(1). आ० अनीता शर्मा जी
उम्मीद
आज वो तीस साल की हो गई लेकिन अभी तक कहीं उसका रिश्ता तय नहीं हुआ था , ऐसा नहीं है कि अन्नू सुन्दर नहीं है, अन्नू सुन्दर भी बहुत है और पढ़ी लिखी भी, लेकिन थोड़ी मोटी है, थोड़ी नहीं कुछ ज्यादा ही, अन्नू के मोटापे जितना मोटा दहेज देने के लिए उसके पिता के पास पैसा नहीं है. सिर्फ इसीलिए अन्नू आज तक कुंवारी है, लेकिन इस बार सबके मन में एक उम्मीद जगी है , क्योंकि उसके दादाजी के दूर के रिश्ते के एक भाई जो अन्नू के पिता को बहुत प्यार किया करते थे और अन्नू के जन्म से बहुत समय पहले ही विदेश में बस गये थे एवं वहीं अपने परिवार में लीन हो गये थे, उनका परिवार कुछ समय पहले एक सड़क दुर्घटना में समाप्त हो गया. अब वह वापस अपनों के पास अपने देश आना चाहते हैं, और अपनी सारी जायदाद अन्नू के पिता के नाम करना चाहते हैं, ताकि उम्र के इस पड़ाव में वे अपनों के साथ अपनों के बीच रह सकें. यह खबर सुनते ही उनके मन में दादाजी के परिवार के लिए अफ़सोस कि जगह अन्नू कि शादी कि उम्मीद पक्की हो गई.
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(2). आ० मोहम्मद आरिफ़ जी
वसीयत
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मेरे प्रिय लाडलो
नमस्कार !
आशा है आप खुशहाल होंगे । मेरी तबियत के बारे में आप सब जानते ही हैं ।
मेरा जीवन संघर्षों और अभावों से ग्रसित रहा मगर मैंने कभी हिम्मत नहीं हारी । कड़ी मेहनत , ईमानदारी और इंसानियत को सदा ऊपर रखा । इन्हीं गुणों के बल पर बड़ा उद्योपति बना । करोड़ों कमाए । कईं फैक्ट्रियों की स्थापना की और बेरोज़गार हाथों को रोज़गार दिया । लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर है । बोन कैंसर के कारण जीवन के अंतिम चरणों में हूँ । सोचा , उम्मीद की लौ का एक दीया वसीयत के तौर पर लिख दूँ । जो मेरे मरने के बाद भी जलता रहे । आप पूछेंगे आख़िर ये उम्मीद की वसीयत क्या है ? तो सुनो , मैंने आप सभी भाइयों और आपकी इकलौती बहन को अपनी संपत्ति की वसीयत करने के बाद शेष अचल संपत्ति और नक़द पैंतीस लाख रुपये " निर्मल सेवा ट्रस्ट " को देने का निर्णय लिया है । इस ट्रस्ट के समस्त ट्रस्टियों से लिखित शपथ-पत्र ले लिया है कि वे अचल संपत्ति और नक़द पैंतीस लाख रुपयों का उपयोग ग़रीब और अनाथ बच्चों के लिए नि:शुल्क शिक्षा की स्थापना करके उन्हें शिक्षित करेंगे । इससे हमारे समाज के वंचित और कमज़ोर वर्ग के बच्चे शिक्षा से वंचित नहीं होंगे । ऐसे लोगों के लिए उम्मीद की लौ जलती रहेगी ।
मेरा यह निर्णय आपको पसंद आएगा । चूँकि आज का युग सोशल मीडिया का युग है सो यह पत्र व्हाट्स एप के ज़रिए सेण्ड कर रहा हूँ । तुम्हारी माँ और छोटा भाई मेरी सेवा यहाँ फरीदाबाद में रहकर कर रहे हैं ।
आपका पिता
मुरलीधर अग्रवाल
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(3). मिर्ज़ा जावेद बेग
किरण
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फ़हीम चाचा अपने बचपन के दोस्त शशिकांत के साथ बेठे अख़बार पढ़ रहे थे। फ़हीम चाचा के चेहरे के भाव लगातार बदलते देख शशिकांत जी ने अचानक ही फ़हीम चाचा के हाथ से अख़बार झपट लिया। चाय का कप फ़हीम चाचा की तरफ़ बढाते हुए कहा,
“यार अब वो ख़ूबसूरत ज़माना नहीं रहा जो हमारे वक़्त में हुआ करता था। आज के दौर में साक्षरता का प्रतिशत तो लगातार बढ रहा है लेकिन इन्सानियत का स्तर गिरता ही जा रहा हेै।”
“अफ़सोस तो ये है कि गली मोहल्ले का कोई भी छुटभय्या नैता आकर मिनटों में हमारे पढ़े लिखे नौजवानों को धार्मिक भावनाओं में बहा कर अपने बस में कर लेता हे एसे हालात में नई नस्ल से हमारे ज़माने जेसे भाईचारे की क्या उम्मीद की जा सकती हेै.” फ़हीम चाचा ने ठंडी आह भरते हुए चाय का कप मेज़ पर रखा ही था कि विशाल की आवाज़ उनके कानों में रस घोल गई,
“चाचा आदाब!” कहते हुए शशिकांत के बेटे विशाल ने फ़हीम चाचा के पैर छूकर आशिर्वाद लिया। विशाल अभी पाँव छूकर हटा ही था कि फ़हीम चाचा का आठ साल का पोता भागता हुआ वहाँ आ पहुँचा।
“परनाम दादू।” कहते हुए उसने शशिकांत के पाँव छुए।
फ़हीम चाचा ने मोहब्बत से लबरेज़ आँखों से शशिकांत को निहारा। और उत्साह भरे स्वर में उन्हें संबोधित करते हुए बोले,
“मेरी उम्मीद को पँख मिल गए हैें, हमारा ज़माना फिर आएगा शशि भाई।”
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(4). आ० मुज़फ्फ़र इक़बाल सिद्दीक़ी जी
उम्मीद
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"बाजी कल मेरा निकाह है, मैं अगले हफ्ते छुट्टी पर रहूँगी।"
"चलो, अच्छा है, समीना बड़ी मुद्दत के बाद कम से कम ये ख़ुशी के दिन तो आए। तुम्हें बहुत बहुत मुबारक हो। लेकिन एक बात तो बताओ, तुमने हमें बताया ही नहीं। किस से हो रही है? कहाँ हो रही है?"
