा सोच को कुछ और आयाम देने की कोशिश करता.

केन्द्र अब अपना बदल के देखते हैं
वृत्त से बाहर निकल के देखते हैं..  .. हा हा हा हा...  :-)))

बहरहाल, प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीय.
शुभेच्छाएँ

Comment by Zaif on July 17, 2014 at 6:37pm
छा गये सर जी, बहुत उम्दा।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 14, 2014 at 8:54pm

आदरणीय जवाहर भाई , ग़ज़ल की रारीफ के लिये आपका बहुत शुक्रिया ॥

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on July 14, 2014 at 8:16pm

एक से बढ़कर एक शेर आदरणीय गिरिराज भडारी साहब!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 13, 2014 at 5:26pm

आदरणीय बड़े भाई विजय जी , आपकी सराहना ने गज़ल कहना सार्थक कर दिया ॥ उत्साह वर्ध न के लिये आपका हार्दिक आभार ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 13, 2014 at 5:24pm

आदरणीय जितेन्द्र भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका तहेदिल से शुक्रिया ॥

Comment by vijay nikore on July 13, 2014 at 4:49pm

सभी शेर एक से एक बढ़ कर... हर शेर पर दाद , भाई गिरिराज जी।

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 13, 2014 at 9:45am

बहुत ही खुबसूरत गजल आदरणीय गिरिराज जी, एक एक शेर बहुत खूब हुआ . दिली बधाइयाँ लीजियेगा

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