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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-01 की सभी स्वीकृत लघुकथाओं का संकलन

आदरणीय साहित्य प्रेमियो,

सादर वन्दे।
 
"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-१ में लघुकथाकारों ने बहुत ही जोशो खरोश से हिस्सा लेकर उसे सफल बनाया। लघुकथा विधा पर हिंदी साहित्य जगत का यह पहला आयोजन था जिस में तीन दर्जन से ज़्यादा रचनाकारों ने कुल मिलाकर ६५ लघुकथाएँ प्रस्तुत कीं। एक एक लघुकथा पर भरपूर चर्चा हुई, गुणीजनों ने न केवल रचनाकारों का उत्साहवर्धन ही किया अपितु रचनाओं के गुण दोषों पर भी खुलकर अपने विचार प्रकट किए।  कहना न होगा कि यह आयोजन लघुकथा विधा के क्षेत्र में एक मील का पत्थर भी साबित हुआ है।
इस आयोजन में प्राप्त सभी प्रस्तुतियों में से लघुकथा विधा के आधार पर निम्नलिखित लघुकथाएँ स्वीकृत हो सकीं हैं, जिन साथियों की रचनाएँ लघुकथा के रूप में संकलन में स्थान नहीं बना सकीं हैं उन्हें निराश होने की आवश्यकता नहीं है बल्कि आगामी अंक में और अधिक तैयारी के साथ सम्मलित होने की जरुरत है.
सादर.
मंच संचालक
योगराज प्रभाकर
(प्रधान संपादक)
ओपनबुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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(१). श्री दीपक मशाल जी 

बँटवारा 

रोशन ने जब यह शहर छोड़ा था तब वह और महेन्दर इंटर में थे, आज सालों बाद किसी काम से यहाँ फिर आना हुआ तो वह पुरानी यादें ताज़ा करने अपनी चिर-परिचित गली को पार करता हुआ दोस्त के दरवाज़े पर जा पहुँचा। खुशकिस्मती कि गर्मियों की शाम थी सो महेन्दर दरवाज़े पर ही कुर्सी डाले बैठा मिल गया। घनिष्ठता इतनी थी कि सालों बाद भी एक-दूजे को पहचानने में कोई मुश्किल न हुई। 
दोनों गले मिले, महेन्दर ने पास ही पड़ी कुर्सी को अंगोछे से साफ़ किया, उसे बिठाया और घर के सामने चबूतरे पर खेल रहे बच्चों से अंदर से चाय-पानी लाने को कहा। उसके एक इशारे पर चारों बच्चों ने रोशन का अभिवादन किया और अंदर को दौड़ पड़े। 
फिर बीते सालों में क्या-क्या घटा जानता रहा। जानकर दुःख हुआ कि इस दौरान महेन्दर के माता-पिता चल बसे थे, आँगन में दीवार खड़ी हो चुकी थी। छोटे भाई का पता ३१४ बी था और उसका ३१४ ए। दोनों घरों में मिलाकर यही चार बच्चे थे। 
बच्चे चाय लेकर आए तब तक महेन्दर ने सामने से गुजरते एक फलवाले से चार संतरे खरीदे और चारों को एक-एक संतरा पकड़ा दिया। दो घण्टे कब गुज़र गए पता नहीं चला। लौटने का वक़्त हुआ तो रोशन ने खड़े होते हुए धीरे से पूछा 
- महेन्दर इनमें से तुम्हारे बच्चे कौन से हैं ?
 उसके कन्धे पर हाथ रखते हुए महेन्दर ने जवाब दिया 
- वो बात ऐसी है यार कि बच्चे अभी बँटे नहीं हैं। 
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श्री अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव 

जहाँ प्यार नहीं - दीवार वहीं [ लघु कथा ]

 

यशोदा किसन की सूरत देखकर ही जान गई कि हम मुक़दमा हार गए ।

“ पैसा फेंको और तमाशा देखो का जमाना है माँ और ताऊजी ने यही किया । ”

बँटवारे में बड़े भाई रतन को बड़ा मकान मिला था और छोटे जगन को छोटा मकान और खलिहान । जगन की मृत्यु के बाद रतन खलिहान में भी आधा हक जताकर मामला कोर्ट तक ले गया ।

जहाँ प्यार नहीं, दीवार वहीं । आखिर एक दीवार आँगन के बीच खड़ी हो गई ।

यशोदा सुबह से आँगन की साफ सफाई में लगी थी । कमर सीधी करने के लिए खड़ी हुई तो देखा कि जेठजी उसे ही घूर रहे हैं और विजयी मुद्रा में सिर डुलाते, आँखों से कुछ इशारे कर बार-बार मूँछों पर ताव दे रहे हैं। जेठानी मायके गई है और ऐसी ढिठाई ...... ?  अदालती फैसले से अधिक पीड़ा उसे जेठजी की इस ओछी हरकत और इशारेबाज़ी से हुई।

बेटे से बोली “ किसन तूने अपनी माँ का दूध पिया है तो शाम की चौपाल में ताऊजी के गाल पर थप्पड़ लगाना और सब को बताना कि तुमने ऐसा क्यों किया ।”                            

साहसी और हर हाल में खुश रहने वाली माँ की डबडबाई आँखे देख किशोर वय किसन घटना की गम्भीरता को समझने का प्रयास कर रहा था।

थप्पड़ की तेज आवाज से सब चौंक गए । किसन ने सुबह की घटना का बयान किया । पूरी चौपाल ने छोटे भाई की विधवा यशोदा के साथ रतन के व्यवहार और झूठे मुक़दमेबाज़ी की घोर निंदा की और किसन के थप्पड़ को जायज़ ठहराया ।

दो दिन बाद ही आँगन की तीन फुट ऊँची दीवार छः फुट की हो गई ।  

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ई० गणेश जी बागी  

लघुकथा : दीवार

 

भूकंप के कारण गाँव के कई कच्चे मकान धराशायी हो गयें हैं, इस आपदा की घड़ी में दोनों सम्प्रदायों के लोगों ने मिल जुलकर सैकड़ों जानें बचाईं साथ ही सभी मिलकर सामूहिक रूप से भोजन तैयार कर समूचे गाँव को खिला रहे हैं. यह वही गाँव है जहाँ कुछ वर्ष पहले दंगा हुआ था और उस दंगे के कारण दोनों सम्प्रदायों में दुश्मनी और नफ़रत कल तक बनी हुई थी किन्तु इस प्रलयकारी भूकंप ने दोनों संप्रदाय के मध्य बन आयी नफरत और दुश्मनी की मजबूत दीवार को ज़मींदोज़ कर दिया.

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ई० गणेश जी बागी  

द्वितीय प्रस्तुति => लघुकथा : उम्मीद 

छोटा भाई आँगन के मध्य पक्की दीवार खड़ी करा रहा था और बड़े भाई की आखों से आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. पत्नी समझा रही थी.

“क्यों रो रहें है जी, आखिर बटवारा तो पहले ही हो गया था और इससे पहले भी मिट्टी की दीवार खड़ी ही थी. याद कीजिये वो दीवार आपने ही बनवाई थी.”

हाँ तुम सही कह रही हो किन्तु मेरे द्वारा बनवाई गयी दीवार कच्ची थी जिसके गिरने की उम्मीद बनी हुई थी.

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श्री सौरभ पाण्डेय जी (1) 

डॉक्टर साहब की मुखमुद्रा वृद्धा को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं लग रही थी. लेकिन बसेसर सिंह थे कि कुछ समझने को तैयार ही न थे. इधर उनके मन में परदेसी हो चुके दोनों बेटों के चेहरे बार-बार आते, बार-बार मन को बेटों का सैलानी परिवार घेरता, लेकिन वे हर-बार उन्हें जोर से झटक देते.

"क्या उम्मीद लगाये हैं सिंह साहब ? अब तो मान जाइये ! .. माताजी को भी चैन लेने दीजिये..", डॉक्टर साहब ने सीधी नज़रों से बसेसर सिंह की ओर देखते हुए कहा. मगर बसेसर सिंह के कान तो जैसे पत्थर हो गये थे.

