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श्री धर्मेन्द्र शर्माजी के संचालन में महा-उत्सव (अंक - 13) का सफल आयोजन दिनांक - 10 नवम्बर 2011 की मध्य रात्रि

को सम्पन्न हुआ.

आयोजन में सम्मिलित सभी रचनाकारों की रचनाएँ संग्रहीत करने का प्रयास हुआ है.

ओबीओ के मुख्य सर्वर में संभवतः तकनीकी दिक्कतों के चलते हो रही पेज जम्पिंग के बावज़ूद रचनाओं को संग्रहीत करने क्रम में पूरा ध्यान रखा गया है कि सभी रचनाएँ सूचीबद्ध हो जायँ. फिर भी, जिन आदरणीय रचनाकारों की कोई रचना संग्रह में सम्मिलित होने से रह गयी हो, उनसे सादर अनुरोध है कि अपनी उक्त रचना के साथ कृपया संपर्क करें.

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आदणीय योगेन्द्र बी. सिंह ’आलोक सीतापुरी’ जी

(मत्तगयन्द सवैया)

आज करो सजना सजना हित साज सिंगार का मौसम आया,

फूल खिले रस गंध मिले यह बाग़ बहार का मौसम आया,

जोड़ करे टुकड़े टुकड़े, तलवार की धार का मौसम आया,

टालमटोल करो सजनी मत प्यार दुलार का मौसम आया||

(मदिरा सवैया)

प्रीति हिलोर उठे बरजोर कहें मनभावन मौसम है,

भीग गया रस से उर अंतर सावन सावन मौसम है,

प्रीति पयोनिधि पैठ पियो पै प्रीतम पावन मौसम है,

प्रेम प्रसून प्रगान करो रति काम सुहावन मौसम है ||

(अरविन्द सवैया , सिंहावलोकन या सांगोपांग)

सुन बोल सुहावन मौसम के पग पायलिया छनकार भरे छुन,

छुन की छनकी छनकार जबै हिरनी म भरै गज गामिनी के गुन,

गुन गान करै सजना अँगना सुन छम्मक छम्मक प्यार भरी धुन,

धुन ख़ास बजै मन आस जगै पुनि प्रीति पगै धुन नूपुर की सुन ||

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आदरणीय संजय मिश्रा ’हबीब’ जी

(१)

(कुण्डलिया)

“जंगल जंगल आग है, नदिया त्राहीमाम

मौसम सारा मेटता, यहि मानव का काम

है मानव का काम, नया नित धाम बनाये

निर्दयता धर नाम, पेड़ सब काटत जाये

चलो विचारें बैठ, करें ना और अमंगल

कब तक देंगे साथ, कनक्रीट के जंगल.”

(सवैया)...

चाँद धरा पर आन खडा बस रूप निहार रहा चुप भाई

मौसम आज बड़ा मनभावन रूप पिया नव देखि न जाई

अन्तर में जगि आस पुनीत नयी नित प्यास हिया पर छाई

मौसम अद्भुत खेल करे अरु पावन प्रीत भरी उर जाई

(२)

नित नव रूप दिखाता मौसम ।
हंसता रोता गाता मौसम ।1।

जलती सावन की राहों में,
पुरवइया बन आता मौसम ।2।

नरगिस सी अंखियों से मोती,
भी बन झर झर जाता मौसम ।3।

ताप धरा की हरने खातिर,
अमृतरस बरसाता मौसम ।4।

मजलूमों के घर को अक्सर,
दामिनियाँ दे जाता मौसम ।5।

ऋतुयें रंग मिलन के भरतीं,
पलकों में शरमाता मौसम ।6।

यारों की यादों को गाकर,
उत्सव खूब मनाता मौसम ।7।

जीवन सब दिन एक नहीं है,
कदम कदम समझाता मौसम ।8।

दिन भर सहम 'हबीब' बिताकर
सपनों में रो जाता मौसम ।9।

(३)

इश्क निभाने मौसम आया चांद गगन में बहक उठा ।

तारे सब बन फूल खिले हैं अम्बर का घर गमक उठा।

.

मौसम की अलबेली सूरत बादल, चातक, भंवरे भी,

खिलती अंखियों से टकरा दिल शीशे जैसा चमक उठा ।

.

कल कब यूं रहने वाली है मदमाती सी शोख सबा

सोच जरा क्यूं मौसम ऐसे पंछी बन कर चहक उठा ?

.

इश्क न जाने जिन्दा मुर्दा बात अजब इस मौसम की,

जिस ड्यौढ़ी पे हुस्न टिका वह शरमाता सा लहक उठा ।

.

कल जन्नत से मौसम थोड़ा चोरी कर लाया था मैं,

जाने किसने खुश्बू रोपे बाग मिरा ये महक उठा ।

.

