For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-51 में शामिल सभी लघुकथाएँ

(1) . बबिता गुप्ता जी
मुसाफ़िर

दोपहर के समय वृद्धाश्रम में सभी महिलाएँ कुनकुनी धूप का आनंद ले रही थी। कोई अख़बार, किताब पढ़कर अपना समय व्यतीत कर रहा था, तो कोई दूरदर्शन देख या रेडियो पर महिला जगत कार्यक्रम सुनकर अपने सुखद दिनों को स्मरण कर आनन्दित हो रहा था। तभी किसी स्त्रोता की फर्माईश पर गाना बजने लगा, मुसाफ़िर हूँ यारों, ना घर हैं ना ठिकाना हैं, बस ....चलते....जाना.....जिसे सुनकर सुमन की ऑखें भर आई। गाने का मुसाफ़िर शब्द सुन वो बीते दिनों में चली गई। तीन बहन भाईयो में सबसे छोटी थी, पर भाई से लङाई-झगङा होने पर दादी की डाँट का शिकार वो ही होती। विरोध करती तो लड़की होने की समझाईश देकर शांत कर दिया जाता कि क्यों भाई से पंगा लेती हैं, कुछ दिनों बाद ससुराल चली जाएगी तो क्या वहा भी ऐसे ही झगङेगी। ‘मैं कभी ससुराल ही नहीं जाऊँगी,’ तुनककर कहती। ‘बेटी तो मुसाफ़िर की तरह होती हैं, जन्म कही लेती हैं, तो अर्थी कही उठती।’ तब दादी की बात मुझे समझ नहीं आती। मायके छूटा, तो ससुराल को घर समझा। नाती पोते वाली हो गई। सब ठीक चल रहा था। जब कभी दादी की बात याद आती तो सोचती, दादी ग़लत कहती थी। पर पति के स्वर्गवासी होने के कुछ ही दिनों बाद दोनों बहुओं-बेटों में मेरी ज़िम्मेदारी उठाने को लेकर बहस आए दिन होती, कभी इसके घर तो कभी उसके घर दिन काटतीऔर एक दिन दोनों ने मेरी सुरक्षित देखरेख को लेकर निर्णय ले लिया और मुझे....-ऑखों से अश्रुधारा बहते देख पास बैठी हमदर्द सखी के पूछने पर ऑसू पोछते हुए बस यही कहा कि दादी सही कहती थी। 
-----------
(2) . ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश जी
मुसाफ़िर हूँ यारों

खाली बोतल को देखकर साहब ने आँखें मली. फिर ज़ोर से चिल्लाए, “रामू! वह लड़की कहाँ गई?” 
“जी साहब!” रामू ने कमरे में आते ही कहा तो साहब ने अपने खाली अंगुली और गले पर हाथ फेरते हुए कहा, “और मेरी सोने की अँगूठी और चैन कहाँ गई?” 
“जी साहब!” रामू को सहसा विश्वास नहीं हुआ. यहाँ का परिदृश्य बिल्कुल बदला हुआ था. “साहब! आपके कमरे से लड़किया रोती हुई निकलती है. इसलिए हम ने ध्यान नहीं दिया.” 
“क्या कह रहे हो?” साहब ने आँखें तरैर कर पूछा, “वह कब और कहाँ गई?” 
“साहब! सुबह बहुत जल्दी चली गई थी,” रामू ने कहा, “जाते वक़्त कह गई थी. साहब से कहना कि जग के नीचे एक चिट्ठ पड़ी है. उसे पढ़ लें.” 
“क्या!” साहब ने झट से जग उठाया. उसके नीचे से चिट्ठ निकाली और पढ़ी. फिर माथे पर हाथ रखकर धम्म से पलंग पर बैठ गए.
रामू ने साहब के हाथ में पकड़ी चिट्ठ पर निगाहे डाली, उसपर बड़ीबड़ी लिखावट में लिखा था, “मेरे हम सफर! पैसे लेकर जा रही हूँ. एक रात मुसाफ़िर थी! तुम जैसे नामर्द बलात्कारियों को एड्स बाँटती हूँ.” 
---------
(3) . डॉ० अंजू लता सिंह जी

