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बदलते लोग - लघुकथा -
घासी राम गाँव से दस साल की उम्र में शहर अपने चाचा के पास पढ़ने चला गया था । उसका चाचा एक कालेज में पढ़ाता था। इसलिये पढ़ने की अच्छी सुविधा थी । वह कभी कभी छुट्टियों में दो चर दिन के लिये गाँव आता था।अध्यापक संरक्षक होने से फ़ीस में भी रियायत थी।
वह खेल कूद के साथ पढ़ने में भी तेज था अतः उसे सेना में बीस साल का होते होते कमीशन मिल गया।।
अब वह सेवानिवृत होने पर गाँव में ही बसने का मन बना चुका था। बात यह थी कि वह बाप दादा की जमीन जायदाद का अकेला वारिस था। लेकिन वह चालीस साल फ़ौजी जीवन बिताने के बाद वह अब कर्नल जी आर शर्मा बन कर लौटा था।हालाँकि इतने लंबे समय बाहर रहने के बाद गाँव उसे अपने अनुरूप नहीं लगा।
आज सुबह खेत से लौटते वक्त मेरे से भेंट हो गयी।तो वह अपना दुखड़ा रोने लगा।
सारी मन की भड़ास निकाल दी,"भाई जी, गाँव में भारी बदलाव हो गया है।”
"कैसा बदलाव भाई।”
"आप सोचो, जो किशना हमारे खेतों में काम करता था, मुझे बाज़ार मे मिला और मुझसे बोला,"कैसे हो घासिया? सुना है कि अब गाँव में ही बसने का विचार बना लिया है।”
मुझे बहुत बुरा लगा। पर किशना की आयु का लिहाज़ करके चुप रह गया ।
“इसमें बुरा मानने का क्या है?” मैंने कहा।
"कमाल करते हो भाई जी। मैं एक रिटायर्ड फ़ौजी कर्नल हूँ। हमारे खेत में मजदूरी करने वाला मुझे घासिया बुलाता है। क्या यह आपको उचित लगता है ?”
“भाई, वह तुम्हारे पिता जी की उम्र का है। वह जब तुम्हारे पिता के खेतों में काम करता था तब भी तुम्हें घासिया ही बुलाता था। इसमें नया क्या है।”
"भाई जी, तब की बात अलग थी । अब मेरी हैसियत तो देखो।”
“"भाई जी, बदल तो असल में तुम गये हो। तुम्हारे जिस्म में फ़ौजी घुस गया है। गाँव तो वैसा ही है। गाँव के लिये तो तुम घासिया ही थे, आज भी घासिया हो और हमेशा वही रहोगे।"
मौलिक एवं अप्रकाशित
आदाब। उम्दा विषय, कथानक व कथ्य पर उम्दा रचना हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय तेजवीर सिंह साहिब। बस आरंभ में कसावट की गुंजाइश लगती है।
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