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है काँटों भरी प्रीत की ये डगर मन----ग़ज़ल

122 122 122 122

मना तो किया था न जाना उधर मन
चला इश्क़ की राह पर तू मगर मन

सुहाना सफ़र तो महज़ कल्पना है
है काँटों भरी प्रीत की ये डगर मन

निगाहों का तटबंध तो टूटना था
ये बादल तो बरसेंगे अब उम्र भर मन

मिलेंगे वफ़ा हुस्न इक साथ दोनों
ये ख्वाहिश भरम है कभी भी न कर मन

सितम खुद पे कर के किसे कोसता है
पिया तूने खुद चाहतों का ज़हर मन

सिखाया तो था त्याग में बस ख़ुशी है
हुआ ही नहीं बात का कुछ असर मन

मौलिक अप्रकाशित

23:33

23/11/2016

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 25, 2016 at 9:43pm
आदरणीय प्रमोदजी सादर अभिवादन और धन्यवाद
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 25, 2016 at 9:42pm
आदरणीय रामबली गुप्ता जी बहुत बहुत आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 25, 2016 at 9:41pm
आदरणीय गिरिराज सर बहुत बहुत आभार और सादर प्रणाम
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 25, 2016 at 9:40pm
आदरणीय बाऊजी संशोधन करता हूँ, सादर प्रणाम
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 25, 2016 at 9:40pm
आदरणीय सुनील जी सादर आभार
Comment by PRAMOD SRIVASTAVA on October 25, 2016 at 4:44pm

वाह भई क्या बात है पंकज जी ।बहुत  उम्दा गजल है।स्व पर केन्द्रित संवेदनशील रचना के लिये कोटिश बधाई ।

Comment by रामबली गुप्ता on October 25, 2016 at 12:31pm
वाह वाह क्या बात है भाई पंकज कुमार जी उम्दा ग़ज़ल कही आपने। मुबारकबाद कुबूल करें।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 25, 2016 at 11:31am

आदरणीय पंकज भाई , बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है आपने , दिली बधाइयाँ स्वीकार करे । आ. समर भाई की सलाह पर गौर करियेगा ।

Comment by Samar kabeer on October 24, 2016 at 2:11pm
अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
पांचवे शैर के सानी मिसरे में 'तुमने' को "तूने" कर लें ।
Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on October 24, 2016 at 9:47am
स्यवं को संबोधित कर सुंदर खयालों का सर्जन किया है आपने आदरणीय हार्दिक बधाई है इस सुंदर सी नाजुक ग़ज़ल के लिए।

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