वसुंधरा की कोख में निरंतर बहने वाला जल विभिन्न रूप धरकर अपने अस्तित्व की रक्षा करने हेतु हमेशा सचेत रहता उसे कुछ गर्व था इस बात का कि वह जीवन के लिए अपरिहार्य बन चुका है .
कूप, झील, ताल-तलैया, बावड़ी, जोहड़, नदी, समन्दरऔर बर्फीले पर्वतों से पिघलती शिलाएं सभी उसकी आन-बान शान बनकर साथ-साथ चलते रहे मीठे और खारे जल का अपना अपना स्थान मानव मन में जगह बनाने में सफल रहा.पर हाय री कीस्मत! धरा के अंतःमार्ग से बाहर निकलकर जल दीर्घ निश्वासें भरने लगा था भू का पथरीला, माटीमसृण, हरियाला, जलजीवजंतुओं की पनाहगार वाला रास्ताउसे थकाने लगा था.लहरों की चंचलता, नमक निर्मिति का पुनीत दानकर्म, द्रव्य खनिजों की बहुलता जैसे गुण तिरोहित हो रहे थे.
नेत्र बंद किए जल ने अपने पालक वरूण देवको याद किया.अपनी विशिष्टताओं का हवाला देकर शपथ ली धरा गगन के बीच सृष्टि के अंत तक साथ देगा उस मानवका, जो उसे सजाता, संवारता, पूजता और
उपयोग में लाता है.
अपनी खूबियों की गठरी लिए फिर चल पड़ा ‘जल’ ..अब उसे क़ैद करने के नाम पर बांधों में बाँधा गया, 
नलों, पाइपों, वाटर हार्वेस्टिंग यंत्रों में रोका गया, बोतलों में पैक किया गया, पर्वतों को काट वृक्षों को धराशायी कर नन्ही छिटपुट धाराओं में झलक दिखाने भर का अवसर मानव अपनी खुशफहमी क़ायम रखकर देने लगा था.
कहीं छायादार पेड़ मिलते तो दो पल आराम ही कर लेता..तपती धूप में बेहाल वह ख़ुद को ही ढूँढने का प्रयास कर रहा था.कहीं कोई माटी का घड़ा या प्याऊ नहीं..ओफ्फ! मूर्च्छित हालत में देर तक उसांसे भरता वह संभला तो खेतिहर किसान के घर में हैंड पंप से फिसलते कनखियों से देख कान उधर ही लगा दिये.
किसान चार पाँच पियक्कड़ों से घिरा जुआ खेलता हुआ बीवी पर चीख़ रहा था-‘जा! टैंकर आ गओ.
ले आ पानी! चार दिन हो गए बिन न्हाए सबने.
-कुएँ, बावड़ी, ताल, जोहड़ सारे पाट राखे हैं तम मानुसों ने...के करै धरती मैया भी...मजबूर है.
धरती मैया की कोख से बाहर निकालके तमनै बड़े जुलुम करे हैं जी! इस पवित्तर जल पै रहम करो नई तो कहर बरसैगा..योई पानी बहाके ले जागा सारी दुनिया नै जी.
बूँद बूँद भर लो अंजुरी में अपनी...जे हाथ ही हैं म्हारे जो अच्छे करम कर सकै हैं...
यो बहता पानी थक लिया अब...इसनै हाथों से संभाल लो बस.