"कुछ भी नहीं हो सकता, डॉक्टर साहब ?"
"पिछले तीन वर्षों से देखता आ रहा हूँ.. .. अब तो कायदे से ये हिल भी नहीं पातीं..".
बसेसर सिंह नरम आँखों से डॉक्टर साहब की ओर देखने लगे, ".. हिलती तो ख़ैर दीवार भी नहीं है डॉक्टर साहब.. जर्जर ही सही, लेकिन घर की छत को वही थामे रहती है.."
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श्री सौरभ पाण्डेय जी (2) 

द्वितीय प्रस्तुति

 

अपने आप पर फूली न समाती थी, वहीं आज कई दिन हो गये हैं मुस्कुराये. जैसे निस्सारता का समूचा शास्त्र ही मन-मस्तिष्क पर हावी हो गया था. लक-दक करती इस अत्याधुनिक बहुमंजिला इमारत का तो जैसे रंग ही उड़ गया है, "सैकड़ों इमारते हैं.. उनके दिन कबके चले गये. खंडहर मात्र हैं वो आज.. लेकिन उनकी दीवारों का ’वज़ूद’ तो फिर भी है न ! .."

 

पुराना किला पास ही था. दिल खोल दिया उसने, "आखिर क्या है कि तेरे खंडहरों में आज भी ’जीवन’ है ?" 

"मुझे मालूम था.. तू एक न एक दिन ये ज़रूर पूछेगी..", पुराने किले ने कहा.

"कहाँ क्या कमी रह गयी है ? मेरी ये चकचकाती दीवारें..ये बनाव, ये सिंगार..मगर क्या तेरी आधी उम्र तक भी पहुँच पायेंगी ?" 

"काश तुझे पालने वालों ने तुझे ’ज़मीन’ को समझने दिया होता.. तेरी दीवारों के कान तो हैं, आँखें भी हैं क्या ?.." 

इमारत को आज पहली बार अपनी ओढ़ी हुई विजातीयता का अहसास हो रहा था. 

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श्री  गिरिराज भंडारी 

दीवार   

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चिता में पिता की मृत देह रखी जा चुकी थी, आग देने के बाद बड़ा लड़का फफक के रो पड़ा , और एकांत कोने की ओर बढ़ गया । आग तेज़ करने की कोशिशें जारी थीं । छोटा पुत्र भी रोती आँखें लिये उसी कोने की ओर बढ़ा और बड़े के पास पहुँच के हाथ जोड़ के बोला,  बड़े भैया मैं ही गलत था, अब हम रसोई एक कर लेंगे, और लिपट गया

अचानक चिता की लपटें खूब ऊपर तक उठीं ।

मानो मृत आत्मा खुशी से झूम उठी हो , और निर्णय के समर्थन में दोनों हाथ उठा लिये हों ।

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 श्री गिरिराज भंडारी 

ता कि दीवारें न उठें ( दूसरी लघु कथा )

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बड़े भतीजे की शादी का माहौल था । उल्लास पूर्ण वातवरण मे सभी क़रीबी रिश्तेदार म्युज़िक में डांस कर रहे थे । मैं भी अपने चौथे पहर में भीड़ मे शामिल उल्टे सीधे हाथ पैर झटक रहा था । अचानक छोटा लड़का आया और मेरा हाथ पकड़ कर बाहर ले आया और थोड़ी नाराजगी से बोला

“ क्या पापा आप भी न , एक तो आपको कुछ आता जाता नहीं ऊपर से आप हाई बी पी के मरीज़ हैं , कहाँ आप भी बच्चों जैसी हरकतें करने लगे “   

मै ने कहा ‘’ बेटा ! तू चिंता न कर मेरी , तेरे चाचा ने खुशी अधूरी रह जाने की बात कह दी , अगर मेरे हाथ पर झटकने से तेरे चाचा की शिकायत कम हो रही है तो क्या बुरा है, और रही बीपी की बात,  एक खुराक दवा की और सही । कभी कभी मन में दीवारें उठ न जायें इस लिये भी कुछ करना पड़ता है “

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सुश्री माला झा (१)

दीवार

बरसों पहले बँटवारा हुआ। परिणामस्वरूप घर के आँगन के साथ साथ दोनों भाइयों के मन के आँगन में भी दिवार खड़ी हो गयी।आज दोपहर जब भूकम्प आया।सोहन अपने परिवार और गाँव वालों के साथ खुले मैदान की तरफ भागा।अचानक उसे अपने लकवाग्रस्त भाई का ध्यान हो आया। "भाभी और बच्चे तो खेत में होंगे।"सोचते हुए उलटे पाँव घर की तरफ लपका।भाई के पास पहुँचकर उसे कसकर बाँहों में भर लिया।
आँसूओं के जलजले में दिल की दीवार ढह गयी।काँधे पर भाई को लिए बाहर निकल ही रहा था कि अचानक आँगन से कुछ भरभरा कर गिरने की आवाज़ आयी
"धड़ाम"!

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सुश्री माला झा (२)  
दूसरी प्रस्तुति––"दीवार"
सौम्या एक अदृश्य दीवार अनुभव कर रही थी अपने और विजय के बीच ।
महानगरीय जीवन में बस पैसे कमाने वाले मशीन बनें हो ज्यूँ दोनों।सुबह फटाफट तैयार हो दफ्तर भागना और देर रात थक कर वापिसी ।नीरस ज़िन्दगी हो गयी थी दोनों की। अचानक एक दिन शाँत पड़ी ज़िन्दगी में हलचल होने लगी जब डॉक्टर ने खबर सुनाई–"सौम्या आप माँ बनने वाली हैं।"विजय को फ़ोन पर ये खबर दे कर वो शाम को उसके दफ्तर से लौटने का इंतज़ार करने लगी।मन कई प्रकार के विचार से घिरा था ।पता नही विजय इस जिम्मेदारी के लिए तैयार होगा कि नही।"कहीं इस बच्चे को?"सोचकर काँप गयी वो ।
शाम जब विजय ने चहकते हुए घर में प्रवेश किया तो उसके ख़ुशी और आश्चर्य का ठिकाना न रहा।हाथ में गुलदस्ता और मिठाई का डिब्बा।आते ही ख़ुशी से सौम्या को गले लगा लिया।
"ओह सौम्या आज मैं बहुत खुश हूँ।"
कितने दिनों बाद रिश्तों की गर्माहट महसूस हुई दोनों को।प्रेम की एक नयी और मज़बूत दीवार की नींव रख चुके थे दोनों।

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सुश्री नेहा अग्रवाल (१)

"दिवार"
भूकंप से मची तबाही से विचलित हो कर आकाश ने धरती से पूछा।
"माँ हो तुम तो ना, फिर यह सब ?"
धरती माँ कराहते हुए बोली।
"माँ तो हूँ पर मैं भी क्या करूँ, मेरे सीने पर बढ़ती दिवारों का बोझ असहनीय हो गया था। "

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सुश्री नेहा अग्रवाल (२)

द्धितीय प्रस्तुति
लधुकथा - नीवं
दिवार
मां बाऊ जी इस रोज रोज की चिक चिक से अच्छा आप दोनों वृद्धा आश्रम में जाकर रहे।मैं अपनी बीबी और बच्चे के साथ शान्ति से अपने घर में रहना चाहता हूँ।
ठीक है बेटा जिसमें तुम्हारी खुशी ,बस एक बात तुमने जो सफलता की दिवार खडी की है।वो मेरे खून पसीने की नीवं पर खडी है ।मैं इस घर से जाते वक्त बस एक चीज ले कर जाऊंगा।तुम्हारी आज तक की सारी डिग्रीया ,बस अब यह देखना है कि बिना नींव के दिवार कब तक खडी रह सकते है।

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डॉ विजय शंकर (१)

