आदरणीय साहित्य प्रेमियो,
(१). श्री दीपक मशाल जी
बँटवारा
श्री अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव
जहाँ प्यार नहीं - दीवार वहीं [ लघु कथा ]
यशोदा किसन की सूरत देखकर ही जान गई कि हम मुक़दमा हार गए ।
“ पैसा फेंको और तमाशा देखो का जमाना है माँ और ताऊजी ने यही किया । ”
बँटवारे में बड़े भाई रतन को बड़ा मकान मिला था और छोटे जगन को छोटा मकान और खलिहान । जगन की मृत्यु के बाद रतन खलिहान में भी आधा हक जताकर मामला कोर्ट तक ले गया ।
जहाँ प्यार नहीं, दीवार वहीं । आखिर एक दीवार आँगन के बीच खड़ी हो गई ।
यशोदा सुबह से आँगन की साफ सफाई में लगी थी । कमर सीधी करने के लिए खड़ी हुई तो देखा कि जेठजी उसे ही घूर रहे हैं और विजयी मुद्रा में सिर डुलाते, आँखों से कुछ इशारे कर बार-बार मूँछों पर ताव दे रहे हैं। जेठानी मायके गई है और ऐसी ढिठाई ...... ? अदालती फैसले से अधिक पीड़ा उसे जेठजी की इस ओछी हरकत और इशारेबाज़ी से हुई।
बेटे से बोली “ किसन तूने अपनी माँ का दूध पिया है तो शाम की चौपाल में ताऊजी के गाल पर थप्पड़ लगाना और सब को बताना कि तुमने ऐसा क्यों किया ।”
साहसी और हर हाल में खुश रहने वाली माँ की डबडबाई आँखे देख किशोर वय किसन घटना की गम्भीरता को समझने का प्रयास कर रहा था।
थप्पड़ की तेज आवाज से सब चौंक गए । किसन ने सुबह की घटना का बयान किया । पूरी चौपाल ने छोटे भाई की विधवा यशोदा के साथ रतन के व्यवहार और झूठे मुक़दमेबाज़ी की घोर निंदा की और किसन के थप्पड़ को जायज़ ठहराया ।
दो दिन बाद ही आँगन की तीन फुट ऊँची दीवार छः फुट की हो गई ।
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ई० गणेश जी बागी
लघुकथा : दीवार
भूकंप के कारण गाँव के कई कच्चे मकान धराशायी हो गयें हैं, इस आपदा की घड़ी में दोनों सम्प्रदायों के लोगों ने मिल जुलकर सैकड़ों जानें बचाईं साथ ही सभी मिलकर सामूहिक रूप से भोजन तैयार कर समूचे गाँव को खिला रहे हैं. यह वही गाँव है जहाँ कुछ वर्ष पहले दंगा हुआ था और उस दंगे के कारण दोनों सम्प्रदायों में दुश्मनी और नफ़रत कल तक बनी हुई थी किन्तु इस प्रलयकारी भूकंप ने दोनों संप्रदाय के मध्य बन आयी नफरत और दुश्मनी की मजबूत दीवार को ज़मींदोज़ कर दिया.
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ई० गणेश जी बागी
द्वितीय प्रस्तुति => लघुकथा : उम्मीद
छोटा भाई आँगन के मध्य पक्की दीवार खड़ी करा रहा था और बड़े भाई की आखों से आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. पत्नी समझा रही थी.
“क्यों रो रहें है जी, आखिर बटवारा तो पहले ही हो गया था और इससे पहले भी मिट्टी की दीवार खड़ी ही थी. याद कीजिये वो दीवार आपने ही बनवाई थी.”
हाँ तुम सही कह रही हो किन्तु मेरे द्वारा बनवाई गयी दीवार कच्ची थी जिसके गिरने की उम्मीद बनी हुई थी.
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श्री सौरभ पाण्डेय जी (1)
डॉक्टर साहब की मुखमुद्रा वृद्धा को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं लग रही थी. लेकिन बसेसर सिंह थे कि कुछ समझने को तैयार ही न थे. इधर उनके मन में परदेसी हो चुके दोनों बेटों के चेहरे बार-बार आते, बार-बार मन को बेटों का सैलानी परिवार घेरता, लेकिन वे हर-बार उन्हें जोर से झटक देते.
"क्या उम्मीद लगाये हैं सिंह साहब ? अब तो मान जाइये ! .. माताजी को भी चैन लेने दीजिये..", डॉक्टर साहब ने सीधी नज़रों से बसेसर सिंह की ओर देखते हुए कहा. मगर बसेसर सिंह के कान तो जैसे पत्थर हो गये थे.
"कुछ भी नहीं हो सकता, डॉक्टर साहब ?"
"पिछले तीन वर्षों से देखता आ रहा हूँ.. .. अब तो कायदे से ये हिल भी नहीं पातीं..".
बसेसर सिंह नरम आँखों से डॉक्टर साहब की ओर देखने लगे, ".. हिलती तो ख़ैर दीवार भी नहीं है डॉक्टर साहब.. जर्जर ही सही, लेकिन घर की छत को वही थामे रहती है.."
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श्री सौरभ पाण्डेय जी (2)
द्वितीय प्रस्तुति
अपने आप पर फूली न समाती थी, वहीं आज कई दिन हो गये हैं मुस्कुराये. जैसे निस्सारता का समूचा शास्त्र ही मन-मस्तिष्क पर हावी हो गया था. लक-दक करती इस अत्याधुनिक बहुमंजिला इमारत का तो जैसे रंग ही उड़ गया है, "सैकड़ों इमारते हैं.. उनके दिन कबके चले गये. खंडहर मात्र हैं वो आज.. लेकिन उनकी दीवारों का ’वज़ूद’ तो फिर भी है न ! .."