"अरे, वही शफ़ीक़ है न बाजी। जब मैं बेकरी में काम करती थी तो ये भी साथ में था। कम्बख्त बड़ी मुश्किल से तैयार हुआ। हमेशा खानदानी होने का नाटक करके टालता रहता था। बाजी अब इस उम्र में मिलता भी कौन? जितने भी रिश्ते भाई- बहनों ने चलाये सब दूजे के ही थे। किसी की बीवी मर गई थी, तो किसी का तलाक़ हो गया था। और ये कम्बख्त हमेशा उम्मीद का दिलासा ही देता रहा।"
अम्माँ के जाने के बाद तो भाई - भावज भी हमेशा उलटे पुल्टे रिश्ते ही बताते रहते। और भाई ने भी बस एक ही रट लगा रखी थी। मकान खाली करवाने की। कहता है मकान खाली दो। "जब मैं इसे पक्का बनवाऊँगा तो उसमें से एक कमरा तुझे भी दे दूंगा।"
"पता नहीं, देगा कि नहीं। जब जीते जी माँ का न हुआ तो फिर मैं कहाँ लगती हूँ।"
"बाजी, जब वक़्त साथ नहीं देता तो नाते रिश्ते वाले भी मिलने से मदद करने से घबराते हैं।"
अब्बा कपड़ा मिल में काम करते थे। टीबी से वक़्त से पहले ही चले बसे। तीन बहने और एक भाई छोटे थे। "मैं जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखती उससे पहले ही गरीबी ने आप जैसों की दहलीज़ पर काम करने को मजबूर कर दिया।" बहनों की शादी के लिए, मैं अपने आप को पीछे करती गई। भाई भी शादी कर के किराये के मकान में अलग हो गया।"
पिछले साल जब से अम्माँ मरी हैं तब से उसे मकान का हक़ याद आने लगा है। मुझे एक न एक दिन इसे खाली तो करना ही पड़ेगा। सब कहते हैं मकान पर बेटे का हक़ होता है। जिन बहनों की मैं ने जी तोड़ मेहनत करके शादी करवाई, वे आज मेरे कारण भाई से दुश्मनी नहीं करना चाहतीं। नहीं तो बाजी, बेटियों का भी हिस्सा होता है न !!!
"अब मुझे उम्मीद की एक छत तो चाहिए ही है, न।
बस, बाजी दुआ करो इस बार मेरी उम्मीदों पर पानी न फिरे।"
"नहीं समीना, ऊपर वाला सब देख रहा है। देखना, शफ़ीक़ तुम्हें हमेशा खुश रखेगा।"
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(5). आ० मनन कुमार सिंह जी
उम्मीद
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काली लड़की लंगड़ाती हुई खाना का डब्बा लेकर मास्टर साहब के कमरे में दाखिल हुई।दरवाजा भिड़का दिया गया।खिड़की तो वे बन्द ही रखते थे,जबसे वह खाना लेकर आने लगी थी।खुशियाँ बिस्तर पर बिछी ही थीं कि दरवाजे पर दस्तक हुई। अफरातफरी में सब कुछ जैसे बिखर गया हो।बिस्तर पर छितराये सिक्के और शामवाला डब्बा लेकर लड़की बाहर निकली।दरवाजे पर खड़े अपने सहकर्मी से मास्टर जी बोले,"अभी आता हूँ"।फिर स्कूल जाने के लिए कपड़े पहनने लगे और सोचने लगे," बात बनते- बनते रह गयी थी कल भी।आज भी वही हुआ।कल बगल वाली कहने आ गयी कि धोबन कपड़े देने आई है,आज स्कूल चलने के लिए कहने लखुआ आ गया।लंगी लग गई।....लंगड़ी उस दिन कह भी रही थी कि अंशुल(उसकी गोरी-चिट्टी छोटी बहन) की तरफ नहीं देखना है,वरना सिर कट जायेगा।सोचा था इसे सीढ़ी बनाकर मुरेड़ तक पहुँच जाऊँगा,पर यह सीढ़ी तो लगते-लगते रह जाती है।तारे जमीन पर आते-आते बिखर जाते हैं।"
"चलिये न।कितनी देर लगा दी आपने?
"बस आया अभी",मास्टर जी बोले।
उधर लखू मास्टर भुनभुना रहे थे। फिर मास्टर जी कहीं खो गए।सोचने लगे," माधुरी भी तो महीना-महीना भर अकेली रहती है।उसका भी तो मन करता होगा,पुरुष-सहवास के लिए।वह भी तो उधार का बादल बुला सकती है,अपनी पिपासा शांत करने के लिए।....हाँ,क्यों नहीं?...पर ना ना ना... माधुरी ऐसी नहीं है।वह ऐसा कर भी नहीं सकती।हाँ, वह बिलकुल ऐसा नहीं कर सकती",मास्टर जी आश्वत होकर बाहर निकले।कमरे में सब बातें सोचते हुए मास्टर जी बोलते भी जा रहे थे।
उन्हें पता भी नहीं था कि लखू भाई सब सुन रहे हैं,माधुरी के बारे में भी,सीढ़ी के बारे में भी.....।
"उम्मीद बड़ी चीज है,मास्टर जी",लखू मास्टर की आवाज मास्टर जी का मर्म भेद गयी।वह चुपचाप उनके साथ चलने लगे
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(6). आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी
उम्मीद
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हाथ पर चढ़े प्लास्टर को देख कर पिता ने कहा, '' यह पांचवी बार है. तू इतना क्यों सहन करती है. चल मेरे साथ, अभी थाने में रिपोर्ट कर देते हैं. उस की अक्ल ठिकाने आ जाएगी.''
'' नहीं पापाजी !''
'' तू डरती क्यों है बेटी ? हम है ना तेरे साथ .''
'' वो बात नहीं है पापाजी ?''
'' फिर ?'' पिता ने बेटी की असहाय भाव से निहार कर पूछा, '' यह घरेलू हिंसा कब तक चलेगी?''
'' जब तक वे अपनी आदत नहीं छोड़ देते हैं .''
