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मोहतरमा नेहा अग्रवाल साहिबा , ममता के रंग पर आधारित अच्छी लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
जी नेहा , ऐसी ही तो होती है हर एक मां। बच्चे को नहीं बल्कि खुद को सजा देती हुई। ये सातों रंग नारी का कोमल हृदय ही पहचानता है। पुरुष तो मार कर कहता है - रोएगा तो और पिटेगा। मुद्रण की अशुद्धि देखिएगा।
हार्दिक बधाई आदरणीय नेहा जी !बेहतरीन प्रस्तुति!बाल मन की शरारतों से आहत मनोदशा का बेहतरीन विश्लेषण किया है!
जी निशा , अच्छा लगा कि आपने मुंह फुलाने की बजाए गलतियां बताने को कहा। लीजिए देखिए :
प्रति दिन = प्रति-दिन , ना जाने = न जाने , लिया था।विभु की माँ निशा = लिया था, विभु की माँ निशा, रोते रोते = रोते-रोते, "अरे गलती पर ही तो दी थी सजा पर फिर = "अरे गलती पर ही तो दी थी सजा फिर , नासूर बनने दिया जायें = नासूर बनने दिया जाए , आत्मग्लानी= आत्मग्लानि
निशा जी , मुमकिन है कि अभी और भी कोई कमी हो। मगर, मेरी सीमा यह है कि मैंने हिंदी दसवीं कक्षा तक पढ़ी। उसके बाद सब अंग्रेजी में।
धन्यवाद निशा जी।
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