मौसम पर कुछ कहने बैठा मन चंचल हो देख ’हबीब’

कैसी कैसी गलियों से जा जामिल जाने भटक उठा ।
.

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सौरभ पाण्डेय
.
(१)

मौसम सम होता नहीं, मौसम को पहचान

उसको मौसम ’राग’ है, इसको मौसम ’तान’ ||1||

.

आप सदा से आप हैं, कहें, कहूँ क्या आप

मौसम रंजन आपको, मुझको मौसम शाप ||2||

.

चंपा चढ़ी मुँडेर पर, गद-गद हुआ कनेर

झरते हरसिंगार बिन, बचपन हुआ कुबेर ||3||

.

मौसम की पाती पढ़े, फटी-फटी है आँख

खिड़की-साँकल तौलतीं, उसके रोमिल पाँख ||4||

.

मेरे मौसम को नहीं, हुआ तत्त्व का बोध

षड्-दर्शन हाँका किये, बना रहा गतिरोध ||5||

.

फटी बिवाई देख कर, चिंतित दीखी राह

मौसम-मौसम धूल में, पत्थर तोड़े ’आह’ ||6||

.

(२)

छंद - मत्तगयंद सवैया

मौसम का नव रूप सखे, मनभावन पींग लगे सुखदाई

नैन भरे नहिं दृश्य दिखे, तन भोग रहा अहसास हवाई

भाव विशेष की बात कहाँ, परिवेश लगे कचनार डुलाई

बन्धन की अब बात करो मत, मुक्त हुए हर छंद-रुबाई ॥

 

पात की नोंक पे ओस बसी, अह! रूप मनोहर भाव धरे है

आज सभी मृदुहास रुचें, चतुरी सजनी मधु-भास करे है

रोचक, प्रेरक, मोहक, मादक, रंग बखानत, बोल झरे है

छोह भरी रतियाँ सुख की, दिन खेलन को अब राड़ करे है ॥

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पींग - रुधिर-लहर के संदर्भ में लिया है ; मधु-भास - प्रिय बोल ; छोह - नेह ; राड़ - ठिठोली

(३)

झींसी-झीसीं ताप दे, फव्वारे-सी ठंढ
दीखे चुप, दुर्भेद सी, भीतर प्यास प्रचंड ||1||

मौसम पर गर्मी चढ़ी, कसती गाँठें-छोर
स्वप्न स्वेद में भीगते, मींजें नस-नस पोर ||2||

मन की ड्यौढ़ी आर्द्र है, घिरे मेघ घनघोर
प्रेम-पचासा टेरता, मौसम है मुँहजोर ||3||

मुँदे-मुँदे से नैन चुप, अलसायी-सी देह
मौसम बेमन लेपता, उर्वर मन पर रेह ||4||

मन की बंद किताब पर, मौसम धरता धूल
पन्ने-पन्ने याद हैं, तुम अक्षर, तुम फूल ||5||

कामद-पल धनु बाण ज्यों, प्रत्यंचा उत्साह
गर्व अड़ा आखेट को, मद आँखों की राह ||6||

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मोहतरमा सिया सचदेव

(१)

प्यार का मौसम जहाँ को भा गया
कुछ दिलों को और भी तडपा गया

आई है कुछ देर से अबके बहार
फूल कब का शाख पर मुरझा गया

कारखानों से जो निकला था धुआं
शहर में बीमारियाँ फैला गया

एक नेता था वोह और करता भी क्या
मसले वो सुलझे हुए उलझा गया

तब वो समझा लूटना इक जुर्म है
सेठ के हाथों से जब गल्ला गया

क्या हुआ ऐसा किसी ने क्या कहा
उनके माथे पे पसीना आ गया

था हसीं मौसम बहारों का :सिया :
एक बिरहन को मगर तडपा गया

(२)

यह ना कहो किस्मत में हमेशा ग़म होंगे
गुलशन में खुशियों के भी मौसम होंगे

ऐसे भी दिन आयेंगे जब दामन में
फूल ज्यादा होंगे कांटे कम होंगे

जब तुझको सब छोड़ के जायेंगे हमदम
ऐसे वक़्त में साथ तेरे बस हम होंगे

ज़ख्म हमारे दिल के ना भर पायेगे
जाने दो बेकार सभी मरहम होंगे

हम ना सुनाते हाल ए ग़म दिल उनको सिया
किस को खबर थी सुनके वोह बरहम होंगे

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आदरणीय धर्मेन्द्र शर्मा जी

.

