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(1). योगराज प्रभाकर
"पर्दे"
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“मारो-मारो” की आवाजें हर तरफ से उठ रहीं थीI लाठियाँ और तलवारें हवा में लहराते हुए इतने बड़े हुजूम के बीच घिरा हुआ वह बूढ़ा सूखे पत्ते की तरह काँप रहा थाI कुछ अति-उत्साही युवकों की एक टुकड़ी उसके घर की एक एक चीज़ उलट पलट कर कुछ ढूँढने में व्यस्त थीI  दूसरी टोली घर के पिछवाड़े जाकर तलाशी ले रही थीI किन्तु कहीं भी कुछ न पाकर उनके चेहरों पर निराशा के भाव उभर आए थेI  लेकिन अचानक ही एक कोने में पड़ी अंगीठी पर रखी हुई पतीली को देखकर एक युवक की आँखों में चमक आ गई और वह चिल्लाया:
“वो देखो भाइओ! मिल गया, मिल गयाI”
यह सुनते ही सारी भीड़ एकदम अंगीठी के इर्द गिर्द जमा हो गईI        
“देखो देखो पतीली में से बदबू भी अजीब सी आ रही हैI” पतीली से उठती भाप की तरफ इशारा करते हुए एक आवाज़ गूंजीI”
“क्यों बे बुढ़ऊ! क्या पका रहा है इस हांडी में?” उसको गर्दन से पकड़ कर खींचते हुए हुए उस दल का हट्टा-कट्टा नेता चिल्लायाI    
“जी....जी.... मैं.....I” भय से वह बूढ़ा कुछ कह नहीं पा रहा थाI
“मैं मैं क्या कर रहा है साले? सच बता दे, वर्ना तुझे मारकर यहीं गाड़ देंगेI” उसकी बात बीच में ही काटते हुए भीड़ में से एक धमकी भरा स्वर उभराI    
“ऐसा कुछ नहीं है बेटे! भाजी बना रहा हूँ मैं तोI”  
“भाजी? हमे पता है तू कौन सी भाजी बना रहा है साले! उसकी गर्दन पर उँगलियों का दबाव बढ़ाते हुए दल का नेता गुर्रायाI
“अरे इसको क्या पूछते हो, ढक्कन उठा कर खुद ही देख लो न?” भीड़ में से एक अधेड़ आदमी ने कहाI”  
“तू देख बे! क्या है पतीली के अंदर?” एक नए रंगरूट को आदेश देते हुए नेता ने कहाI
नया रंगरूट पहले तो ठिठका, किन्तु नेता की आँखों में चिंगारियाँ देख अंगीठी की ओर बढ़ाI
“अबे देख, क्या है इसके अन्दर?” नेता ने गरजते हुए पूछा:
“इसके अन्दर तो आलू हैं भैया जीI” उसने पतीली का ढक्कन उठाते हुए उत्तर दियाI
“सिर्फ आलू?”
“हाँ भैया जी हाँ! सिर्फ आलूI आप खुद देख लोI”
नेता ने एक झटके में उस बूढ़े को धक्का देकर अपने से दूर किया, पतीली के अन्दर झाँका और दल को आदेश दिया:
“चलो रे सब यहाँ सेI” बूढ़े के घर से बाहर आते हुए वह बुदबुदाया “सब किए कराये पर पानी फेर दिया साले नेI”
तभी पीछे से एक तलवार धारी ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए धीरे से पूछा:
“अब क्या करें भैया जी?”
“करना क्या है, इसके साढू को जाकर ठोकते हैं जिसने हमे ये झूठी खबर दी थीI”
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(2). सुश्री प्रतिभा पांडे जी
.‘बम’
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“  किसने किया था फोन ?”
पुलिस जीप से उतरती ‘धमाका मैडम ‘ को देख बिल्डिंग के नीचे जमे लोग सतर्क हो गए I ‘बम’, ‘ धमाका’ ‘तूफ़ान’ ,ऐसे  ही नामो से मशहूर है इलाके में ये महिला पुलिस अधिकारी I
“जी मैडम ..मैंने “  मिश्रा जी आगे आ गए  “मै अभी  सुबह पार्क में घूम रहा था , ,झाड़ियों के पीछे दो लोग  हाथ में कुछ लिए खड़े थे , फिर झटपट निकल लिए I  अँधेरा था, और कुछ ढंग से देख नहीं पाया” I
“तो अंकल आपको लगता है कुछ  बम वगेहरा होगा क्यों , चलो देखते हैं “I मिश्रा जी के पीछे खड़े गुप्ता जी को गहरी नज़रों से घूरती ‘धमाका मैडम’ पार्क की तरफ चल दी I
“इसका तो सुना था ट्रांसफर हो गया “  गुप्ता जी के चेहरे पर ‘धमाका’ के लिए खुन्नस साफ़ दिख रही थी I पिछले साल जब गुप्ता जी की बहू ने दहेज़ प्रतारणा का आरोप लगाया था उनपर, तब ‘धमाका मैडम’ ने खूब खिंचाई की थी  गुप्ता जी और पत्नी की I
“कैसा पत्थर जैसा मर्दाना चेहरा है इसका , चालीस के आस पास तो होगी ही I शादी शुदा है क्या” ? मिश्रा  जी की पत्नी फुसफुसाई I
“कुछ नहीं पता I दो तीन अनाथ बच्चियों को गोद ले रखा है ,घर बार का भी कुछ पता नहीं I  सुनते हैं खुद भी अनाथ आश्रम में ही पली बढ़ी है और ...” ’ धमाका मैडम’ की कुंडली  बाँचती श्रीमती गुप्ता, मैडम को लौटते देख चुप हो गईI
“अंकल जी “  मिश्रा जी के पास आ गई मैडम  “ डाउट तो आपका एकदम सही हैI  बम ही है ,ज़िंदा बम “I  
“तो नाकाम करने वाली टीम को क्यों नहीं बुलाते जल्दी ?” I हिम्मत लौट आई थी गुप्ता जी की I
“नहीं अंकल जी , अब नहीं होगा नाकाम”
“मतलब “ ? ,
“ मतलब , मै होने ही नहीं दूँगी इसे  नाकाम I फटेगा तो सही”I  भर्राई आवाज में अपने आप से बोलती ‘धमाका मैडम’ को अब सब अवाक होकर देख रहे थेI  
“मैडम बुखार है इसलिए ऐसे  पड़ी है I अस्पताल ले चलते हैं ,ठीक हो जायेगी I कपड़ों में लिपटी नवजात को लिए कांस्टेबल पीछे खड़ी थीI
भरी हुई आँखे लिए पिघलता हुआ पथरीला चेहरा  धीरे से झुक गया नवजात के ऊपर  “चलें बिटिया “ I
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(3). सुश्री सीमा सिंह जी
देखभाल
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"ये कैसा जूस है?"