मत करो इसका दोहन...नई पीढ़ी नै भी साथ जान दो.
जल पानी की ठेली को देखकर कुछ पल के लिए ठिठक गया था ...उसे एहसास हो रहा था मानो
उसके थके हारे तपते तन पर किसी भले मानस ने ठंडे छींटे मार दिये हैं अपनी कोमल हथेलियों की अंजुरी में भरकर...
-------
(4) . शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी
दुहाई रिमिक्स्ड
.
“मैं क़ाफ़िर हूँ यारो; न धरम है, न ठिकाना! ....
इबादत कर दिखाना है, पाखण्ड करते जाना है! बस, जीते जाना है! “
“तुम बेवफ़ा हरग़िज़ न थे; पर तुम वफ़ा कर न सके!” 
“कितनी भलीं थीं, वो राहें हम जिन पे बाप-दादा संग थे चलते रहे!” 
“तो फिर .. तू क़ाफ़िर तो नहीं! मग़र बदनसीब ये जग तूने देखा; तुझको काफ़िरी आ गई!” 
“हाँ, प्यार का नाम मैंने सुना था मग़र; प्यार स्वार्थ है, ये जग ने दी है ख़बर!” 
“जबसे धन से मुहब्बत तू करने लगा! तू उसी की इबादत करने लगा!” 
“मैं शातिर हूँ यारो; न घर है, न ठिकाना! धन कमाते जाना है, बस मॉडर्न होते जाना है!” 
“होठों पे असली बात, ये कैसे अब आई! सुधर जा मेरे भाई; दुहाई है दुहाई!” 
महानगर के अत्याधुनिक अपार्टमेंट्स की पाँचवी मंज़िल के अत्यंत महँगे किराए के फ़्लैट के अत्याधुनिक वॉशरुम में पूर्णनग्नावस्था में स्नान-आनंद लेते हुए तुकबंदी के ये स्वर गूँज रहे थे। लिव-इन-रिलेशनशिप के सफ़र में सब कुछ था उन दोनों स्मार्ट धनवान युवा युगल के पास; असंतोष और कुंठा भी! 
---------
(5) . मनन कुमार सिंह जी
लोक-संस्कार
---
वह विदा हो गई। सुहागन थी, पर नैहर में थी। पीहर वालों को तीसरे पक्ष से ख़बर हुई। सब लोग दूर-दूर नौकरी पर तैनात थे। नैहरवाले ज़रा भी प्रतीक्षा को तैयार न थे। उन्हें उसे जल्दी से जल्दी निपटाने की पड़ी थी। ख़ैर पीहरवाले उतरी लेकर उसका संस्कार करने से संतुष्ट हो सकते थे। उसके आकांक्षी थे। दूसरी तरफ़ से झिड़क दिया गया। कहा गया कि जो करना था, किया जा रहा है। प्राकृतिक मौत हुई है। एलर्जी हो गई थी बस। इधर लोग कहते कि सुहागन थी। उसका सब संस्कार ससुराल में होना चाहिए। सो पुतला-दहन-प्रक्रिया अपनाई गई। फिर श्राद्ध-कर्म इधर भी शुरू हुआ। उधर चाहे जो हो रहा हो, सो हो। बूढ़ी काकी कह रही थीं कि मुसाफ़िर तो चला गया। अब जिसे जो करना हो, करे। 
-----------
(6) . तेजवीर सिंह जी
मुसाफ़िरखाना