कीट पतंगों ने, अब तो अपने पर क़तर लिए है,

आदम ने हवाओं में कितने ज़हर भर लिए हैं

मौसमों ने भी अब अजीब सी शरारत पाल ली

टर्राते दादुरों ने अब मौन के स्वर भर लिए हैं

दशहरे के करीब जो ठंड दस्तक दिया करती थी

गर्मियों ने दिवाली तक के दिन रात हर लिए है

खाद ने, यूँ तो बंजरों को बेशुमार हरा कर दिया

असंख्य गाड़ियों ने लील पक्षियों के घर लिए है

हम हैं जिन्हें कोयलों के स्वर से प्यार होता था

कमज़र्फ हैं, परिवेश अपने भयभीत कर लिए हैं

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डा. बृजेश त्रिपाठी जी

(१)

(एकादसी)

मौसम
सर्द हो गया
रूठे क्यों...?

हौसले
मत गिराओ
आ जाओ ...!

सर्दी में
इत्ता गरम
शाबास

प्रवाही
स्नेह का वेग
मनो में

सृज दो
अपार प्यार
जग में

मौसम
हो महापर्व
प्यार का

(२)

एक चिड़िया सा चहचहाता यह मन

हर मौसम की आहट

पा के गुनगुनाता.....और

अपने मन की व्यथा-कथा

...नही...केवल मन की प्रसन्नता

पूरी दुनिया में बाँट आता.

वह सारे जग को बताता...

मेरे प्रिय ने देखो खुशियों की

एक नई सौगात भेजी है...

दूर से ही सही एक जीवंत

मुलाकात भेजी है ....

अब जब कोहरा घिरेगा बाहर

मन के अंदर

प्रियतम का प्यार जागेगा

मनुहार को बेकरार अभिसार

हर बार जागेगा...

सोचता हूँ यह स्वप्न न टूटे कभी

.....भले ही दूर रहें

इंतज़ार कितना ही लंबा क्यों न हो

उनका साथ न छूटे कभी...

पर काश, ईश्वर वही करता

जो मन को अच्छा लगता....

बिस्तर में लेटी मेरी हमसफ़र

और पास ही कुर्सी पर बैठा मैं

कब तक उनकी असहनीय पीड़ा की

जुबलियां मनाऊँ...

तो क्या मैं हार जाऊं ?

जीवन है मौत के बाद भी

मुझे पूरा है विश्वास ...

तुम छोडना नहीं तनिक भी आस

मैं लडूंगा ...लगातार

मौत तो कोई चुनौती नहीं ....

चुनौती तो जिंदगी है....

स्वीकार है ....

स्वीकार है हर बार

(३)

कभी हंसाता कभी रुलाता

किन्तु बिना चूके वह आता

नया कलेवर मोहक हरदम

क्यों सखी साजन?न सखि मौसम...

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इंतज़ार में बहुत छकाता

किन्तु साथ में प्रीत बढाता

थमा रहा खुशियों का दामन

क्यों सखि साजन? न सखि मौसम...

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हर पल उसके रूप अलग हैं

प्रतिक्षण उसकी चाल अलग है

शीत कभी नम, कभी है गरम

क्यों सखि साजन?न सखि मौसम...

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छुए प्यार से कभी जलाये

किन्तु दूर तक नज़र न आये

न जाने कब हो जाये नम

क्यों सखि साजन? न सखि मौसम...

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आये तो मन को हर्षाये

चला जाये तो याद दिलाये

मन की तडपन करता जो कम

क्यों सखि साजन?न सखि मौसम...

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आदरणीय सतीश मापतपुरी जी

जीवन और मौसम (गीत )

मन रे ........ काहें को नीर बहाये.

जीवन मौसम की भांति है, रुत आये - रुत जाये.

शिशिर - बसंत में मस्त पवन बह, अंग -अंग सहलाये.

होली - चईत का धुन हर मन में, मिलन की लगन जगाये.

मौसम की यौवन अनुभूति, नस - नस आग लगाये.

बिरहिन की आँखों - आँखों में, ही रजनी कट जाये.

शीत ऋतु गयी - आई गर्मी, कोमल तन झुलसाये.

जीवन मौसम की भांति है, रुत आये - रुत जाये.

मन रे ........ काहें को नीर बहाये..........

जेठ का तेवर देख के डर से, सब घर में छिप जाये.

दिन - दुपहरिये ही गोरी को, पिय का संग मिल जाये.

गरमी का भी अपना सुख है, सजनी बेन डोलाये.

खेत - बधार से मिल गई छुट्टी , सब मिल मोद मनाये.

पड़त फुहार खिलत मन - बगिया, वर्षा ऋतु जब आये.

जीवन मौसम की भांति है, रुत आये - रुत जाये.

मन रे ........ काहें को नीर बहाये.............

चढ़त अषाढ़ भरे नदी - नाले, खेतों में हरियाली.

सावन में गोरी की हथेली, में मेहंदी की लाली.

आसिन - कार्तिक में खेतों में, झूमे धान की बाली.

अगहन अपने साथ ले आती, घर - घर में खुशहाली.

