आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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ओके , अब प्रभावित होऊँगी ,चकित नहीं ..हा हा हा हा
आ.रश्मि जी कल ही मैने आपकी रचना पर टिप्पणी की थी , शायद कही ओर जम्प कर गई है,संवादात्मक सुंदर लघुकथा हुई आपकी.
"जो सीढियाँ नीचे से ऊपर की ओर जाती हैं वही ऊपर से नीचे भी तो आती हैं।" बहूत बडी बात कह दी आपने.बधाई
दरकता विश्वास
मुरझाए चेहरे और थके कदमों से घर में प्रवेश करते ही सुदीप कटे पेड़ सा बिस्तर पर गिर पडा ।मीना ज़ल्दी से पानी लाई और पसीने से तर बतर पति को हवा करने लगी । कुछ अप्रत्याशित की आशंका से वो भी घबरा गई पर थोडा सामान्य होने पर पति के चेहरे पर नज़रें जमाकर पूछा , " कैसा रहा दिन ?"
"हूँ ..ठीक रहा ।" इतना कह वो फ़िर शून्य में खो गया ।
" पर आप तो आज से गद्दी पर बैठने वाले थे न और... ? "सवालिया निगाह लिए बात अधूरी छोड दी ।
अब तक सुदीप भी दर्द समेट हिम्मत जुटाने की कोशिश में लगे थे । चेहरे पर कुछ समय पहले तक इंद्रधनुष से बिखरे रंग मटमैले हो चले थे । आखिर आँखों के कोर पर ठिठके मोती रोक सिर्फ इतना ही कह पाया -
"भाई ने दुकान के सारे कागज़ात अपने नाम करा लिए ...मीनू !"
" क्या ? उन्होने तो तुम्हारे हिस्से का व्यापार देने को कहा था ।इसीलिए तुम्हें अपनी जान से प्यारी नौकरी भी छोडने को कहते रहे ! अब क्या होगा ? हमारे तो दोनों हाथ कट गए ।"
"कुछ नही , गड्ढे से बाहर निकल फ़िर इमारत खडी करेंगे ।" और पास रखे अखबार में नौकरी के इश्तहार देखने लगा।
.
मौलिक व अप्रकाशित
हार्दिक आभार आदरणीय राहिला जी
कथा पर आपकी सराहनीय टिप्पणी हेतु सादर आभार आदरणीय शहजाद जी
आदरणीय अनीता जैन जी रिश्ते में दरकते विश्वास पर प्रकाश डालती सुन्दर लघुकथा. बधाई आप को .
आदरणीय सर जी हार्दिक आभार
आदरणीय जानकी जी हार्दिक आभार
षडयंत्र का सबसे घिनौना रूप घर में और परिवार में .. बहुत सरलता से आपने इस कटु सत्य को उजागर किया है कथा के माध्यम से बधाई सखी..
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