प्रेरक दीवार 


उसके स्कूल में प्रार्थना स्थल के पास हॉल की एक दीवार का पीछे का बहुत बड़ा सा सपाट पृष्ठ था। अक्सर छात्र उस पर कार्टून बना देते या किसी को कुछ व्यंगात्मक लिख देते जिसे देख कर अन्य छात्र हँसते और मजाक करते थे। उन्हीं दिनों स्कूल में नये प्राचार्य आये और जब उन्होंने यह दृश्य देखा तो उस दीवार को अच्छी तरह पुतवा कर पेंट करा दिया। उसे तीन बराबर हिस्सों में मोटी लाइनों से बाँट कर उन्हें हाईस्कूल के कला, विज्ञान और वाणिज्य के विद्यार्थियों को सौंप दिया। उन्हें अपनी-अपनी दीवार का अंश यह कह कर सौंपा गया कि वे उस पर जो चाहें लिखें , कविता, चुटकुले, प्रेरक वाक्य , विचार , चाहें तो कार्टून भी बनाएं। हाँ , यह अवश्य देखते रहें कि कोई भी सेक्शन के छात्र अमर्यादित भाषा का प्रयोग न करें। उन्होंने यह भी घोषित कर दिया कि एक सम्मान-पट लगाया जाएगा , जिस सेक्शन की प्रस्तुतियाँ सबसे अच्छी होगी उनकों वर्षांत में प्रथम घोषित कर सम्मान-पट में अंकित किया जाएगा। फिर क्या था दीवार का तो स्वरुप ही बदल गया , ऐसी ऐसी कलाकारियाँ उभर कर सामने आने लगी कि स्कूल में हर दिन एक प्रतियोगिता का दिन होने लगा। जब भी वह वो दिन याद करता था तो सोंचता था कि दीवार के किसी हिस्से का इतना सुन्दर प्रयोग भी हो सकता है। वैसे सड़कों पर तो दीवारों पर जाने क्या-क्या लिखा रहता है।

पर पिछले दिनों किसी ने एक दीवार पर न जाने क्या लिख दिया , शहर दंगे की भेंट चढ़ गया। अब वह अक्सर यह भी सोंचता है कि दीवार का यूँ भी इस्तेमाल हो सकता है ? दीवारों पर तो बहुत सी अच्छी अच्छी प्रेरक बातें लिखी होती हैं , क्या उनका भी इतना व्यापक असर होता है।
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डॉ विजय शंकर (२)
द्वितीय प्रस्तुति
अकर्मण्यता की दीवारें 

-पापा मेरी बॉस डेनमार्क में बैठती है ,
- तो तुम उससे कैसे कॉन्टैक्ट करती हो ?
- जैसे मेरे जूनियर्स डेनमार्क और कनाडा से मुझसे करते हैं।
- कब करते हैं ?
- कभी भी , दिन भर।
- ओह , यहां तो एक कमरे में बैठे दो कर्मचारी एक दूसरे से कॉन्टैक्ट नहीं कर पाते हैं।
- उनकें बीच दीवारें होगीं।
- कैसी दीवारें ?
- काम न करने की।
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सुश्री कांता रॉय (1)

रोती हुई दीवार ( लघुकथा )

दीवारों के पीछे एक युगल प्रेम पला । दुनिया से छुपकर .... रस्म -ओ - रिवाजों से बेखबर वे प्रेम के हिलोरे लेते .....और दीवार चुपचाप उनकी दास्तान में शामिल हो जाती । दिल बनाकर उसकी छाती में दोनों ने प्रेम की निशानी अंकित कर दी थी । दीवार बड़ी ही खुश थी । प्रेम के बीज का प्रस्फुटन उसके अन्दर भी हो चुकी थी । एक दिन दीवार के पीछे कई कान जनम उठे । कई आँखें उग आई थी सहसा ।
समगोत्री ना जाने क्या होती है ?
चीखों में यह शब्द सुनी थी दीवार ने ।
सहसा खुदा हुआ दिल रक्त रंजित हो खून से सन उठा । प्रेम कतरा कतरा बह रहा था और दीवार रक्त की धारों में अपनी आँसुओं को गिन रही थी ।

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सुश्री कांता रॉय (2) 
दरकती दीवारें चरित्र की ( द्वितीय लघुकथा दीवार शीर्षक पर )
सुदृढ़ दीवार सी चरित्रवान रानू के जीवन में पति के अपाहिज होते ही विडंबनाओं का दौर आरम्भ हो चुका था ।
पति और बच्चों की जिम्मेदारी ने उसे विवश कर दिया मगरमच्छों के बीच जीने को ।
उसको पता है कि कम योग्यता के बावजूद उसे यह नौकरी क्यों मिली । दुनिया में आज भी रूप और यौवन के पुजारियो की कमी नहीं है । शुक्र है उसका सुंदर रूप तो काम आया ।
एक ठंडी आह के साथ आॅफिस में वह अपनी दरकती हुई चरित्र के दीवारों के संग पहला कदम रख रही थी ।
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श्री सुधीर द्विवेदी (1) 

दीवार

भूकम्प से भरभराई इमारत की दीवार ने धूल से सना मुंह ज्यूँ उठा के देखा, झोपडी की दीवार ने अब तक सम्भाला हुआ था छत का पल्लू |

इमारत की दीवार झुंझला पड़ी  “हुँह ! यहाँ भी पक्षपात. बगावत कैसे सहन करती ये तानाशाह प्रकृति ? ”

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सुधीर द्विवेदी (2)
शरणदाता दीवार
पुजारी जी के घर में पले बढे अनाथ मनोज ने मौका पाकर उनकी बेटी रागिनी की इज्जत तार-तार कर डाली थी | व्यथित पुजारी जी मन्दिर की दरकी हुई दीवार में उगे भीमकाय पीपल के वृक्ष को देख सोच रहे थे |
“दोष किसका है दीवार का जिसने शरण दी बीज को, या पीपल का जिसने बड़ा होकर फाड़ डाला सीना अपने ही शरणदाता का..?” 
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श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय (1)  

लघुकथा-दीवार

आंधी, तूफान और सांप्रदायिक दंगों से न टूटने वाली रहिमचाचा और ईश्वर पहलवान की दोस्ती हवा के हल्के से झोंके से टूट गई जो कही से छन कर आया था कि बाबर और सीमा ने शादी कर ली.

 

“बेगम ! उस घर की तरफ हमारा देखना भी हराम है . उस लौंडिया ने हमारा दीन और ईमान नष्ट कर दिया.”

 “भूल से भी देख मत लेना वरना एकाध की कब्र खोद दूंगा .” ईश्वर पहलवान की आँखे नफ़रत बरसा रही थी. वही धारा १४४ ने पूरे शहर में सुरक्षा की दीवार खड़ी कर दी थी ताकि नफ़रत की आग पूरा शहर को न जला सके.

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श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय (2)

द्वितीय प्रस्तुति- लघुकथा- दीवार

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“आई लव यू “ के साथ पप्पी की आवाज सुन कर पति चौका . उसे दिलोजान से प्यार करने वाली पत्नी बेवफा हो सकती है. ‘ हाय राम ! औरतों के त्रिया चरित्र को भगवान भी नहीं समझ सके.’ यह सोच कर गुस्से में पति ने कमरे में प्रवेश करना चाह. तभी पत्नी की आवाज आई, “ अब मेरे पति आने वाले है. तुम जाओ. कल फिर आना. मैं इंतजार करुँगी .”

 

तभी पति की आग उगलती निगाहें आवाज की दिशा में गई. जहाँ से चार वर्षीय बालिका खिड़की की दीवार फांदती हुई दौड़ी चली जा रही थी .

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श्री जितेन्द्र पस्टारिया (1)

प्रथम प्रस्तुति....

बंद मुट्ठी....

“अरे शारदा भाभी, अब कैसी तबियत है भैया की..? उन्हें लकवा लगा तब से हाल-चाल लेने ही नहीं आ पाई.  पर एक बात मैं ही नहीं, पूरा गाँव कहता है भैया का बड़ा अनुशाशन रहा है घर में. देखो! दोनों बेटों को पढ़ाया-लिखाया, उनकी शादियाँ की और इतना बड़ा घर भी बनवा दिया अपने चलते-फिरते समय में..”

“हाँ!! जीजी, सच ही कह रही हो उन्होंने जब तक हाथ-पाँव चले, तब तक सब कुछ किया. लेकिन जब से बीमार हुए...”

“बस! भाभी परेशान मत हो, भगवान् सब ठीक करेगा.. भाभी! यह आँगन में ईंट पड़ी है, क्या कोई काम शुरू होने वाला है..?

“अरे नहीं जीजी, दोनों बेटे इंजीनियर है न. वो छत कहीं कमजोर सी है तो बीच में दीवार का सहारा देकर, उसे मजबूत करने का कह रहे है..”

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श्री जितेन्द्र पस्टारिया (2)

द्वितीय प्रस्तुति..

