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राम-रावण कथा (पूर्व पीठिका) 18

कल से आगे ...

देवर्षि नारद तो पर्यटन के पर्याय ही माने जाते हैं किंतु उनका यह पर्यटन निष्प्रयोजन कभी नहीं होता। प्रत्येक यात्रा के पीछे कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है।


इस बार वे अयोध्या आये थे। उनके आते ही मंथरा को उनके आगमन की सूचना मिल गयी। वे महारानी कैकेयी के कक्ष में ही गये थे, जहाँ महाराज विश्राम कर रहे थे। देवर्षि का स्वभाव मंथरा जानती थी इसलिये उसके जिज्ञासु हृदय में उथल-पुथल मचने लगी। विवशता थी कि महाराज की उपस्थिति में वह बिना बुलाये कक्ष में प्रवेश नहीं कर सकती थी। इसलिये कक्ष के आसपास ही मँडराती रही।

नारद के प्रस्थान के उपरांत जैसे ही महाराज दशरथ कक्ष से गये, ‘मंथरा’ आ उपस्थित हुयी।
कैकेयी ने पूछा -
‘‘मंथरा ! लगता है तुम प्रतीक्षा ही कर रही थीं कि कब महाराज जायें और तुम आओ।’’
‘‘सही समझा महारानी ने। सच में ऐसा ही है।’’
‘‘कहीं द्वार से कान लगाये तो नहीं खड़ी थी ? यह सभ्यता के विपरीत आचरण है। तुम्हारी धृष्टता की सूचना लगता है महाराज के कान में डालनी पड़ेगी।’’
‘‘अरे आप ऐसा कैसे कर सकती हैं ?
‘‘क्यों नहीं कर सकती ? तुम धृष्टता करोगी तो ...’’
‘‘भला आपकी मंथरा धृष्टता कर सकती है। कैकय राष्ट्र का लहू ऐसा बेहूदा हो सकता है भला ?’’ मंथरा कैकेयी की बात पूरी होने से पहले ही बोल पड़ी।
‘‘अच्छा ! अब कैकय राष्ट्र को बीच में ले आई।’’ कैकेयी बहुत जोर से हँसते हुये बोली।
मंथरा हँस कर रह गयी, कुछ बोली नहीं।
‘‘अच्छा जाओ क्षमा किया। बताओ तो सही क्या जिज्ञासा है ?’’
नारद के आगमन से मंथरा को आशा की किरण दिखाई दी थी। बोली -
‘‘महारानी नारद मुनि आये थे।’’
‘‘आये थे।’’ हँसते हुये मंथरा की उत्कंठा का आनन्द लेते हुये कैकेयी ने उत्तर दिया।
‘‘क्या प्रयोजन था ?’’
‘‘वे महाराज को चार पुत्रों का योग बता गये हैं।’’
‘‘सच में !’’ मंथरा की उत्कंठा सहज ही उल्लास में बदल गयी। ‘‘और महारानी को।’’
‘‘कोख से तो एक ही वैसे चार। महाराज के चारों ही पुत्र मेरे पुत्र नहीं होंगे क्या मंथरा ?’’
‘‘अवश्य महारानी ! यह तो अत्यंत शुभ समाचार है। क्या ऐसे ही ... ...’’ मंथरा ने कुटिलता से मुस्कुराते हुये वाक्य अधूरा छोड़ दिया।
महारानी कैकेयी उसका मंतव्य समझ गयीं। वे भी हँसीं और हँसते हुये ही उन्होंने अपने गले से मुक्ताहार उतार कर मंथरा के गले में पहना दिया। - ‘‘ऐसे ही नहीं, ऐसे ! प्रसन्न ?’’
‘‘दासियों की प्रसन्नता तो महारानी की कृपा की अनुगामिनी होती है महारानी !’’
‘‘मंथरा ! मुझे क्रोध मत दिलाओ।’’ कैकेयी ने बनावटी रोष से कहा। ‘‘तुम्हें कब दासी समझा है मैंने ?’’
मंथरा ने फौरन कान पकड़ने का अभिनय किया और बोली - ‘‘मंथरा अपने शब्द वापस लेती है महारानी ! आपने सत्य ही मुझे सदैव अपनी सखी और संरक्षिका सा स्नेह दिया है। तभी तो मंथरा कभी-कभी अपनी हैसियत से अधिक बोल जाती है।’’
कैकेयी उसके अभिनय पर खुल कर हँसीं।
मंथरा ने पुनः प्रश्न किया - ‘‘महारानी क्या नारद मुनि बस यही बताने आये थे ?’’
‘‘हाँ !’’ कैकेयी ने मुस्कुराते हुये अदा से कहा।
‘‘वे ऐसे तो नहीं हैं महारानी। नारद मुनि आयें और उसमें उनका अपना कोई रहस्यमय स्वार्थ न हो, ऐसा भी कभी होता है ?’’
अनुचित है मंथरा। नारद मुनि तो जन-जन के हितैषी हैं। जन कल्याण के लिये सतत समस्त भूमंडल की परिक्रमा किया ही करते हैं। और तुम उन्हें स्वार्थी कह रही हो।’’
‘‘स्वार्थी नहीं तो सरल भी नहीं हैं मुनिवर। निष्प्रयोजन तो वे कहीं नहीं जाते। आप ही बताइये जाते हैं क्या ?’’
‘‘बड़ी चतुर हो तुम !’’
‘‘इसमें चतुरता काहे की महारानी। नारद मुनि के कारनामों से त्रिलोक में कौन अवगत नहीं है !’’
‘‘चतुरता तो है ही। तुम सही भांप रही हो। यद्यपि देवर्षि ने कुछ स्पष्ट कहा तो नहीं है किंतु इशारा तो कर ही गये हैं कि देव कुछ षड़यंत्र रच अवश्य रहे हैं ?’’
‘‘क्या महारानी ?’’
‘‘अब बंद भी करो क्या-क्या।’’ कैकेयी ने मुस्कुराते हुये कहा। ‘‘कहा न उन्होंने कुछ बताया नहीं।’’
‘‘इशारा तो किया न, कैसा इशारा।’’
‘‘कैसा भी नहीं। अभी मुझे पुत्रों के आगमन की आनंद सरिता में बहने दे। अपनी षड़यंत्रकारी बुद्धि से उसमें विघ्न मत डाल।’’
‘‘नाराज हो गयीं महारानी ?’’
‘‘अरे नाराज नहीं हो गयी। पर समय की प्रतीक्षा करो। देवर्षि ने मुझे भी यही कहा है।’’
‘‘अच्छा महारानी जी एक बात बताइये !’’