'' बेटी ! गलत आदत छुटती हैं क्या ? तू यूं ही कोशिश कर रही है.''
'' आखिर बेटी आप की हूं ना पापाजी ?'' उस ने पूरे आत्मविश्वास से कहा.
पिता कुछ समझ नहीं पाए. पूछा,'' यह क्या कह रही हो ?''
'' यही पापाजी. आप ने मेरी कलम खाने की आदत सुधारने के लिए तब तक प्रयास किया था जब तक मेरी यह गंदी आदत...'' कहते हुए बेटी मुस्करा दी और न चाहते हुए भी पिता का हाथ के आशीर्वाद देने के लिए उठ गए.
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(7). आ० डॉ कुमार संभव जोशी जी
पुनर्मिलन”
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दो साल पहले लाली तब आठवीं जमात में थी, जब उसकी शादी जगन से कर दी गई थी. वह शादी नहीं करना चाहती थी, उसे तो और पढना था. मगर लड़की की सुनता कौन है.
अब तक गौना नहीं हुआ था. लेकिन पिछले बुधवार उसके ससुर आये थे. कह रहे थे कि लाली के दादिया ससुर गहरे बीमार रहने लगे है, मरने से पहले पोते का गौना देखना चाहते हैं.
आनन फानन में एक ही हफ्ते में मुहूर्त निकाल दिया गया.
लाली बहुत रोई कि विदाई के अगले ही दिन तो दसवीं का पहला पर्चा है. मगर सब बेकार गया. किताबें ताक पर धर दी गई.
विदा होकर लाली ससुराल पहुँची तो स्वागत, नेग-चार के तुरंत बाद ही सास ने कमरे में ठेल दिया. लाली बड़ी घबराई.
भीतर पहुँची तो देखती है कि चटाई पर किताबें फैली पड़ी हैं और सत्तू मास्टर जी जगन को पैराग्राफ़ राइटिंग समझा रहे हैं.
लाली कुछ समझने की कोशिश ही कर रही थी कि पीछे से सास की कड़कती आवाज आई- "छोरी, ठीक से पढना. कल के पर्चे में नम्बर कम न आणे चाहिजे."
लाली झूम कर सास से लिपट गई. खुशी के मारे बार बार किताबों को चूम कर सीने से लगाने लगी.
दरवाजे पर खड़ी सास इस पुनर्मिलन को देखती मीठी सी मुस्कान लिए मास्टरजी के लिए चाय लाने मुड़ गई.
बालविवाह रोकने की हिम्मत तो वह न कर सकी, लेकिन अब भी बहुत कुछ था जो वह कर सकती थी.
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(8). आ० डॉ टी.आर सुकुल जी
पिता की सीख
ट्रेन में दो अपंग बच्चे घसिटते हुए यात्री परिवार की सीट के पास आकर गिड़गिड़ाने लगे,
‘‘ कुछ खाने को दे दो साब !’’
यात्री परिवार के खाना खा रहे दोनों बच्चे उन्हें अपने अपने पास से कुछ देने लगे तो पिता ने रोकते हुए कहा,
‘‘नहीं, नहीं, रुक जाओ’’
‘‘क्यों ? वे दोनों भूखे हैं, असहाय हैं ’’ बच्चों ने तर्क दिया।
‘‘ लेकिन बेटा ! उन्हें भगवान ने ही इस प्रकार का बनाया है, वही उनकी सब व्यवस्था बनाते हैं। इतना ही नहीं, सारे संसार में जो कुछ अच्छा बुरा घटित होता है यह उनकी इच्छा से ही होता है, यदि हम उन्हें कुछ करेंगे तो भगवान के कार्य में बाधा पहॅुंचेगी और वे हमसे नाराज हो जाएंगे’’... पिता ने धीरे से समझाया।
दोनों ने अपने हाथ वापस खींच लिए और वे भिखारी बच्चे दुखित हो आगे खिसकते गए। अगले स्टेशन पर उतर, यात्री परिवार ने अपने निवास स्थान पर जाकर देखा कि ताले टूटे पड़े हैं, भीतर सामान बिखरा पड़ा है, मूल्यवान वस्तुएं और धन अलमारियों से गायब हैं। पिता चिल्ला पड़े,
‘‘ चोरी हो गई , हम लुट गए, सब कुछ बर्बाद हो गया’’ और बेहोश होकर वहीं गिर पड़े।
माॅं और बच्चों ने उन्हें मुश्किल से सम्हाला और अस्पताल लाए, होश में आते ही वे डाक्टर पर चिल्लाने लगे,
‘‘ पुलिस को बुलाओ, हमारे घर में चोरी हुई है, हमें लूटा गया है ’’
उनकी परेशानी देख छोटा बच्चा बोल उठा,
‘‘ पिताजी ! अभी आपने कहा था कि सभी व्यवस्था भगवान ने बनाई है, यदि हम उनकी व्यवस्था के विपरीत कुछ करते हैं तो भगवान नाराज तो नहीं होंगे ?’’
इतना सुनते ही वे फिर बेहोश हो गए। डाक्टर कहते रहे कि पुलिस आ चुकी है, जाॅंच कर रही है, चोर पकड़े जाएंगे, चिन्ता मत करो, होश में आ जाओ... परन्तु उन्हें होश न आया।
यह देख माॅं रोते हुए छोटे बच्चे से बोली,
‘‘क्यों रे ज्ञानी की औलाद ! चुप नहीं रह सकता था?’’