परिभाषा...

“पापा! पापा!..यह प्रतिक्रिया क्या होती है..? समझाओ न! पापा..”

“बेटा! जब हम कुछ करें, उसके बदले जो हमें मिले वो प्रतिक्रिया. जैसे तुम अपने आँगन की दीवार पर गेंद मारते हो तो वो लौट कर तुम्हारे पास आ जाती है. है न! “

“ हाँ! पापा..समझ गया. पर पापा, जब ताउजी और हमारे आँगन के बीच जब दीवार नहीं थी और गेंद उधर चली जाती थी, तब तो ताउजी मुझे गेंद के साथ मिट्ठी और चॉकलेट भी देते थे. और दीवार तो सिर्फ गेंद.. ऐसा क्यों पापा..?”

महज एक झूठे आत्मसम्मान की दीवार खड़ी करने वाले, पिता के पास  नन्हे बेटे को अपनों से मिले प्रेम और निर्जीव दीवार की प्रतिक्रिया की परिभाषा देना मुश्किल सा लग रहा था..

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श्री रवि प्रभाकर  

दीवारें


"अबे ओए ! कहाँ घुसते चले आ रहे हो ? तुम्हे मालूम नहीं इस ‘पवित्र स्थान‘ पर ‘तुम जैसों‘ का प्रवेश निषिद्ध है ?‘

गुस्से से घूरता हुआ वो उनको बोला I
‘लगता है आप भूल गए हैं ! कल ही तो आपने हमें ‘पवित्र कर‘ हमारी ‘घर वापसी’ करवाई है।‘

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श्री विनोद खनगवाल (1)

दीवार

"बेटा, क्या बात इस महीने तुमको तनख्वाह नहीं मिली? वो दूध वाले और बनिये का हिसाब करना था।"
"माँ, तुम अब आराम किया करो। ये हिसाब-किताब आपकी बहू देख लिया करेगी।"
अपने साथ खड़ी नई-नवेली बहू का स्पर्श दीवार को अपनेपन का एहसास करवा रहा था।
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श्री विनोद खनगवाल (2)
दीवार (द्वितीय लघुकथा)
"चम्पा, आज तुमने तबीयत खुश कर दी कसम से। मांग लो, आज जो भी इच्छा हो तुम्हारी हर ख्वाहिश पूरी करूँगा।"
"ठाकुर साहब, मैं एक बार भगवान को जल चढाकर अपना यह जीवन सफल करना चाहती हूँ।"
"चल हरामखोर, तेरी ये जुर्रत! हमारे भगवान पर तेरी परछाई भी पड़ गई तो वो अपवित्र हो जाएँगे।"
"जो भगवान एक औरत की परछाई से अपवित्र हो जाए और तुम जैसे पापियों के हर-रोज छूने से उनकी पवित्रता बनी रहे। ऐसी गलत दीवार खड़ी करने वाला भगवान खुद दीवारों में कैद होने के ही काबिल है।"
सुबह अगरबत्तियों की महक व घंटियों की आवाजों से वातावरण देवीय हो रहा था और चम्पा की लाश नदी में तैर रही थी।
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श्री पंकज जोशी (१) 

दीवार - पैसा     ( लघु कथा )

"बापू कल से हम खेतों पर काम करने नहीं जायेंगे "- हरिराम ने खाना खाते हुए अपना फरमान घर वालों को सुना दिया।

गॉव में गोबर से पुती हुई झोपड़ की चाहरदीवारी उसके जीवन में सुकून नहीं दे पा रही थीं ।

“क्या तू भी इस बुढापें में हमको औरों की तरह असहाय छोड़ कर विदेश चला जायेगा “ ?

"अरे बापू कुछ सालों की ही तो बात है , पैसा कमाया और देश वापस ।"

भाग्य से विदेश में उसे एक कन्स्ट्रक्शन कम्पनी में काम भी मिल गया । और कुछ ही वर्षो में कुबेर उस पर ऐसे प्रसन्न हुए कि उसकी काया पलट हो गई ।  वापस लौटा तो खुद की कंस्ट्रक्शन कम्पनी का मालिक हों गया , काम चल निकला , अब चारों तरफ रुपये की बरसात होने लगी। उसका धनिक होना रिश्तेदारों से दूरी का कारण बना .... ।

"अरे, यह क्या ! इसके बाप की मिटटी पड़ी हुई है , कोई कन्धा क्यों नहीं दे रहा ? “

रूपयों की दीवार तले दब कर अब वह कराह रहा था ।

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श्री पंकज जोशी  (२)

(द्वितीय प्रस्तुति) दीवार – मिलन 

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आज अरुण के गले से कौर नहीं उतर रहा था । जब से उसने अपने बड़े भाई के गले में कैंसर के बारे में सुना तब से उससे वह बैचेन है । अनमने मन से उसने थाली को किनारे खिसका दिया ।

 

“ हाँ खाने का मन तो मेरा भी नहीं है ऐसी मनहूस खबर सुनने के बाद किसको भूख है ।

"अजी , क्यों ना हम भाईसाहब को शहर ले आयें । अरे तूने तो मेरे मन की बात कह दी ।

 

प्रकृति का भी अजीब खेल है I कल तक जिन दो भाईयों के बीच जायदाद को लेकर रिश्तों में खराशें आ गई थीं I

बरबस ही एक दूसरे की ओर मदद को बढ़ते हाथ, आज एक दूसरे का सहारा बन रहे हैं I दोनों के बीच अहं , दंभ के मसालों से चुनी हुई दीवार आँखों से गिरते पश्चाताप के आंसुओ के सैलाब में , गोते लगाती हुई, कही दूर बही जा रही थी 

 "आखिर खून उबाल जो ले रहा है

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सुश्री मीना पाण्डेय (1)

दीवार

"क्या करूँ बहन ? एक तो लड़की जात ,तिस पर रंग सांवला ,नयन नक्श भी राम भरोसे !कहती हूँ ,तनिक रंग रूप ,साज सज्जा का ध्यान रख !! पर नही ,दिन रात बंद कमरे में ,मुई किताबों में सर घुसाये रहती है I कौन ब्याहेगा इसे ? यही चिंता खाए जात है !!"
"सो तो है बहन " I पड़ोस की चाची हाँ में हाँ मिलती जाती I 
अपनी डिग्रियों और किताबों से घिरी केतकी के कानों में जस जस ये शब्द पड़ते ,उसका निश्चय और मजबूत होता जाता कि --
"एक दिन वह समाज में व्याप्त, ब्याह के लिए आवश्यक इस रूप लावण्य कि दीवार को अपनी शिक्षा व् गुणों से अवश्य ध्वस्त करेगी "

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सुश्री मीना पाण्डेय  (2)

दीवार ( दूसरी लघुकथा )

" ये जाति की दीवार हमें कभी एक न होने देगी !! चलो भाग कर शादी कर लें I "
" नहीं , मैं ऐसा नहीं कर सकती , माँ -बापू को ऐसे छोड़ कर नहीं जा सकती I "
" यदि ऐसा था तो प्रेम क्यों किया ? "
" उस वक़्त नहीं जानती थी कि मेरे संस्कारों कि नींव , जाति की दीवारों की नींव से अधिक मजबूत होंगी I "

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सुश्री महिमा श्री 

कलुआ झटपट नेता जी के आवास पर पहूँच जाना चाहता था।जल्दी पहूँचने के चक्कर में अपने बेरोजगार बेटे को करीब घसीट ही लिया था । उसे पूरा विश्वास था, आज उसके बेटे के काम का इंतजाम जरुर हो जाएगा। उसके कानों में नेता जी की आवाज गूंज रही थी --

“जात-पात की दिवार गिरा कर देश को शक्तिशाली बनाना है ।सबको एक साथ आगे बढ़ना है। हम-सब भारत माता की संतान हैं । हम-सब की रगो में एक ही खून दौड़ रहा है।“

नेता जी के आवास पर पहूँचते ही भीड़ दिखी । सब पंक्ति में खड़े थे। उसे भी गार्ड ने रोक लिया । उसके हुलिये को आंकते हुए पूछा गया “कौन जात हो?” ।  जबाव देते ही उसे बेटे के साथ साइड में कर दिया और बाकियों को अंदर  ।

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श्री चंद्रेश कुमार छतलानी  (१)

"मज़बूत दीवार"

 

रामदीन आज भी देर रात आंगन में बैठा सामने की हवेली से ईर्ष्या कर रहा था, वो उसके घर से बहुत बड़ी थी और उसकी दीवारें ऊँची और पक्की थीं| इतने में हवेली के बाहर एक कार आकर रुकी, उसमें से हवेली की मालकिन लड़खड़ाती हुई, अस्त-व्यस्त कपड़ों में बाहर निकली| कार उन्हें बाहर ही छोड़ कर आगे चली गयी|

यह देख रामदीन हल्का सा चौंका लेकिन  उसे अब अपने घर की कच्ची दीवारें अधिक मज़बूत और ऊँची दिखाई देने लगीं |

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श्री चंद्रेश कुमार छतलानी (२)

द्वितीय प्रस्तुति

अभिलाषा”

दो महिलाएं मंदिर से बाहर निकली|

एक ने पूछा, "भगवान से क्या माँगा?"