‘‘पूछ !’’
‘‘ये रक्ष तो सारे मर-खप गये थे। हमारा बाग बरबाद करने के बाद विष्णु ने उन्हें ऐसा खदेड़ा था कि वे तो जैसे धरती में ही समा गये थे। मुझे तो लगता है विष्णु ने सबको मार डाला होगा।’’
‘‘नहीं मंथरे ! सेना मारी गयी थी। सेना के साथ माली भी मारा गया था पर माल्यवान, सुमाली और उनके पुत्र बच गये थे।’’
‘‘तो फिर महारानी जी विष्णु ने इन्हें क्यों जीवित छोड़ दिया ? इन्हें भी निपटा ही देना चाहिये था। घायल साँप को कहीं जीवित छोड़ा जाता है ! ये रक्ष भी साँप ही हैं, साँप !’’
‘‘देख ! कहते हैं कि माल्यवान तो उसके बाद विरक्त सन्यासी हो गया और सुमाली शेष परिवार को लेकर रसातल में छिप गया। वह हो सकता है विष्णु को खोजे मिला ही न हो !’’
‘‘तो अब ये रावण कौन है जिससे देव भी भयभीत लगते हैं। सुमाली का पुत्र है ?’’
‘‘नहीं ! यह सुमाली का दौहित्र है !’’
‘‘ये रावण क्या इंद्र पर आक्रमण करने जा रहा है ? अभी कितना बड़ा हो गया जो इतना साहस आ गया इसमें ?’’
‘‘हाँ अभी तो मात्र बीसेक साल का ही है और अभी इंद्र पर आक्रमण करने भी नहीं जा रहा। देवर्षि कह रहे थे अभी तो पहले वह लंका पर पुनः अधिकार करेगा। किंतु इतना निश्चित है कि भविष्य में वह आक्रमण इंद्र देव पर भी करेगा।’’
‘‘क्या पराजित कर देगा वह इंद्रदेव को महारानी जी ? वे तो देवेन्द्र हैं।’’
‘‘कर ही देगा। कहते हैं ब्रह्मा ने उसे सारे दिव्यास्त्रों का ज्ञान दे दिया है और देवों के विरुद्ध युद्ध में सहायता का वचन भी दिया है।’’
‘‘क्या ? ब्रह्मा जी ने देवों के विरुद्ध रावण को सहायता का वचन दिया है। बुढ़ापे में मति फिर गई है क्या पितामह की जो देवों को छोड़कर रक्षों के सहयोगी हो रहे हैं ?’’
‘‘मति नहीं फिर गई उनकी। रावण पितामह के पुत्र पुलस्त्य का पुत्र है। इसलिये पितामह को उससे स्नेह है।’’
‘‘आह ! तो यह कूटनीति चली है सुमाली ने - पितामह से रिश्ता जोड़कर अपना सिक्का चलाना चाहता है।’’
‘‘है तो ऐसा ही पर तू क्यों दुबली हुई जा रही है ? वो रक्षों का समूल नाश करने वाली तेरी भावना अभी तक गई नहीं लगता।’’
‘‘जी महारानी जी ! न गई है और न जायेगी। रक्षों के नाश के लिये मंथरा अपना जीवन भी दाँव पर लगाने को तैयार है। वह अपना सर्वस्व त्याग करने को तैयार है।’’ मंथरा ने जैसे शून्य में देखते हुये कहा।’’
‘‘अब दिल की आग ठंडी कर ले, अब रावण तेरा बाग उजाड़ने नहीं आ रहा।’’
‘‘महारानी जी ! सारा आर्यावर्त मेरा बाग है, हमारी सनातन आर्य संस्कृति मेरा बाग है। रावण इन पर तो आक्रमण करेगा ही।’’ फिर अचानक बातचीत का पूर्व सूत्र पकड़ते हुये बोली - ‘‘नारद मुनि ने और क्या कहा महारानी जी ?’’
‘‘और यह भी कहा है कि भविष्य में मुझे बड़ी भूमिका का निर्वहन करना होगा।’’
‘‘कैसी बड़ी भूमिका महारानी ?’’
‘‘कहा न कि कुछ स्पष्ट नहीं बताया उन्होंने। बस इतना ही कहकर मुझे रहस्य के सागर में गोता लगाते छोड़ गये।’’
‘‘सच में यह बड़ी बुरी आदत है मुनिवर की। पूरी बात कभी नहीं बताते। रहस्य छोड़ ही जाते हैं।’’
‘‘कुछ तो सोचा ही होगा उन्होंने।’’
‘‘अच्छा !! मुझे भी भूमिका में अपने साथ ही रखना महारानी जी मैं आपके लिये अपने प्राण भी हँसते-हँसते न्योछावर कर दूँगी !’’
‘‘चल रखूँगी साथ, प्रसन्न ? वैसे नहीं भी रखूँगी तो तू क्या छोड़ देगी मुझे ? लसूड़े की तरह हर समय चिपकी तो रहती है मेरे साथ। महाराज के साथ भी अब तो मुझे एकांत पाने का भरोसा नहीं, पता नहीं किस द्वार से कान लगाये खड़ी हो तू !’’
‘‘क्या महारानी जी ! मेरी टाँग खींच रही हैं !’’ मंथरा ने अभिनय के साथ कहा - ‘‘अच्छा एक बात तो बताइये, क्या उपाय बताया है नारद मुनि ने संतानों के लिये ?’’
‘‘नारद मुनि ने बताया है कि अंगराज के जामाता ऋष्यश्रंग ऋषि ने इस क्षेत्र में अपने अनुसंधान में सफलता प्राप्त की है। उनके द्वारा आयोजित पुत्रेष्टि यज्ञ द्वारा हमारी कामना निश्चित पूर्ण होगी।’’
‘‘मुझे तो अभी से उत्कंठा हो रही है महारानी जी ! मैं तो अभी से कुमारों के लिये नन्हे-नन्हें, प्यारे-प्यारे वस्त्र बनाना आरम्भ कर दूँगी।’’
‘‘कर दे बाबा, कर दे ! तुझे रोकने की सामथ्र्य किसमें है आखिर !’’
दोनों हँसने लगीं और आने वाली संतानों की सुखद स्मृति में खो गयीं।
अभी मंथरा को क्या पता था कि सबसे मुख्य भूमिका तो उसे ही निभानी थी। बल्कि कैकेयी को भी उसकी भूमिका उसी को याद दिलानी थी और युगों-युगों के लिये अपने सर पर लांछन ले लेना था।