बेड पर शिफ्ट हुए मरीज की गुस्से भरी आवाज़ से पूरा वार्ड गूंज गया। मरीजों और उनके परिजन सबका ध्यान अपने आप ही उस और चला गया। अचानक सबको अपनी और देखते पाकर देखभाल के लिए मौजूद उसकी पत्नी जैसे संकोच से गड़ गई थी।धीमे स्वर में पूछा: "क्यों जी, स्वाद ठीक नहीं है, या ठंडा ज्यादा है?"
"ठंडा तो नहीं है, पर कडुवा लग रहा है, जैसे ज़हर चख लिया हो!" स्वर अब थोड़ा धीमा था।
"नहीं तो, स्वाद तो ठीक है, पता नहीं आपको क्यों नहीं अच्छा लगा।" पत्नी ने समहते हुए कहा।
"ठीक लग रहा है तो तुम ही पी लो!" उसने झुंझलाकर मुंह घुमा लिया।
एक ही घूंट में पूरा जूस खत्म कर पत्नीे गिलास कूड़ेदान में फेंक, झटपट पति के लिए एक प्लेट में खिचड़ी परोसने लगी।
"लीजिए, थोड़ी सी खा लीजिए, आपका पेट खाली है।"
"लाओ!"
बेमन से चार चम्मच खाकर पत्नी को पकड़ाते हुए फिर उसने झिड़का, "बनाई किसने थी, ये?"
"मैं खुद बनाकर लाई हूँ, और चख कर भी।" अब पत्नी के स्वर में भी थोड़ा आत्मविश्वास झलक रहा था।
"ख़ाक चखी थी! नमक तक तो है नहीं!"
"अरे! ऐसा कैसे?"
"खा कर देख लो।"
पत्नी फिर जूंठी खिचड़ी निपटाने लगी थी।
"गुस्सा अक्सर लोगों को दिख जाया करता है।" पत्नी को खिचड़ी खाते हुए देख मन ही मन बुदबुदाते हुए पति के चेहरे पर संतोष पसर आया था।
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(4). श्री सुधीर द्विवेदी जी
संग-संग 
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"सुनो! तुम अपनी नौकरी छोड़ दो।" पति नें रसोई में आते ही कहा।
"क्यों?" पत्नी इस अत्प्रत्याशित आग्रह से हड़बड़ा गयी।
"सब मेरी खिल्ली उड़ाते हैं।" ठुनकते हुए पति अचानक सब्ज़ी कतरने लग गया।
"तुम्हे दकियानूसी लोगों की बातों को सीरियसली नहीं लेना चाहिए। " समझाते हुए पत्नी ने फौरन पति के हाथों से चाक़ू छुड़ाया और उसके हाथों में चाय का कप थमा दिया।
"नहीं ! बहुत हो गया, तुम यह जॉब छोड़ रही हो।" कहते-कहते पति ने दो घूँट में चाय खत्म की फ़िर कप धोने लग गया।
"तुम्हे हुआ क्या है आज?" पत्नी हैरानगी से लगभग चीख ही पड़ी।
"तुम्हारा हाथ बंटा रहा हूँ।" पति को पत्नी की हैरानगी से कोई फर्क न पड़ा ।
"तुम्हे तो अपनी इज्जत का ख्याल है नही ! लोग क्या कहेंगे? कि बीवी अपनें मियाँ से चौका-चूल्हा करवाती है।" पत्नी अब झुँझला उठी थी।
"लोग मुझसे भी तो यह कह सकते हैं।" पति ने पलटवार किया।
"ओहो! समझने की कोशिश करो, दो जन कमाते है तब कहीं..! " पत्नी अब रुआँसी हो आई थी।
पति कोई उत्तर देता इससे पहले फ़ोन घनघना उठा। पत्नी ने फौरन फ़ोन उठा लिया।
"किसका फ़ोन था?" पति ने फ़ोन कटते ही पत्नी पर सवाल दागा।
"गैराज से फ़ोन था,एक पहिया जाम था। उन्होंने ठीक कर दिया है। जब तक दोनों पहिये संग-संग न चलें तो भला गाड़ी?" बोलते-बोलते एकाएक पत्नी सकपका गयी, पति मुस्कुराते हुए उसे घूर रहा था। पत्नी ने नजरें झुका लीं और फ़टाफ़ट रसोई में जा घुसी। पति भी उसके पीछे-पीछे रसोई में आ पहुंचा।
कुछ देर तक तो सन्नाटा पसरा रहा फ़िर अचानक रसोई ; बर्तनों की खट-पट और दोनों के समवेत ठहाकों से गुलजार हो गई।
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(5). नयना(आरती)कानिटकर  जी
"दूसरा रूख"

 रेखा के ऑफ़िस के रास्ते में एक मंदिर पड़ता था, वापसी पर रोज शाम को वह दस मिनट वहाँ रुककर प्रभु के समक्ष नतमस्तक हो जाती। वहाँ आने वालों से थोड़ा बतियाती और घर को चल देती। वहीं पर उसकी पहचान दो बुजुर्ग महिलाओं से हो गयी. वे दोनों सर को ढके, एक साड़ी के पल्ले से तो दूसरी अपने दुपट्टे से, प्रभु सेवा मे लगी रहती, कभी मंदिर मे झाड़ू कभी प्रसाद वितरण, बगीचे की सफ़ाई जैसे काम भी करती रहती थी. उनके आपसी तालमेल को देखकर रेखा के मन का रचनाकार कुलबुलाता रहता। इनपर एक कहानी मैं ज़रुर लिखूँगी।
एक बार काम से रेखा को बाहर जाना पड़ गया, वापस लौटी तो उन दोनों में से एक को ही मंदिर में देखा।
उसे याद आने लगी थी उनकी बातें कि कैसे उनकी मुलाकात मंदिर के बाहर रखे एक बेंच पर हुई। तब एक ने बताया था कि दूसरी को उसके घर वाले घर में ही कैद रखना चाहते हैं और हारी- बीमारी मे भी साथ नहीं देते थे। यहाँ उदास बैठी मिली थी फ़िर हमारी दोस्ती हुई और वह उनके अन्नकौर भी हिस्सा होती चली गई और उनके आपसी राज गहराते चले गये थे। वो भी उनके नज़दीक आती चली गई थी.
आखिर न रहा गया और पूछ बैठी, "अरे! दादी जी आपकी सहेली कहाँ है ? आजकल दिखाई नही देती!"
मगर उधर से कोई जवाब नहीं आया, ना उन्होंने आँख उठाकर ही उसकी तरफ़ देखा।
तभी वापसी के रास्ते पर दूसरी वाली भी मिल गई। अपनी स्कूटी उनके पास रोक कर नमस्ते की...