देश के महान नेता अंतिम साँसें ले रहे थे। उन्हें अस्पताल ले जाने की जगह उनके महलनुमा बंगले को गहन चिकित्सा इकाई में तब्दील कर दिया था। ऐसा इसलिए कि आम जनता को वास्तविकता का पता ना चले। देश में बगावत होने का ख़तरा था। चिकित्सा के साथ-साथ महा मृत्युंजय मंत्र का जाप भी चल रहा था। संपूर्ण गोपनीयता बरती जा रही थी। फिर भी कुछ छुट पुट बातें लीक हो रहीं थीं। अफ़वाहें फैल रही थीं। आवास के आस पास पार्टी के ख़ास लोगों का जमावड़ा लगा था। उत्तराधिकारी की खोज जारी थी। वातावरण में खुसुर पुसुर भी जारी थी। कोई कह रहा था कि निपट गया लगता है। कोई कह रहा था कि बड़ी मोटी चमड़ी है, इतनी आसानी से मरने वाला नहीं है। 
उधर यमदूत आ चुके थे। 
“चलिए नेताजी, आपका समय पूरा हो गया।” 
“क्या बकवास कर रहे हो? अभी तो मेरा कार्यकाल शेष है।” 
“हम आपके मंत्रित्व के कार्यकाल की बात नहीं कर रहे। हम आपके जीवन काल के सफ़रनामे की बात कर रहे हैं।” 
“कौन हो तुम लोग?” 
“हम लोग यमदूत हैं। आपको यमराज ने बुलाया है।” 
“अभी तो मेरा बहुत व्यस्त कार्यक्रम है। बिल्कुल भी समय नहीं है। बाद में आना।” 
“हम आपके अधीन नहीं है। हम केवल यमराज के आदेश मानते हैं?” 
“अच्छा ठीक है, यह लो मेरा मोबाइल, मेरी बात कराओ अपने मालिक से।” 
“आपके इस यंत्र से उनसे बात नहीं हो सकती।” 
“तो जैसे हो सकती है वैसे करा दो।” 
“ऐसा कोई प्रावधान नहीं है।” 
“एक काम करो, कुछ ले देकर अभी इस मामले को टाल दो।” 
“आपका आशय क्या है श्रीमान?” 
नेताजी ने ढेर सारी नोटों की गड्डियाँ निकालकर उनके आगे रख दीं। 
“श्रीमान, हमारे यहाँ यह नहीं चलते।” 
“तो सोना चाँदी ले लो।” 
“महोदय यह प्रलोभन व्यर्थ है।” 
“इस घड़ी को टालने का कोई तो मार्ग होगा? अभी मुझे कुछ अनिवार्य कार्य करने हैं। इधर-उधर बहुत माल फ़ंसा पड़ा है। कुछ लोगों को भी ठिकाने लगाना है।” 
उन यमदूतों में एक बुज़ुर्ग और कुछ समझदार सा दिखनेवाला यमदूत आगे आया, 
“नेताजी, हम आपकी मंशा और परेशानी बख़ूबी समझ गए हैं। एक तरीका है। हम आपकी जगह किसी और को ले जा सकते हैं। ऐसा पहले भी भूल वश होता रहा है। भूल सुधारने में समय लगता है। तब तक लोग उसकी देह को जला देते हैं। तब वह भूल कागज़ों में ही दबा दी जाती है।” 
नेताजी ने उसकी युक्ति पर ठहाका लगाया, “भाई क्या दिमाग़ पाया है? तुम्हें तो मेरा सेक्रेटरी होना चाहिए।” 
“श्रीमान, इसमें एक समस्या और है। हम जिस इनसान को लेकर जाएँगे वह बीमार हो और यमराज के आगे मुँह ना खोले।” 
“ऐसा क्यों?” 
“ऐसा इसलिए कि बीमार आदमी की लाश तुरंत जला दी जाती है। दूसरा यमराज को वह कुछ नहीं बतायेगा तो छान बीन में अधिक समय लगेगा।” 
“तो क्या मेरी जगह किसी अबोध बच्चे को ले जा सकते हो?” 
“अबोध बच्चे तो आपकी आयु के अनुपात में अधिक ले जाने पड़ेंगे।” 
“वह कोई समस्या नहीं है। हमारा ख़ुद का शिशु चिकित्सालय है। जितने बच्चे चाहिए उठा ले जाओ।” 
------------
(7). अर्चना त्रिपाठी जी
मंज़िल
.
दरवाज़े पर सामना एक लड़के से हुआ निश्चित ही वह अक्षत था, देखते ही कह उठा, “मैं पापा को बुलाता हूँ।” 
निलय (पापा) व्हील चेयर पर ही बाहर आए। उम्र होने के बावजूद तेज यूँ ही बरकरार था, “कैसे आना हुआ?” 
सपाट से शब्द सुन मैं पूरी तरह हिल उठी फिर भी मैंने हिम्मत बटोरते हुए कहा, “तुम्हारी बेटी सृष्टि, अब मुझसे सम्हाली नहीं जा रही” 
“क्यों?” 
नहीं कह सकी कि, “जिस राह पर मैं चली वहाँ जब तक पैसा हैं तबतक चमक, उसके बाद फिसलन और दलदल ही हैं। तुमसे अलग होकर मैं निर्बाध आकाश में विचरती रही लेकिन वही निर्बाध आकाश अपनी बेटी को नहीं दे सकती। क्योकि उस राह की कोई मंज़िल ही नहीं।” प्रत्यक्ष में : “तुमने कहा था कि एक दिन तुम अवश्य लौटोगी और आज मैं वापस आ गई।” 
“बहुत देर कर दी तुमने लौटने में, मैं ज़िंदगी के कई पड़ाव पार कर आगे निकल चुका हूँ। रही सृष्टि की बात, उसकी ज़िम्मेदारी से मैं कभी भी पिछे नहीं हटा।” 
उस देहरी पर मैं पूर्णतः काँप उठी जो कभी मेरी थी, “और मैं! 
“वो तुम जानो, अगर उसके जीवन में तुम्हारी दख़ल होगी तो इस घर में उसके लिए भी जगह नहीं होगी क्योंकि यह घर बहू-बेटी वाला हैं।” 
--------
(8) . वीरेंद्र वीर मेहता जी
मंज़िल

