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निशान !

लगभग ५३ वर्ष हुए जब  "धर्मयुग" साप्ताहिक पत्रिका के पन्ने पलटते हुए किसी अदृश्य शक्ति नें अचानक मुझको रोक लिया, और मुझे लगा कि मेरी अंगुलियों में किसी एक पन्ने को पलटने की क्षमता न थी।

आँखें उस एक पन्ने पर देर तक टिकी रहीं, और मात्र ८ पंक्तियों की एक छोटी-सी कविता को छोड़ न सकीं। वह कविता थी  "निशान"  जो ५३ वर्ष से आज तक मेरे स्मृति-पटल पर छाई रही है, और जिसे मैं अभी भी अपने परम मित्रों से आए-गए साझा करता हूँ .....

                    हाँ, यह मकान बढ़कर

                    तिमंज़िला-चौमंज़िला हो गया 

                    इसकी सीमेंट सूखकर कड़ी हो गई

                    लेकिन उस दिन 

                    तुमने जो मज़ाक-मज़ाक में

                    गीली सीमेंट पर

                    मुलायम पाँव रख दिया था

                    उसका निशान ज्यों का त्यों है

हाँ, सरलता में डूबी यह छोटी-छोटी पंक्तियाँ ... मानो हवा का कोई झोंका धीरे से आकर मुझको मादक सुगन्ध से छू गया और उसने मुझकोे प्रेरित किया कि मैं ढूँढूँ उस फूल को, उस उपवन को, जहाँ से यह सुगन्ध आई थी ... ढूँढूँ उस बादल को जिसकी बारिश की बूंदें मुझको इस प्रकार सराबोर कर गई थीं। 

यह बात सन १९६२ की है जब मैं २० वर्ष की आयु में "वल्लभ-विद्यानगर, गुजरात" में इन्जिनीयरिन्ग का विद्यार्थी था, और कालेज की ओर से हमारी कक्षा को मुंबई की फ़ैकट्रियों को देखने का अवसर प्राप्त हुआ। छोटी-सी बस और रेल का सफ़र मिलाकर हमें मुंबई पहुँचने में लगभग ११ घंटे लगे। यात्रा की थकान के कारण पहले दिन  हम सभी को अवकाश दिया गया, और मैं फूला नहीं समाया, क्यूँकि मैंने झट तैयार होकर धर्मयुग के कार्यालय जाने की ठानी। 

मुंबई की बड़ी-बड़ी ऊँची इमारतें, चोड़ी सड़कें, भीड की चहल-पहल ... इस सब से चकित कई सड़कों के पार मैं धर्मयुग की Illustrated Weekly of India की बिलडिंग पर पहुँचा। दो लोगों ने मुझ अनजान को अंदर जाने से मना कर दिया, और फिर संयोगवश एक कर्मचारी को मेरे भोले-बच्चे-से आग्रह पर दया आ गई, और वह मुझको धर्मयुग के उपसंपादक के पास ले गया। मैंने उनको धर्मयुग का वह पन्ना दिखाया जिस पर छपी "निशान" कविता से मैं मुग्ध था, और मैंने उनसे इस कविता के रचनाकार का पता देने के लिए निवेदन किया। पता चला कि इसके लेखक-कवि डा० रामदरश मिश्र जी उन दिनों अहमदाबाद (गुजरात) में ज़ेवियर कालेज में हिन्दी के प्रोफ़ेसर थे। इससे अच्छी बात और क्या हो सकती थी कि मेरा कालेज भी गुजरात में था, और मेरे यहाँ से बस-रेल की यात्रा मिलाकर अहमदाबाद के लिए केवल ४ घंटे लगते थे।

मैंने डा० मिश्र को पत्र लिखा और बताया कि मैं उनकी कविता "निशान" से प्रभावित हूँ, और यदि वह मुझसे, २० वर्ष के अनजान विद्यार्थी से, मिलने के निवेदन को स्वीकार कर सकें तो आभारी हूँगा। कुछ ही दिनों में उनका पोस्ट-कार्ड आया, उसमें उन्होंने घर का पता दिया, और कहा कि किसी भी रविवार को उनसे मिलने आ सकता हूँ ... एक रविवार मैं अहमदाबाद की ओर चल दिया, और ढूँढते-फिरते उनके घर तक पहुँचा। मैं अभी तक विश्वास नहीं कर पाता कि कोई इतना सरल, इतना मिलनसार भी हो सकता है। शायद खादी का कुर्ता और पापलीन का पाजामा पहने हुए वह दरवाज़े पर थे ... सरलता उनकी आँखों से, उनकी मुस्कान से, उनके ऊँचे कद से छलक रही थी। उन्होंने मेरा परिचय अपनी पत्नी सरस्वती जी को दिया जो मुझको मेरी बड़ी बहन-सी लगीं (मैं ५३ वर्ष से उनको भाभीजी ही बुलाता हूँ)। 