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(9). आ० विनय कुमार जी
बंटवारा
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बुद्धू भैया आज उदास थे, उनकी आँखों के सामने ही वो सब हो रहा था जिसकी उन्होंने अपने जीते जी कल्पना नहीं की थी. पूरा परिवार सहमत था, बस एक उनको छोड़कर. क्या क्या नहीं किया था उन्होंने इस परिवार के लिए, आजीवन कुँवारे रहे, लेकिन आज उन सबकी कोई कीमत नहीं थी. कुछ बुजुर्ग रिश्तेदार, गांव के मुखिया और कुछ पट्टीदारों की उपस्थिति में सब कुछ तंय हो गया. घर, खेत, सामान और यहाँ तक कि दरवाजे पर बंधे जानवरों का भी बंटवारा हो गया. दालान में बैठे हुए बुद्धू भैया सूनी सूनी आँखों से सब देख रहे थे कि कैसे उनके दोनों भाई और उनका परिवार इस बंटवारे को लेकर बहुत उत्साहित थे. अचानक वह उठे और दरवाजे पर बंधी गायों के बीच चले गए. रोज दिन में कई घंटे इन गायों के साथ ही उनका समय बीतता था, खूब चराते थे उनको. गायों की प्रसन्नता से हिलते हुए सर को देखकर उनकी उदासी एक पल के लिए दूर हो गयी. कुछ मिनट के बाद वह वापस दालान में आये और उन्होंने वहां उपस्थित सभी लोगों के सामने जोर से कहा
"तुम लोगों ने जैसे चाहा, बंटवारा कर लिया. लेकिन इन गायों के बारे में मुझे कुछ कहना है". इतना कह कर वह सांस लेने के लिए रुके और उनके दोनों भाईयों की सांस रुकने लगी. शायद भैया गायों को हम लोगों को देना नहीं चाहते हैं, यही उनके दिमाग में आ रहा था.
"देखो चाहे तुम लोगों ने हर चीज का बंटवारा कर लिया है, लेकिन मैं उम्मीद करता हूँ कि एक चीज का हक़ तुम लोग मुझसे नहीं छीनोगे. आगे भी सभी गायों को चराने लेकर मैं ही जाया करूँगा और सबको उनकी गायों का दूध दुहकर दूंगा".
बुद्धू भैया वहां उपस्थित सभी लोगों से बेखबर बस गायों को प्यार भरी नजरों से देख रहे थे. उनकी उम्मीद जिन्दा थी और उनके भाई एक दूसरे से नजर चुरा रहे थे.
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(10). आ० दिव्या राकेश शर्मा जी
उम्मीद
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महेश ने सर पर तपते हुए सूरज को देखा और थक कर बैठ गया। लगातार फावड़ा चलाने से उसकी हथेलियाँ लाल हो गई थी।पास ही उसकी पत्नी सरला दनताली से मिट्टी एकसार कर रही थी। सूखी पड़ी धरती और सरला का मुरझाए चेहरे को देख कर महेश कहीं अंदर से टूटने लगा था।तभी सरला की नजर महेश पर पड़ती हैं जो टकटकी लगाए आसमान को तांक रहा था।
“क्या हुआ जी!का सोच रहे हो?”सरला ने कहा।
“कुछ नहीं सरला।”उदास सा होकर महेश बोला और खुदाई करने लगा।
“कैसे कुछ नहीं है जी।आपकी उदासी का मुझसे छिप जायेगी?इतनी चिंता काहे करते हैं।कुछ न कुछ तो होगा ही।”
“का होगा सरला!”सर पकड़कर नीचे बैठ गया।”देख तो रही हो।सर पर सूरज आग बरसा रहा है।धरती सूखकर फट गई।अब अगर बीज भी बो दिया तो पानी का इंतजाम….”बात अधूरी छूट गई और गला रूंध गया।
“सोचता हूँ कि धरती बेच दूँ और शहर चला जाऊं।कुछ मजदूरी ही कर लूंगा।”
“का कह रहे हैं आप यह!धरती तो नहीं बेचने दूंगी।आपके माँ बापूजी ने आपको दी थी ऐसे ही मैं भी अपने बच्चों को दूंगी और शहर में मजदूरी क्या ऐसे ही मिल जायेगी?वहाँ न घर न अपने।यहाँ कम से कम छत तो है और हमारा इस समय फर्ज है धरती में बीज बोना।उसे हम पूरा करेंगे और देखना पानी भी मिलेगा विश्वास है मुझे।”
“फालतू की उम्मीद छोड़ दें।सूखे के आसार हैं देख लेना कहीं फाके न हो जाए।”
“जब धरती माँ सीने पर घाव सहकर भी हमें नहीं छोड़ती तो मैं उम्मीद कैसे छोड़ दूँ!”
तभी उसके गाल पर एक बूंद गिरी।उसने ऊपर देखा।आसमान में काले बादल उसकी उम्मीद बरसा रहे थे।
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(11). आ० बबीता गुप्ता जी
(बिना शीर्षक)
आज कोर्ट में खेती के बंटवारे को लेकर सुनवाई थी। ख़ुशी को वकील की सफेद पोशाक और काले चोगे में देख कुसुम और दीनू की आँखे भर आई। ख़ुशी की और देखती इन आखों में सालों से आस लगाए सच्चे न्याय की गुहार थी.अपने ढाढ़स को बाँध दोनों ने ख़ुशी को आशीर्वाद दिया। दोनों पक्षों की काफी बहसवाजी के पश्चात निर्णय दीनू के पक्ष में दिया गया। आज दीनू को अपने बेटों समान भाईयों के खिलाफ अदालती कार्यवाही करने का दुःख तो था लेकिन दोनों द्वारा उस पर उसके स्वाभिमान पर चोट पहुंचाने से अंदर तक टूट चुका था. कोर्ट से बाहर निकलती ख़ुशी को गले लगाते दीनू की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। उसकी आँखों के सामने उस दिन की यादें घूम गई जब उसके छोटे भाईयों ने पूरी खेती पर अपना गुंडाराज कर उसे बेदखल कर दिया था। कुसुम की माँ दहाड़े मार मार कर रोये जा रही थी.पास में खाट पर अपना सिर पकड़े पति दीनू को कोसे जा रही थी.
"देख लिया ना,अपने भाईयों को,अम्मा -बब्बा केपरलोक सिधारने के बाद इसी दिन के लिए पाल पोष के बड़ा किया था."
"क्यों दुखी हुई जा रही हैं,हमने तो अपने फर्ज पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.अगर खेती में हिस्सा देना नहीं चाहते तो ना दे। "
ऐसे थोड़े ही ना होता हैं,कहने भर से क्या हकदारी हट जाती हैं.दिन देखा ना रात,पूरा जीवन झोंक दिया,क्या इसी दिन के लिए?
