हिन्दी के नवोदित कवि एवं कथाकार राहुल देव (ज0 1988 - )का प्रथम कथा-संग्रह “अनाहत एवं अन्य कहानियां” अभी-अभी पढ़कर पाठ समाप्त किया है और मेरा मन मेरे कानों में धीरे से सरगोशी करता है –‘ कुछ तो कह’ I अतः मन के हाथों विवश होकर मैं प्रमाता के सम्मुख सादर प्रस्तुत हूँ I संग्रह का कलेवर अधिक बड़ा नहीं है i इसमें कुल अस्सी पृष्ठ हैं I इनमे भी आशीषदाताओं के पृष्ठ निकाल दिए जायं तो संग्रह की नौ कहानियां मात्र साठ पृष्ठों में सीमित हैं I
संग्रह के पीछे राहुल देव के संक्षिप्त परिचय के ब्याज से पाठक इस सत्य से अभिज्ञ होते हैं कि इस उदीयमान कथाकार की आयु मात्र सत्ताईस वर्ष है I इस आयु में अपने साहित्यिक उर्जस्विता के बल पर तीन –तीन महत्वपूर्ण पुरस्कार अब तक वे अर्जित कर चुके है I यह कोई साधारण बात नही है i नव-लेखन पुरस्कार तो स्वयम् उ०प्र० के तत्कालीन राज्यपाल माननीय विष्णुकान्त शास्त्री ने अपने हाथो राहुल देव को प्रदान किया है I
साहित्य के वयोवृद्ध पुरोधा भलीभांति जानते है की कोई भी पौधा रातो –रत महाविटप नहीं बनता I सालो-साल लू-धूप, हवा, ओले, बरसात तथा आंधियो के बहुत से थपेड़े खाने के बाद किसी पादप को महाकार मिलता है I यही बात राहुल देव के बारे में भी विचारणीय है I साहित्य–जगत में अभी उनका शैशव- काल चल रहा है I परन्तु ख्यात है कि- ”होनहार बिरवान के होत चीकने पात” I यह कहावत इस उदीयमान कथाकार पर पूरी तरह से लागू होती है I मैं इन शब्दों से यह नहीं जतलाना चाहता कि राहुल देव की कहानियां निर्दोष हैं और वे कथा के अनिवार्य तत्वों की कसौटी पर खरी उतरती हैं I किन्तु सत्ताईस वर्ष की आयु का जो सामान्य लेखन है उससे राहुल देव कही आगे हैं I
प्रख्यात महिला कथाकार शिवानी की “सती” नामक कहानी हिन्दी प्रेमियों ने अवश्य पढ़ी होगी I इस संग्रह की पहली कहानी ‘मायापुरी ‘ शिवानी की इसी ‘सती’ कथा से अनुप्राणित है I हमने प्रायः रेल के कम्पार्टमेंट या स्टेशनों पर यह ‘काशन’ अवश्य पढ़ा होगा कि –‘अजनबियों से खाने –पीने की वस्तु न लें i’ परन्तु दोनों ही कहानियो में इस ‘काशन’ का अनुपालन नही हुआ या फिर यूँ कहे कि शिकारी का जाल इतना मोहक एवं मधुर था कि पात्र उसके धोखे में आ गए और अपनी धन-संपत्ति गवां बैठे I ‘मायापुरी’ कहानी की विवशता यह है तुलनात्मक दृष्टि से की यह ‘सती‘ जैसी कहानी के शिल्प और संगठन के मुकाबिल है i किन्तु बात फिर वही आती है – शैशव अजान है और यौवन उद्दाम I ‘मायापुरी ‘ कहानी वही समाप्त हो जाती है जहाँ लेखक स्वयं को हास्पिटल में पाता है और उसके पास घर लौटने तक के पैसे नही है I इसी द्वन्द पर कहानी थमनी चाहिए थी पर लेखक ने इसे और आगे बढाया I प्रेमचंद ने कहा है की कोई आख्यायिका कभी समाप्त नहीं होती अपितु उसे एक नाजुक मोड़ पर समाप्त करना होता है, जैसा की राहुलदेव ने “अनाहत” कहानी में किया i यदि लेखक “अनाहत” में नायक और नायिका के मिलन का अवसर तलाशता तो कहानी वहीं बे-मायने हो जाती I
