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पहला ही शे’र आपने इतना शानदार कह दिया अम्बरीष जी,
हर इक आबाद घर में एक वीराना भी होता था
वो वीराना जमाने भर से अनजाना भी होता था |
शानदार ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई
किताबों में छिपाते दिल उन्हीं में खुद को भरमाते
मिलाये रब अगरचे तब मिल पाना भी होता था |
आज तक याद है हमको वो मंजर और अफसाने
खुली जब आँख जागे हम तो घबराना भी होता था |
bahut hi badhiya sher kahe hain..Ambarish ji...bahut bahut badhai...
जहाँ बीता था बचपन ये हजारों खेल खेले हम
उलझते थे पतंगों में तो सुलझाना भी होता था |
शानदार प्रस्तुति अम्बरीश भाई...बहुत ही बढ़िया लिखा है आपने....एक एक शेर लाजवाब हैं...लिखते रहें ऐसेही...
बसे थे ख्वाब आँखों में मिले दीदार हसरत थी
अदाएं शोख लगती और तड़पाना भी होता था|
ओये होए ..........):
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