पुराना किला पास ही था. दिल खोल दिया उसने, "आखिर क्या है कि तेरे खंडहरों में आज भी ’जीवन’ है ?"
"मुझे मालूम था.. तू एक न एक दिन ये ज़रूर पूछेगी..", पुराने किले ने कहा.
"कहाँ क्या कमी रह गयी है ? मेरी ये चकचकाती दीवारें..ये बनाव, ये सिंगार..मगर क्या तेरी आधी उम्र तक भी पहुँच पायेंगी ?"
"काश तुझे पालने वालों ने तुझे ’ज़मीन’ को समझने दिया होता.. तेरी दीवारों के कान तो हैं, आँखें भी हैं क्या ?.."
इमारत को आज पहली बार अपनी ओढ़ी हुई विजातीयता का अहसास हो रहा था.
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श्री गिरिराज भंडारी
दीवार
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चिता में पिता की मृत देह रखी जा चुकी थी, आग देने के बाद बड़ा लड़का फफक के रो पड़ा , और एकांत कोने की ओर बढ़ गया । आग तेज़ करने की कोशिशें जारी थीं । छोटा पुत्र भी रोती आँखें लिये उसी कोने की ओर बढ़ा और बड़े के पास पहुँच के हाथ जोड़ के बोला, बड़े भैया मैं ही गलत था, अब हम रसोई एक कर लेंगे, और लिपट गया
अचानक चिता की लपटें खूब ऊपर तक उठीं ।
मानो मृत आत्मा खुशी से झूम उठी हो , और निर्णय के समर्थन में दोनों हाथ उठा लिये हों ।
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श्री गिरिराज भंडारी
ता कि दीवारें न उठें ( दूसरी लघु कथा )
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बड़े भतीजे की शादी का माहौल था । उल्लास पूर्ण वातवरण मे सभी क़रीबी रिश्तेदार म्युज़िक में डांस कर रहे थे । मैं भी अपने चौथे पहर में भीड़ मे शामिल उल्टे सीधे हाथ पैर झटक रहा था । अचानक छोटा लड़का आया और मेरा हाथ पकड़ कर बाहर ले आया और थोड़ी नाराजगी से बोला
“ क्या पापा आप भी न , एक तो आपको कुछ आता जाता नहीं ऊपर से आप हाई बी पी के मरीज़ हैं , कहाँ आप भी बच्चों जैसी हरकतें करने लगे “
मै ने कहा ‘’ बेटा ! तू चिंता न कर मेरी , तेरे चाचा ने खुशी अधूरी रह जाने की बात कह दी , अगर मेरे हाथ पर झटकने से तेरे चाचा की शिकायत कम हो रही है तो क्या बुरा है, और रही बीपी की बात, एक खुराक दवा की और सही । कभी कभी मन में दीवारें उठ न जायें इस लिये भी कुछ करना पड़ता है “
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सुश्री माला झा (१)
दीवार
बरसों पहले बँटवारा हुआ। परिणामस्वरूप घर के आँगन के साथ साथ दोनों भाइयों के मन के आँगन में भी दिवार खड़ी हो गयी।आज दोपहर जब भूकम्प आया।सोहन अपने परिवार और गाँव वालों के साथ खुले मैदान की तरफ भागा।अचानक उसे अपने लकवाग्रस्त भाई का ध्यान हो आया। "भाभी और बच्चे तो खेत में होंगे।"सोचते हुए उलटे पाँव घर की तरफ लपका।भाई के पास पहुँचकर उसे कसकर बाँहों में भर लिया।
आँसूओं के जलजले में दिल की दीवार ढह गयी।काँधे पर भाई को लिए बाहर निकल ही रहा था कि अचानक आँगन से कुछ भरभरा कर गिरने की आवाज़ आयी
"धड़ाम"!
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सुश्री नेहा अग्रवाल (१)
"दिवार"
भूकंप से मची तबाही से विचलित हो कर आकाश ने धरती से पूछा।
"माँ हो तुम तो ना, फिर यह सब ?"
धरती माँ कराहते हुए बोली।
"माँ तो हूँ पर मैं भी क्या करूँ, मेरे सीने पर बढ़ती दिवारों का बोझ असहनीय हो गया था। "
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सुश्री नेहा अग्रवाल (२)
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डॉ विजय शंकर (१)
प्रेरक दीवार
रोती हुई दीवार ( लघुकथा )
दीवारों के पीछे एक युगल प्रेम पला । दुनिया से छुपकर .... रस्म -ओ - रिवाजों से बेखबर वे प्रेम के हिलोरे लेते .....और दीवार चुपचाप उनकी दास्तान में शामिल हो जाती । दिल बनाकर उसकी छाती में दोनों ने प्रेम की निशानी अंकित कर दी थी । दीवार बड़ी ही खुश थी । प्रेम के बीज का प्रस्फुटन उसके अन्दर भी हो चुकी थी । एक दिन दीवार के पीछे कई कान जनम उठे । कई आँखें उग आई थी सहसा ।
समगोत्री ना जाने क्या होती है ?
