विशेष लेखमाला: जगवाणी हिंदी का वैशिष्टय् व्याकरण और छंद विधान - 2
जन-मन को भायी चौपाई
छंद पर इस महत्वपूर्ण लेख माला की प्रथम श्रंखला में आपने जाना कि वेद के 6 अंगों 1. छंद, 2. कल्प, 3. ज्योतिऽष , 4. निरुक्त, 5. शिक्षा तथा 6. व्याकरण में छंद का प्रमुख स्थान है ।
भाषा का सौंदर्य उसकी कविता में निहित है । कविता के 2 तत्व - बाह्य तत्व (लय, छंद योजना, शब्द योजना, अलंकार, तुक आदि) तथा आंतरिक तत्व (भाव, रस, अनुभूति आदि) हैं । छंद के 2 प्रकार मात्रिक (जिनमें मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है) तथा वर्णिक (जिनमें वर्णों की संख्या निश्चित तथा गणों के आधार पर होती है) हैं. भाषा, व्याकरण, वर्ण, स्वर, व्यंजन, लय, छंद, तुक, शब्द-प्रकार आदि की जानकारी के पश्चात् दूसरी कड़ी में प्रस्तुत है कुछ और प्राथमिक जानकारी के साथ चौपाई छंद के रचना विधान की जानकारी -सं.
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भाषा/लैंग्वेज का विकास :
अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिये भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है। भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ. ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ। आदि मानव को प्राकृतिक घटनाओं (वर्षा, तूफ़ान, जल या वायु का प्रवाह), पशु-पक्षियों की बोली आदि को सुनकर हर्ष, भय, शांति आदि की अनुभूति हुई। इन ध्वनियों की नकलकर उसने बोलना, एक-दूसरे को पुकारना, भगाना, स्नेह-क्रोध आदि की अभिव्यक्ति करना सदियों में सीखा।
लिपि:
कहे हुए को अंकित कर स्मरण रखने अथवा अनुपस्थित साथी को बताने के लिये हर ध्वनि के लिये अलग- अलग संकेत निश्चित कर, अंकित करना सीखकर मनुष्य शेष सभी जीवों से अधिक उन्नत हो सका। इन संकेतों की संख्या बढ़ने तथा व्यवस्थित रूप ग्रहण करने ने लिपि को जन्म दिया। एक ही अनुभूति के लिये अलग-अलग मानव समूहों में अलग-अलग ध्वनि तथा संकेत बनने तथा आपस में संपर्क न होने से विविध भाषाओँ और लिपियों का जन्म हुआ।
लिंग (जेंडर):
लिंग से स्त्री या पुरुष होने का बोध होता है। लिंग हिंदी में २ पुल्लिंग व स्त्रीलिंग, संस्कृत में ३ पुल्लिंग, स्त्रीलिंग व नपुंसक लिंग तथा अंग्रेजी में ४ मैस्कुलाइन जेंडर (पुल्लिंग), फेमिनाइन जेंडर (स्त्रीलिंग), कोमन जेंडर (उभयलिंग) तथा न्यूटर जेंडर (नपुंसक लिंग) होते हैं।
वचन (नंबर):
वचन से संख्या या तादाद का बोध होता है।हिंदी व अंग्रेजी में २ वचन एकवचन (सिंगुलर) तथा बहुवचन (प्लूरल) होते हैं जबकि संस्कृत में तीसरा द्विवचन भी होता है।
विकारी शब्दों के भेद:
पिछले लेख में इंगित विकारी शब्दों के चार भेद संज्ञा (नाउन), सर्वनाम (प्रोनाउन), विशेषण (एडजेक्टिव) तथा क्रिया (वर्ब) हैं जबकि अविकारी शब्दों के चार भेद क्रिया विशेषण (एडवर्ब), समुच्चय बोधक (कंजंकशन), संबंधवाचक (प्रीपोजीशन) तथा विस्मयादिबोधक (इंटरजेकशन) हैं।