"एक छत मांगी जो अपनी हो| तुमने क्या माँगा?"

"मैनें छत को थामने वाली दीवार मांगी|" उसने अपनी सूनी गोद को देखते हुए कहा|

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श्री अमन कुमार  

90 साल पुरानी दीवार अचानक हल्की से बारिश मे भर भरा कर गिर गयी दिलावर खान को लगा मानो उसे नगा  ही कर दिया हो जहा मे  , ऊपर बाले ने !

पीढ़ी दर पीढ़ी से जमींदारी रही थी पर सरकार और दादा जान की फिजूल खर्ची ने  सब कुछ खत्म कर दिया था | जो था उससे अब्बा जान ने खंडहर होती हवेली के चारो तरफ ऊची दीवार मे लगा कर अमीरी का भ्रम बनाए रखा ! पर अब उसकी मुफ़लिसी , उसको जीने नही दे रही है  और सवाल अब यही है की इस  ईद पर जवान होती लड़कियो के कपड़े बनबा कर इज्जत बचाए ? या दीवार बनवा कर अपनी जमीदारी ?

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ई० नोहर सिंह ध्रुव "नरेंदर" 

दीवार

" तुझे कितनी बार कहा, उस पंडित के बेटे बंटी के साथ खेला नही कर | " और एक झन्नाटेदार चाटें ने बिट्टू के गालों को लाल कर दिया |
" तो किसके साथ खेलूं ? " रोते हुए बिट्टू ने पिता से चिल्लाते हुए कहा और अपने कमरे में चला गया |
आज चार दिन हो गए थे जब बिट्टू की तबियत में कोई सुधार ना होते देख सब परेशान थे |
तभी बंटी को देख बिट्टू का मुरझाया चेहरा खिल उठा |
ये देख बिट्टू की माँ ने कहा, " सुनो जी, अब आप अपनी ये नफ़रत की दीवार गिरा ही दीजिये | ये हमारे बेटे की ख़ुशी के बीच आ रही | "
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श्री हरिकृष्ण ओझा 

"कच्ची दीवार"

दो भाइयो के बीच गिरती दीवार को देख कर लोगों को आश्चर्ये हो रहा थाI क्योकि भाइयो के बीच दीवार खड़ी होते सब ने देखा था लेकिन आज पहली बार दीवार गिरते हुए देख रहे थेI एक वृद्ध आदमी से रहा नहीं गयाI और पूछ लिया - अरे भाई माजरा क्या है, तो बड़ा भाई बोला -  काका हमने दीवार तो बनाई थी लेकिन नींव नहीं डाली थी जैसे ही दोनों की ग़लतफ़हमी दूर हुई हमने दीवार गिरा दीI  वृद्ध आदमी अपने कांपते हाथो से बड़े भाई की पीठ थप थपा रहा थाI 
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डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव (1)

सहारा (लघु कथा )

 

‘ अरे शादी कर लेंगे न पर पहले इस दीवार से तो पीछा छुडाओ , आज-कल दो दिन में सब नार्मल हो जाता है I’

‘ तुम्हे यह दीवार लगता है  I यह हमारे प्रेम की निशानी है i’

‘ भाड में गयी निशानी  I सारा इंज्वायमेंट ख़त्म हो जाएगा, यार I ‘

‘ तो क्या करूं ? अजन्मे मासूम की हत्या कर दूं ? नहीं, यह मुझसे नहीं होगा i”

‘ फिर सोंच लो I तुमको दो में से एक को चुनना होगा I  या तो मैं या फिर यह दीवार I’

‘ अच्छा, यह बात है ?’

‘ बिलकुल “

‘ तो फिर सुन लो, दीवार का तो फिर सहारा होता है पर तुम जैसों से क्या उम्मीद ? गुड बाई 

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 डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव (2)

पति की मृत्यु के समय उसकी गोद में चार माह की बेटी थी I  बाद में उसका चक्कर घीसा के साथ चल गया I पर घीसा कहता –‘तेरी बेटी हमारे बीच एक दीवार है, वरना मै तुझे अपने साथ ही रख लेता I’           

उसके ह्रदय में द्वन्द छिड़ा गया I दैवयोग से उसकी बेटी को तेज ज्वर चढ़ आया I एक शाम जब वह घीसा के पास पहुँची तो उसकी गोद सूनी थी I

‘घीसा मुझे बेटी से मुक्ति मिल गयी I अब  हमारे बीच कोई दीवार नहीं है I’ उसने धीरे से कहा I

‘क्यों , बेटी को क्या हुआ ---? कहाँ गयी वह ?’

‘उसे काले ज्वर ने खा लिया I’

यह तो बुरा हुआ I पर तू कल शाम गोमती के पुल पर क्यों गयी थी ?

‘तुझसे किसने कहा ?’- वह घबराकर बोली I

‘उस छपाक------  की आवाज ने जो तेरे कुछ फेंकने से हुयी थी I’ 

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श्री जवाहर लाल सिंह  (1)

पहली प्रस्तुति 

अदृश्य दीवार 

राघव और माधव दोनों भाइयों में सम्पत्ति को लेकर अक्सर झगड़ा होता ही रहता था. मनमुटाव ऐसा कि एक दुसरे को आंख उठाकर देखना भी मंजूर नहीं.

जब राघव गंभीर बीमारी से ग्रस्त हुए तो सही उपचार के लिए माधव ने हर संभव कोशिश की.

राघव ने मुस्कुराते हुए कहा- “अब झगड़ा नहीं करेगा मुझसे?”

माधव – “क्यों नहीं. पहले ठीक तो हो जाओ. बीमार आदमी से क्या लड़ना” ...और वह रो पड़ा. दोनों भाइयों के बीच की अदृश्य ‘दीवार’ आंसुओं के बाढ़ में टूट चुकी थी   

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श्री जवाहर लाल सिंह  (2) 

लघुकथा द्वितीय प्रस्तुति

किसानों की मंडी

नेता जी अपने निजी सचिव से – “गोपालपुर मंडी जाने वाली सुबह की बस की सारी सीटें बुक करा लो.”