"अरे अम्मा! क्या हुआ आजकल आप दिखती नहीं हैं मंदिर में दादी के साथ। कुछ अनबन हुई है क्या?" रेखा ने पूछा
"कौन दादी! वो बूढ़ी! उससे तो मेरा कोई रिश्ता नहीं है। ना तो वो मेरी दोस्त है ना रिश्तेदार। वो खुद मुझसे बात करती थी तो मैं भी कर लेती। महा गपौड(बातूनी) है वो। दो कौर खिलाकर मुझसे काम करवा लिया। मेरा धर्म भ्रष्ट कर दिया। तुम जाओ हमारे बीच ना पड़ो।
दोनो की दोस्ती को कथानक बनाकर एक लंबी कहानी लिखने का सपना भर-भरा कर गिर गया.
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(6). सुश्री शशि बांसल जी
"विडंबना"
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बहुत ही कारूणिक दृश्य था वह ।घर के कच्चे आँगन में पंडित जी की पार्थिव देह धराशायी थी। लोग हाथ जोड़कर मृतक को अंतिम नमन कर रहे थे । सावित्री को भी पति के अंतिम दर्शन हेतु कुछ औरतें सहारा देकर बाहर लाईं ।उसके हृदयविदारक विलाप से माहौल और ग़मगीन और बोझिल हो गया ।तभी एक बुजुर्ग विधवा आगे आई ।उसने एक झटके से सावित्री की सुहाग चूड़ियाँ तोड़ी , फिर उसकी माँग का सिन्दूर और माथे की बिंदिया पौंछी ।पति के जाने के साथ ही उसकी उपस्थिति का अहसास कराने वाले अंतिम चिन्ह भी उससे छीन लिए गए ।उनकी चिर विदाई के तुरंत उपरांत ही सावित्री को हलके रंग की साड़ी पहनने को दी गई तो उसका करुण रुदन फिर फूट पड़ा ।
" बस भी कर सावित्री , एक न एक दिन तो सबको ही जाना है । फिर होनी को कौन टाल सकता है ? तेरी तो कोई संतान भी नहीं जो तुझे संभाले , अब तुझे ही हिम्मत रखनी होगी ।" एक महिला सावित्री को ढाँढस बँधाते हुए बोली ।
" कैसे सम्भालूँ जीजी ? मेरी तो पूरी दुनिया ही लुट गई । मेरा आखिरी सहारा भी मुझसे छीन गया ।" सावित्री सिर पर हाथ रखे रोते-रोते बोली ।
" वो तेरा सहारा होता तब न बारह बरसों से लकवे में पड़ा था । कितने शारीरिक पीड़ा सही उसने और...और... तूने तो सेवा के साथ-साथ , मानसिक कष्ट भी सहा ।तुझे तो ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए कि उसकी जिंदगी सुधर गई । और तुझे भी दिन-रात उसका मल - मूत्र साफ करने से मुक्ति मिल गई ।"
" तुम नहीं समझोगी जीजी , उनका होना ही मेरा सबसे बड़ा सहारा था ।वो जिन्दा थे तो रोज़ ही किसी न किसी घर से न्यौता या सीदा आ जाता था ।अब मुझ विधवा को कौन बुलाएगा जीमने ? मेरा खोटे भाग कि पाप चढ़ने के डर से कोई मुझे पौंछे-बर्तन का काम भी नहीं देगा।"
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(7). श्री तसदीक़ अहमद खान जी
लघु कथा – छुपाधन
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श्याम ने सुबह सुबह चाय की चुस्की लेते हुए अपनी बीवी पूजा को आवाज़ देकर कहा " आज अख़बार के पहले पेज पर खबर छपी है , सरकार ने 500 और 1000 के नोट बंद कर दिए "
पूजा सारा काम छोड़ कर पति के पास आकर बोली , " सरकार ने एसा क्यूँ किया "
श्याम ने अख़बार पढ़ते हुए कहा " देश में काला धन और भ्रष्टाचार बहुत बढ़ गया है आतंकवाद में इसका प्रयोग हो रहा है "
पूजा फिर पूछ बैठी " काला धन किसके पास है "
श्याम ने बताया " घूसखोर कर्मचारियों ,अफसरों ,नेताओं और उद्योग पतियों के पास है "
यह सुनते ही पूजा के चेहरे का रंग ही उड़ गया ,वो  फ़ौरन बोल पड़ी " जिन घरेलू महिलाओंने घर खर्च में से बचा बचा कर कुछ धन घर में जमा किया है ,क्या वो भी काला धन है ?"
श्याम ने पूजा की तरफ देख कर मुस्करा कर कहा " नहीं, वो धन अगर ढाई लाख रुपये तक है तो उसे बैंक खाते में जमा करके वापस निकाल सकते हैं "
यह सुनते ही पूजा के चेहरे का उड़ा हुआ रंग वापस आ गया , जो बात उसने पति को कभी नहीं बताई वो उसके चेहरे ने ज़ाहिर करदी | पूजा के चेहरे पर आते जाते रंग को देख कर श्याम के होंटो पर खामोश हँसी साफ़ नज़र आ रही थी.
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(8). श्री मनन कुमार सिंह जी
दूसरा चेहरा
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कजरी बकड़ियाँ बांधकर अपनी झोपड़ी में घुसी।हवा सांय सांय कर रही थी।बादलों के घुमड़ने से साँझ जवां रात हो गयी थी।बांगड़ ने उसे बाँहों में भर लिया।हाँ, वही बांगड़ जो कुछ बरस पहले फिर वापस आने की गठरी उसे थमाकर जाने कहाँ रफूचक्कर हो गया था।कजरी खिल उठी।जाने-अनजाने अफसानों को दामन में समेटते जाने कब उसकी आँख लग गयी।अचानक आँख खुली,तो वह चौंक गयी।यह क्या,बांगड़ तो ढ़ेर सारे आततायियों के साथ सीमा के अंदर प्रवेश करने की तैयारी में था।अपने पिता की शहादत के बाद सरकार से प्राप्त सीमावर्त्ती भू भाग में खेती करना,जीना-बसना उसने स्वीकार किया था।बदले में आतंकियों से बदला चुकाना उसके जीवन का ध्येय बन चुका था।आतंकियों के हाथ कुर्बान हुए पिता का चेहरा उसे याद आ गया।बांगड़ ने उसे फिर से बाँहों में कसते हुए कहा,'देख कज्जो!सोना से मढ़ दूँगा तुझे।बस अपने झोपड़े और बकड़े-बकड़ियों के बाड़े से होकर मेरे साथियों को सीमा के अंदर जाने दे।मेरी जान है तू,है न?'
