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ग़ज़ल -- रुख़-ए-पुरज़र्द को गुलफ़ाम कर दे। ( दिनेश कुमार 'दानिश' )

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रुख़-ए-पुरज़र्द को गुलफ़ाम कर दे
तबीयत में मेरी आराम कर दे

थी अपनी इब्तिदा-ए-इश्क़ मद्धम
तू इसका सुर्ख़रू अंजाम कर दे

किसे मालूम जन्नत की हक़ीक़त
तू आना मयकदे में आम कर दे

पिला नज़रों से अपनी कुछ तो मुझको
नहीं कुछ और , ज़िक्र-ए-जाम कर दे

मोहब्बत की सज़ा ! तुझ गुलबदन को
तू आयद मुझ पे सब इल्ज़ाम कर दे

रगों में इसकी धोका झूट लालच
सियासत पल में क़त्ल-ए-आम कर दे

झुकाए सर, खड़ा है क्यों यहाँ पर
तुझे हक़ चाहिए? कोहराम कर दे

दिखाऊँ राह मैं भटके हुओं को
मुझे ऐसा चराग़-ए-शाम कर दे

मेरे मौला बरा-ए-नाम बेशक
मेरा बज़्म-ए-सुख़न में नाम कर दे

क़ज़ा मैं थक गया हूँ अब तो मुझको
शहीद-ए-गर्दिश-ए-अय्याम कर दे

बिसात-ए-दह्र ये दाँव आखिरी है
ए दानिश ! खुद को तू नीलाम कर दे

दिनेश कुमार 'दानिश'

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by आशीष सिंह ठाकुर 'अकेला' on September 2, 2016 at 3:00pm

बहुत ख़ूब  आ.  दानिश  जी !!! क्या कहने !!!  बहुत ही अच्छी ग़ज़ल है ..... 

Comment by दिनेश कुमार on August 25, 2016 at 5:58am
शुक्रिया आ. गिरिराज सर जी।
Comment by दिनेश कुमार on August 25, 2016 at 5:57am
शुक्रिया आ. राजेश साहिबा जी।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 23, 2016 at 10:56am

आदरणीय दिनेश भाई , अच्छी गज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ आपको ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 22, 2016 at 10:04am

वाह्ह्ह  वाह्ह्ह  बहुत शानदार ग़ज़ल कही है दिनेश जी हर शेर के लिए दिल से दाद हाजिर है |

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