.

नहीं आज नहीं। “कहता हुआ वह आगे बढ़ गया।” ‘बार’ के बाहर खड़ा गार्ड भी हैरान था, सातों दिन पीने वाला शख़्स आज बिना पिए आगे निकल गया! 
वह आगे बढ़ रहा था लेकिन उसके दिमाग़ में बेटी की बात घूम रही थी। “पापा, आज आप ड्रिंक नहीं करेंगें और चर्च में हमारे लिए ‘प्रेयर’ भी करेंगें।” 
आख़िर वह उस दोराहे पर आ खड़ा हुआ, जिधर से एक रास्ता उस रैन-बसेरे की ओर से जाता था, जहाँ के गंदे-अधनंगे बच्चों के कुछ माँगने के लिए पीछे पड़ जाने की आदत के चलते, वह उधर जाने से कतराता था। और दूसरा रास्ता उस सर्वशक्तिमान के दरवाज़े पर जाता था जिस ओर जाना उसने महीनों पहले बंद कर दिया था, क्योंकि ठीक एक वर्ष पहले उसके हाथों हुई दुर्घटना में अपने परिवार को खोने का जिम्मेदार वह इस सर्वशक्तिमान को ही मानता था। 
‘क्या करे और क्या न करे’ की स्थिति में वह कुछ देर सोचता रहा और फिर एक ठंडी साँस लेकर बुदबुदाते हुए रैन बसेरे की ओर चल पड़ा। “नहीं बिटिया नहीं! मैं जीवन भर भटकता रहूँगा इन्हीं गलियों में, लेकिन अब ‘उधर’ कभी नहीं जाऊँगा।” . . .
“अरे बाबू, कछु खाने को दे ना।” जिस बात से वह डर रहा था, वही हुआ। रैन बसेरे के ठीक सामने शोर मचाते बच्चों में से कुछ बच्चों के साथ वह बच्ची भी उसकी टाँगों से आ चिपकी। 
“अरे चलो, दूर हटो।” सहज प्रतिक्रियावश उसने बच्चों को दूर धकेल दिया और तेज क़दमों से वहाँ से निकलना चाहा, लेकिन नीचे गिरे बच्चों में से बच्ची के रोने की आवाज़ से उसके पाँव अनायास ही थम गए। 
“कहीं लगी तो नहीं? बोल न, क्या खाएगी बिटिया?” वह ख़ुद भी नहीं जानता था कि आज ऐसा क्यों हुआ लेकिन कुछ क्षणों में ही वह उस बच्ची के साथ और बच्चों को भी ब्रेड लेकर बाँट रहा था। 
रोने वाला बच्ची अब मुस्करा रही थी और वह उसे एक टक देख रहा था। महीनों के बाद उसने आज ‘नैंसी’ को हँसते देखा था। “नैंसी मेरी नैंसी! वह बुदबुदाया। 
“क्या देख रहे हो पापा? आज मैं बहुत ख़ुश हूँ, आज आपने मेरी दोनों बातें मान ली।” 
“पापा! ... दोनों बातें।” वह सोते से जाग गया जैसे। “हाँ, मान ही तो ली मैंने दोनों बातें! ये ब्रेड खाते बच्चे भी तो नन्हें-नन्हें ‘ईसा’ ही हैं और ये बच्ची मेरी नैंसी. . ., सुनो बेटी।” उसने जाती हुई बच्ची को पुकारा। 
“आज तुमने अपनी ही दुनिया में भटकते मुसाफ़िर को उसकी मंज़िल का पता दे दिया है। थैंक्यू... नैंसी, थैंक्यू।” 
बच्ची कुछ नहीं समझी थी पर वह मुस्कराता हुआ आगे बढ़ चला था। 
--------
(9) . रचना भाटिया जी
मुसाफ़िर