संज्ञा: किसी व्यक्ति, स्थान, वस्तु, भाव या वर्ग के नाम को संज्ञा कहते हैं। संज्ञा के ५ प्रकार निम्न हैं:
१. व्यक्तिवाचक संज्ञा (प्रोपर नाउन)- जिससे व्यक्ति या स्थान विशेष का बोध हो। यथा: प्रभाकर, जबलपुर, गंगा, गूगल आदि।
२. जातिवाचक (कॉमन नाउन)- जिससे पूरी जाति या वर्ग का बोध हो। यथा: पुस्तक, बालक, ब्लॉग, कविता आदि।
३. भाववाचक (एब्सट्रेक्ट नाउन)- जिससे किसी वस्तु के गुण, धर्म, दशा, भाव आदि का बोध हो। यथा: मानवता, लिखावट, मित्रता, माधुर्य, ईमानदारी आदि।
४. समूहवाचक (कलेक्टिव नाउन)- जिससे एक जाति या वर्ग के समस्त सदस्यों का बोध हो। यथा: कवि, ब्लॉग लेखक, सेना, कक्षा सभा, आदि।
५. पदार्थवाचक (मटीरिअल नाउन)- जिससे किसी धातु, द्रव्य या पदार्थ का बोध हो। यथा: सोना, कागज़, तेल आदि।
सर्वनाम: किसी संज्ञा शब्द के स्थान पर प्रयोग में आनेवाले शब्द को सर्वनाम कहते हैं। सर्वनाम के १० प्रकार निम्न हैं:
१. पुरुष/व्यक्तिवाचक (पर्सनल प्रोनाउन)- व्यक्ति, वस्तु या स्थान के नाम के स्थान पर प्रयुक्त शब्द व्यक्तिवाचक सर्वनाम कहलाते हैं। इसके ३ प्रकार : अ. उत्तम पुरुष (फर्स्ट पर्सन) मैं, हम, मेरे, हमारे आदि, आ. मध्यम पुरुष (सेकेण्ड पर्सन) तुम, तू, तुम्हारे, आप आपके आदि, इ. अन्य पुरुष (थर्ड पर्सन) वह, वे, उन, उनका आदि हैं।
२. निश्चयवाचक (डेफिनिट/एम्फैटिक प्रोनाउन)- जिससे वस्तु की निकटता या दूरी आदि का बोध हो। यथा: यह, ये, वह, वे इसी, उसी आदि।
३. अनिश्चयवाचक (इनडेफिनिट प्रोनाउन)- जिससे निश्चित वस्तु या माप बोध न हो। यथा: सब, कुछ, कई, कोई, किसी आदि।
४. संबंधवाचक (रिलेटिव प्रोनाउन)- जिससे दो वाक्यों या आगे-पीछे आनेवाली संज्ञाओं / सर्वनामों से सम्बन्ध का बोध हो। यथा: यथावत, जैसी की तैसी, जो सो, आदि।
५. प्रश्नवाचक (इनटेरोगेटिव प्रोनाउन)- जिससे प्रश्न किये जाने का का बोध हो। यथा: कौन?, क्या? आदि।
६. निजवाचक (रिफ्लेक्सिव प्रोनाउन)-जिसका प्रभाव कर्ता पर पड़ने का बोध हो। यथा: अपना काम समय पर करो।, वे स्वयं कर लेंगे आदि।
विशेषण: किसी संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता का बोध करनेवाले शब्द को विशेषण तथा जिस शब्द की विशेषता बताई जाती है उसे विशेष्य कहते हैं।विशेषण के निम्न प्रकार हैं-
१. गुणवाचक विशेषण (एडजेक्टिव ओफ क्वालिटी)- यह संज्ञा शब्द के गुणों का बोध कराता है। यथा: बुद्धिमान छात्र, तेज घोड़ा, भव्य इमारत आदि।
२. संख्यावाचक विशेषण (एडजेक्टिव ऑफ़ नंबर)- जिससे संज्ञा की संख्या का बोध हो। यथा: दुगनी मेहनत, सौ विद्यार्थी आदि।
३. परिमाणवाचक विशेषण (एडजेक्टिव ऑफ़ क्वांटिटी)- जो संज्ञा का परिमाण या माप व्यक्त करें। यथा: कुछ फलाहार, थोड़ा विश्राम, प्रचुर उत्पादन, अल्प उपस्थिति आदि ।