चीखों में यह शब्द सुनी थी दीवार ने ।
सहसा खुदा हुआ दिल रक्त रंजित हो खून से सन उठा । प्रेम कतरा कतरा बह रहा था और दीवार रक्त की धारों में अपनी आँसुओं को गिन रही थी ।
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श्री सुधीर द्विवेदी (1)
दीवार
भूकम्प से भरभराई इमारत की दीवार ने धूल से सना मुंह ज्यूँ उठा के देखा, झोपडी की दीवार ने अब तक सम्भाला हुआ था छत का पल्लू |
इमारत की दीवार झुंझला पड़ी “हुँह ! यहाँ भी पक्षपात. बगावत कैसे सहन करती ये तानाशाह प्रकृति ? ”
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श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय (1)
लघुकथा-दीवार
आंधी, तूफान और सांप्रदायिक दंगों से न टूटने वाली रहिमचाचा और ईश्वर पहलवान की दोस्ती हवा के हल्के से झोंके से टूट गई जो कही से छन कर आया था कि बाबर और सीमा ने शादी कर ली.
“बेगम ! उस घर की तरफ हमारा देखना भी हराम है . उस लौंडिया ने हमारा दीन और ईमान नष्ट कर दिया.”
“भूल से भी देख मत लेना वरना एकाध की कब्र खोद दूंगा .” ईश्वर पहलवान की आँखे नफ़रत बरसा रही थी. वही धारा १४४ ने पूरे शहर में सुरक्षा की दीवार खड़ी कर दी थी ताकि नफ़रत की आग पूरा शहर को न जला सके.
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श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय (2)
द्वितीय प्रस्तुति- लघुकथा- दीवार
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“आई लव यू “ के साथ पप्पी की आवाज सुन कर पति चौका . उसे दिलोजान से प्यार करने वाली पत्नी बेवफा हो सकती है. ‘ हाय राम ! औरतों के त्रिया चरित्र को भगवान भी नहीं समझ सके.’ यह सोच कर गुस्से में पति ने कमरे में प्रवेश करना चाह. तभी पत्नी की आवाज आई, “ अब मेरे पति आने वाले है. तुम जाओ. कल फिर आना. मैं इंतजार करुँगी .”
तभी पति की आग उगलती निगाहें आवाज की दिशा में गई. जहाँ से चार वर्षीय बालिका खिड़की की दीवार फांदती हुई दौड़ी चली जा रही थी .
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श्री जितेन्द्र पस्टारिया (1)
प्रथम प्रस्तुति....
बंद मुट्ठी....
“अरे शारदा भाभी, अब कैसी तबियत है भैया की..? उन्हें लकवा लगा तब से हाल-चाल लेने ही नहीं आ पाई. पर एक बात मैं ही नहीं, पूरा गाँव कहता है भैया का बड़ा अनुशाशन रहा है घर में. देखो! दोनों बेटों को पढ़ाया-लिखाया, उनकी शादियाँ की और इतना बड़ा घर भी बनवा दिया अपने चलते-फिरते समय में..”
“हाँ!! जीजी, सच ही कह रही हो उन्होंने जब तक हाथ-पाँव चले, तब तक सब कुछ किया. लेकिन जब से बीमार हुए...”
“बस! भाभी परेशान मत हो, भगवान् सब ठीक करेगा.. भाभी! यह आँगन में ईंट पड़ी है, क्या कोई काम शुरू होने वाला है..?
“अरे नहीं जीजी, दोनों बेटे इंजीनियर है न. वो छत कहीं कमजोर सी है तो बीच में दीवार का सहारा देकर, उसे मजबूत करने का कह रहे है..”
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श्री जितेन्द्र पस्टारिया (2)
द्वितीय प्रस्तुति..
परिभाषा...
“पापा! पापा!..यह प्रतिक्रिया क्या होती है..? समझाओ न! पापा..”
“बेटा! जब हम कुछ करें, उसके बदले जो हमें मिले वो प्रतिक्रिया. जैसे तुम अपने आँगन की दीवार पर गेंद मारते हो तो वो लौट कर तुम्हारे पास आ जाती है. है न! “
“ हाँ! पापा..समझ गया. पर पापा, जब ताउजी और हमारे आँगन के बीच जब दीवार नहीं थी और गेंद उधर चली जाती थी, तब तो ताउजी मुझे गेंद के साथ मिट्ठी और चॉकलेट भी देते थे. और दीवार तो सिर्फ गेंद.. ऐसा क्यों पापा..?”
महज एक झूठे आत्मसम्मान की दीवार खड़ी करने वाले, पिता के पास नन्हे बेटे को अपनों से मिले प्रेम और निर्जीव दीवार की प्रतिक्रिया की परिभाषा देना मुश्किल सा लग रहा था..
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श्री रवि प्रभाकर
दीवारें
"अबे ओए ! कहाँ घुसते चले आ रहे हो ? तुम्हे मालूम नहीं इस ‘पवित्र स्थान‘ पर ‘तुम जैसों‘ का प्रवेश निषिद्ध है ?‘
गुस्से से घूरता हुआ वो उनको बोला I
‘लगता है आप भूल गए हैं ! कल ही तो आपने हमें ‘पवित्र कर‘ हमारी ‘घर वापसी’ करवाई है।‘
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श्री विनोद खनगवाल (1)
दीवार
दीवार - पैसा ( लघु कथा )
"बापू कल से हम खेतों पर काम करने नहीं जायेंगे "- हरिराम ने खाना खाते हुए अपना फरमान घर वालों को सुना दिया।
गॉव में गोबर से पुती हुई झोपड़ की चाहरदीवारी उसके जीवन में सुकून नहीं दे पा रही थीं ।
“क्या तू भी इस बुढापें में हमको औरों की तरह असहाय छोड़ कर विदेश चला जायेगा “ ?