हर चीज़ में सरलता प्रभावशाली थी ... पलंग पर चादर, एक छोटी-सी मेज़, और सामने के शैल्फ़ पर मानों आपस में संवाद करती हुई कितनी सारी किताबें और किताबें। पलंग पर बैठते ही सीमेंट के फ़र्श को देखते मेरे चेहरे पर कुछ अजीब-सी मुस्कान ठहर गई जो कुछ सैकंड के लिए मेरे ओंठों के कोरों पर टिकी रही। मेरी इस मुद्रा से अचंभित डा० रामदरश जी ने एकाएक पूछा....

       "क्या हुआ ?"

       " आपका यह सीमेंट का फ़र्श..."

       "अरे" (उनकी उपरोक्त कविता के संदर्भ में)

       " आपकी यह कविता ही तो मुझको वल्लभ-विद्यानगर से मुंबई (धर्मयुग) और अब यहाँ आपके पास अहमदाबाद ले आई है"

       " अरे, आप भी..." और वह, सरस्वती भाभी और मैं एक साथ हँस पड़े। चुप्पी की दीवार टूट गई।

यह चुप्पी की दीवार कुछ ऐसी टूटी कि आज ५३ वर्ष उपरान्त भी भाई रामदरश जी, सरस्वती भाभी और मैं जब भी मिलते हैं ऐसे हँसते हैं, इतना हँसते हैं कि जैसे हम सभी गली में  "बारिश में भीगते बच्चे हों" * या मैदान में पेड़ के नीचे  "आम के पत्ते" * से खेल रहे हों।

पहली बार मिले थे फिर भी हवा में कुछ था कि शीघ्र मैं उनको अपना-सा लगा, ... भाभीजी पहले चाय और फिर खाना ले आईं... और भाई राम दरश जी अपनी आवाज़ में मुझको कविताएँ पढ़कर रिझाते रहे। देखते ही कुछ घंटे बीत गए।

बातें, बातें और बातें... जब बेकार की बातें भी काम की बातें लगती हैं तो शायद अपनत्व बढ़ जाता है। मिश्र जी से मिलने के कुछ घंटे सदैव इतने मूल्यवान लगते हैं कि समय के जाते-जाते मानो हाथ से कुछ छूट जाएगा, कि कुछ अनकहे का अरमान रह जाएगा।

ऐसी ही हँसी के माहोल में २००९ में जब मैं, मेरी जीवन साथी नीरा, और सपुत्र आशीष भारत-यात्रा के दोरान में मिश्र जी से दिल्ली मिलने गए तो बातों-बातों में उनकी उसी कविता "निशान" को याद करते हुए मैंने उनसे पूछा.....

        " भाई साहब, एक बात पूछूँ ... भाभी जी के सामने? "

        " हाँ, हाँ, पूछिए न, (हँसते हुए) वह तो हमेशा पास ही रहती हैं "

        " आपने कई वर्ष हुए जब वह कविता "निशान" लिखी थी, तब वह किस लड़की के खयालों में लिखी थी ? "

मिश्र जी के चेहरे पर सदैव समान एक बच्चे-सी लहराती मुस्कान आ गई, पर इससे पहले कि वह कुछ कहते, भाभी जी हँसते हुए तुरंत बोल पड़ीं, " अरे मेरे भाई, वह मैं ही हूँ, वरना कौन इनसे शादी करती, कौन इनके साथ इतने वर्ष रहती " ... उनका यह कहना ही था कि हम सभी ज़ोर की हँसी में लोट-पोट रहे थे .. हँसते गए, हँसते ही गए।

