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आदरणीय साहित्य प्रेमियो,

जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर नव-हस्ताक्षरों, के लिए अपनी कलम की धार को और भी तीक्ष्ण करने का अवसर प्रदान करता है. इसी क्रम में प्रस्तुत है :

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-174

विषय : "शांति और युद्ध"

आयोजन अवधि-10 मई 2025, दिन शनिवार से 11 मई 2025, दिन रविवार की समाप्ति तक अर्थात कुल दो दिन.


ध्यान रहे : बात बेशक छोटी हो लेकिन 'घाव करे गंभीर’ करने वाली हो तो पद्य- समारोह का आनन्द बहुगुणा हो जाए. आयोजन के लिए दिये विषय को केन्द्रित करते हुए आप सभी अपनी मौलिक एवं अप्रकाशित रचना पद्य-साहित्य की किसी भी विधा में स्वयं द्वारा लाइव पोस्ट कर सकते हैं. साथ ही अन्य साथियों की रचना पर लाइव टिप्पणी भी कर सकते हैं.

उदाहरण स्वरुप पद्य-साहित्य की कुछ विधाओं का नाम सूचीबद्ध किये जा रहे हैं --

तुकांत कविता, अतुकांत आधुनिक कविता, हास्य कविता, गीत-नवगीत, ग़ज़ल, नज़्म, हाइकू, सॉनेट, व्यंग्य काव्य, मुक्तक, शास्त्रीय-छंद जैसे दोहा, चौपाई, कुंडलिया, कवित्त, सवैया, हरिगीतिका आदि.

अति आवश्यक सूचना :-

रचनाओं की संख्या पर कोई बन्धन नहीं है. किन्तु, एक से अधिक रचनाएँ प्रस्तुत करनी हों तो पद्य-साहित्य की अलग अलग विधाओं अथवा अलग अलग छंदों में रचनाएँ प्रस्तुत हों.
रचना केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, अन्य सदस्य की रचना किसी और सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी.
रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना अच्छी तरह से देवनागरी के फॉण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें.
रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे अपनी रचना पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं.
प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें.
नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये तथा बिना कोई पूर्व सूचना दिए हटाया जा सकता है. यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
सदस्यगण बार-बार संशोधन हेतु अनुरोध न करें, बल्कि उनकी रचनाओं पर प्राप्त सुझावों को भली-भाँति अध्ययन कर संकलन आने के बाद संशोधन हेतु अनुरोध करें. सदस्यगण ध्यान रखें कि रचनाओं में किन्हीं दोषों या गलतियों पर सुझावों के अनुसार संशोधन कराने को किसी सुविधा की तरह लें, न कि किसी अधिकार की तरह.

आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है. लेकिन बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता अपेक्षित है.

इस तथ्य पर ध्यान रहे कि स्माइली आदि का असंयमित अथवा अव्यावहारिक प्रयोग तथा बिना अर्थ के पोस्ट आयोजन के स्तर को हल्का करते हैं.

रचनाओं पर टिप्पणियाँ यथासंभव देवनागरी फाण्ट में ही करें. अनावश्यक रूप से स्माइली अथवा रोमन फाण्ट का उपयोग न करें. रोमन फाण्ट में टिप्पणियाँ करना, एक ऐसा रास्ता है जो अन्य कोई उपाय न रहने पर ही अपनाया जाय.

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 10 मई 2025, दिन शनिवार लगते ही खोल दिया जायेगा।

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ई. गणेश जी बाग़ी 
(संस्थापक सह मुख्य प्रबंधक)
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Replies to This Discussion

आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी जी सादर, नाश सृष्टि का इस करना/ इस सृष्टि का नाश करना/...गेयता के लिए शब्दों को मानी परिधि में आगे-पीछे किया है. प्रस्तुत गीत रचना पर उत्साहवर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार. सादर 

युद्ध की विभीषिका की चेतावनी देती उत्तम रचना हुई आ॰ अशोक जी। सभी भाव पसंद आए।

   आदरणीय अजय गुप्ता जी सादर, प्रस्तुत गीत रचना को सार्थकता प्रदान करती प्रतिक्रिया के लिए आपका हृदय से आभार. सादर 

क्या ही कथ्य, क्या ही तथ्य और क्या ही प्रवाह .. वाह वाह वाह .. 