पौष की धौंस से सहमी गोरी, पिय को सनेस पठाये.

जीवन मौसम की भांति है, रुत आये - रुत जाये.

मन रे ........ काहें को नीर बहाये...........

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आदणीय योगराज प्रभाकर जी

.

(कह-मुकरी)

इसके रूप अनोखे देखे
वफ़ा भी देखी, धोखे देखे,
दुआ करूँ, ना हो ये बरहम
ऐ सखी साजन ? न सखी मौसम !
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मुरली की मादक सी धुन है

पायल की मोहक रुनझुन है
सुमधुर ज्यों, वीणा की सरगम
ऐ सखी साजन ? न सखी मौसम !
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डर भी देता, प्यार भी देता
जीने का आधार भी देता,
नतमस्तक है सारा आलम
ऐ सखी साजन ? न सखी मौसम !
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खुश हो तो सोना बरसाए

खेतों पे यौवन लहराए

ये रूठे तो हर लेवे दम
ऐ सखी साजन ? न सखी मौसम !
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रौद्र रूप तक सब जग दहला,
करें गुलाम दिल,रूप सुनहला
ये बादशाह सभी से बे-गम
ऐ सखी साजन ? न सखी मौसम !
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पल में तोला,पल में माशा
आस कभी दे,कभी निराशा,
समझ न आते हैं पेचो खम
ऐ सखी साजन ? न सखी मौसम !
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देख पसीना उसको आवे
कभी बदन ठंडा पड़ जावे
कभी तो सूखा,कभी है ये नम,
ऐ सखी साजन ? न सखी मौसम !
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मस्ती में चुनरी भी खींचे
कभी रजाई में आ भींचे
दिल में रहे शरारत हरदम
ऐ सखी साजन ? न सखी मौसम !
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हम तो उसके गीत भी गाएँ
उसकी महिमा क्या बतलाएं
वो तो सत्यं शिवम् सुंदरम
ऐ सखी साजन ? न सखी मौसम !
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कभी बर्फ के गोले जैसा

भड़के तो है शोले जैसा,

नहीं किसी बहरूपी से कम

ऐ सखी साजन ? न सखी मौसम !

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आदरणीय अविनाश बागडे जी

(१)

(दोहे)

कोहरे के जारी हुए, प्रातःकाल बयान.

मौसम मदमाने लगा,ठंडक हुई जवान..

पारा मौसम का गिरे,बढे ठण्ड की मार.

कम्बल ओढ़े आता है,नया-वर्ष सरकार..

मौसम चाहे जो रहे,ठंडी या बरसात.

नौकरशाहों के लिए,कैसा दिन या रात!

पत्ता-पत्ता बोल रहा,हरियाली की बात.

मौसम करवट ले रहा,बदल गए हालात..

जीवन मौसम की तरह,सुख-दुःख और संताप.

सबका करते सामना,समय-समय पर आप.

हस्ताक्षर चल-चित्रों के,मुद्दत से बदनाम.

साथी मौसम की तरह,बदलें जो अविराम!

मौसम सखी! चुनाव का,देता सुखद ख्याल.

मिलता मुफ्त उडाने को ,नेताजी का माल.

शहरों का मौसम बड़ा,तंगहाल बेचैन.

गाँवों में ताज़ी हवा,सुबह दोपहर रैन.

सियासती मौसम हुआ,आज देश का गर्म.

'हाथ' 'कमल' के आ गया,फिर सत्ता का मर्म.

ढाला अपने-आप को,मौसम के अनुसार.

कुदरत की खुशबू लिए,आतें हैं त्यौहार.

मौसम अंगड़ाई लिए,खड़ा हुआ है द्वार.

पुनः गुलाबी ठण्ड का चढ़ने लगा खुमार.

मौसम गर्मी- शीत का,या होवे बरसात.

जुड़े हुए हर एक से,हम सबके जज्बात.

(२)

कविता....

क्या बात है
कि तुम
अक्सर मुझे
छल जाते हो!!!!
मै
धरती की तरह
अविचल
रहती हूँ.
तुम
मौसम की तरह
बदल जाते हो!!!!!!!!!!!
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.श्रीमती मोहिनी चोरडिया जी

.