"लखन और राधे का कहना हैं कि तुमने कौन-सा अलग से कमाया और घर खर्च चलाया?अम्मा बापू के संग रहे ,उन्ही की कमाई बैठकर खाई।"
ऐसा कहते तनिक लज्जा नहीं आती,हम दोनों का किया नहीं दिखता,इतने भी तो नासमझ नहीं हैं।"इतना कहते कुसुम अपने भाग्य को कोसने लगी।
दीनू और कुसुम की तेज आवाजों को सुन ख़ुशी अंदर से आते हुए कहने लगी- "माँ,क्यों रोती हो?मैं बड़ी होकर वकील बनूँगी,और आपका हिस्सा दिला कर रहूँगी।"
कक्षा दस में पड़ने वाली ख़ुशी की बात सुन ,उसकी तरफ आशा भरी नजरों से देखने लगे। इशारे से दीनू ने पास बिठा उसके सिर पर हाथ फेरने लगे। आज उसे अपनी लाड़ली बेटी पर बेटों वालों से ज्यादा नाज हो रहा था। कुसुम अपने पति को और एकटक देखे जा रही थी। सही न्याय मिलने की उम्मीद आज बेटी ने जगा दी थी। अपने आप में कहने लगी कि केवल बेटा ही उम्मीद पूरी नहीं करते बल्कि बेटी भी........
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(12). आ० बरखा शुक्ला जी
ठोकर
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“तो तुम आज शाम को मुजरा नहीं कर रही हो ?”पन्ना बाई ने चम्पा से पूछा ।
“हाँ पन्ना बाई तबीयत कुछ नासाज़ सी है ।” चम्पा बोली ।
“चम्पा तुम पर हमारा स्नेह है ,इसलिए बता रहे है ,हम कोठे वाली किसी एक की होकर नहीं रह सकती ।हम देख रहे है ,इन दिनो तुम्हारा झुकाव छोटे ठाकुर पर हो गया है ।”पन्ना बाई बोली ।
तभी कोठे का नौकर थैले में कुछ सामान लेकर आया ,पन्ना बाई ने उसके हाथ से थैला लेकर पूछा “क्या लाया है ?ज़रा मैं भी तो देखूँ ।”
“चम्पा बाई जी ने मँगवाया था ।” नौकर बोला ।
नौकर को जाने का बोल ,थैले में पूजा का सामान व करवा देख पन्ना बाई बोली “ ये तो करवा चौथ की पूजा का सामान दिखे है ।”
“हाँ वो आज मेरा व्रत है ।”चम्पा नीची नज़र कर बोली ।
“वैसे चम्पा आज छोटे ठाकुर की पत्नी का भी पहला करवा चौथ होगा ,और वैसे भी हम कोठे वालियों का काहे का व्रत ।”पन्ना बाई बोली ।
“छोटे ठाकुर ने आज आने का वादा किया है ।”चम्पा बोली ।
“यहाँ तो हमने वादे टूटते हुए ही देखें है ,काश तुम्हारी उम्मीद न टूटे ।”पन्ना बाई बोली ।
रात में चाँद निकलने पर चम्पा ने चाँद को अर्घ्य दे पूजा की ,और फिर छोटे ठाकुर का इंतज़ार करने लगी ।
कुछ समय बाद नौकर एक पत्र दे गया ,चम्पा ने झट से खोल उसे पढ़ा ,लिखा था -
“चम्पा आज हम नहीं आ पाएँगे ,तुम व्रत खोल लेना । “
छोटे ठाकुर
टूटी हुई उम्मीद का एक आँसू काग़ज़ पर गिर कर शब्दों को धुँधला कर गया था ।
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(13). आ० तेजवीर सिंह जी
बाढ़ राहत कोष
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"शुक्ला जी, नमस्कार, क्या बिटिया की शादी की तिथि तय हो गयी?”
"अरे कहाँ हुई भाई मनोहर जी।“
"क्यों, अब क्या दिक्कत आ रही है? सब कुछ तो पहले ही तय हो चुका है| ”
शुक्ला जी मनोहर के पास कुर्सी खिसका कर गमगीन चेहरा बना कर बोले,"कमाल करते हो यार, देख हीं रहे। इस साल बरसात का कहीं अता पता ही नहीं है। बाढ़ नहीं आई तो दहेज़ का जुगाड़ कैसे होगा?”
"आपकी बात तो विचारणीय है। मगर इसका तो इलाज़ किया जा सकता है|”
"यार मनोहर, तुम ही तो शान हो इस आपदा प्रबंधन विभाग की। हम सबकी उम्मीद के चिराग हो। निकालो भैया, कुछ रास्ता निकालो।“
"शुक्ला जी, आप तो खुद भी इस महकमे के बहुत पुराने और माहिर खिलाड़ी हो। आपको तो पता ही है, कितनी सारी सरकारी योजनायें तो केवल कागज पर ही क्रियान्वित होकर समाप्त हो जाती हैं| तो क्या कागजों में बाढ़ नहीं आ सकती|”
"धीरे बोलो यार, तुम्हारी बात में दम तो है। लेकिन ये साले ऑडिट वाले बहुत झमेला करते हैं।“ शुक्ला जी ने मनोहर जी के कान पर फुसफुसाते हुए कहा|
"क्या सर आप भी? थोड़ा बाढ़ का पानी उन पर भी छिड़क देना।“
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(14). आ० आशीष श्रीवास्तव जी
अधूरा मकान
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‘‘अपने जीवनभर की कमाई से मकान बनवाना चाहा तो वह भी अधूरा रह गया। एग्रीमेंट के बाद भी ठेकेदार बीच में ही छोड़कर चला गया। पूरे एक लाख का चूना लगा गया।’’ बुजुर्ग संभव आज फिर अपने बचपन के मित्र से मिलेे तो कहने लगे।
मित्र: ‘‘यार संभव, कब तक दुःखी होते रहोगे, पिछले 4-5 महीने से बस एक ही रट, कुछ उपाय करना चाहिए न।’’
संभव: ‘‘कानून के जानकारों से मदद मांगी, लेकिन सभी ने समझाया कि पैसा और अधिक खर्च हो जाएगा, फिर इस बात की गारंटी नहीं कि मकान पूरा बन ही जाएगा, क्योंकि ठेकेदार ने काम तो किया है।’’
मित्र: ‘‘मेरा नया मकान बन रहा है, मैंने ठेकेदार से कहा था कि रेत-गिट्टी, बोल्डर आने पर मेरे भाई नगद पैसे देंगे, ये लो पूरे एक लाख हैं, अपने शुभ हाथों से ठेकेदार को देना।’’
दोनों बात करते हुए उस जगह पहुंचे जहां मित्र का मकान बन रहा था। संभव को अपने सामने खड़ा देखकर मकान बनवा रहा ठेकेदार सकपका गया।
संभव आष्चर्य से अपने मित्र की ओर देखकर: ‘‘इससे मकान बनवा रहे हो, ये तुम्हें कहां मिल गया।’’
मित्र: ‘‘तुम्हारे एग्रीमेंट में चस्पा फोटो से।’’
मित्र ने ठेकेदार से कहा: ‘‘मैंने बताया था न कि बीम डलने से पहले तय रकम की पहली किश्त मेरे बड़े भाई देंगे। आज उन्हें हम साथ लाये हैं।’’
ठेकेदार को समझते देर नहीं लगी कि ‘‘जैसे को तैसे’’ वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। हावभाव बदलते हुए ठेकेदार तुरंत सफाई देने लगा: ‘‘वो एकाएक बीमार हो गया तो अस्पताल में भर्ती होना पड़ा, बहुत पैसा खर्च हो गया, पर आपका काम अवश्य पूरा करेंगे।’’
दोनों दोस्तों को चुप खड़ा देखकर ठेकेदार ने कहा: ‘‘आपको परेशान होना पड़ा, भरोसा रखिए, दोनों मकान जल्द बन जाएंगे। अब कोई शिकायत नहीं मिलेगी!’’