"अरे बापू कुछ सालों की ही तो बात है , पैसा कमाया और देश वापस ।"
भाग्य से विदेश में उसे एक कन्स्ट्रक्शन कम्पनी में काम भी मिल गया । और कुछ ही वर्षो में कुबेर उस पर ऐसे प्रसन्न हुए कि उसकी काया पलट हो गई । वापस लौटा तो खुद की कंस्ट्रक्शन कम्पनी का मालिक हों गया , काम चल निकला , अब चारों तरफ रुपये की बरसात होने लगी। उसका धनिक होना रिश्तेदारों से दूरी का कारण बना .... ।
"अरे, यह क्या ! इसके बाप की मिटटी पड़ी हुई है , कोई कन्धा क्यों नहीं दे रहा ? “
रूपयों की दीवार तले दब कर अब वह कराह रहा था ।
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श्री पंकज जोशी (२)
(द्वितीय प्रस्तुति) दीवार – मिलन
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आज अरुण के गले से कौर नहीं उतर रहा था । जब से उसने अपने बड़े भाई के गले में कैंसर के बारे में सुना तब से उससे वह बैचेन है । अनमने मन से उसने थाली को किनारे खिसका दिया ।
“ हाँ खाने का मन तो मेरा भी नहीं है ऐसी मनहूस खबर सुनने के बाद किसको भूख है ।
"अजी , क्यों ना हम भाईसाहब को शहर ले आयें । अरे तूने तो मेरे मन की बात कह दी ।
प्रकृति का भी अजीब खेल है I कल तक जिन दो भाईयों के बीच जायदाद को लेकर रिश्तों में खराशें आ गई थीं I
बरबस ही एक दूसरे की ओर मदद को बढ़ते हाथ, आज एक दूसरे का सहारा बन रहे हैं I दोनों के बीच अहं , दंभ के मसालों से चुनी हुई दीवार आँखों से गिरते पश्चाताप के आंसुओ के सैलाब में , गोते लगाती हुई, कही दूर बही जा रही थी
"आखिर खून उबाल जो ले रहा है
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सुश्री मीना पाण्डेय (1)
दीवार
"क्या करूँ बहन ? एक तो लड़की जात ,तिस पर रंग सांवला ,नयन नक्श भी राम भरोसे !कहती हूँ ,तनिक रंग रूप ,साज सज्जा का ध्यान रख !! पर नही ,दिन रात बंद कमरे में ,मुई किताबों में सर घुसाये रहती है I कौन ब्याहेगा इसे ? यही चिंता खाए जात है !!"
"सो तो है बहन " I पड़ोस की चाची हाँ में हाँ मिलती जाती I
अपनी डिग्रियों और किताबों से घिरी केतकी के कानों में जस जस ये शब्द पड़ते ,उसका निश्चय और मजबूत होता जाता कि --
"एक दिन वह समाज में व्याप्त, ब्याह के लिए आवश्यक इस रूप लावण्य कि दीवार को अपनी शिक्षा व् गुणों से अवश्य ध्वस्त करेगी "
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सुश्री मीना पाण्डेय (2)
दीवार ( दूसरी लघुकथा )
" ये जाति की दीवार हमें कभी एक न होने देगी !! चलो भाग कर शादी कर लें I "
" नहीं , मैं ऐसा नहीं कर सकती , माँ -बापू को ऐसे छोड़ कर नहीं जा सकती I "
" यदि ऐसा था तो प्रेम क्यों किया ? "
" उस वक़्त नहीं जानती थी कि मेरे संस्कारों कि नींव , जाति की दीवारों की नींव से अधिक मजबूत होंगी I "
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सुश्री महिमा श्री
कलुआ झटपट नेता जी के आवास पर पहूँच जाना चाहता था।जल्दी पहूँचने के चक्कर में अपने बेरोजगार बेटे को करीब घसीट ही लिया था । उसे पूरा विश्वास था, आज उसके बेटे के काम का इंतजाम जरुर हो जाएगा। उसके कानों में नेता जी की आवाज गूंज रही थी --
“जात-पात की दिवार गिरा कर देश को शक्तिशाली बनाना है ।सबको एक साथ आगे बढ़ना है। हम-सब भारत माता की संतान हैं । हम-सब की रगो में एक ही खून दौड़ रहा है।“
नेता जी के आवास पर पहूँचते ही भीड़ दिखी । सब पंक्ति में खड़े थे। उसे भी गार्ड ने रोक लिया । उसके हुलिये को आंकते हुए पूछा गया “कौन जात हो?” । जबाव देते ही उसे बेटे के साथ साइड में कर दिया और बाकियों को अंदर ।
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श्री चंद्रेश कुमार छतलानी (१)
"मज़बूत दीवार"
रामदीन आज भी देर रात आंगन में बैठा सामने की हवेली से ईर्ष्या कर रहा था, वो उसके घर से बहुत बड़ी थी और उसकी दीवारें ऊँची और पक्की थीं| इतने में हवेली के बाहर एक कार आकर रुकी, उसमें से हवेली की मालकिन लड़खड़ाती हुई, अस्त-व्यस्त कपड़ों में बाहर निकली| कार उन्हें बाहर ही छोड़ कर आगे चली गयी|
यह देख रामदीन हल्का सा चौंका लेकिन उसे अब अपने घर की कच्ची दीवारें अधिक मज़बूत और ऊँची दिखाई देने लगीं |
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श्री चंद्रेश कुमार छतलानी (२)
द्वितीय प्रस्तुति
“अभिलाषा”
दो महिलाएं मंदिर से बाहर निकली|
एक ने पूछा, "भगवान से क्या माँगा?"