सचिव – “जी”

नेताजी – “उसमे सभी अपने आदमी ही रहेंगे साधारण वेश भूषा में”

“जी”

“कैमरावाला भी अपना ही होगा”

“जी”

“हाँ बस अपनी रफ़्तार से चलेगी, हर स्टॉप पर रुकेगी भी”

“जी”

"हमें यह दिखलाना है कि किसानों और उनके नेता के बीच कोई दीवार नहीं है" 

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योगराज प्रभाकर 

दीवार

"क्यों बार बार आ जाते हो ? मैं कितनी बार कह चुका हूँ कि वीज़ा नही मिल सकता।"
"साहिब ! बँटवारे के दौरान बिछडे हुए भाई का 65-66 साल बाद पता चला है। वो कुछ ही दिनों का मेहमान है, बस एक बार उसको देखना चाहता हूँ। "
"आप मेरा और अपना वक़्त बर्बाद कर रहे हैं।" 
"मुझ पर मेहरबानी कीजिए, मुझे मेरे भाई से आखरी बार मिल लेने दीजिए।"
"तुम लोगों का कोई भरोसा नही, वहाँ जाकर कोई जासूसी कर दी तो ?"
"ये धरती हमारी माँ है साहिब, क्या हम इसके साथ ही गद्दारी करेंगे ?"
"रिजेक्ट"
अधिकारी ने ज़ोर से मोहर लगाते हुए कहा। 
छठी बार अस्वीकृत हुए वीज़ा फार्म को देखते हुए उसके रुँधे गले से यही निकल पाया:
"लोग कहते हैं कि चीन की दीवार सब से ऊँची है, झूठ बोलते हैं सब।"

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सुश्री ज्योत्सना कपिल (1)

(दीवार)

आदरणीय पापा
आपको जानकर शायद कोई फर्क न पड़े की कल मैं आपसे बहुत दूर चली जाऊँगी।पर मेरे लिए ये बहुत कष्टदायक है।आप बेटा चाहते थे पर मैं अ गई।पर इसमें मेरा क्या दोष था?मैं तरसती रही की आप कभी मुझे प्यार से गले लगाएं।खूब डटकर पढ़ाई की के आपको मुझपर गर्व हो ।पर आप तो कभी खुश ही न दिखाई दिए। आई आई टी करते ही अच्छी नौकरी के ढेरों ऑफर थे मेरे सामने।पर मैंने वो चुना जो मुझे घर से बहुत दूर ले जाए।आपकी नज़रों से दूर ले जाए।अब आपको मेरी सूरत और नहीं देखनी पड़ेगी। आपकी क्या कहूँ?
श्रुति ।

आँखों में छलक आए अश्रु पोंछते हुए उसने पत्र मोड़कर टेबल पर रखा सुबह एक नई राह तलाशने की उम्मीद में और सो गई।
किसी के सर पर हाथ फेरने से वह जागी तो देखा पापा की आँखों से आंसू बह रहे थे।
"मुझे माफ़ कर दे बच्ची-तुझसे प्यार तो बहुत था-पर कभी जता नहीं सका-न जाने कैसी दीवार खड़ी हो गई थी हमारे बीच" वे उसे गले लगाकर सिसक पड़े।बाप बेटी के बीच खड़ी दीवार कब की ढह चुकी थी।

