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ग़ज़ल नूर की- नुमायाँ है तू अपनी गुफ़्तार में,

122/122/122/12 
.
नुमायाँ है तू अपनी गुफ़्तार में,
सफ़ाई न दे हम को बेकार में.
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फ़क़त एक मिसरे में गीता सुनो
है संसार मुझ में, मैं संसार में.
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ये तामीर-ए-क़ुदरत भी कुछ कम नहीं
हिफ़ाज़त से रक्खा है गुल, ख़ार में.
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कहानी को अंजाम होने तो दो
सभी लौट आयेंगे किरदार में.
.
ऐ ज़िल्ल-ए-ईलाही!! ये इन्साफ़ हो,
कि चुनवा दो शैख़ू को दीवार में.
.
तू शिद्दत से माथा पटक कर तो देख
कोई दर निकल आये दीवार में.
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 25, 2018 at 8:05am

धन्यवाद आ. लक्ष्मण धामी जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 25, 2018 at 8:05am

धन्यवाद आ. विजय जी 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 18, 2017 at 11:15am

आ. भाई नीलेश जी , एक बेहतरीन गजल से परिचित कराने हेतु हार्दिक बधाई ।

Comment by vijay nikore on May 16, 2017 at 1:40pm

बहुत ही खूबसूरत गज़ल के लिए हार्दिक बधाई।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 16, 2017 at 8:53am

शुक्रिया आ. सतविन्द्र जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 16, 2017 at 8:52am

शुक्रिया आ. गिरिराज जी 

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on May 15, 2017 at 6:04pm
वाह्ह्ह् क्या बात है,सादर बधाई आदरणीय

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 15, 2017 at 10:44am

क्या बात है ... अच्छी गज़ल के लिये बधाइयाँ ... आदरणीय नीलेश भाई ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 14, 2017 at 9:29pm

शुक्रिया आ. बृजेश जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 14, 2017 at 9:29pm

शुक्रिया आ. समर सर 

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