"एक छत मांगी जो अपनी हो| तुमने क्या माँगा?"
"मैनें छत को थामने वाली दीवार मांगी|" उसने अपनी सूनी गोद को देखते हुए कहा|
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श्री अमन कुमार
90 साल पुरानी दीवार अचानक हल्की से बारिश मे भर भरा कर गिर गयी दिलावर खान को लगा मानो उसे नगा ही कर दिया हो जहा मे , ऊपर बाले ने !
पीढ़ी दर पीढ़ी से जमींदारी रही थी पर सरकार और दादा जान की फिजूल खर्ची ने सब कुछ खत्म कर दिया था | जो था उससे अब्बा जान ने खंडहर होती हवेली के चारो तरफ ऊची दीवार मे लगा कर अमीरी का भ्रम बनाए रखा ! पर अब उसकी मुफ़लिसी , उसको जीने नही दे रही है और सवाल अब यही है की इस ईद पर जवान होती लड़कियो के कपड़े बनबा कर इज्जत बचाए ? या दीवार बनवा कर अपनी जमीदारी ?
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ई० नोहर सिंह ध्रुव "नरेंदर"
श्री हरिकृष्ण ओझा
"कच्ची दीवार"
दो भाइयो के बीच गिरती दीवार को देख कर लोगों को आश्चर्ये हो रहा थाI क्योकि भाइयो के बीच दीवार खड़ी होते सब ने देखा था लेकिन आज पहली बार दीवार गिरते हुए देख रहे थेI एक वृद्ध आदमी से रहा नहीं गयाI और पूछ लिया - अरे भाई माजरा क्या है, तो बड़ा भाई बोला - काका हमने दीवार तो बनाई थी लेकिन नींव नहीं डाली थी जैसे ही दोनों की ग़लतफ़हमी दूर हुई हमने दीवार गिरा दीI वृद्ध आदमी अपने कांपते हाथो से बड़े भाई की पीठ थप थपा रहा थाI
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डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव (1)
सहारा (लघु कथा )
‘ अरे शादी कर लेंगे न पर पहले इस दीवार से तो पीछा छुडाओ , आज-कल दो दिन में सब नार्मल हो जाता है I’
‘ तुम्हे यह दीवार लगता है I यह हमारे प्रेम की निशानी है i’
‘ भाड में गयी निशानी I सारा इंज्वायमेंट ख़त्म हो जाएगा, यार I ‘
‘ तो क्या करूं ? अजन्मे मासूम की हत्या कर दूं ? नहीं, यह मुझसे नहीं होगा i”
‘ फिर सोंच लो I तुमको दो में से एक को चुनना होगा I या तो मैं या फिर यह दीवार I’
‘ अच्छा, यह बात है ?’
‘ बिलकुल “
‘ तो फिर सुन लो, दीवार का तो फिर सहारा होता है पर तुम जैसों से क्या उम्मीद ? गुड बाई
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डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव (2)
पति की मृत्यु के समय उसकी गोद में चार माह की बेटी थी I बाद में उसका चक्कर घीसा के साथ चल गया I पर घीसा कहता –‘तेरी बेटी हमारे बीच एक दीवार है, वरना मै तुझे अपने साथ ही रख लेता I’
उसके ह्रदय में द्वन्द छिड़ा गया I दैवयोग से उसकी बेटी को तेज ज्वर चढ़ आया I एक शाम जब वह घीसा के पास पहुँची तो उसकी गोद सूनी थी I
‘घीसा मुझे बेटी से मुक्ति मिल गयी I अब हमारे बीच कोई दीवार नहीं है I’ उसने धीरे से कहा I
‘क्यों , बेटी को क्या हुआ ---? कहाँ गयी वह ?’
‘उसे काले ज्वर ने खा लिया I’
‘यह तो बुरा हुआ I पर तू कल शाम गोमती के पुल पर क्यों गयी थी ?
‘तुझसे किसने कहा ?’- वह घबराकर बोली I
‘उस छपाक------ की आवाज ने जो तेरे कुछ फेंकने से हुयी थी I’
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श्री जवाहर लाल सिंह (1)
पहली प्रस्तुति
अदृश्य दीवार
राघव और माधव दोनों भाइयों में सम्पत्ति को लेकर अक्सर झगड़ा होता ही रहता था. मनमुटाव ऐसा कि एक दुसरे को आंख उठाकर देखना भी मंजूर नहीं.
जब राघव गंभीर बीमारी से ग्रस्त हुए तो सही उपचार के लिए माधव ने हर संभव कोशिश की.
राघव ने मुस्कुराते हुए कहा- “अब झगड़ा नहीं करेगा मुझसे?”
माधव – “क्यों नहीं. पहले ठीक तो हो जाओ. बीमार आदमी से क्या लड़ना” ...और वह रो पड़ा. दोनों भाइयों के बीच की अदृश्य ‘दीवार’ आंसुओं के बाढ़ में टूट चुकी थी
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श्री जवाहर लाल सिंह (2)
लघुकथा द्वितीय प्रस्तुति
किसानों की मंडी
नेता जी अपने निजी सचिव से – “गोपालपुर मंडी जाने वाली सुबह की बस की सारी सीटें बुक करा लो.”