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सुश्री ज्योत्सना कपिल (2)
~~~ दीवार ~~~( दूसरी कहानी )~~~
सलमा और सपना के परिवारों में धर्म की इतनी ऊँची दीवारें खड़ी थीं की वे लोग एक दूसरे को फूटी आँख न भाते थे।
ज़रा सी बात पर उठे एक बवाल ने इतना उग्र रूप धारण कर लिया की सपना के पति की दुकान विधर्मियों ने जलाकर खाक कर दी।वे लोग सदमे में थे।
तभी हल्के से फुसफुसाने की आवाज़ से सपना के कान खड़े हो गए।जल्द ही सब कुछ समझ गई वो।मोहल्ले में इकलौता विधर्मी परिवार था सलमा का।डरकर वो जवान बेटी के साथ छतपर बनी बरसाती में छुपी हुई थी।पलभर को तो नफरत ने सपना को शिकंजे में लेना चाहा पर मानवता ने उसे पीछे धकेल दिया।फुर्ती से उठी और अंधेरे का फायदा उठाकर उनके घर के मुख्य द्वार पर ताला लगा दिया।फिर दोनों माँ बेटी को खींचकर स्टोर में धकेला और बिस्तरों से ढक दिया।
बस उसी पल उत्पातियों ने पड़ोसी घर को कब्जे में कर लिया।वहां किसी को न पाकर सपना का घर भी तलाश डाला।पर किसी को न पाकर हाथ मलते रह गए।
उनके जाते ही कृतज्ञता से सलमा बेटी समेत उसके कदमो में गिर पड़ी।बरसों से खड़ी नफरत की दीवार गिर चुकी थी।उनलोगों को गले लगाए सपना की आँखेँ भीग गई थीं।
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श्री अरुण कुमार निगम  

दीवार

मैम जल्दी जे.जे हास्पिटल पहुँचिये, साहब को आफिस में दिल का दौरा पड़ने से उन्हें.हास्पिटल में एडमिट किया गया है. मोबाइल पर यह सूचना मिलते ही मैम को लगा मानों छन्न से काँच की कोई दीवार टूटकर बिखर गई हो. वह तुरंत जे.जे हास्पिटल के लिये रवाना हो गई.

जरा-सी बात पर साथ रहते हुये भी एक दूरी न जाने कब से बनी हुई थी. औपचारिक बातें भी होती थीं किन्तु परस्पर मन की बातें सुन नहीं पाते थे. यदाकदा स्पर्श भी हो जाते थे किन्तु न छुवन की नरमी महसूस हो पाती थी और न प्यार की गरमी ही.

नहीं नहीं अब ऐसा कुछ नहीं होगा. अहम् की दीवार टूट चुकी है, अब इतना प्यार लुटाउँगी कि.......बस हास्पिटल आ चुका था. साहब आई.सी.यू. में. मैम खिडकी से साहब को देख रही थी. कुछ कहना ,सुनना संभव नहीं था.

डॉक्टर ने कहा कि भगवान पर भरोसा रखिये, अभी कुछ भी कहा नहीं जा सकता है. बेड के बाजू में लगा मानिटर दिल का हाल बयां कर रहा था. इस खिडकी में भी एक काँच की दीवार.........शायद कह रही थी कि मैम दीवारें इतनी आसानी से नहीं टूटतीं.

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श्री वीरेंदर वीर मेहता 

" बीच की दीवार "
कल तक खेत की जिस मुंडेर पर बैठ घंटो गाँव की बाते करते थे आज वहीं, सरजु और भीमा लाठी लिये खड़े थे। खेत खलिहान से लेकर गंगा मैया (पानी) के बॅटवारे के बाद भी किसकी बाड़ को किसने छेड़ा जैसी बातो पर आमने सामने खड़े होना अब रोज की बात हो गयी। आखिर बात कोतवाली पहुँची तो थानेदार ने समझदारी से मामला ठंडा कर दोनो को बिदा किया।
इसी झमेले में दोनो के नौनिहाल कहीं लापता हो गये, बच्चे पक्के जोड़ीदार थे सो इकठ्ठे मिलने की आस में दोनो भाई बेमन से ही सही, पर एक साथ गाँव भर में चक्कर काटना शुरू हो गये। तलाश पूरी हुयी मंदिर की सीढ़ियो पर जहां दोनो बैठे बतिया रहे थे।.......
"सोनु, क्या मांगा 'रामजी' से?" मन्नु सोनु से सवाल कर रहा था।
"मन्नु! मैंने तो 'रामजी' से कह दिया कि मुझे न देना ऐसे खेत खलिहान जो मेरे यार को मुझसे लड़वा दे, सुन। तूने क्या माँगा?" सोनु कुछ आवेश में था।
"मैंने! मैंने तो यही माँगा। रामजी! हमें तो तुम 'बड़ा' ही मत करना। क्या करना ऐसे बड़े हो कर जो आपस में ही....... ।" मन्नु सिर झुकाये बोलता जा रहा था।
और कुछ दूर खड़े दोनो भाई आँखों में आसूं लिये अपने बीच की दीवार को भरभरा कर गिरता देख रहे थे।
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सुश्री शशि बंसल (१)

दीवार ( लघु कथा )
"ये आपकी बहू शाहिना ! पैर छुओ बाबूजी के ।"
"परे हटो ! मेरा कोई बेटा - बहू नहीं ।"
"पिताजी ! इतने वर्ष बीत गए , अब तो क्षमा कर दीजिये ।"
"नहीं । असंभव । मेरे लिए तू उसी दिन मर गया था , जब परिवार और गैर - जाति प्रेम के बीच इस लड़की को चुना था ।"
"पर आपकी ही सीख थी , प्रेम से बड़ा कोई मज़हब नहीं ।"
"तो यही प्रेम बचा था करने के लिए ।जाओ , मुझे सीख मत दो ।"
"जी । वो तो बस आपका पोता अपने दादा से मिलने की जिद कर रहा था , इसलिए ...।" पीछे खड़े बेटे को आगे करते हुए शाहिना ने कहा ।
"अरे! ये तो बिलकुल मेरे बेटे पर ही गया है ।आ बेटा ! कलेज़ा ठंडा कर दे इस बूढ़े का । "
 बेटा-बहू आत्म-संतोष से मुस्कुरा एक-दुसरे की आँखों में कह रहे थे -
"दीवार ही तो थी, ढह गई ।"

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सुश्री शशि बंसल  (२)

\दीवार ( द्वितीय प्रस्तुति )

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बचपन ही से उस दीवार को खेत के किनारे पाया, इसलिए आत्मीयता होना लाज़िमी था । वह भी रोज़ सबेरे प्रतीक्षारत महसूस होती और मुझे देख मुस्कुरा देती । आये दिन रंगीन विज्ञापनों से श्रृंगारित हो मौन आमंत्रण देती ।जब भरी दोपहरी में थक उसकी गोद में सिर रखता , तो आँचल की छाँव कर देती ।
पहली बार आज उसे उदास पाया। नज़रें उसके काले श्रृंगार पर ठहर गईं। पर उसमें आमंत्रण नहीं विरह का भाव था । "भूमि अधिग्रहण बिल किसान हितैषी है ।" ओह्ह ! मेरी पीढ़ा उस तक पहुँच चुकी थी। गले लग रो पड़ा - " मैं अकेला कहाँ हूँ पगली ! तू है न मेरे साथ ।"
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डिम्पल गौर 'अनन्या'

दीवार या चारदिवारी  ( लघुकथा )

“ठेकेदार ने कहलाया है कि परबतिया को कल जरुर आवा पड़ी !!”

“मगर धनुआ ! वो नाही जा सकत ! उकी हालत बहुत ही खराब है बिटवा |”

“हमका कछु नहीं मालूम मौसी... जो ठेकेदार हमका बोला वो मैं तुमको बता दिया हूँ |”

परबतिया हिम्मत न होते हुए भी सुबह मजदूरी करने आ पहुँची |

“ज्यादा दिमाग खराब हो गए हैं क्या  तेरे ! घर में बैठकर आराम करने के पैसे नहीं देता हूँ समझी.. और सुन लो सब लोग !! आज ही आज में यह दीवार खड़ी हो जानी चाहिए इंजिनियर साहब का आदेश है | यह बाँध एक महीने में पूर्ण करना  है  | आज कोई भी बीच में काम रोकेगा नहीं !! अगर कार्य में अवरोध हुआ तो मुझसे बुरा कोई न होगा !!

काम करते करते दोपहर हो चली थी | परबतिया सीमेंट और बजरी का सम्मिश्रण अपने सिर पर उठा कर पहुँचाए जा रही थी कि अचानक वह गश खा कर गिर पड़ी | उसके साथी मजदूर दौड़े उसकी तरफ मगर ठेकेदार ने सबको काम का हवाला दे डांट डपट कर भगा दिया और खुद परबतिया को उठाकर ले गया |

बाहर एक नयी दीवार का निर्माणाधीन कार्य चल रहा था और एक पुरानी चारदिवारी के मध्य परबतिया की अस्मत.....|

निर्माण कार्य के शोरगुल में एक बेबस की चीखें दब कर रह गयीं |

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 सुकेता त्यागी 

"दिवार"

"बेटा आज इसको छोड़ना नहीं, मिट्टी का तेल डाल"
"माँ तू माचिस ले और फूँक"
"आह.... बचाओ!!!"
"इसका मुँह दबा"
इस जीवन के संघर्ष में, उसने तेल का केरबा छीन, उड़ेल दिया सास और पति पर.....।
आज भय ने 'शोषण व् दमन' की दीवार गिरा, लक्ष्मी से दुर्गा बना दिया उसे।

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सुश्री राजेश कुमारी 

'मजहबी दीवार'

अलसाई आँखों को खोलते ही कबूतरी ने चौंक कर  कबूतर से पूछा  “ जानू, ये रात ही रात में क्या हो गया पूरा भवन ही खंडहर हो गया  अब कहाँ  बैठकर गुटरगूं करेंगे” ?

“इंसानी धर्मों का बुलडोजर चल गया है जानू इस पर, पर तू चिंता ना कर ऐसी जगह चलेंगे  जहाँ मजहबी दीवार नहीं होती कबूतर ने कहा”|

और आजकल वो दोनों  मुन्नी बाई के कोठे की छत पर गुटरगूं करते हैं|  

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श्री कृष्ण मिश्रा "जान" गोरखपुरी 
 “ये मै क्या सुन रहा हूँ??, “इस फिल्म में हीरोइन को मेरे बराबर फ़ीस देने की बात हो रही है?
 हाँ, सर आपने ही तो कहा था,कि पुरुष और महिला एक्टर के पारिश्रमिक के बीच के अन्तर की दीवार गिरनी चाहिए!
 हां कहा था, और अब जो कह रहा हूँ उसे ध्यान से सुन ‘फिल्म के डायरेक्टर-प्रोड्यूसर को फ़ोन लगा और उन्हें बोल के—
 “मैंने अपनी फ़ीस बढ़ा दी है”!
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श्री शुभ्रांशु पाण्डेय 
ग्लानि
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खाली पड़ी हवेली के बीचोबीच इतने सालो से बहुत अकड़ के साथ खडा़ था वह. अभिमान था उसे अपने होने पर. आखिर ठाकुर खानदान की मूँछों के ताव का साक्षी था वो ! 