-ऊँ हूँ।
-क्यूँ रानी? बस तेरे बाड़े से होकर वे जंगली इलाकों में चले जायेंगे।फिर काम खत्म।बस तू और मैं और मस्ती ही मस्ती।
-पर एक शर्त पर।
-बोलो
-तेरे साथी बारी-बारी मेरी झोपड़ी से गुजरेंगे।
-ठीक है
-तू सबसे बाद में
-यह भी सही
-तो जा,काम शुरू करो।
एक-एक कर बांगड़ के साथी झोपड़ी के रास्ते मंजिल तक पहुँचते गये।बांगड़ झोपड़ी में घुसा तो उसका माथा फिर गया।
-गिन ले सारे पहुँच गये।' कजरी गुर्रायी।बांगड़ के पैर के नीचे की धरती खिसकती-सी लगी।उसने तमंचा निकल लिया।तबतक कजरी का खंजर प्रस्थान कर चुका था।बांगड़ के तमंचे से गोली निकल चली थी।बांगड़ अपना सीना पकड़े ढ़ेर हो गया।कजरी के मुँह से आवाज फूटी-
-भारत माता की जय।
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(9). डॉ टी आर सुकुल जी
ऊँट के मुह में जीरा
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‘‘ बड़े नोटों के बंद हो जाने से अब काले धन को बटोरने वाले भ्रष्टाचारियों की तो लुटिया ही ही डूब गई । अब आतंकी, नशेड़ी और तस्करी करनेवाले तो रोऐंगे ।‘‘
‘‘ हाॅं सामने से तो यही लगता है ।‘‘
‘‘ तो क्या पीछे कुछ और है?‘‘
‘‘ सामने है अर्थशास्त्र और पीछे है व्यावहारिक गणित।‘‘
‘‘ तुम कहना क्या चाहते हो? क्या इससे काला धन रखनेवाले भ्रष्टाचारियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा?‘‘
‘‘ अवश्य पड़ता यदि दण्ड कुछ कड़ा दिया जाता ।‘‘
‘‘ तो क्या काले धन को जमा करने वालों पर टैक्स के साथ टैक्स का दौ सौ परसेंट फाइन तुम्हें कम लगता है ?‘‘
‘‘ बस यही तो तस्वीर के पीछे का दृश्य है।‘‘
‘‘ तुम पहेलियाॅं क्यों बुझाते हो, स्पष्ट कहने में क्या डर लगता है?‘‘
‘‘ नहीं। सोचो, टैक्स के दो सौ परसेंट फाइन का मतलब क्या हुआ ? टैक्स का केवल दोगुना ! यह कोई दण्ड हुआ? सोना और जमीन खरीदने में काला धन निवेश करने वाले कौन है? ये वही हैं जो बड़े शक्तिशली, प्रभावी और मठाधीश है इन पर इसका क्या असर पड़ेगा? बैकों से लोन लेकर वापस न करने वालों पर इसका क्या प्रभाव होगा? ‘‘
‘‘ तो आखिर तुम कहना क्या चाहते हो?‘‘
‘‘ अरे ! इसका मतलब क्या है जब रिजर्व बेंक कहता है कि एक लाख चैदह हजार करोड़ रुपया के कर्ज सरकारी बैकों ने ‘डूबत‘ घोषत कर अपने रिकार्ड से हटा दिये हैं, वह भी केवल पिछले दो वर्षों में। यह कौन खा गया? रिजर्व बेंक की ‘राइट आफ‘ ,‘बेड‘, ‘डाउटफुल डेब्ट लोन्स ‘ आदि, ये शब्दावली क्या प्रकट करती है? क्या यह पैसा, देश हित में कतार में लगे त्रस्त हो रहे ईमानदार नागरिकों का नहीं है? ‘‘
‘‘ यार ! यह बात तो सचमुच विचार करने योग्य है।‘‘
‘‘यही नहीं, हर साल सरकार संसद में कहती है कि टैक्स में करोड़ों रुपये बकाया हैं, तो जो लोग इस पैसे को हड़प चुके हैं, खा चुके हैं, उन्हें बकाया क्यों कहते हो? वे लोग कौन हैं? उन लोगों के नाम घोषित किये जाते, उन्हें कड़ा दण्ड मिलता तभी कुछ सार्थक होता।‘‘
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(10). डॉ विजय शंकर जी
बदलाव , सर नेम , एक दूसरा
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कार्यालय में नये अफसर आये थे। लोग जानना चाहते थे, कौन हैं ?
दबी जबान एक दूसरे से पूछ रहे थे:
"सर का सरनेम क्या है ? "
तभी उनके कक्ष के बाहर उनके नाम की नई नई चमकती पीतल की नेम प्लेट लगी। सबने पढ़ा।
किसी ने मन ही मन बुदबुदा कर कहा:
"ये भी मेरा काम नहीं करेगा " , और धीरे धीरे बाहर जाने लगा।
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(11). सुश्री राजेश कुमारी जी 
चाब्बी  

“भाई एक बेरी और सोच ले कहीं लेने  के देने ना पड़ जांवें छोरी के चाच्चा को  तू जाणे स: बड़ा आदमी स: कहीं कुछ” ?
“भाई तन्ने पता नी है दोनों भाई एक दूसरे की सूरत भी देखना नी चाहते सारे गाम कू पता सः और उसे तो ब्याह में न्योता भी कोणी दिया मुँह फुलाए बैठ्ठा घर में | चल मैं बात करूँगा चौधरी से
फेरे जब  होंगे पहले ट्रेक्टर की चाब्बी हाथ में पकड़ावेगा मेरा छोरा वैसे ही करेगा जैसे मैं चाहूँगा उसकी भी फिक्र णा कर तू” दूल्हे के बाप ने अपने बड़े भाई को समझाते हुए कहा |
हँसी मजाक नाच गाना सब अचानक बंद हो गया चारो तरफ काना फूसी की आवाजें आने लगी चौधरी ने अपनी पगड़ी तक समधी के पाँव में रख दी पर वो उसी मांग पर अड़े रहे|
इतने में ही लड़की का चाचा दो तीन हट्टे कट्टे लड़कों के साथ आया
आते ही हाथ जोड़कर बोला “समधी जी, यू म्हारे घर की इज्जत णा उछाल थारी  हर इच्छा पूरी होवेगी  भाई पे इतना पैसा नहीं है पर मैं दूँगा चल पहले पगड़ी उठा इज्जत से मेरे भाई के सिर पे रख और अपने चार पांच जिम्मेदार लोगों के साथ मेरे पीछे  आजा  शगुन भी हम पूजा करवा के देंगे” |
लड़की के बाप को इज्जत के साथ पगड़ी पहनाकर हाथ जोड़ कर माफ़ी माँग कर वो चार पांच लोग चाचा के साथ चले गए गाना बजाना फिर शुरू हो गया|
थोड़ी देर में दूल्हे के साथ सब चुपचाप आकर मंडप में बैठ गए हँसी खुशी फेरे हो गए|
लड़की जब विदा होने लगी तो पापा के गले लगकर बोली “बापू चच्चा वैसे नहीं है जैसे तुम समझो हो मैने ही  फोन पे उन्हें सारी बात बताई थी मैंने कहा था कि बरात भगा दो मन्ने  नी करना यो ब्याह पर उन्होंने कहा नहीं छोरा अगर तुझे पसंद करता है और तू उसे तो बाकी लोगों की बात मुझ पे छोड़ दे उन्हें सँभालना मेरा काम सः”|
सबके विदा होने के बाद छोटा भाई आके बोला “ले भाई ये विडीओ संभाल के रखियो  उनके ट्रेक्टर की चाब्बी है इसमें  जब भी उन्होंने कोई चूं-चपट करी तो बस उन्हें इसकी याद दिला दियो| म्हारी बेटी सुख से रहेगी इसकी गारंटी मैं ले रहा हूँ तू चिंता मत करिए राम-राम”
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(12).  सुश्री निधि अग्रवाल जी 

आओ साहजी सा !! म्हारो मन हरख्यो थे म्हारा गाँव पधारया. र छोरा इ ऊंट न अन्दर लेजाक चारो पाणी दे. चालो जी थे अन्दर चालो. बीन्दनी जरा खाट घाल, आपणी बिट्टो का सुसराजी आया सत्तू को सरबत बी बणा क ल्याजे. फेर नास्तो करांगा.