संभव: ‘‘मुझे ऐसी ही उम्मीद थी, पर लगता है अब हमारा मकान बन गया है।’’
दोनों मित्र एक-दूसरे की ओर देख मुस्कुरा उठे, और ठेकेदार नदारद।
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(15). आ० शेख़ शाहज़ाद उस्मानी जी
व्यावसायिकता : चोले और भोले
"मिर्ज़ा जी, गेट पर आपकी हमारे बस-स्टाफ से हुई बहस मैंने सुन ली है! अरे, आप तो हमारे पढ़े-लिखे-योग्य कर्मचारी हैं! आपको अपनी इज़्ज़त अपने हाथ में रखनी चाहिए न!" नई उभरती कम्पनी के नये मैनेजर ने अपने क़ाबिल कर्मचारी से कहा।
"सर, मुझे नहीं पता था कि आप आज अपने निर्धारित समय से पहले ही दफ़्तर आ चुके हैं; वरना मैं सीधे आपसे कहता कि यह स्टाफ-बस मेरे वाले स्टॉप पर आज नहीं आयी, जबकि मैं निर्धारित समय से दस मिनट पूर्व ही वहां पहुंच गया था! ये ड्राइवर-कंडक्टर दोनों झूठ बोल रहे हैं कि उन्होंने वहां सही वक़्त पर बस लाकर पांच मिनट तक मेरा इंतज़ार किया!" मिर्ज़ा जी ने अपनी शिक़ायत बतौर तवज्जो हमेशा की तरह हिंदी में ही स्पष्ट की।
"तो क्या आपको उन दो कोड़ी के टुच्चे कर्मचारियों से यूं बहस करनी चाहिए थी गेट पर? उम्मीद है, आइंदा आप अपनी कोई भी शिक़ायत सीधे मुझे ही बताया करेंगे!"
"क्षमा करें, सर! आइंदा ध्यान रखूंगा!" इतना कहकर मिर्ज़ा जी वापस अपनी सीट पर चले गये। गेट पर उस स्टाफ-बस से उतरे अन्य कर्मचारी मिर्ज़ा जी की हालत देखकर मुस्कराते रहे।एक क्लर्क उनके नज़दीक़ आकर बोली - "क्या हुआ सर? आज आपको पहली बार कोई शिक़ायत, इस कम्पनी के नियमों के ख़िलाफ़ इतने ज़ोर से करते हुए सुना! हमें आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी!"
वे कुछ कहते उसके पहले ही रिसेप्शनिस्ट ने उनके नज़दीक़ आकर धीमे स्वर में कहा - "सर, आपने ऐसा क्या कह दिया कि मैनेजर साहब बस-स्टाफ को जमकर डांट रहे हैं और आपकी इंसल्ट भी कर रहे हैं!"
तुरंत अपनी सीट छोड़कर मिर्ज़ा जी खिड़की से झांक कर गेट पर चल रही बहस सुनने लगे। मैनेजर साहब ड्राइवर-कंडक्टर दोनों से कह रहे थे - "उस दो कोड़ी के टुच्चे कर्मचारी से यूं बहस करने की ज़रूरत नहीं है! आप हमारे वफ़ादार क़ाबिल कर्मचारी हैं! .. हमें उम्मीद है कि आप ऐसे उजड्ड नौसीखिए कर्मचारियों को न तो सिर पर चढ़ायेंगे और न ही उनकी बातों का कोई बुरा मानेंगे!"
मिर्ज़ा जी ग़ौर से सुनते जा रहे थे। अब मैनेजर उन दोनों से कह रहे थे - "अरे, उस जैसे तो कई मिल जायेंगे! आप जैसे ऑल-राउंडर टिकाऊ आज्ञाकारी कर्मचारी मुश्किल से मिल पाते हैं! वो एक लाइन तक तो बोल नहीं पाता है सही अंग्रेज़ी में; अपने आपको जाने क्या समझता है!"
बगल में खड़ी वह रिसेप्शनिस्ट मिर्ज़ा जी की हालत देखकर मुस्कराने लगी और बोली - "उम्मीद है कि प्राइवेट नौकरी के तौर-तरीक़े आप भी ज़ल्दी ही सीख लेंगे!"
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(16). आ० कनक हरलालका जी
परिवार
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"रवि नाश्ता कर ले।"
"आया मम्मी। बड़ी जोरों की भूख लगी है।"
खाने की मेज पर पूरा परिवार इकठ्ठा था।
"मम्मी आपकी प्लेट कहां है? आपने अपनी प्लेट नहीं लगाई?"
"नहीं बच्चे, आज मेरा व्रत है। तुम लोग बैठो न। मैं परोस देती हूं।"
"आज फिर व्रत? क्यों करती हैं आप इतने व्रत उपवास?"
"अरे शादी के बाद औरतें अपने पति, परिवार, और बच्चों की खुशहाली के लिए व्रत रखती हैं और क्यों?"