आदरणीय अशोक भाईजी, आपने प्रदत्त विषय को अपनी विचारधारा के अनुरूप सुगढ़ शब्द दिये हैं. आपकी रचना के माध्यम से जो भाव-बोध निस्सृत हो रहा है वह अवश्य ही युद्ध की अतार्किक्ता और शांति के सातत्य का उद्घोष है.

यह उद्घोषणा शिल्पगत और व्याकरण सम्मत है.  

आदरणीय, यह अवश्य है, कि युद्ध सदैव संहार का प्रारूप होता हुआ भी प्रकृति में नवनिर्माण का उत्स है. अतः, ’युद्ध शान्ति की राह नहीं’ के अपने निहितार्थ हो सकते हैं. परन्तु, युद्ध वस्तुतः पारस्परिक मात्र न हो कर बहुआयामी हुआ करते हैं. युद्ध का ही परम स्वरूप ’ताण्डव’ है आदरणीय. क्या शिव की अवधारणा से ताण्डव को निकाल सकते हैं ? फिर, युद्ध का सबसे विध्वंसक रूप ’महाभारत’ है. क्या कृष्ण के विवेक पर प्रश्न उठया जा सकता है ? कोई विवेकी ससिद्ध व्यक्ति शायद ही ऐसा स्वीकार करे.

वस्तुतः, परम अर्थों में कोई व्यापक ’युद्ध’ किसी अनैतिक समाज की शल्य-चिकित्सा है, आदरणीय. अन्यथा, कृष्ण अथवा राम या परम सत्ता के सर्वोच्च अंश किसी तरह के युद्ध के लिए उद्यत ही न हुए होते. पूरी गीता धर्म की स्थापना के लिए परम युद्ध का आह्वान करती है. बड़े अर्थों में युद्ध मात्र लड़ाई न हो कर अरुचिकर का ’संहार’ और प्राकृतिक और सामाजिक रूप से रुचिकर का ’स्वीकार’ है, ताकि मानव समाज प्रकॄति के सामंजस्य में प्राणवान रहे. दूसरे, किसी पर होते अन्याय का आखिर प्रतिकार कैसे किया जा सकता है ? न्यायोचित युद्ध के माध्यम से ही न ?

न्याय केवल पंचों के मंतव्य नहीं होते, आदरणीय.  

देखिए, आपकी प्रस्तुत वैचारिक रचना से कई-एक बात अनायास ही साझा कर गया. खैर. यह पटल वैचारिक संवादों का ही तो सशक्त माध्यम है. 

शिल्प तथा कथ्य की कसौटी पर आपकी रचना का हार्दिक स्वागत करता हूँ तथा आपको हार्दिक बधाई 

शुभातिशुभ

आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम, प्रदत्त विषयानुसार मैंने युद्ध की अपेक्षा शान्ति को वरीयता दी है. युद्ध के दुष्परिणामों से सभी भलीभांति परिचित हैं. मेरा मानना है युद्ध धरती को मरघट में तब्दील कर सकता है किन्तु सर्वकालिक सुख, चैन, शान्ति नहीं दे सकता है. मैंने गीत समाप्ति के बंद में अपनी बात को और स्पष्ट किया है. युद्ध प्रकृति के विनाश के लिए नहीं ही हो, रक्षा के लिए तो युद्ध होंगे ही वहां कायरता नहीं दिखाई जा सकती है. किन्तु जो दम्भी इन बातों को नहीं समझता उसका क्या है वह तो किसी भी हद तक जा सकता है. आपने पौराणिक युद्धों के उत्तम उदाहरण प्रस्तुत किये हैं. किन्तु महाभारत के विजेताओं के मन में क्या शान्ति थी या महादेव को अपने ही भक्त को मारकर शान्ति मिली होगी? 

"बड़े अर्थों में युद्ध मात्र लड़ाई न हो कर अरुचिकर का ’संहार’ और प्राकृतिक और सामाजिक रूप से रुचिकर का ’स्वीकार’ है, ताकि मानव समाज प्रकॄति के सामंजस्य में प्राणवान रहे." ....हाँ इसी बात की स्वीकार्यता गीत के अंतिम बन्द में है. सादर 

वाह, साधु-साधु

ऐसी मुखर परिचर्चा वर्षों बाद किसी आयोजन में संभव हो पायी है, आदरणीय. ऐसी परिचर्चाएँ ही किसी रचना के लिए आधारभूत समझ को विकसित करती हैं. विश्वास है, ऐसे तार्किक संवाद सभी आयोजनों में सहर्ष स्थान पाएँगे. 

सादर 

शुभातिशुभ.. 

अगले आयोजन की प्रतीक्षा में.. 

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