जेठ की तपती दुपहरिया

निगल गई चिंताएं अतीत की

आलस में डूबा तन

सूना-सूना लगे मन

कपडे-लत्ते न सुहाएँ

सब मिल बतियाँ बनाएँ

और तभी ,

कुदरत की खुशबू लिए

बारिश का मौसम, आया

धरती को नया जन्म मिला

मिट्टी की सौंधी खुशबु से मन खिला

आई बरखा रानी

स्वप्न सुन्दरी बनकर |

दादुर,मोर,पपीहा

करें सब शोर

भीगी-भीगी हवाएं ,

नगमें सुनाएं

किसी की यादों का मौसम

दिल को धड्काए |

खिज़ाँ के मौसम ने दिखाई

पेड़ों की बेबसी

वसनरहित हो जाने की ,अपनों की जुदाई की

सिखा गया पतझड़ का मौसम

सृजन के साथ विसर्जन है,सुख के साथ दुःख है

जीवन मौसम है |

आगे बढ़ने पर ,

धूप और छाया की

ऑंख मिचौनी मिली

सुनहरी धूप ने धरती की गोद भरी

बहारोँ ने आकर वसन पहनाकर,

पेड़ों को नया रंग दिया

समझाया , मौसम कितना भी खराब हो

बहारें फिर से लौटती हैं|

ऋतुओं की रानी आई

दिल के दरवाजे पर

खुशियों के साथ-साथ

फूलों के गुलदस्ते लाई

ख़्वाबों का , उमंगों का ,

मुस्कराने का मौसम लाई |

दिल ने कहा

मौसम बाहर कैसे भी हों

अंदर जब फेलती है हसींन यादें ,

तभी मन के

इन्द्रधनुष खिलते हैं

सतरंगी सपने अपने होते हैं

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श्रीमती आराधना जी

.

चार मौसमों के किस्से कब तक सुनाओगे
कि कब बीतता है साल
इन्ही चार मौसमों में?

धूप छाँव
धुंध कोहरा
बारिश और
बहार

जो इतने ही मौसम सुने हैं
तो हम से सुनो
कि हर रोज़-ओ-शब
गुज़रते हैं हम
हज़ार मौसमों से

इन्ही आँखों से
हर इक मंज़र गुज़रता है
हर दिन
जिसे तुम महीनों जिया करते हो

बस लम्हे हैं
बहार के
कब किसने सालों बहार देखा है?

बस तंज़ हैं
तल्खियों के
किसने ग़ुबार देखा है?

छलकती आँखों के
हैं ये बेरहम कहर
किसने सैलाब देखा है?

अश्कों से भरी आँखों के परे
कब तुमने
सब साफ़ साफ़ देखा है?

मेरे मौसमों को
मेरा ही रहने दो
कि इतना वक़्त नहीं
कि सालों इंतज़ार करूँ.

हमने हर मौसम
साल में
हज़ार बार देखा है.

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.आदरणीय नीरज अवस्थी जी

.

बड़ा प्यारा सुहाना खुशनुवा है आज का मौसम.

गुलाबी सर्द मनमोहक हवाए आज का मौसम .

है चारो ओर हरियाली फिजाये आज का मौसम.

बसंती से न कुछ कम आज है हेमंत का मौसम.

उठी है धान की फसले तो गेहू की बुवाई है.

कही आलू मटर मूली तो सरसो लहलहाई है.

नदी की बाढ़ पीड़ा शांत गन्ने की शुरू विक्ररी,

हर एक चेहरे पे खुशियाली सुहाना आज का मौसम.

परेशानी मे हर इंसान भ्रष्टाचार महगाई,

कही से कुछ नही आशा है चारो ओर तन्हाई.

जो है गमगीन उसके गम मिटा देना विधाता सब,

रहम करना रहम रखना न अब देना किसी को गम.

बड़ा प्यारा सुहाना खुशनुवा है आज का मौसम

गुलाबी सर्द मनमोहक हवाए आज का मौसम.

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.आदरणीय अम्बरीष श्रीवास्तव जी

(१)

(कह-मुकरी)

दबे पाँव जो चलकर आवे,
हमको अपने गले लगावे,
मन भा जावे रूप विहंगम,
क्यों सखि सज्जन? ना सखि मौसम !

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आये तो छाये हरियाली,
उसकी गंध करे मतवाली,
मदहोशी का छाये आलम,
क्यों सखि सज्जन? ना सखि मौसम !..
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जिसकी आस में धक् धक् बोले,
जिसकी चाह में मनवा डोले,
दिल से दिल का होता संगम,
क्यों सखि सज्जन? ना सखि मौसम !.
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जिसकी राह तके ये तन-मन,
जिसके आते छलके यौवन,
झिमिर-झिमिर झरि आये सरगम,
क्यों सखि सज्जन? ना सखि मौसम .

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प्रेम वृष्टि हम पर वो करता,
दुःख हमारे सब वो हरता,
शांत अग्नि हो शीतल मरहम,
क्यों सखि सज्जन? ना सखि मौसम !.

(२)

(छंद - बरवै)

जाड़े का मौसम है, आया आज.

सी-सी-सी-सी बजता, मुँह से साज..

.

सर्द हवायें लगतीं, जैसे काल.

कथरी-गुदड़ी में हैं, अपने लाल..

.

निर्बल बुढ़िया भक्षे, शीत बिलाव.

चौराहे पर जलता, रहे अलाव..

.