"वैसे आज है क्या? आज किसकी खुशी के लिए व्रत रखा गया है? "
"आज मैंने अपने पिताजी के स्वास्थ्य की कामना के लिए व्रत रखा है। कई दिनों से बीमार चल रहे हैं।"
"पापा आप को भी अपने परिवार, पत्नी, बच्चों की खुशहाली के लिए व्रत रखना चाहिए न।"
"अरे ये सब औरतों के घरेलू काम हैं। मर्द ये सब नहीं करते।"
"हां क्योंकि माँ सिर्फ़ औरतें हो सकती हैं मर्द नहीं।"
"मम्मी, बड़ा होकर मैं भी
अपने परिवार की खुशियों के लिए व्रत रखूंगा। क्योंकि वह मेरा भी तो परिवार होगा न। बिल्कुल आपकी तरह।"
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(17). आ० नीता कसार जी
रोशनी ज़िंदा है
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अरे ये क्या कर रहे,बुड्डा ? सबके पास जाकर सबकी, टेबल पर खाना परोसने के बहाने हाथ से हाथ स्पर्श कर क्या ढूँढ रहा है। इसका हुलिया और पहनावा देखो
ये कितना गंदा दिख रहा है।
तीर्थयात्रा पर आये मोहन ने मधुर से ढाबे पर खाना खाने के लिये भीतर आकर कहा।
देख यार ? खाना कैसे परोस रहा है।मुझे तो घिन आने लगी है।
इसके मालिक की ख़बर लूँ , कैसे कैसों को पाल रखा है ।
छोड भाई,क्या करना है तुझे बड़ी मुश्किल से खाना मिला है हम खाना खा लेते है
मधुर ने मोहन को समझाने का प्रयास किया ।पर वह आपे से बाहर हो गया ।
जा बुड्डे अपने मालिक को बुलाकर ला ।
जी ,जी माफ़ करिये बाबूजी ये बुज़ुर्ग है। परिस्थितियों ने इनका ये हाल कर दिया है ।
बेटे,बहू साथ में तीर्थयात्रा करने लाये और इन्हैं छोड़कर भाग गये ।
अब ये हर आदमी में अपना बेटा ढूँढते है।
अचानक ही मोहन के तेवर ढीले हो गये।खाने की टेबिल छोड़कर उठा ,मालिक के पीछे खड़े
व्यक्ति के सामने खड़ा हो गया ।
मैं दोषी हूँ पापा ,मुझे माफ़ करिये ,आपने मुझे कभी अकेला नही छोड़ा और मैं ,आपका नालायक बेटा? दो जोड़ी आँखे छलछलाने लगी।
वह बुज़ुर्ग के पैरों में गिर गया ।
कंपकपाते हाथों से पिता ने बेटे को सीने से लगा लगा लिया
मुझे मालूम था तू मुझे लेने आयेगा जरूर ।
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(18). आ० महेंद्र कुमार जी
गोडोट
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व्लादिमीर को कब्र में फेंक कर एस्ट्रागन ज़ोर-ज़ोर से गाली बकने लगा। अब से एक दिन पहले यानी कल, या शायद कुछ वर्षों पूर्व, अथवा आज ही।
"तू आज फिर किसी को मार कर आया है?" व्लादिमीर ने एस्ट्रागन को देखते ही पूछा।
"यहाँ हर कोई हर किसी को मार रहा है, बस फ़र्क ये है कि बाकी लोग मतलब से मारते हैं और मैं बेमतलब से।" एस्ट्रागन ने जवाब देते हुए कहा। "वैसे कभी-कभी मुझे पोज़ो की बहुत याद आती है, 'अगर कोई कहीं पर रोता है तो कोई दूसरा कहीं पर चुप हो जाता है और अगर कोई कहीं पर हँसता है तो कोई दूसरा कहीं पर रोता है।' क्या तुझे नहीं लगता कि मैं लोगों को इसलिए मारता हूँ ताकि दूसरे ज़िन्दा हो सकें?"
व्लादिमीर ने कोई उत्तर नहीं दिया। थोड़ी देर की शान्ति के बाद। "डीडी, क्या तू जानना नहीं चाहेगा कि आज मैंने किसका खून किया?"
"लकी का?" व्लादिमीर ने अन्दाज़ा लगाया।
“नहीं, तेरे उस लड़के का जो गोडोट का सन्देश ले कर आता था। मैंने उसका पीछा किया तो देखा कि वह पहाड़ी पर अकेले बैठा ख़ुद से बातें कर रहा था। वह झूठ बोलता था, वहाँ उसके सिवा कोई भी नहीं था, तेरा गोडोट भी नहीं।"
व्लादिमीर ने अपनी टोपी उतारी और उसमें देखते हुए कहा, "मुझे लगता है गोडोट ऊपर रहता है।"
"और मुझे लगता है गटर में।" एस्ट्रागन ने अपने जूतों के अन्दर झाँकते हुए कहा।
"क्या गोडोट ईश्वर है?" व्लादिमीर ने एस्ट्रागन से पूछा।
"नहीं, मेरी महबूबा। न तो मेरी महबूबा कभी मुझसे मिलने आती है और न ही तुझसे तेरा गोडोट।"
व्लादिमीर चौंका। "क्या तेरी महबूबा है?"
"क्या तेरा गोडोट है?"
"अच्छा एक बात बता, इस दुनिया को टोपी की ज़रूरत है या जूते की?" व्लादिमीर ने विषय बदला।
"जूते की।"
"और तुझे?"
"दोनों की नहीं क्योंकि मुझे दोनों ही चुभते हैं।"
इसके बाद दोनों फिर शान्त हो गए। थोड़ी देर बाद एस्ट्रागन ने चुप्पी तोड़ी, "तुझे पता है, कल मैं लकी से मिला था। उस सूअर ने एनिमल फार्म खोल लिया है और अब वह बिना हैट के भी सोच सकता है।"
पर व्लादिमीर को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। वह कहीं और ही खोया था। "तुझे मेरी आख़िरी ख्वाइश याद है न?"