४. संकेतवाचक विशेषण (डिमोंसट्रेटिव एडजेक्टिव)- ये संज्ञा या सर्वनाम की ओर संकेत करते हैं। यथा: यह पुस्तक, वह समान आदि।
५. प्रश्नवाचक विशेषण (इंटेरोगेटिव एडजेक्टिव)- इससे प्रश्न किया जाए। यथा: किसकी किताब?, कौन छात्र? आदि।
६. व्यक्तिवाचक विशेषण (प्रोपर एडजेक्टिव)- व्यक्तिवाचक संज्ञा से बने विशेषण। यथा: भारतीय, हिंदीभाषी आदि।
७. विभागसूचक विशेषण (डिस्ट्रीब्यूटिव एडजेक्टिव): जो अनेक में से प्रत्येक का बोध कराये। यथा: हर एक, प्रत्येक, हर कोई आदि।
विशेषण की तुलनात्मक स्थितियाँ (डिग्री ऑफ़ कंपेरिजन): तुलना की दृष्टि से विशेषण की ३ स्थितियाँ १. मूलावस्था या सामान्यावस्था (पोजिटिव डिग्री) जिसमें किसी से तुलना न हो यथा: सुंदर, बड़ा, चतुर आदि, २. उत्तरावस्था या तुलनात्मक (कंपेरेटिव डिग्री) दो के बीच तुलना यथा अपेक्षा, बेहतर, बदतर, अधिक या कम आदि
तथा ३. उत्तमावस्था या चरम स्थिति (सुपरलेटिव डिग्री) सबसे अधिक/कम श्रेष्ठ, उत्तम, सर्वाधिक, सबसे आगे आदि हैं।
जन-मन को भायी चौपाई/चौपायी :
भारत में शायद ही कोई हिन्दीभाषी होगा जिसे चौपाई छंद की जानकारी न हो. रामचरित मानस की रचना चौपाई छंद में ही हुई है.
चौपाई छंद पर चर्चा करने के पूर्व मात्राओं की जानकारी होना अनिवार्य है. मात्राएँ दो हैं १. लघु या छोटी (पदभार एक) तथा दीर्घ या बड़ी (पदभार २). ऊपर वर्णित स्वरों-व्यंजनों में हृस्व, लघु या छोटे स्वर ( अ, इ, उ, ऋ, ऌ ) तथा सभी मात्राहीन व्यंजनों की मात्रा लघु या छोटी (१) तथा दीर्घ, गुरु या बड़े स्वरों (आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:) तथा इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: मात्रा युक्त व्यंजनों की मात्रा दीर्घ या बड़ी (२) गिनी जाती हैं.
चौपाई छंद : रचना विधान-
चौपाई के चार चरण होने के कारण इसे चौपायी नाम मिला है. यह एक मात्रिक सम छंद है चूँकि इसकी चार चरणों में मात्राओं की संख्या निश्चित तथा समान रहती है. चौपाई द्विपदिक छंद है जिसमें दो पद या पंक्तियाँ होती हैं. प्रत्येक पद में दो चरण होते हैं जिनकी अंतिम मात्राएँ समान (दोनों में लघु या दोनों में गुरु) होती हैं. चौपायी के प्रत्येक चरण में १६ तथा प्रत्येक पद में ३२ मात्राएँ होती हैं. चौपायी के चारों चरणों के समान मात्राएँ हों तो नाद सौंदर्य में वृद्धि होती है किन्तु यह अनिवार्य नहीं है. चौपायी के पद के दो चरण विषय की दृष्टि से आपस में जुड़े होते हैं किन्तु हर चरण अपने में स्वतंत्र होता है. चौपायी के पठन या गायन के समय हर चरण के बाद अल्प विराम लिया जाता है जिसे यति कहते हैं. अत: किसी चरण का अंतिम शब्द अगले चरण में नहीं जाना चाहिए. चौपायी के चरणान्त में गुरु-लघु मात्राएँ वर्जित हैं.
उदाहरण:
१. शिव चालीसा की प्रारंभिक पंक्तियाँ देखें.