इन ५३ वर्षों में बहुत बातें करीं हैं भाई रामदरश मिश्र जी से, बहुत हँसे हैं हम एक संग, परन्तु इस हँसी के पीछे कुछ और है जिसने अब तक हमारा परस्पर लगाव बनाए रखा है। वह है हम दोनों के हृदय में जीवन-अनुभवों के प्रति मार्मिक संवेदना, जिसके लिए हमें शब्दों की ज़रूरत नहीं होती, भावनाएँ स्वयं छलकती आती हैं। इस अपनत्व का एक कारण और भी हैे ... ६२ पुस्तकें प्रकाशित होने के बाद भी रामदरश मिश्र जी में बसी हुई गाँव की सोंधी मिट्टी, और नस-नस में समाई सरलता जो आजकल मिलनी दुर्लभ है।

                                                              -------------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

* "बारिश में भीगते बच्चे" और  "आम के पत्ते"  डा० रामदरश मिश्र जी की २ पुस्तकों के नाम हैं।

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Comment by vijay nikore on November 9, 2016 at 6:31am

// आपका यह संस्मरण पढ़ कर बहुत अच्छा लगा, अपितु यह कहूँ कि प्रेरक भी है तो अन्यथा न होगा। ऐसे संस्मरण स्वयं में साहित्यिक साधना होते हैं //

हृदयतल से आपका आभार, आदरणीय विजय जी।

Comment by Dr. Vijai Shanker on September 13, 2015 at 7:44pm
आदरणीय विजय निकोर जी ,
बहुत सुन्दर संस्मरण। धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान , सारिका ,खुश्वंत सिंह और इलेस्ट्रेटेड वीकली , कादम्बनी और नवनीत , हमारी भी साहित्यिक स्मृतियों की ठोस धरोहर हैं। डॉo राम दरश मिश्र जी का नाम बहुत ही जाना पहचाना है , आपका यह संस्मरण पढ़ कर बहुत अच्छा लगा, अपितु यह कहूँ कि प्रेरक भी है तो अन्यथा न होगा। ऐसे संस्मरण स्वयं में साहित्यिक साधना होते हैं , बहुत बहुत बधाई आपको , आपकी इस प्रस्तुति पर , सादर।
Comment by vijay nikore on September 13, 2015 at 1:46pm

//आपका संस्मरण भाव विह्वल कर गया //

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय गोपाल नारायन जी। डा० राम दरश जी की कविता साझा करने के लिए धन्यवाद। उनकी यह कविता मुझको भी बहुत प्रिय है।

Comment by vijay nikore on September 13, 2015 at 1:43pm

// मन ख़ूब रमा आपकी यादों के गलियारों में. इस शानदार प्रस्तुति के लिए आपको हृदय-तल से पुनः बधाई आदरणीय. साथ हीं आग्रह है आदरणीय, कि आगे भी ऐसे संस्मरणात्मक लेख प्रस्तुत करते रहें.//

आपकी सराहना से अभिभूत हूँ, आदरणीय श्री सुनील जी। आपका आग्रह सिर-आँखों पर... जी ज़रूर ।

Comment by vijay nikore on September 13, 2015 at 1:39pm

//आपके इस संस्मरण को पढ़कर तो राम दरश मिश्र जी को पढ़ने की चाह जाग उठी है//

उनकी कविताएँ तो मनोहारी हैं ही, कहानियाँ भी रोचक हैं। लेख की सराहना के लिए आपका आभार, आदरणीय धर्मेन्द्र जी।

Comment by vijay nikore on September 13, 2015 at 1:36pm

//संस्मरण ने अंतर्मन को छू लिया,भावविभोर हूँ//

 

सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय कृष्ण मिश्र जी

Comment by vijay nikore on September 13, 2015 at 1:34pm

मैं भी धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, कादम्बिनी आदि पत्रिकाएं miss करता हूँ। इसमें एक नाम और जोड़ दें.. "कल्पना" ।

लेख की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय जवाहर लाल जी।

Comment by vijay nikore on September 13, 2015 at 1:30pm

 //बहुत सुंदर संस्मरण  ........ आभार आपको इस सुंदर संस्मरण के लिए//

आभार तो आपका कि आपने मेरा मनोबल बढ़ाया, आदरणीया कांता जी।

Comment by vijay nikore on September 13, 2015 at 1:06pm

//सुन्दर संस्मरण //

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय सुनील प्रसाद जी।

Comment by vijay nikore on September 13, 2015 at 1:04pm

//बहुत सुंदर और रोचक लगा आप का लेख और लिखने का अंदाज़ ...एक साँस में आखिर तक पढ़ गया//

आदरणीय मोहन सेठी जी, सराहना के लिए आभारी हूँ।

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