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गज़ल - दिगंबर नास्वा - 4

१२२२ १२२२ १२२ 

उदासी से घिरी तन्हा छते हैं

कई किस्से यहाँ के घूरते हैं

 

परिंदों के परों पर घूमते हैं

हम अपने घर को अकसर ढूंढते हैं

 

नहीं है इश्क पतझड़ तो यहाँ क्यों

सभी के दिल हमेशा टूटते हैं

 

मेरा स्वेटर कहाँ तुम ले गई थीं

तुम्हारी शाल से हम पूछते हैं

 

नए रिश्तों में कितनी भी हो गर्मी

कहाँ रिश्ते पुराने छूटते हैं

 

कभी तो राख़ हो जाएंगी यादें

तुम्हे सिगरेट समझ कर फूंकते हैं

 

लिखे क्यों जो नहीं फिर भेजने थे

दराज़ों में पड़े ख़त सोचते हैं

 

लगी है आज भी उन पर लिपिस्टिक

हरे मग शैल्फ़ पर जो ऊंघते हैं

 

बुझा सकते हैं जल के भूख सब की

भले मुफलिस ये चूल्हे बोलते हैं

मौलिक व् अप्रकाशित 

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Comment by दिगंबर नासवा on April 29, 2019 at 9:11pm

आभार आमोद जी ... 

आपका सुझाव भी बेहतरीन है ... 

Comment by amod shrivastav (bindouri) on April 26, 2019 at 12:07pm

आ दिगंबर सहाब जी प्रणाम
हजज परिवार की बहर में अच्छी रचना की बधाई स्वीकारें

पते पर क्यों नहीं भेजे गए हम
दराज़ों में पड़े ख़त सोचते हैं

Comment by दिगंबर नासवा on April 24, 2019 at 9:12pm

बहुत आभार है लक्ष्मण जी ...

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 24, 2019 at 4:57am

आ. भाई दिगम्बर जी, सुंदर गजल हुयी है । हार्दिक बवाई।

Comment by दिगंबर नासवा on April 23, 2019 at 8:29pm

बहुत आभार आदरणीय समर कबीर ...

Comment by Samar kabeer on April 23, 2019 at 3:19pm

जनाब दिगंबर नासवा जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

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