सचिव – “जी”
नेताजी – “उसमे सभी अपने आदमी ही रहेंगे साधारण वेश भूषा में”
“जी”
“कैमरावाला भी अपना ही होगा”
“जी”
“हाँ बस अपनी रफ़्तार से चलेगी, हर स्टॉप पर रुकेगी भी”
“जी”
"हमें यह दिखलाना है कि किसानों और उनके नेता के बीच कोई दीवार नहीं है"
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योगराज प्रभाकर
दीवार
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"क्यों बार बार आ जाते हो ? मैं कितनी बार कह चुका हूँ कि वीज़ा नही मिल सकता।"
"साहिब ! बँटवारे के दौरान बिछडे हुए भाई का 65-66 साल बाद पता चला है। वो कुछ ही दिनों का मेहमान है, बस एक बार उसको देखना चाहता हूँ। "
"आप मेरा और अपना वक़्त बर्बाद कर रहे हैं।"
"मुझ पर मेहरबानी कीजिए, मुझे मेरे भाई से आखरी बार मिल लेने दीजिए।"
"तुम लोगों का कोई भरोसा नही, वहाँ जाकर कोई जासूसी कर दी तो ?"
"ये धरती हमारी माँ है साहिब, क्या हम इसके साथ ही गद्दारी करेंगे ?"
"रिजेक्ट"
अधिकारी ने ज़ोर से मोहर लगाते हुए कहा।
छठी बार अस्वीकृत हुए वीज़ा फार्म को देखते हुए उसके रुँधे गले से यही निकल पाया:
"लोग कहते हैं कि चीन की दीवार सब से ऊँची है, झूठ बोलते हैं सब।"
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सुश्री ज्योत्सना कपिल (1)
(दीवार)
आदरणीय पापा
आपको जानकर शायद कोई फर्क न पड़े की कल मैं आपसे बहुत दूर चली जाऊँगी।पर मेरे लिए ये बहुत कष्टदायक है।आप बेटा चाहते थे पर मैं अ गई।पर इसमें मेरा क्या दोष था?मैं तरसती रही की आप कभी मुझे प्यार से गले लगाएं।खूब डटकर पढ़ाई की के आपको मुझपर गर्व हो ।पर आप तो कभी खुश ही न दिखाई दिए। आई आई टी करते ही अच्छी नौकरी के ढेरों ऑफर थे मेरे सामने।पर मैंने वो चुना जो मुझे घर से बहुत दूर ले जाए।आपकी नज़रों से दूर ले जाए।अब आपको मेरी सूरत और नहीं देखनी पड़ेगी। आपकी क्या कहूँ?
श्रुति ।
आँखों में छलक आए अश्रु पोंछते हुए उसने पत्र मोड़कर टेबल पर रखा सुबह एक नई राह तलाशने की उम्मीद में और सो गई।
किसी के सर पर हाथ फेरने से वह जागी तो देखा पापा की आँखों से आंसू बह रहे थे।
"मुझे माफ़ कर दे बच्ची-तुझसे प्यार तो बहुत था-पर कभी जता नहीं सका-न जाने कैसी दीवार खड़ी हो गई थी हमारे बीच" वे उसे गले लगाकर सिसक पड़े।बाप बेटी के बीच खड़ी दीवार कब की ढह चुकी थी।
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श्री अरुण कुमार निगम
दीवार
मैम जल्दी जे.जे हास्पिटल पहुँचिये, साहब को आफिस में दिल का दौरा पड़ने से उन्हें.हास्पिटल में एडमिट किया गया है. मोबाइल पर यह सूचना मिलते ही मैम को लगा मानों छन्न से काँच की कोई दीवार टूटकर बिखर गई हो. वह तुरंत जे.जे हास्पिटल के लिये रवाना हो गई.
जरा-सी बात पर साथ रहते हुये भी एक दूरी न जाने कब से बनी हुई थी. औपचारिक बातें भी होती थीं किन्तु परस्पर मन की बातें सुन नहीं पाते थे. यदाकदा स्पर्श भी हो जाते थे किन्तु न छुवन की नरमी महसूस हो पाती थी और न प्यार की गरमी ही.
नहीं नहीं अब ऐसा कुछ नहीं होगा. अहम् की दीवार टूट चुकी है, अब इतना प्यार लुटाउँगी कि.......बस हास्पिटल आ चुका था. साहब आई.सी.यू. में. मैम खिडकी से साहब को देख रही थी. कुछ कहना ,सुनना संभव नहीं था.
डॉक्टर ने कहा कि भगवान पर भरोसा रखिये, अभी कुछ भी कहा नहीं जा सकता है. बेड के बाजू में लगा मानिटर दिल का हाल बयां कर रहा था. इस खिडकी में भी एक काँच की दीवार.........शायद कह रही थी कि मैम दीवारें इतनी आसानी से नहीं टूटतीं.
