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मनमीत
“मैंने तो सब्जी में नमक बिलकुल सही डाला था, खुद चखा था मैंने बना कर. जरूर किसी ने मुझे डांट खिलाने हेतु बाद में मिला दिया” “मैं कहती रह गयी पर सासु माँ ने मेरी नहीं सुनी”
“पिताजी आयें थे, कितना मन था सावन में माँ के घर जाती पर ससुरजी ने मना कर दिया”
“इनको भी कोलकाता गए कितने दिन हो गए, जाने इनकी परीक्षाएं कब ख़तम होंगी”
“माली काका की बेटी रधिया भी अपने ससुराल चली गयी है”
“सासू माँ, बड़ी भाभी , मंझली भाभी, काकी, दीदी सभी दिन भर केवल गहने-कपडे, रसोई,बच्चों की ही बातें करती हैं”
“मैंने एक नयी कविता लिखी है सुनोगे ....”
अचानक घर आया हुआ राखाल ने अपनी बालिका वधु को कोने वाले कमरे के आदम कद दर्पण के सामने अकेले ऐसे बतियाते सुना तो उसका दिल भर आया.
“क्यूँ लख्खी मायके से आये इस दर्पण को ही अपनी कवितायेँ सुनाओगी, मुझे नहीं ? मैं भी तो तुम्हारा मनमीत हूँ.” राखाल को यूं अचानक देख लख्खी आश्चर्य मिश्रित लाज से गड गड गई, उसकी चोरी पकड़ी जो गयी थी.
( मौलिक व् अप्रकाशित )
नहीं फ़िल्म से कोई वास्ता नहीं, आदरणीय अर्चना जी . अकेलेपन का साथी उसका दर्पण, बस यही दिखाना था मुझे.
बहुत बढ़िया कथा बधाई आपको इस प्रस्तुति पर आदरणीया |
धन्यवाद आदरणीय सविता जी त्वरित प्रतिक्रिया देने हेतु.
कोमल भाव लिए , निर्मल मन की एक सुन्दर प्रेम कहानी। ढेरों बधाई आपको आदरणीया रीता जी। कथा वाकई लाज़वाब हुई है।
धन्यवाद कांता जी , आभार आपका जो आपने इस रचना की कोमलता को अनुभव किया .
आभार आदरणीय विजय जी , सही में मैंने शीषक पर मेहनत किया था . आपने उसे इंगित कर खास बना दिया .
मन के भाव व्यक्त करने के लिए दर्पण से अच्छा साथी भला कौन हो सकता है. सुंदर आदरनीय रीता गुप्ता जी. बधाई आप को .
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