"हाँ, तू पहले मर तो।"
गोडोट का इन्तज़ार करते-करते व्लादिमीर आख़िरकार मर ही गया, उसने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली।
"मेरे साथ अपना जूता भी दफ़ना देना गोगो, मैं गोडोट को जूते से मारना चाहता हूँ।" व्लादिमीर की आख़िरी ख्वाइश के अनुरूप एस्ट्रागन ने उसकी कब्र पर अपना जूता रख दिया।
व्लादिमीर को दफ़नाने के बाद एस्ट्रागन उस पेड़ के पास जा कर खड़ा हो गया जहाँ वो दोनों गोडोट का इन्तज़ार किया करते थे। उस पेड़ में अब एक भी पत्ता शेष नहीं था। एस्ट्रागन ने उसकी तरफ़ देखा और कहा, "कभी-कभी तो लगता है जैसे मैं ही गोडोट हूँ।"
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(19). आ० नीलम उपाध्याय जी
उम्मीद
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सिविल सर्विसेस की प्रिलिम परीक्षा की तैयारी कर रहरही शिवानी ने अपने आप को दिन दुनिया से अलग कर लिया था। आजकल उसके संगी साथी उसकी किताबें और अपने चुने गए विषयों से सम्बंधित नोट्स रह गए थे। परीक्षा की तैयारी करने में परिवार का पूरा सहयोग मिल रहा था । उसके अपने कमरे के बाहर क्या कुछ चल रहा है, कौन आया, कौन गया, उसे इसकी कोई खबर नहीं रहती थी। हां उसने नोट किया कि पिछले तीन-चार दिनों से नन्हकी, जो उसके घर बर्तन और सफाई करने वाली की बेटी थी, किसी न किसी बहाने से उसके कमरे में चक्कर लगाती रहती है। कभी कहती -"दीदी तुम इतनी देर से बैठी हो पीठ दुःख गयी होगी। मैं थोड़ा दबा देती हूँ।" कभी कहती - "दीदी तुम थोड़ा लेट जाओ, मैं तुम्हारा सर दबा दू। " कभी पानी का गिलास लेकर हाजिर होती तो कभी चाय के लिए पूछने आ जाती। आखिर शिवानी ने उससे पूछ ही लिया - "नन्हकी, आजकल तुझे मेरी इतनी चिंता क्यों रहती है।" तब नन्हकी ने अपनी मंशा जाहिर कर दी - "दीदी तुम कोई इंतिहान दे रही हो तो आंटी, अंकल, भैया और छोटी दीदी सब तुम्हारा कितना ख्याल रखते हैं। मुझे बहुत अच्छा लगता है। दीदी, हमारे घर में हम लोग भी पांच प्राणी हैं। लेकिन माँ ही पूरा घर का खर्चा चलाती है। बापू तो शराबी है, घर से कोई मतलब ही नहीं है। घर चलाने में माँ की मदद करती हूँ। छोटी बहन बी.ए. की पढ़ाई कर रही है। भाई भी बी.ए. के बाद की पढ़ाई कर रहा है। दीदी तुम तो कोई नौकरी लगने की परीक्षा दे रही हो न । क्या तुम छोटी बहन और भाई को सरकारी नौकरी लगने की परीक्षा देना सीखा दोगी।"
"अच्छा सरकारी नौकरी की परीक्षा ही क्यों ?" "भाई पिराइवेट नौकरी करता था लेकिन तीन बार उसकी नौकरी छूट गयी। सरकारी नौकरी तो पक्की नौकरी होती है न।" आँखों में एक उम्मीद की किरण लिए नन्हकी को देख रही थी क़ि शिवानी उसके भाई को सरकारी नौकरी की परीक्षा देने में उसकी सहायता करेगी। उस बात के चार वर्षों के बाद आज नन्हकी का भाई सिविल सर्विसेज की परीक्षा में मेरिट अंक लेकर आई ए एस पास हो गया है। उसकी छोटी बहन भी सरकारी महकमे में राजपत्रित अधिकारी है। नन्हकी के पिता का अत पता नहीं है। उस्की माँ पिछले साल गुजर गयी और नन्हकी अब शिवानी के घर बर्तन और सफाई का काम करती है।
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(20). आ० मृणाल आशुतोष जी
सवेरा
बिस्तर पर आते ही सुषमा ने धीरे से आवाज़ दी,"अजी! सुनते हो, सो गए क्या?"
पति के जबाब की जगह खर्राटे की आवाज़ अनवरत जारी रही। दोपहर में जब से बैंक का खाता देखा, तब से चैन उड़ गया था। नींद को आगोश में लेने की तमाम कोशिश नाकाम रही। करवटों के बदलने का सिलसिला अभी भी जारी ही था कि अचानक पति के उठने का आभास हुआ। तो घबराकर उसने आँखें बन्द कर ली पर चोरी पकड़ी गयी।
"तुम अभी जग रही हो!" सुभाष जी ने आश्चर्यचकित होकर पूछा।
"हाँ, नींद नहीं आ ही है।"
"कोई बात है तो बताओ। कुछ छुपा रही हो क्या?"
"तुम नाराज़ होगे!"
"नहीं बताओगे तो और अधिक नाराज़ होऊँगा।"
"कब तक मुझसे छुपा-छुपा कर छोटी पर पैसा बर्बाद करते रहोगे।"
"बर्बाद! अरे, पढ़ाई के लिये पैसे भेजता हूँ न!"
"पढ़ने के लिये जो जुनून होना चाहिए वह तो उसमें दिखता नहीं। आती है तो दिन भर या तो सोती रहती है या मोबाइल में घुसी रहती है। उसकी शादी के बारे में भी कुछ सोचना है न!"
"अरे! राज्य लोकसेवा आयोग परीक्षा की तैयारी कोई हँसी-खेल है क्या? बड़े-बड़े के छक्के छूट जाते हैं। छोटी ने तो दो बार मुख्य परीक्षा भी दी है! पहले माली हालत खराब थी तो उन दोनों बेटियों को पढ़ा न सका। अब भगवान ने दिया है तो मैं कंजूसी क्यों करूँ?"
"जो मर्जी हो करो। कमाते तो तुम हो न!"
"अरे पगली! तुम न, व्यर्थ चिंता करती हो। देखना, जल्दी ही बिटिया पूरे शहर में हमारा नाम रौशन करेगी।" कहते हुए सुभाष जी ने उठकर खिड़की खोल दी। सरला को अब सूरज की किरण अब साफ दिखने लगी थी।"
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