घना कोहरा होते, एक्सीडेंट.

पीली लाइट जलती, परमानेंट..

.

एक तो है कर्जे का, सिर पर भार.

फसलों पर पाले की, पड़ती मार..

.

बदन उघारे सहमा, आज किसान.

कड़ कड़ कांपे प्रहरी, तना जवान..

.

कुहरे में भी छाया, भ्रष्टाचार.

कैसे निपटें मिल कर, करें विचार..

(कुण्डलिया)

आते मौसम हैं सभी, सबमें मन हर्षाय.

सावन भादों पूस क्या, जेठवा सहा न जाय.

जेठवा सहा न जाय, मौसमी महिमा न्यारी.

इससे जो अनजान, उसे लगती बीमारी.

अम्बरीष जो आज, सभी हैं धूम मचाते.

मौसम करे धमाल, तभी वह बन-ठन आते..

.

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श्रीमती वन्दना गुप्ता जी
.
(१)

कौन सा ?
कैसा?
कहाँ?
यहाँ तो कभी जाना ही नहीं
सुना है
ऋतुराज के आगमन पर
प्रकृति का पोर- पोर
प्रफुल्लित हो नृत्य करने लगता है
मगर कैसे? कब? किसके लिए?
क्या कभी देखा है पतझड़ के बाद बहार को आते?
जहाँ जमीर बंजर बन चुकी हो
कभी देखा है वहाँ फसल उगते हुए
किसी कुसुम को खिलते हुए
चाहे कितना सींचो , कितना ही पोषित करो
ऊसर धरती फिर नहीं उपजती
फिर कैसे कहते हो पतझड़ के बाद
ऋतुराज का आगमन होता है
मैंने तो नहीं देखा किसी
मिटटी में दफ़न अस्तित्व को
दोबारा ज़िन्दा होते हुए
मुरझाये किसी पुष्प को फिर खिलते हुए
ड़ाल से टूटे पत्ते को फिर जुड़ते हुए
राख में से फिर लकड़ियाँ चुनते हुए
नहीं देखा कोई भी .......फिर चाहे
इन्सान हो या प्रकृति
फिर कैसे कहते हैं लोग
मौसम बदल गया
पतझड़ के बाद ऋतुराज का आगमन हुआ
जब तक ह्रदय पुष्प ना उल्लसित हो
जब तक नज़रों में ना कोई खुमार हो
जब तक धडकनों में पैदा ना संगीत हो
जब तक ताल पर थिरकते ना कदम हों
जब तक मन की चादर पर ना सरसों लहलहाई हो
फिर कैसे , कब और कहाँ बदलता है मौसम
जब भीगे रास्तों पर पतझड़ ने लगाया डेरा हो
उम्र भर जहाँ कभी मौसम ही ना बदला हो
फिर कैसे कहते हो पतझड़ के बाद
ऋतुराज का आगमन होता है
कुछ मौसम सिर्फ एक दहलीज पर ही रुके रहते हैं .............
जीने के लिए , हंसने के लिए ..........सिसकते हुए


(२)

छहों ऋतुएं मोहे ना भायी सखी री
जब तक ना हो पी से मिलन सखी री
विरही मौसम ने डाला है डेरा
कृष्ण बिना सब जग है सूना
जब हो प्रीतम का दर्शन
तब जानूं आया है सावन
ये कैसा छाया है अँधेरा
सजन बिना ना आये सवेरा
पी से मिलन को तरस रही हैं
अँखियाँ बिन सावन बरस रही हैं
किस विधि मिलना होए सांवरिया से
प्रीत की भाँवर डाली सांवरिया से
अब ना भाये कोई और जिया को
विरहाग्नि दग्ध ह्रदय में
कैसे आये अब चैन सखी री
सांवरिया बिन मैं बनी अधूरी
दरस लालसा में जी रही हूँ
श्याम दरस को तरस रही हूँ
मोहे ना भाये कोई मौसम सखी री
श्याम बिन जीवन पतझड़ सखी री
ढूँढ लाओ कहीं से सांवरिया को
हाल ज़रा बतला दो पिया को
विरह वेदना सही नहीं जाती
आस की माँग भी उजड़ गयी है
बस श्याम नाम की रटना लगी है
मीरा तो मैं बन नहीं पाती
राधा को अब कहाँ से लाऊं
कौन सा अब मैं जोग धराऊँ
जो श्यामा के मन को भाऊँ
ए री सखी ..........उनसे कहना
उन बिन मुझे ना भाये कोई गहना
हर मौसम बना है फीका
श्याम रंग मुझ पर भी डारें
अपनी प्रीत से मुझे भी निखारें
मैं भी उनकी बन जाऊँ
श्याम रंग में मैं रंग जाऊँ
जो उनके मन को मैं भाऊँ
तब तक ना भाये कोई मौसम सखी री
कोई तो दो उन्हें संदेस सखी री.............