या सब बातां रहबा दयो समधीजी. म्हें अठ थारी जजमानी खातर कोणी आया. म्हारो बोलणु ह की थे थारी बेटी न आक ले जावो. अब वा म्हारा अठ कोणी रह सके.
या के बात हुई साहजी सा. ब्याव म तो थे जिया कह्यो बैंया सो क्यूँ कर्यो. दायजो भी दियो. म्हारी बेटी बी संस्कारा आळी. के गलती होगी जो या बात कही.
समधीजी सारी बात सही ह.. पण थारी बेटी दो बार स बेटी ही जणरी ह. के करां म्हान बंस बी तो चलानु ह. बेटा को दुसरो ब्याव करांगा. चोखी छोरी लावांगा.
ऐयाँ मत कहो समधीजी. म्हारी बेटी कठ जावगी. भूराणी~~ के करबा लागी.
आऊँ हूँ बाउजी. थांकी बात सुणकर रुकगी थी.
काकाजी, थान एक बात बताऊँ. छोरी छोरो लुगाई क हाथ म कोणी रहव्. या तो भगवान् की देन ह. होर बेटा होण का गुण तो मोट्यार का होवे. ईया कोई की बेटी न छोड़ देवोगा के? पोती म बी तो थारो खून ह ना? म्हें डॉक्टर हूँ. म्हारे बी जुड़वां बेटी होई. पण बाउजी भोत राजी स बिनान अपनाई.
जवाई जी आया था रात म. भोत दुखी था थारी बात स. बिट्टो बाई न छोड़बा की सोच बी कोणी सकगा ब. बोल्या भाग म होसी तो बेटो भी हो जासी. काकाजी  कुण कह्यो की बेटी स बंस कोनी चाले. म्हारी बात मानो तो बेटियां स ही राजी हो जावो. आजकाल बेटा बेटी सब सरीखा होवे. आजकाल बेटियां बी बेटा जित्तो नाम कमाव ह. ऐसो कोई बी काम कोणी जीको बेटियां कोणी कर. मान जाओ काकाजी अब बेटा भू की खुसी म ही थारी खुसी ह.
बेटा, ल्या सरबत पीबा दे. और चोखी रसोई बना अब तो जीमकर ही जावांगा. तू आंख्या खोल दी म्हारी. थार जीसी भू-बेटी सगला घरां में होव तो चाँदनो जो जासी ..आगली पूनम न म्हारे घरां आवो, बेटी घर म आया को उछाव करांगा, होर बाचो देवू हूँ अब म बी दोंन्यू पोत्यां न थार जिंया खूब पढ़ाई कराउंगो
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(13).  सुश्री अपर्णा शर्मा जी 
"लिव-इन रिलेशन " 

"मैं अभी बहुत व्यस्त हूँ, घर पहुँचते देर होजाएगी। तुम खाना खाकर सोजाना", गौरव का जवाब सुन याशी ने गहरी उच्छ्वांस ले फोन रख दिया। पिछले एक माह से यह रोज का नियम होगया है। अपने प्रति गौरव की उपेक्षा नित नये रूप में उभरता पा रही है। अगले दिन सुबह उठते ही न बना। सिर दर्द से टूट रहा था और गौरव नहाने के बाद नये ड़्यूओ की गंध से महकता गुनगुना रहा था। उसके हाव -भाव उसका उत्साह छिपाने में असमर्थ थे। उसने इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया कि याशी अभी तक बिस्तर पर ही है।
"मैं चलता हूँ ", आज दफ्तर थोड़ा जल्दी जाना है। नाश्ता और लंच बाहर ही कर लूँगा ।
इससे पहले कि वह कुछ सोच पाती, कुछ कह पाती, दरवाजा बंद होने की आवाज आई। गौरव जा चुका था।
पाँच वर्ष पूर्व, गौरव और उसने एक ही काॅलेज से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की और काॅलेज की फेयरवेल पार्टी में संग-संग थिरकते दोनों कब एक-दूसरे को दिल दे बैठे , पता ही न चला। यौवन का उन्माद और प्रथम -प्रेम का भ्रमर उन पर मंड़राता रहा। आधुनिक सभ्यता के खुलेपन ने उन्हें एक-दूसरे के सामीप्य की पूरी आजादी प्रदान की। गौरव की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी लगते ही दोनों एक फ्लैट लेकर साथ-साथ लिव-इन-रिलेशन में रहने लगे।
याशी के परंपरावादी परिवारजनों ने बहुत समझाया। उसकी माँ उसे चेतावनी देती रहीं , "बेटी , स्त्री -पुरूष का साथ जब तक नियमबद्ध बंधन में न हो , तब तक एक तरह का व्याभिचार ही होता है। हमारी भारतीय संस्कृति में विवाह के बंधन को इसीलिए पवित्र और सुदृढ़ माना गया है क्योंकि यह स्त्री-पुरूष को केवल एक दूसरे के प्रति समर्पित रहकर समाज और परिवार के आशीर्वाद से गृहस्थ जीवनयापन की नियमबद्धध, संस्था है। ये लिव-इन रिलेशन का नया चलन और कुछ नहीं बस मित्र रहकर शारीरिक लिप्साओं की पूर्ति का माध्यम भर है। पर क्या इस रिश्ते से तुझे उसके परिवार का आशीर्वाद, सम्मान मिल पाएगा??? क्या ये तेरा दीर्घकालीन सुख और सुरक्षा सुनिश्चित कर पाएगा??