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श्री वीरेंदर वीर मेहता
सुश्री शशि बंसल (१)
दीवार ( लघु कथा )
"ये आपकी बहू शाहिना ! पैर छुओ बाबूजी के ।"
"परे हटो ! मेरा कोई बेटा - बहू नहीं ।"
"पिताजी ! इतने वर्ष बीत गए , अब तो क्षमा कर दीजिये ।"
"नहीं । असंभव । मेरे लिए तू उसी दिन मर गया था , जब परिवार और गैर - जाति प्रेम के बीच इस लड़की को चुना था ।"
"पर आपकी ही सीख थी , प्रेम से बड़ा कोई मज़हब नहीं ।"
"तो यही प्रेम बचा था करने के लिए ।जाओ , मुझे सीख मत दो ।"
"जी । वो तो बस आपका पोता अपने दादा से मिलने की जिद कर रहा था , इसलिए ...।" पीछे खड़े बेटे को आगे करते हुए शाहिना ने कहा ।
"अरे! ये तो बिलकुल मेरे बेटे पर ही गया है ।आ बेटा ! कलेज़ा ठंडा कर दे इस बूढ़े का । "
बेटा-बहू आत्म-संतोष से मुस्कुरा एक-दुसरे की आँखों में कह रहे थे -
"दीवार ही तो थी, ढह गई ।"
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\दीवार ( द्वितीय प्रस्तुति )
दीवार या चारदिवारी ( लघुकथा )
“ठेकेदार ने कहलाया है कि परबतिया को कल जरुर आवा पड़ी !!”
“मगर धनुआ ! वो नाही जा सकत ! उकी हालत बहुत ही खराब है बिटवा |”
“हमका कछु नहीं मालूम मौसी... जो ठेकेदार हमका बोला वो मैं तुमको बता दिया हूँ |”
परबतिया हिम्मत न होते हुए भी सुबह मजदूरी करने आ पहुँची |
“ज्यादा दिमाग खराब हो गए हैं क्या तेरे ! घर में बैठकर आराम करने के पैसे नहीं देता हूँ समझी.. और सुन लो सब लोग !! आज ही आज में यह दीवार खड़ी हो जानी चाहिए इंजिनियर साहब का आदेश है | यह बाँध एक महीने में पूर्ण करना है | आज कोई भी बीच में काम रोकेगा नहीं !! अगर कार्य में अवरोध हुआ तो मुझसे बुरा कोई न होगा !!
काम करते करते दोपहर हो चली थी | परबतिया सीमेंट और बजरी का सम्मिश्रण अपने सिर पर उठा कर पहुँचाए जा रही थी कि अचानक वह गश खा कर गिर पड़ी | उसके साथी मजदूर दौड़े उसकी तरफ मगर ठेकेदार ने सबको काम का हवाला दे डांट डपट कर भगा दिया और खुद परबतिया को उठाकर ले गया |
बाहर एक नयी दीवार का निर्माणाधीन कार्य चल रहा था और एक पुरानी चारदिवारी के मध्य परबतिया की अस्मत.....|
निर्माण कार्य के शोरगुल में एक बेबस की चीखें दब कर रह गयीं |
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सुकेता त्यागी
"दिवार"
"बेटा आज इसको छोड़ना नहीं, मिट्टी का तेल डाल"
"माँ तू माचिस ले और फूँक"
"आह.... बचाओ!!!"
"इसका मुँह दबा"
इस जीवन के संघर्ष में, उसने तेल का केरबा छीन, उड़ेल दिया सास और पति पर.....।
आज भय ने 'शोषण व् दमन' की दीवार गिरा, लक्ष्मी से दुर्गा बना दिया उसे।
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सुश्री राजेश कुमारी
'मजहबी दीवार'
अलसाई आँखों को खोलते ही कबूतरी ने चौंक कर कबूतर से पूछा “ जानू, ये रात ही रात में क्या हो गया पूरा भवन ही खंडहर हो गया अब कहाँ बैठकर गुटरगूं करेंगे” ?
“इंसानी धर्मों का बुलडोजर चल गया है जानू इस पर, पर तू चिंता ना कर ऐसी जगह चलेंगे जहाँ मजहबी दीवार नहीं होती कबूतर ने कहा”|
और आजकल वो दोनों मुन्नी बाई के कोठे की छत पर गुटरगूं करते हैं|
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सुश्री अर्चना त्रिपाठी (1)
संस्कारों की दीवार
" क्या जरूरत थी आपको सगाई में जाने की ? आपकी बहू की मौत को कितने दिन ही हुये है ? "
"मैं भांजी की सगाई में चला गया तो तुम्हारे दुःख का पारावार न रहा, लेकिन उन संस्कारों का क्या जिसकी दीवारों की धज्जियां पत्नी की मृत्यु के मात्र एक महीने के भीतर लिव इन रिलेशनशिप में उड़ा दी?"
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इस संकलन में आप की रचना के सम्मिलित होने हेतु
आप को बधाई एवं हार्दिक शुभाकामनाएं.
सच में यह हिन्दी साहित्य का एक ऐतिहासिक व स्वर्णिम आयोजन ही था। आपकी बेहतरीन लघुकथा ने आयोजन को चार चाँद लगा दिए। हार्दिक आभार भाई रवि प्रभाकर जी।
मंच को अभिवादन और संचालक गण साधुवाद के हकदार है सभी प्रतिभागी भी बधाई स्वीकार करे !
आयोजन की रचनाओं का संकलन और पुनर्प्रस्तुतीकरण निस्संदेह एक कष्टसाध्य कार्य है. इस कार्य को यथासम्भव सुरूचिपूर्ण से क्रियान्वित करने के लिए आदरणीय योगराजभाईसाहब को हार्दिक बधाइयाँ और सादर शुभकामनाएँ.
संकलन-कार्य का पूर्ण होना एक प्रतीक्षा के पूर्ण होने के समान है.
जिन रचनाकारों की रचनाएँ इस संकलन में स्थान नहीं बना पायीं, उन्हें अन्यथा लेने की आवश्यकता नहीं है. क्योंकि इस मंच के आयोजन रचनाकारों को तुष्ट करने के लिए नहीं, बल्कि रचनाकर्म को परिमार्जित करने के उद्येश्य से आयोजित होते हैं. अतः संकलन में महती भूमिका रचनाओं की ही हुआ करती है.