*****************************************************

आदरणीय दिलबाग विर्क जी

(१)

(तांका)

(एक)

मौसम नहीं

अहमियत रखे है

तेरा वजूद

तू है तो बहार है

तुझ बिन वीराना ।

.

(दो)

जब मिटेगी

नफरत यहाँ से

फैलेगा प्यार

तभी होगा सुहाना

दुनिया का मौसम ।

.

(२)

मौसम के तेवर कडे़, गर्मी हो या ठंड़

कुदरत से खिलवाड़ का, भुगत रहे हैं दंड़ ।

भुगत रहे है दंड़, यहाँ सारे के सारे

बना प्रदूषण खाज, मार यह गहरी मारे ।

कहे विर्क कविराय, नष्ट इसको कर दें हम.

धरती होगी स्वर्ग, सुहाना होगा मौसम ।

.

*****************************************************

आदरणीय बृज भूषण चौबे जी

जीवन के रंग को बदल क़र
उसमे नया संचार करने का काम ही नही ,
वरन
एक स्वच्छ दृष्टि देकर दिशा दिखाने का काम
मौसम करता है |
और
उस मौसम को गति, साहस
निरंतर चलते रहने की शक्ति प्रदान
हवाएं करती है |
पर हम क्या करते हैं ?
पेड़ों को काटकर मौसम का मिजाज बदल देते है |
फिर देखते है तांडव ,
मौसम के बदले मिजाज का |
मनुष्य पर क्रोध का
जिसने उसके जीवन दाता
पेड़ों को ही मिटाने का प्रण क़र रखा है |
बेवक्त मौसम हमें कैसे मारता है |
लहलहाते खेतों मे ओले बरसाकर

या बाढ़ की विभीषिका मे सबकुछ बहाकर |
बाढ़ , सूखा ,अनावृष्टि ,
ये सब मौसम की ही मार है |
फिर भी हम गड़ासे उठा ,
पेड़ काटने को तैयार है |
मौसम का सुख लेना है तो पेड़ लगाओ |
हमसे रूठ गया है मौसम इसे मनाओ ||

*****************************************************
आदरणीय संजय तिवारी जी

 

उसने मुझे रिमझिम बरसात में

सतरंगी कपड़ों के साथ

भींगते हुए कहा

आवो मौसम का मजा लो.

उसने मुझे ठंड में

विदेशी मदिरा की बोतल

दिखाते हुए और

स्‍वेटरों से लदे हुए कहा

आवो मौसम का मजा लो.

उसने मुझे बसंत में

रमणियों के साथ नाचते और

फाग गाते हुए कहा

आवो मौसम का मजा लो.

.....

मैंनें गर्मी में

उसे वातानुकूलित कमरे से

चिलचिलाती धूप में

बाहर निकालते हुए कहा

आवो मौसम का मजा लो.

.
*****************************************************
श्रीमती अंजु (अनु) चौधरी जी

.

मेघों ने अमृत घट
छलकाया अम्बर से ,
बूंदों ने चूम लिए ,
धरती के गाल
शर्माया ताल
.
परदेशी मौसम ने
अम्बर के आँगन में
टाँग दिए मेघों के ,
श्यामल परिधान |

.
हवा में घुली ये
सौंधी गंध सी
पूर्वी हवायों ने ,
छेड़ी है तान |

.
किरणों ने बदन छुया ,
रिमझिम फुहारों का |
फैल गया अम्बर में ,
सतरंगी जाल
भरमाया ताल |

.
जादू सा एहसास हो रहा
वर्षा की बूंद बूंद में ..
इन सावन की बूंदों ने
पनघट की मांग भरी
नदियों की भी भर दी है
सूनी सी गोद |

.
गगन से उतर रहा
नभ थामे पंजों में
धरती को पहनाने
मेघों की माला |
.
सैंकड़ों कंठ ...गाने लगे हैं
प्यार का गीत ....
सावन की झड़ियों में ......
.

*****************************************************

आदरणीय रवि कुमार गिरि जी

.

सावन की रिमझिम फुहार ,

बलम की याद आवे ,
बेदर्दी फोन पे दिखावे हैं प्यार ,
मन में आग लावे ,
सावन की रिमझिम फुहार ,
बलम की याद आवे ,
पेट की आग क्या - क्या ना करावे ,
चाहत को ये ताक पर रखवावे ,
सजनी घर में दिन हैं गिने ,

सजना को लगे हर मौसम बेकार ,
सावन की रिमझिम फुहार ,
बलम की याद आवे ,
*****************************************************

आदरणीय अशोक कुमार शुक्ला जी

मौसम सावन का

(एक)
धरती बोली
सावन ने आकर
मन को कुछ ऐसे हरा
पोर पोर उफनायी
सब कुछ लागे हरा हरा

.