क्रमशः

मौलिक एवं अप्रकाशित

-सुलभ अग्निहोत्री

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 18, 2016 at 7:57pm

आदरणीय सुलभ भाईजी, कथा अब ऐतिहासिक मोड़ लेने लगी है. पात्रों की भूमिका व्यवस्थित होने लगी है. लेकिन विस्तार ने मन मोह लिया. बहुत-बहुत धन्यवाद और हार्दिक शुभकामनाएँ

 
// देवर्षि नारद तो पर्यटन के पर्याय ही माने जाते हैं किंतु उनका यह पर्यटन निष्प्रयोजन कभी नहीं होता। प्रत्येक यात्रा के पीछे कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है //

उपर्युक्त पंक्ति के संदर्भ में अवश्य निवेदन करूँगा. नारद को पर्यटन के स्थान पर पर्यटनशीलता का पर्याय कहना उचित होगा न, जो कि भाववाचक संज्ञा होने के कारण गुण है ? ऐसा ही मुझे उचित प्रतीत होता है.

 

दूसरे, अटन का अर्थ भ्रमण होता है. जिसकी क्रिया घूमना-फिरना या स्थान-स्थान भटकना होती है. अर्थात, ऐसा कोई भ्रमण निरुद्येश्य भी हो सकता है. परन्तु, जैसे ही अटन प्रकृष्ट हो जाये तो वह उद्येश्यपूर्ण या विशिष्ट प्रयोजन केलिए हो जाता है. यही प्रकृष्टता ’प्र’ उपसर्ग से सूचित हुआ करती है. यानी अटन में ’प्र’ उपसर्ग लगे तो यह पर्यटन हो जाता है.

अतः पर्यटन निष्प्रयोजन होता ही नहीं. बिना प्रयोजन या उद्येश्य के पर्यटन होगा ही नहीं. फिर, पर्यटन के लिए ’उनका यह पर्यटन निष्प्रयोजन कभी नहीं होता’  कुछ-कुछ ऐसा ही वाक्य लगा, जैसे ’ठण्डी बर्फ़ रखी है’ या ’उधर गर्म आग लगी है’ जैसे वाक्य होते हैं.  
ऐसा मेरा सोचना है.
सादर

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