संग्रह की दूसरी कहानी ’विजया‘ का भाव-पक्ष बहुत ही सशक्त है I किन्तु इसके कथानक में नयापन नहीं है और बालीवुड की तमाम फिल्मे इस विषय पर बन चुकी है I कहानी को निगति देने में यहाँ भी कुछ अधिक समय लिया गया है I विजया के आत्म-निर्णय के बाद विस्तार आवश्यक नहीं था I “परिणय” कहानी का कथानक भी आजमाया हुआ है I इस कहानी में रहस्य (सस्पेंस) को बरक़रार रखने की आवश्यकता था और एक अच्छा शिल्प इस कार्य को अंजाम दे सकता था I परन्तु यहाँ कथा पढ़ते-पढ़ते ही यह आभास हो जाता है कि विवाह के उपरान्त नायिका पति के रूप में अपने प्रेमी से ही मिलने वाली है I यह कथानक तब और बेहतर होता जब नायक और नायिका दोनो ही सस्पेंस में रहते I राहुल की रचनाधर्मिता में एक प्रवाह अवश्य देखने को मिलता है जो भविष्य के लिए शुभ लक्षण है I
गीता में एक श्लोक है – “य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्। उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते I” इसी का आलंबन लेकर राहुल देव ने “नायं हन्ति न हन्यते” शीर्षक से एक कहानी का सृजन किया है I यह कहानी किसी शिष्य द्वारा अपने सबसे आदर्श शिक्षक को दी गयी एक श्रृद्धांजलि की भांति है I कथाकार ने शिक्षक के के चरित्र का निर्माण जिस आदर्श रूप में किया है, उसमे यथार्थवादी दृष्टिकोण की अपेक्षा कल्पना के चटकीले रंगो का उपयोग अधिक हुआ हैं i परन्तु कथा में गुरु के प्रति शिष्य का भाव–मार्दव प्रभावित अवश्य करता है I इस संग्रह की “परिवर्तन “ कहानी पढ़कर महाप्राण निराला की कथा “बिल्लेसुर बकरिहा “ की याद ताजा हो जाती है I निराला की कहानीमे एक दरिद्र ब्राह्मण जो हर जगह दुत्कारे जाते थे उन्होंने गरीबी से तंग आकर बकरी पालने का निकृष्ट धंधा शुरू किया i लेकिन इस व्यापार में उन्हें इतना लाभ मिला कि उन्होंने गाँव में शंकर भगवान् का एक मंदिर बिल्लेश्वर बनवाया और सारे जंवार में ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ के नाम से पूजे जाने लगे I लोक-मानस का ऐसा ही भाव परिवर्तन इस कहानी मे तब होता है जब कथानायक मिलेटरी का ओहदेदार बनकर गाँव वापस आता है और अपने पिता को गौरवान्वित करता है I “एक टुकड़ा सुख “ कहानी में riches to rags अर्थात धनाढ्य से दरिद्र हो जाने की करुण गाथा है i कथाकार ने इसमें भूख को इस सीमा तक खींचा है की कथा की स्वाभाविकता आहत सी हो गयी है i बेटी को बासी रोटी और नमक के रूप में एक टुकड़ा सुख मिला और दम्पति को बेटी की क्षणिक तृप्ति से एक टुकड़ा सुख मिला I इस कहानी को पढकर जैनेन्द्र कुमार की कहानी “अपना अपना भाग्य” की याद आती है I आलोच्य कहानी में विस्तार का व्यामोह छोड़कर यथार्थ पर अधिक ध्यान देना अपेक्षित था I “हरियाली और बचपन “ में कविता जैसी भावुकता है I इस कहानी का सन्देश या उद्देश्य अधिक प्रांजल नहीं है I कथाकार मानो अपने जीवन की कोई भाव-भीनी घटना पाठक से साझा करना चाहता है I
“अनाहत“ संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कहानी है पर इसका शीर्षक कहानी के तारतम्य में फिट नहीं बैठता I शब्द-योग में अनाहत एक ऐसा नाद है जो अप्रतिहत है , जिसका नाश नहीं है I सामान्य अर्थ में अनाहत उसे कहते है जो आहत न हों i किन्तु कथान्त में नायक और नायिका दोनो ही आहत दिखते है I दोनो को एक ही प्रकार का क्षोभ है I इस कहानी को यदि सही उपचार मिलता तो एह एक स्तरीय कहानी हो सकती थी i फिर भी इसके संगठन में राहुलदेव का परिश्रम नुमायाँ होता है I