लेकिन आज जब शहर से एक ही कार मे बैठ कर दोनों परिवारों के पोते आये, तो उसे अपनी इसी अकड़ पर बहुत ग्लानि हो रही थी. क्या मिला आखिर उसे ? सालोंसाल की कचोटती हुई वीरानी ही तो !
आज पहली बार इतने सालों में वो थका हुआ महसूस कर रहा था. उसकी इच्छा भी अब भरभरा कर बैठने की हो रही थी. 
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श्री सुशील सरना 
भ्रम की दीवार ..................
दादू .... 
हूँ .... 
दादू जब मैं बड़ा हो जाऊंगा न तो मैं भी भी एक मन्दिर बनाऊंगा। 
अच्छा ये तो बड़ी अच्छी बात है .... अच्छा फिर क्या करोगे। 
फिर दादू मैं उसे बहुत अच्छा सजाऊंगा। 
अरे वाह … ये काम बहुत अच्छा है। लेकिन बेटे , मंदिर तो अपने घर में है न फिर दूसरा मंदिर क्यों ?
ओफ्फो दादू आप कुछ नहीं समझते। जब मैं बड़ा होकर अपना घर बनाऊंगा न तो उसमें वो मन्दिर बनाऊंगा। 
अच्छा ऐसा है तब तो मैं भी तुम्हारा मंदिर सजाऊंगा , ठीक है न। 
लेकिन दादू आप मंदिर कैसे सजायेंगे ? तब तक तो आप नहीं रहेंगे। 
कार चलाते-चलाते मैं  भाव -शून्य सा हो गया। मेरा पोता बोलता रहा पर मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरी साँसों से जीवन के फुल स्टॉप की दूरी बता दी हो। मेरे ज़िंदा रहने के भ्रम की दीवार गिरा दी हो।
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श्री हरी प्रकाश दुबे 
"जेल की दीवारें "
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“जी , जेलर साहब !”
“तू ,बहू हैं या डायन !”
“साहब मैं तो बहू हूँ , और यह मेरे पिता !”
“वाह,अरे जिस बिचारे को तूने “ रेप “ के आरोप में फसां दिया उसी से हफ्ते में दो बार मिलने आ जाती है !”
“जी, रेप मतलब ?” “
अरे यार , ये दिमाग का दही कर देगी , तुम ही कुछ बोलो बाप /ससुर अरे जो भी हो यार !”
“ ये मेरी बिटिया है, सालों कोई इसे कुछ नहीं कहेगा , और जेल की दीवारें गूँज रही थीं.. गरीबी और बीमारी से तंग आकर , मैंने ही कहा था अपने बेटे से .....मुझे बंद करा दे , कैसे भी ....और !”
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सुश्री अर्चना त्रिपाठी (1)

संस्कारों की दीवार 

" क्या जरूरत थी आपको सगाई में जाने की ? आपकी बहू की मौत को कितने दिन ही हुये है ? "
"मैं भांजी की सगाई में चला गया तो तुम्हारे दुःख का पारावार न रहा, लेकिन उन संस्कारों का क्या जिसकी दीवारों की धज्जियां पत्नी की मृत्यु के मात्र एक महीने के भीतर लिव इन रिलेशनशिप में उड़ा दी?"

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सुश्री अर्चना त्रिपाठी  (2)
द्वितीय प्रस्तुति -नेस्तनाबूत अपनत्व की दीवार
राजेश की गंभीर बीमारी की खबर से मानो शांत झील में कंकड़ पड़ गया।चिकित्सको द्वारा गंभीर सर्जरी की सलाह और चंद महीनो की बिमारी से वह हारने लगा। पत्नी की आशाभरी निगाहें सशक्त परिवार की ओर उठ गयी जिसकी मिसाल सारा गावँ देता था। लेकिन विपरीत परिस्थितियों को देख सबने अपनी -अपनी मजबूरियाँ बता पल्ला झाड़ लिया।
फिर भी पत्नी ने दबाव बनाते हुए-
"भाई साहब सर्जरी तो कराई जा सकती है।"
"असफल हो गयी तो धन भी हाथ से चला जाएगा ।भविष्य में बच्चों की देखभाल भी तो करनी है। तुम चिंता मत करो नेहा , हम सब है ।"
नेहा के इर्दगिर्द परिवार के अपनत्व के दिखावे की दिवार पलभर में भरभरा कर नेस्तनाबूत हो गयी।
***

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Replies to This Discussion

इस संकलन में आप की रचना के सम्मिलित होने हेतु

आप को बधाई एवं हार्दिक शुभाकामनाएं.

सच में यह हिन्‍दी साहित्‍य का एक  ऐतिहासिक व स्‍वर्णिम आयोजन ही था। आपकी बेहतरीन लघुकथा ने आयोजन को चार चाँद लगा दिए। हार्दिक आभार भाई रवि प्रभाकर जी।

मंच को अभिवादन और संचालक गण साधुवाद के हकदार है सभी प्रतिभागी भी बधाई स्वीकार करे !

आयोजन की रचनाओं का संकलन और पुनर्प्रस्तुतीकरण निस्संदेह एक कष्टसाध्य कार्य है. इस कार्य को यथासम्भव सुरूचिपूर्ण से क्रियान्वित करने के लिए आदरणीय योगराजभाईसाहब को हार्दिक बधाइयाँ और सादर शुभकामनाएँ.

संकलन-कार्य का पूर्ण होना एक प्रतीक्षा के पूर्ण होने के समान है.

जिन रचनाकारों की रचनाएँ इस संकलन में स्थान नहीं बना पायीं, उन्हें अन्यथा लेने की आवश्यकता नहीं है. क्योंकि इस मंच के आयोजन रचनाकारों को तुष्ट करने के लिए नहीं, बल्कि रचनाकर्म को परिमार्जित करने के उद्येश्य से आयोजित होते हैं. अतः संकलन में महती भूमिका रचनाओं की ही हुआ करती है.


दूसरे, हर रचनाकार को मालूम हो चुका है कि प्रस्तुत हुई उसकी रचना के पोजिटिव-निगेटिव प्वाइण्ट क्या हैं. प्रस्तुति के बाद भी रचना में क्या परिवर्तन आवश्यक हैं. यह सारा कुछ रचनाकर्म के परिमार्जन का हिस्सा है और इन्हें इसी तरह ही लिया जाना चाहिये.

मैंने अपनी दूसरी लघुकथा में कथ्य की संप्रेषणीयता को और निखारने के लिहाज से परिवर्तन किया है. मैं उक्त लघुकथा के संशोधित प्रारूप को प्रस्तुत कर रहा हूँ --
****************
अपने आप पर फूली न समाती थी, वहीं आज कई दिन हो गये हैं मुस्कुराये. जैसे निस्सारता का समूचा शास्त्र ही मन-मस्तिष्क पर हावी हो गया था. लक-दक करती इस अत्याधुनिक बहुमंजिला इमारत का तो जैसे रंग ही उड़ गया है, "सैकड़ों इमारते हैं.. उनके दिन कबके चले गये. खंडहर मात्र हैं वो आज.. लेकिन उनकी दीवारों का ’वज़ूद’ तो फिर भी है न ! .."
पुराना किला पास ही था. दिल खोल दिया उसने -
"आखिर क्या है कि तेरे खंडहरों में आज भी ’जीवन’ है ?"
"मुझे मालूम था.. तू एक न एक दिन ये ज़रूर पूछेगी..", पुराने किले ने कहा.
"कहाँ क्या कमी रह गयी है ? मेरी ये चकचकाती दीवारें..ये बनाव, ये सिंगार.. मगर क्या तेरी आधी उम्र तक भी पहुँच पायेंगी ?"
"काश तुझे पालने वालों ने तुझे तेरी ’ज़मीन’ को समझने दिया होता.. ", पुराने किले ने उसकी आँखों में आँखें डालते हुए कहा, "तेरी दीवारों के कान तो हैं, आँखें भी हैं क्या ?.."
इमारत को आज पहली बार अपनी ओढ़ी हुई विजातीयता का अहसास हो रहा था.
***************

आदरणीय श्री सौरभ पाण्डेय जी 

सादर प्रणाम .

आप ने व योगराज प्रभाकर जी ने लघुकथा गोष्टी का सफल सञ्चालन करने के बाद , लघुकथाओं का इतना बेहतरीन संकलन तैयार किया. यह किसी पुण्य कार्य से कम नहीं है .

आप ने रचनाओं का चयन बेहत्तर  ढंग से किया है .

इस संकलन में सम्मिलित सभी रचनाकारों को बधाई एवं हार्दिक शुभाकामनाएं.

इस गोष्टी के सभी सहयोगियों का आभार . खासकर , डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव, योगराज प्रभाकर  जी , ई० गणेश जी बागी जी , आदि सभी की प्रतिक्रिया एवं स्नेहयुक्त मार्गदर्शन के लिए विशेष आभार.

 

आदरणीय ओमप्रकाशजी,

आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया और आत्मीय शुभकामनाओं के लिए हार्दिक धन्यवाद.
किन्तु, मैं इस संदर्भ में एक बात स्पष्ट कर दूँ, कि इस लघुकथा गोष्ठी आयोजन के संचालन तथा सम्मिलित रचनाओं के संकलन में हमारी कोई भूमिका नहीं है.  सारा कुछ जो प्रस्तुत हुआ दिख रहा है, वह आयोजन के संचालक आदरणीय श्री योगराज भाईजी के सुप्रयासों का सुपरिणाम है.

हमसबों की शुभकामनाएँ आदरणीय योगराजभाईसाहब के प्रति हैं.
सादर

आदरणीय  सौरभ जी 

क्षमा करे. मैं  समझा  कि सभी के सम्मिलित प्रयास का नतीजा था.

सादर 

आप  का 

इस बधाई का श्रेय पूरे ओबीओ परिवार को जाता है आ० सौरभ भाई जी।

जय हो..

सदाशयता इस परिवार का मूल आचरण है..

सादर

आपकी शुभकामनायों एवं आयोजन में प्रतिभागिता हेतु बहुत बहुत धन्यवाद आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी।

आदरणीय  योगराज जी 

यह आप का बड़प्पन है , जो आप ऐसा कह रहे है. अन्यथा इस सफल आयोजन का दारोमदार सब आप पर ही था .

सादर प्रणाम 

आप  का  

ओमप्रकाश क्षत्रिय "प्रकाश"

आपकी बधाई एवं शुभकामना सर माथे पर आ० सौरभ भाई जी।  संकलन तो ३० अप्रेल की रात को ही पोस्ट हो जाता किन्तु नेट समस्या के चलते ऐसा संम्भव न हो सका। यह आयोजन दरअसल हमारे लिए "ड्रीम कम ट्रू" की तरह रहा। जिस तरह की परिकल्पना की गई थी, उससे भी कहीं बढ़कर यह आयोजन सफल रहा। हालाकि रचनायों की संख्या बहुत ज़्यादा होने के कारण उनपर चर्चा उतनी नही हो पाई जितनी कि होनी चाहिए थी। फिर भी कुल मिलाकर शुरुयात् बहुत ही बढ़िया रही। इस आयोजन में जो कमियाँ रह गईं उन्हें अगले अंक में दूर करने का प्रयास अवश्य किया जायेगा।

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