क्या तू इस रिश्ते से एक परिवार विकसित कर पाएगी???,
"अब भी मान जा बेटी", उसकी माँ बहुत गिड़गिड़ाईं- "तुझे गौरव इतना ही पसंद है तो मैं तेरे पापा के साथ उसके घर जाकर विवाह की बात करूँगी ...",
पर याशी पर तो जैसे भूत सवार था। "ओ माँ, गौरव बहुत अच्छा और आजाद खयालों का इन्सान है, वो कहता है-, " अभी जिंदगी की मौजों का मजा लेने और अपना कैरियर बनाने का समय है। शादी दकियानूसी ख़यालात है। मैं अभी मेंटली इसके लिये तैयार नहीं । यू नो याशी, लाइफ इज़ टू एन्ज्वायॅ... ",
माँ की किसी दलील का याशी पर असर नहीं हुआ था और वो बड़े उत्साह से मुंबई में गौरव के संग इस फ्लैट में रहने आगई थी। समय कैसे पंख लगाकर उड़़ गया पता ही नहीं चला , जब तक कि गौरव की उपेक्षा ने उसे हीनता और अकेलेपन के द्वंद्व में ढ़केल न दिया था...।
बड़ी मुश्किल से उस दिन उठ पाई। अल्मारी की दराज में ड़िस्प्रिन ढूँढने लगी तब गौरव के कपड़ों के बीच रखा एक सुंदर फूलों वाला लिफाफा उसके हाथ लगा, " इन्विटेशन फाॅर लंच - फ्राॅम रिया - ऑन हर बर्थड़े"।
याशी को गहरा धक्का लगा। जल्दी ही तैयार होकर वो उसी पार्टी वाली जगह पहुँच गई । जिस हाॅल में पार्टी थी उसके दरवाजे से ही गौरव किसी सुंदरी के साथ नृत्यरत दिखाई देरहा था। याशी लपकती सी वहाँ पहुँच बोली -" हाई रिया , हैप्पी बर्थड़े । आइ एम याशी, गौरव की लिव-इन पार्टनर"।
रिया का हक्का-बक्का चेहरा बता रहा था कि उसे इस बात का कोई इल्म नहीं था। गौरव से अपना हाथ छुड़ा वो फट सी पड़ी- "हाउस कुड़ यू चीट मी...??यू टोल्ड़ मी दैट यू आर सिंगल..."
" यस आइ एम सिंगल", गौरव बोला, "याशी इस माय लिव-इन पार्टनर ओनली...",
याशी के मुँह पर मानो जोर का तमाचा पड़ा, अपनी माँ की एक-एक बात उसके कानों में गूँजने लगी।
वो उल्टे पैर वहाँ से लौट आई। देर रात गौरव जब घर लौटा तो उसे ताला मिला।
याशी अपने घर लौट चुकी थी। अपने परिवार, अपनी मर्यादा और सबसे बढ़कर अपनी अस्मिता और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए । उसने तय कर लिया था कि अपने माता-पिता की पसंद से विवाह कर एक पावन, सुरक्षित, सामाजिक, पारिवारिक रिश्ते की नींव रखेगी बनिस्बत इस खोखले लिव-इन रिलेशन के जहाँ अक्सर अंत में एक लड़की ही ठगी जाती है...!
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(14).  डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी 
तस्वीर का दूसरा रुख़  
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हाल खचाखच भरा हुआ था . अध्यक्षीय भाषण के तुरंत बाद संचालक ने घोषणा की– ‘दोस्तों आज के कार्यक्रम के प्रथम चरण में  ‘मुक्तिबोध स्मरण’ के अंतर्गत आपने सात वक्ताओं को जिस धैर्य और गरिमा के साथ सुना उसके लिए आयोजक मंडल आपका आभारी है .अब इसके तुरंत बाद बिना किसी इंटरवल के कार्यक्रम के दूसरे चरण में काव्य-पाठ का आयोजन है . आप सब इसी तरह से शांत  बैठे रहैं, शुक्रिया .’
संचालक की बात को अनसुना कर सबसे पहले वे सात वक्ता सभागार से बाहर चले गए, जिन्होंने मुक्तिबोध के स्मरण में लम्बे चौड़े भाषण दिए थे. जाते-जाते उन्होंने अपने चेले चपाटों को भी हाल से बाहर आने का संकेत किया. हाल लगभग आधा खाली हुआ. धैर्यवान  कवियों ने पाठ प्रारंभ किया. एक कवि के कविता पाठ के बाद कुछ और लोग उठ गए. तीन कवियों के पढ़ते-पढ़ते हाल में लगभग बीस लोग रह गए. तभी संचालक ने युवा कवि कपोल कल्पित को काव्य पाठ के लिये आमंत्रित किया.
कपोल कल्पित ने माईक संभाला और कहना प्रारम्भ किया- ‘मित्रो , अभी कुछ मिनट पूर्व यह हाल भरा हुआ था. मुक्ति बोध पर चर्चा करने वाले वक्ता बड़ी-बड़ी आदर्श की बातें कर रहे थे. अनुशासन और प्रतिबद्धता के उपदेश दे रहे थे. इन तथाकथित वक्ताओं में कुछ तो इतने व्यस्त होते हैं कि उन्हें आने से पहले ही जाने की जल्दी होती है. कुछ तो इस बहाने अपने महत्त्व का आडम्बर खड़ा करते हैं .मुक्तिबोध के अँधेरे को ये क्या समझेंगे. इन वक्ताओं में से एक  भी इस समय सभागार में उपस्थित नहीं है. अपने साथ वे अपने मुसाहिबों को भी ले जाते हैं. उनकी देखा-देखी कई और लोग भी पलायन करते हैं . तस्वीर का यह दूसरा रुख असहनीय है. यदि आप सचमुच साहित्य प्रेमी हैं तो क्या यह चरित्र आपको शोभा देता है . कविता इतनी विरस भी नहीं होती कि वह साहित्य के अनुरागियों को बाँध न सके. आप स्वयम देखिये इस समय सभागार में बीस से अधिक लोग उपस्थित नहीं है. मेरे लिए तो एक श्रोता भी काफी है और मैं उसे कविता सुनाना पसंद करूंगा किन्तु फिर वह अकेला ही हो. यहाँ स्थिति दूसरी है. साहित्य के तथाकथित कर्णधारों का यह दोगलापन मुझे स्वीकार्य नहीं है. मैं इस अपवित्र आचरण के विरोध में कविता पाठ से इनकार करता हूँ. आशा है उपस्थित साहित्य  अनुरागी मेरी पीड़ा को समझेंगे और मुझे इस गुस्ताखी के लिए माफ़ करेंगे .’
अभी यह प्रवचन चल ही रहा था कि हाल में एक बदहवास आदमी दौड़ता हुआ आया – ‘गजब हो गया कपोल जी, जल्दी चलिए, आपके घर पर आयकर वालों ने छापा डाल दिया है.’  