जय गिरिजापति दीनदयाला | -प्रथम चरण
१ १ १ १ २ १ १ २ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
सदा करत संतत प्रतिपाला || -द्वितीय चरण
१ २ १ १ १ २ १ १ १ १ २ २ = १६१६ मात्राएँ
भाल चंद्रमा सोहत नीके | - तृतीय चरण
२ १ २ १ २ २ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
कानन कुंडल नाक फनीके || -चतुर्थ चरण
२ १ १ २ १ १ २ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
रामचरित मानस के अतिरिक्त शिव चालीसा, हनुमान चालीसा आदि धार्मिक रचनाओं में चौपाई का प्रयोग सर्वाधिक हुआ है किन्तु इनमें प्रयुक्त भाषा उस समय की बोलियों (अवधी, बुन्देली, बृज, भोजपुरी आदि ) है.
निम्न उदाहरण वर्त्तमान काल में प्रचलित खड़ी हिंदी के तथा समकालिक कवियों द्वारा रचे गये हैं.
२. श्री रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
भुवन भास्कर बहुत दुलारा।
मुख मंडल है प्यारा-प्यारा।।
सुबह-सुबह जब जगते हो तुम|
कितने अच्छे लगते हो तुम।।
३. श्री छोटू भाई चतुर्वेदी
हर युग के इतिहास ने कहा|
भारत का ध्वज उच्च ही रहा|
सोने की चिड़िया कहलाया|
सदा लुटेरों के मन भाया।।
४. शेखर चतुर्वेदी
मुझको जग में लाने वाले |
दुनिया अजब दिखने वाले |
उँगली थाम चलाने वाले |
अच्छा बुरा बताने वाले ||
५. श्री मृत्युंजय
श्याम वर्ण, माथे पर टोपी|
नाचत रुन-झुन रुन-झुन गोपी|
हरित वस्त्र आभूषण पूरा|
ज्यों लड्डू पर छिटका बूरा||
६. श्री मयंक अवस्थी
निर्निमेष तुमको निहारती|
विरह –निशा तुमको पुकारती|
मेरी प्रणय –कथा है कोरी|
तुम चन्दा, मैं एक चकोरी||
७.श्री रविकांत पाण्डे
मौसम के हाथों दुत्कारे|
पतझड़ के कष्टों के मारे|
सुमन हृदय के जब मुरझाये|
तुम वसंत बनकर प्रिय आये||
८. श्री राणा प्रताप सिंह
जितना मुझको तरसाओगे|
उतना निकट मुझे पाओगे|
तुम में 'मैं', मुझमें 'तुम', जानो|
मुझसे 'तुम', तुमसे 'मैं', मानो||
९. श्री शेषधर तिवारी
एक दिवस आँगन में मेरे |
उतरे दो कलहंस सबेरे|
कितने सुन्दर कितने भोले |
सारे आँगन में वो डोले ||
१०. श्री धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन'
नन्हें मुन्हें हाथों से जब ।
छूते हो मेरा तन मन तब॥
मुझको बेसुध करते हो तुम।
कितने अच्छे लगते हो तुम ||
११. श्री संजीव 'सलिल'
कितने अच्छे लगते हो तुम |
बिना जगाये जगते हो तुम ||
नहीं किसी को ठगते हो तुम |
सदा प्रेम में पगते हो तुम ||
दाना-चुग्गा मंगते हो तुम |
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ चुगते हो तुम ||
आलस कैसे तजते हो तुम?
क्या प्रभु को भी भजते हो तुम?
चिड़िया माँ पा नचते हो तुम |
बिल्ली से डर बचते हो तुम ||
क्या माला भी जपते हो तुम?
शीत लगे तो कँपते हो तुम?
सुना न मैंने हँसते हो तुम |
चूजे भाई! रुचते हो तुम ||
अंतिम उदाहरण में चौपाई छन्द का प्रयोग कर 'चूजे' विषय पर मुक्तिका (हिंदी गजल) लिखी गयी है. यह एक अभिनव साहित्यिक प्रयोग है.
अगले अंक में क्रिया, वाच्य, काल आदि के साथ आल्हा छंद की चर्चा करेंगे.
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