दूसरे, हर रचनाकार को मालूम हो चुका है कि प्रस्तुत हुई उसकी रचना के पोजिटिव-निगेटिव प्वाइण्ट क्या हैं. प्रस्तुति के बाद भी रचना में क्या परिवर्तन आवश्यक हैं. यह सारा कुछ रचनाकर्म के परिमार्जन का हिस्सा है और इन्हें इसी तरह ही लिया जाना चाहिये.
मैंने अपनी दूसरी लघुकथा में कथ्य की संप्रेषणीयता को और निखारने के लिहाज से परिवर्तन किया है. मैं उक्त लघुकथा के संशोधित प्रारूप को प्रस्तुत कर रहा हूँ --
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अपने आप पर फूली न समाती थी, वहीं आज कई दिन हो गये हैं मुस्कुराये. जैसे निस्सारता का समूचा शास्त्र ही मन-मस्तिष्क पर हावी हो गया था. लक-दक करती इस अत्याधुनिक बहुमंजिला इमारत का तो जैसे रंग ही उड़ गया है, "सैकड़ों इमारते हैं.. उनके दिन कबके चले गये. खंडहर मात्र हैं वो आज.. लेकिन उनकी दीवारों का ’वज़ूद’ तो फिर भी है न ! .."
पुराना किला पास ही था. दिल खोल दिया उसने -
"आखिर क्या है कि तेरे खंडहरों में आज भी ’जीवन’ है ?"
"मुझे मालूम था.. तू एक न एक दिन ये ज़रूर पूछेगी..", पुराने किले ने कहा.
"कहाँ क्या कमी रह गयी है ? मेरी ये चकचकाती दीवारें..ये बनाव, ये सिंगार.. मगर क्या तेरी आधी उम्र तक भी पहुँच पायेंगी ?"
"काश तुझे पालने वालों ने तुझे तेरी ’ज़मीन’ को समझने दिया होता.. ", पुराने किले ने उसकी आँखों में आँखें डालते हुए कहा, "तेरी दीवारों के कान तो हैं, आँखें भी हैं क्या ?.."
इमारत को आज पहली बार अपनी ओढ़ी हुई विजातीयता का अहसास हो रहा था.
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आदरणीय श्री सौरभ पाण्डेय जी
सादर प्रणाम .
आप ने व योगराज प्रभाकर जी ने लघुकथा गोष्टी का सफल सञ्चालन करने के बाद , लघुकथाओं का इतना बेहतरीन संकलन तैयार किया. यह किसी पुण्य कार्य से कम नहीं है .
आप ने रचनाओं का चयन बेहत्तर ढंग से किया है .
इस संकलन में सम्मिलित सभी रचनाकारों को बधाई एवं हार्दिक शुभाकामनाएं.
इस गोष्टी के सभी सहयोगियों का आभार . खासकर , डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव, योगराज प्रभाकर जी , ई० गणेश जी बागी जी , आदि सभी की प्रतिक्रिया एवं स्नेहयुक्त मार्गदर्शन के लिए विशेष आभार.
आदरणीय ओमप्रकाशजी,
आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया और आत्मीय शुभकामनाओं के लिए हार्दिक धन्यवाद.
किन्तु, मैं इस संदर्भ में एक बात स्पष्ट कर दूँ, कि इस लघुकथा गोष्ठी आयोजन के संचालन तथा सम्मिलित रचनाओं के संकलन में हमारी कोई भूमिका नहीं है. सारा कुछ जो प्रस्तुत हुआ दिख रहा है, वह आयोजन के संचालक आदरणीय श्री योगराज भाईजी के सुप्रयासों का सुपरिणाम है.
हमसबों की शुभकामनाएँ आदरणीय योगराजभाईसाहब के प्रति हैं.
सादर
आदरणीय सौरभ जी
क्षमा करे. मैं समझा कि सभी के सम्मिलित प्रयास का नतीजा था.
सादर
आप का
इस बधाई का श्रेय पूरे ओबीओ परिवार को जाता है आ० सौरभ भाई जी।
जय हो..
सदाशयता इस परिवार का मूल आचरण है..
सादर
आपकी शुभकामनायों एवं आयोजन में प्रतिभागिता हेतु बहुत बहुत धन्यवाद आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी।
आदरणीय योगराज जी
यह आप का बड़प्पन है , जो आप ऐसा कह रहे है. अन्यथा इस सफल आयोजन का दारोमदार सब आप पर ही था .
सादर प्रणाम
आप का
ओमप्रकाश क्षत्रिय "प्रकाश"
आपकी बधाई एवं शुभकामना सर माथे पर आ० सौरभ भाई जी। संकलन तो ३० अप्रेल की रात को ही पोस्ट हो जाता किन्तु नेट समस्या के चलते ऐसा संम्भव न हो सका। यह आयोजन दरअसल हमारे लिए "ड्रीम कम ट्रू" की तरह रहा। जिस तरह की परिकल्पना की गई थी, उससे भी कहीं बढ़कर यह आयोजन सफल रहा। हालाकि रचनायों की संख्या बहुत ज़्यादा होने के कारण उनपर चर्चा उतनी नही हो पाई जितनी कि होनी चाहिए थी। फिर भी कुल मिलाकर शुरुयात् बहुत ही बढ़िया रही। इस आयोजन में जो कमियाँ रह गईं उन्हें अगले अंक में दूर करने का प्रयास अवश्य किया जायेगा।
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