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(15).  श्री विनय कुमार सिंह जी 
परवरिश
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सुरजू बुरी तरह निराश हो गए थे, उनको लगा जैसे उनके जीवन भर की कमाई जैसे एक पल में लुट गयी हो| अपने खानदान के सबसे बड़े होने के चलते उन्होंने कभी ये नहीं सोचा कि उनकी अपनी पत्नी या अपने बच्चे कौन हैं, सबको एक बराबर देखते रहे| बल्कि हमेशा भाईयों के बच्चों को ही ज्यादा लाड़ किया और कभी परवाह नहीं की कि उनके अपने बच्चे बुरा मान सकते हैं| कई बार उन्होंने अपनी पत्नी को भी डांट दिया था कि यह पूरा परिवार ही उन सबका है|
आज उनका बड़ा भतीजा अपनी नौकरी से लौट कर आया तो सबसे ज्यादा ख़ुशी उनको ही थी| जब तक वह घर नहीं आया था, सुरजू बार बार समय देख रहे थे कि अब तक आया क्यों नहीं| गांव में कुछ ही बसें चलती थीं और एक बस निकल गयी तो दूसरी के लिए घंटों इंतज़ार करना पड़ता था| भतीजे ने जैसे ही घर में कदम रखा, उन्होंने लपक कर उसको गले लगा लिया और उससे सवाल करना शुरू कर दिया| लेकिन उसने उनकी एकाध बात का जवाब दिया और जल्दी से अपनी माँ के कमरे में घुस गया| थोड़ा अजीब तो लगा सुरजू को, लेकिन फिर उन्होंने भतीजे का माँ के लिए प्रेम समझ कर ध्यान नहीं दिया|
कुछ ही देर में भाई भी आ गया और उसके आते ही भतीजा लपक कर उसके पास आया और एक बढ़िया सा कुर्ता निकाल कर देते हुए बोला "पापा, मेरी पहली तनख्वाह में से ये आपके लिए लाया हूँ| पहन कर देखिये जरा"| भाई ने एक बार कुर्ते को देखा और फिर उसका ध्यान सुरजू की तरफ गया| तब तक भतीजे को भी समझ में आ गया कि उसने गलती कर दी| हड़बड़ाहट में उसने कहा "आपके लिए भी लाया हूँ बड़े पापा", और कमरे की तरफ भागा| सुरजू ने मुस्कुराने की कोशिश की और बाहर निकल गए|
कहाँ गलती कर दी उन्होंने, इसी उधेड़बुन में डूबे सुरजू दालान में बैठे हुए थे कि सामने कुछ आहट हुई| उन्होंने देखा कि भाई, भतीजा और उसकी माँ सब खड़े हैं और उनके पीछे उनकी पत्नी भी हैं| भाई ने कुर्ता उनके ऊपर रखा और भतीजा उनके पैर के पास बैठ गया| किसी ने कुछ भी नहीं कहा लेकिन उनको अपनी परवरिश पर नाज हो आया|
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(16). श्री मोहम्मद आरिफ जी 
मिसाल
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पहली तस्वीर/ लगातार चार वर्ष चले केस का फैसला आज आ ही गया।
दूसरी तस्वीर/ जिला एवं सत्र न्यायाधीश श्रीमती रश्मि मंडलोई ने आभास गुलाटी की घरेलू नौकरानी रौशनी और उसके पति मोती को नकदी, आभूषण और अन्य घरेलू सामान चुराने के आरोप में तीन वर्ष के कठोर सश्रम कारावास की सज़ा का ऐलान किया। दोनों फफक-फफक कर रोने लगे। अदालत का माहौल ग़मगीन हो गया। लेकिन अचानक माहौल फिर बदला। आभास गुलाटी की तरफ से उनके वकील ने एक शपथ-पत्र पेश किया। शपथ-पत्र सबको चैंकाने वाला था।
आभास गुलाटी ने अपने शपथ-पत्र में कहा कि वे रौशनी और मोती की पाँच वर्षीय बेटी तनु को अपने पास तब तक रखेंगे जब तक कि रोशनी और मोती तीन वर्ष की सज़ा काट कर नहीं आ जाते। वे उसके पालन-पोषण और शिक्षा का पूरा खर्चा स्वयं वहन करेंगे। जज साहिबा ने शपथ-पत्र स्वीकार कर लिया। अब स्वयं जज साहिबा की भी आँखें नम थी। अदालत में उपस्थित सभी आभास गुलाटी की मानवीयता के आगे नतमस्तक थे। सभी यही कह रहे थे कि इस कलयुग में मानवीयता की ऐसी मिसाल।
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(17). श्री महेंद्र कुमार जी 
प्यार मुझसे जो किया तुमने...
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"सच कहूँ तो मुझे शर्म आती है कि मैंने उससे कभी प्यार भी किया था।" अदिति ने कॉलेज छूटने के बाद आज पहली बार मिल रही साक्षी से कहा।
इस शहर से तक़रीबन ढाई सौ किलोमीटर दूर, आज से ठीक एक साल पहले। "तू बहुत घमण्डी है।" रंजीत ने मुकुल की तरफ गिलास बढ़ाते हुए कहा जो अभी भी अतीत की गलियों में खोया हुआ था।
"क्या उसके बाद उससे कभी मुलाक़ात हुई?" साक्षी ने अदिति से पूछा। "नहीं। और मैं चाहती भी नहीं कि हो।"
"चलो यार, काफी वक़्त हो चुका है। अब हमें चलना चाहिए।" उधर अली रंजीत और मुकुल से कह रहा था।
अदिति को मुकुल के दोस्त कुछ ख़ास पसन्द नहीं थे जिनमें रंजीत और अली का नाम भी था। अदिति वैसे तो किसी से नहीं मिली मगर फ़ोन पर मुकुल से सबके बारे में सुन रखा था। उसने कई बार इस विषय में उससे बात भी की। "तुम उन सबका साथ छोड़ क्यों नहीं देते? बस उन्हीं के साथ रोज रात को घूमना, दारू पीना और वो क्या है तुम्हारा अण्डा-चावल खाना। छी!"
"ऐसा क्यों कह रही है? तू तो उसे बहुत चाहती थी।" साक्षी ने अदिति से पूछा।
"हाँ, मगर वो नहीं। वो किसी और को चाहता है। उसने मुझसे ख़ुद बताया था, वो भी बिना सोचे कि मुझे फील कैसा होगा।" अदिति की आवाज़ में एक दुःख था।
"पागल तो तू ही थी उसके पीछे। अब आया न समझ में कि छोटी कास्ट वाले कैसे होते हैं!" साक्षी ने अदिति से कहा।
"शायद सही कह रही है तू।" थोड़ी देर चुप रहने के बाद अदिति ने टॉपिक चेंज किया। "ख़ैर, ये सब छोड़। आज मेरी शादी की सालगिरह है। पता तो मैंने तुझे बता ही दिया है। शाम को आना ज़रूर।"
"क्या खिलाएगी?"