(हाइकू)
फट गयी है
आसमान की झोली
धरा यूँ बोली

--------------------

बादल छाये
धरती पर ऐसे
मोहिनी जैसे

.
***************************************************

आदरणीय शेषधर त्रिपाठी जी

.

लगता है घर वालों को जो त्यौहार का मौसम

व्यापारियों को वो लगे व्यापार का मौसम

है उम्र में जो संगते अब्कार का मौसम

वीनस को लगे संगते अब्रार का मौसम

आते ही ठंढ होते हैं कुछ लोग बहुत खुश

लगता है उन्हें आ गया अभिसार का मौसम

बैठी दिखें बन ठन के घर में जब मेरी भाभी

भाई तिलक को तब लगे मनुहार का मौसम

जब टूर पर अकेले में आती है घर की याद

सौरभ को लगे इश्किया अशआर का मौसम

ये बानगी है टेस्ट करके देख लो यारों
अब भी बचा है बहुत सा तकरार का मौसम

(अब्कार - कुआंरी कन्याओं , अब्रार - ऋषि मुनि)

*****************************************************

 

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महोदय 

सादर प्रणाम

मेरा नाम तो सूची में है , लेकिन रचनाएँ नहीं

तकनीकी दिक्कत को दुरुस्त कर लिया गया है. असुविधा हुई इस हेतु खेद है.

सधन्यवाद.

 

इन रचनाओं को एक स्थान पर संगृहीत करने और लेखकों की हौसला आफजाई के लिए आदरणीय  श्री सौरभ  जी को हार्दिक बधाई और आभार !!

एक उत्कृष्ट और स्तरीय आयोजन की सफलता के लिए सभी साथिओं और संपादक - संचालक महोदय को हार्दिक साधुवाद और बधाई !! विभिन्न प्रचलित अप्रचलित विधाओं की रचनाओं ने मन को मोह लिया साथी गण खुद को परिमार्जित करते जा रहे हैं ओ बी ओ एक नए मुकाम की और अग्रसर है पुनः बधाई !!

आदरणीय भाई सौरभ जी ! आप ने 'मौसम' आधारित'महोत्सव में सम्मिलित इन समस्त  रचनाओं को संकलित करके बहुत ही अच्छा कार्य किया है ! परिणामतः सभी रचनाओं को एक ही स्थान पर एक ही साथ  पढ़ा जाना संभव हो पाया है ! आपके सद्प्रयास से इस संकलन के माध्यम से सभी रचनाएँ पुनः गौरवान्वित हुई हैं ! इस श्रमसाध्य कार्य के लिए आपका हार्दिक आभार !

सादर:

वाह! अनुपम संग्रह बन गया...

आद बड़े भईया सादर आभार एवं बधाई....

आदरणीय सौरभ भाई साहब, आयोजनों में प्राप्त सभी रचनाओं को संकलित करना बहुत ही महती और कठिन कार्य है, आपके द्वारा इस कार्य के निष्पादन पर बधाई स्वीकार करे |

आदरणीय सौरभ भाई जी,
सभी रचनायों को एक जगह एकत्रित करने का काम कितना दुष्कर (कई दफा तो बहुत ही पीड़ामई) होता है, मैं बखूबी जानता हूँ ! कॉपी-पेस्ट करते जाइए - पसीना बहते जाइए, लेकिन बाद में पता ये चलता है कि रचनाकार का नाम तो आ गया, मगर रचना नदारद ! या फिर नाम और रचना दोनों ही गायब ! होता क्या है कि कई रचनायों का फॉण्ट या फोर्मेटिंग हमारे फॉण्ट व फोर्मेटिंग से अलग हो जाती है, तब असली जद्दो जहद शुरू होती है ! खैर, आपने रचनायों को एक जगह संकलित करके जो महती कार्य किया है वाह वन्दनीय है जिसके लिए तह-ए-दिल से आपको साधुवाद देता हूँ ! सभी रचनायों को एक साथ दोबारा पढना सच में बहुत ही आनंददायक रहा !  सादर !

करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान !!! 

यह भी सीखा कि जो कुछ सहज और आसान-सा दीखता है वह अधिक क्लिष्ट होता है... .  :-)))))

 

 

आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
चर्चा मंच-701:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

 

इस उत्साहवर्द्धक इनिशियेटिव के लिये हार्दिक धन्यवाद दिलबाग़ जी. 

चर्चा-मंच-701  का जो लिंक आपने दिया है वह ओबीओ के पृष्ठ पर दीख नहीं रहा है. कृपया इसे सदस्यों की सुविधा के लिये दुरुस्त करवा लें.

सधन्यवाद.

चर्चा मंच - 701 का लिंक

http://charchamanch.blogspot.com/2011/11/701.html

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