संग्रह की अंतिम कहानी “रांग नंबर” की थीम बिलकुल टटकी है और अच्छा सन्देश भी देती है I एक अपरिचित काल (call) किस प्रकार पथभ्रष्ट कथानायक के जीवन मे परिवर्तन लाती है , यही इस कथा का मूल है i राहुल देव का कथाकार इस कहानी मे उभर कर आया है I इस संग्रह की सभी कहानियों के विहगावलोकन से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि राहुल देव में एक अच्छे कथाकार की सभी सम्भावनाये विद्यमान है i अभी उन्हें भाषा के स्तर पर संयम से काम लेना है और बोल-चाल की सतही भाषा सी परहेज करना है I कहानी के ट्रीटमेंट में भी अभी सुधार की काफी आवश्यकता है I पर यह समय और अनुभव के साथ धीरे-धीरे उनकी कहानियों में संवर्धित होता रहेगा i उनकी आयु को देखते हुए केवल ट्रीटमेंट को लेकर उनके इस संग्रह को बरतरफ नहीं किया जा सकता I मेरी दृष्टि में राहुलदेव कथा-साहित्य की नयी संभावना के अन्यतम पर्याय हैं I
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(मौलिक व् अप्रकाशित )
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इस समूह में समीक्षा संदर्भ के कुछ लेख हैं, उन्हें तथा उनपर आयी प्रतिक्रियाओं को पढ़ लेना आवश्यक होगा.
सादर
आदरणीय सौरभ जी
मैं आपके कथन से सहमत हूँ . संभव है की नव लेखन को प्रोत्साहित करने में कुछ अतिरंजना हुयी हो पर मैंने खामियों पर भी प्रकाश डाला है और आलोचना को बैलेंस करने की कोशिश की है I असत्य कुछ भी नहीं लिखा i हाँ एक साफ्ट कार्नर अवश्य रहा और इस बात का ध्यान भी रखा कि नव लेखन आहत न हो जाये . I मुझे यह लगता है कि शीर्षक में अतिरंजना अवश्य हई है I आपका कथन सदैवमेरा पथ प्रशस्त करता है और आज यहाँ भी कुछ सीख रहां हूँ i आप सही मायनी में एक गाईड और शुभचिंतक है और .तदैव मेरे हृदय में आपके प्रति अगाह सम्मान भी है . सादर .
आदरणीय गोपाल नारायनजी, बिना आपकी समीक्षा पूरी पढ़े मैंने अपनी प्रतिक्रिया नहीं दी है. अतः आप समीक्षा में क्या है को लेकर पुनर्संदर्भित न हों.
आपका किसी के प्रति बना सॉफ़्टकॉर्नर साहित्य के लिहाज से किसी काम नहीं है.
हम आप किसी को एक व्यक्ति के तौर पर चाहे जितना मान दें, उसका प्रतिफल सकारात्मक कभी नहीं होगा, यदि उसकी अपनी क्षमता संदर्भित नहीं होगी. अतः मैं किसी को उसके कार्य और उसकी संलग्नता के लिए ही मान देता हूँ.
आदरणीय, कई तरह के संपर्कों तथा किसी मंच की सहानुभूति से कोई कालजयी साहित्यकार नहीं हो जाता. प्रोत्साहन और अनावश्यक महिमा-मण्डन में अंतर एक समीक्षक को समझना आवश्यक है. मेरा बस इतना निवेदन है,
सादर
जो आज्ञा आदरणीय ,. मुझे यह सन्देश मिल रहा है कि ऐसी नव रचनाओ की समीक्षा से ही बचा जाए i सादर i .
मेरे सन्देश पर बनी आपकी समझ पर अब क्या कह सकता हूँ, आदरणीय ? हाँ, यह अवश्य है कि आप तक गलत फ्रीक्वेंसी पहुँच रही है.. वर्ना सन्देश तो स्पष्ट था..
वैसे भी इतिहास गवाह है, आप मेरे तथ्यों को तुरत स्वीकार नहीं करते या मेरे कहे को पहले कई आयाम दे लेते हैं. यहआपका अपना तरीका रहा है.. मैं आपके इस गुण को भी हृदयतल से सम्मान देता हूँ ..
वस्तुतः यह सीखने-सिखाने का मंच है..
:-)))
सादर i ससम्मान . साभार .
सादर, आदरणीय
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