शिवानी की जबसे सगाई हुई थी उसे एक सपना अक्सर आने लगा था। यहाँ तक कि वो सोते में हड़बड़ा कर उठ जाया करती थी। माँ के समझाने के बाद भी डर कम नहीं हो रहा था। आज भी ऐसा ही हुआ जैसे ही शिवानी उठी पास में सोई माँ और दादी भी जग गईं। 
“सो जा, सब डर चिंता दिमाग़ से निकाल दे, सब अच्छा ही होगा।” कहकर माँ शिवानी के बाल सहलाने लगी। 
क्या हुआ बिट्टो, कोई बुरा सपना देखा क्या? 
“हाँ, माँ जी, जबसे सगाई हुई तबसे दो तीन बार देख चुकी”। माँ ने जवाब दिया। 
“बहू, मायके की आदतें छोड़ दो। बेटी ब्याहने लायक़ हो गई कुछ तौर-तरीके सीख लो, हमारे यहाँ जिससे पूछा जाता है, वही जवाब देता है”। बोल, बिट्टो “। 
“हाँ दादी, सपने में मैं रेलगाड़ी का डिब्बा होती हूँ, आगे-पीछे जाने अंजाने चेहरे, कुछ बड़ों के, कुछ बच्चों के। रेलगाड़ी सिर्फ़ दो स्टेशन पर ही आती जाती है। एक स्टेशन पर मायके और दूसरे पर ससुराल लिखा है और दादी, मायके पर तो बहुत कम रुकती है। क्यों दादी”। 
सुन बिट्टो, इसमें डरने वाली बात न है, लड़की मुसाफ़िर है और, मंज़िल मायके से ससुराल ही है। जो पुराने डिब्बे हैं वो रीति-रिवाज़ हैं जो तुम्हें ससुराल जा कर निभाने हैं, और नए डिब्बे आने वाला वंश है जो तुम लाओगी। “दादी मुस्कराते हुए बोली। 
“दोनों स्टेशनों के बीच संबंध ठीक रखने के लिए तुम्हारा यानी मुसाफ़िर का कर्तव्य है हाँ, मायके में ज़्यादा दिन ठहरी लड़कियाँ भी अच्छी नहीं लगती। कहकर दादी ने करवट ले ली। माँ की आँखों से आँसू बह रहे थे। शिवानी ने भी सुबकते हुए कहा कि दादी जब सब मैं ही ठीक करूँगी तो मैं मुसाफ़िर क्यों। मैं तो मज़बूत डोरी हुई।” 
अब दादी की आवाज़ में भी दर्द था। उठकर शिवानी के सिर पर हाथ फेरा, कहने को मायका ससुराल दोनों अपने घर हैं पर ….दादी वाक्य पूरा न कर सकी। 
इसलिए ससुराल में ही निभाओ। साथ ही बहू के सर पर भी हाथ फेर दिया। 
------

(सभी रचनाओं में वर्तनी की त्रुटियाँ संचालक द्वारा ठीक की गई हैं) 

Views: 797

Reply to This

Replies to This Discussion

आदाब।  बेहतरीन संकलन। इस में मेरी रचना स्थापित करने के लिए हार्दिक आभार। सभी सहभागी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।

कृपया  क्रमांक 4 पर  नाम में / सहज़ाद / के स्थान पर सही / शहज़ाद / कर दीजिएगा।

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sushil Sarna commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post दोहा पंचक - राम नाम
"वाह  आदरणीय लक्ष्मण धामी जी बहुत ही सुन्दर और सार्थक दोहों का सृजन हुआ है ।हार्दिक बधाई…"
15 hours ago
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted blog posts
yesterday
दिनेश कुमार posted a blog post

प्रेम की मैं परिभाषा क्या दूँ... दिनेश कुमार ( गीत )

प्रेम की मैं परिभाषा क्या दूँ... दिनेश कुमार( सुधार और इस्लाह की गुज़ारिश के साथ, सुधिजनों के…See More
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

दोहा पंचक - राम नाम

तनमन कुन्दन कर रही, राम नाम की आँच।बिना राम  के  नाम  के,  कुन्दन-हीरा  काँच।१।*तपते दुख की  धूप …See More
yesterday
Sushil Sarna posted blog posts
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 162 in the group चित्र से काव्य तक
"अगले आयोजन के लिए भी इसी छंद को सोचा गया है।  शुभातिशुभ"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 162 in the group चित्र से काव्य तक
"आपका छांदसिक प्रयास मुग्धकारी होता है। "
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 162 in the group चित्र से काव्य तक
"वाह, पद प्रवाहमान हो गये।  जय-जय"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 162 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीया प्रतिभाजी, आपकी संशोधित रचना भी तुकांतता के लिहाज से आपका ध्यानाकर्षण चाहता है, जिसे लेकर…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 162 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अशोक भाई, पदों की संख्या को लेकर आप द्वारा अगाह किया जाना उचित है। लिखना मैं भी चाह रहा था,…"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 162 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. प्रतिभा बहन सादर अभिवादन। सुंदर छंद हुए है।हार्दिक बधाई। भाई अशोक जी की बात से सहमत हूँ । "
Sunday
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 162 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय लक्ष्मण भाईजी, हार्दिक धन्यवाद  आभार आपका "
Sunday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service