"जो भी तू कहे लेकिन नॉन वेज को छोड़ कर। तू तो जानती ही है।"
गिलास में पड़ी-पड़ी चाय ठण्डी हो चुकी थी। तीनों जब भी फैक्ट्री से नाईट ड्यूटी के बाद छूटते तो घर जाने से पहले स्टेशन पर चाय ज़रूर पीते। "तूने उसे धोख़ा दे कर अच्छा नहीं किया।" रंजीत ने मुकुल से कहा। "और मैंने सुना है कि आज उसकी किसी से शादी भी होने वाली है?" अली ने पूछा।
मुकुल अभी भी ख़ामोश था। उसने कोई जवाब नहीं दिया। वह चुपचाप वहाँ से उठा और घर की तरफ चल दिया। रंजीत और अली वहीं बैठे उसे जाते हुए देख रहे थे, चाय वाले के रेडियो से आती हुई आवाज़ को अनसुना करते हुए... प्यार मुझसे जो किया तुमने तो क्या पाओगी।
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(18). श्री विनोद खनगवाल जी 
तस्वीर का दूसरा रुख़ 
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आज बच्चे लाइन में लगे बहुत खुश थे। स्कूल में आए नये बर्तनों में दोपहर का खाना परोसा जा रहा था। सर्दी में कई दिनों में धूप निकली थी बच्चे नए बर्तनों के चमके छत और दीवारों पर मार रहे थे।
"बच्चों शरारत बंद करके सीधे खड़े रहो नहीं तो खाना नहीं मिलेगा।"- कुक रामदेयी ने सख्त लहजे में कहा। सभी चुपचाप खाना डलवाकर खाने लगे। खाना खाने के बाद बच्चे एक साइड में प्लेट रखने लगे।
"अरे! अरे!! ये क्या कर रहे हो? तुम्हारी इन झूठी प्लेटों को कौन धोयेगा? सभी अपनी-अपनी उठाओ और धोकर रखो।"- रामदेयी ने तिलमिलाते हुए कहा। सभी बच्चे अपनी-अपनी प्लेट उठाकर नल के पास ले जाकर धोने लगे।
"बच्चों तुमको ये सब करने के लिए किसने कहा है? यह तुम्हारा काम नहीं है। तुमको ठण्ड लग जाएगी। इनको यहीं पर छोड़ो और अपनी-अपनी क्लास में जाओ।"- शहर से ट्रांसफर होकर गाँव में आये मास्टर जी ने छोटे-छोटे बच्चों को बर्तन धोते देखकर कहा।
"अपने झूठे बर्तन ये नहीं धोयेंगे तो क्या इनके घरवाले धोयेंगे?"- रामदेयी ने मास्टर के सामने आकर अकड़ते हुए कहा।
"रामदेयी खाना बनाने और बर्तन साफ करने की जिम्मेदारी तुंम्हारी बनती है। यह तुम्हारा काम है इन मासूम बच्चों का नहीं।"- मास्टर जी ने स्पष्ट करते हुए कहा।
"आपको पता है यह मेरा गाँव है और मैं राजपूत होकर इन छोटी जात वालों के जूठे बर्तनों को धोने तो क्या हाथ भी नहीं लगाऊँगी।"
"लेकिन यह तो तुम्हारा काम है तुम्हे इसी काम के तो पैसे मिलते हैं अगर तुम्हें दिक्कत है तो नौकरी छोड़ दो।"
"मैं ना नौकरी छोडूंगी और ना ही इनके जूठे बर्तन साफ़ करुँगी। इस स्कूल का हैडमास्टर भी हमारा है। गाँव का सरपंच भी हमारा है यहाँ तक इस इलाके का विधायक भी हमारा है। आपको जहाँ मेरी शिकायत करनी हो कर लीजिये।"
मास्टर हक्का-बक्का सा उसे देखता रहा। कुछ कहने ही वाला था कि हैडमास्टर और बाकि का अध्यापकों का स्टाफ भी वहीँ आ गया।
"मास्टर जी, छोड़ो ना........ इन छोटी-मोटी बातों पर ध्यान नहीं दिया करते।"- हैडमास्टर ने स्थिति को सँभालते हुए कहा। अन्य अध्यापकों ने भी उनका समर्थन किया।
अकेला पड़ता देख मास्टर जी चुप तो हो गए लेकिन कसमकश मन में चलती रही। साइड में जाकर उसने अपने पत्रकार दोस्त को फ़ोन मिलाकर घटना से अवगत करवाया। दोनों के बीच कुछ देर बातचीत हुई और मास्टर जी ने फ़ोन काट दिया। कुछ ही देर में पत्रकारों की टीम स्कूल में पहुँच गई और वहाँ की पूरी घटना कैमरे में कैद कर ली। मामले का पता चलते ही गाँव का सरपंच भी वहीँ पहुँच गया। सभी से सवाल किये जा रहे थे। जब टीवी पर लाइव पूरी घटना विधायक जी ने देखी तो वो भी स्कूल में पहुँच गये।अपनी नौकरी जाने का अंदेशा होते ही रामदेयी कभी हैडमास्टर के पास भागती फिर रही थी और कभी सरपंच-विधायक के पास। लेकिन वो उससे बात करने से भी बच रहे थे। रामदेयी को जिन पर इतना भरोसा था उनमें अचानक आए परिवर्तन से हैरान और परेशान थी।
विधायक जी ने पूरी स्थिति को भांपते हुए तुरंत प्रभाव से रामदेयी को नौकरी से निकलवाने का निर्णय लिया और पत्रकारों के सामने बयान दिया।
"अगर उनके इलाके के किसी भी स्कूल में बच्चों से बर्तन धुलवाए गए तो उनकी भी खैर नहीं।"
वहाँ मौजूद सभी लोगों और बच्चों ने तालियां बजाकर विधायक जी की का अनुमोदन किया। सरपंच और हैडमास्टर के चेहरों पर भी ख़ुशी आ ही गई थी।
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(19).  श्री शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी 
'मांग और आपूर्ति'

तरुण के सामने सुशिक्षित सुन्दर लड़कियों की तस्वीरें उनकी परिचय-पत्रकों सहित टेबल पर रखी हुईं थीं। दो मित्रों के साथ उसकी माँ और दादी भी बारी-बारी से तरुण के योग्य लड़की के चयन के लिए चर्चा में व्यस्त थे।
"बेटा, ये सुंदर सी मोटी सी लड़की तुम्हारे लिए बिलकुल ठीक रहेगी!" दादी ने पुनः ज़ोर देते हुए कहा- "ऐसी लड़कियाँ पत्नी के अलावा माँ, बहिन, दोस्त का रिश्ता भी पति के साथ निभा लेतीं हैं वक़्त ज़रूरत पर, तेरी मम्मी की तरह!"
"इस ज़माने में मोटी लड़की? बिलकुल नहीं!" तरुण ने तुरंत कहा।
"सही कह रहे हो तरुण, मेरे विचार से तो यह सुंदर लड़की सही रहेगी!" फोटो दिखाते हुए एक दोस्त ने कहा- "यूनिवर्सिटी टॉपर व्याख्याता है, कवयित्री भी है!"
"तुम्हारा दिमाग़ ख़राब हो गया है क्या!" तरुण झुंझलाते हुए बोला- "रूपेश के हाल देखे हैं तुमने? मुझे नहीं चाहिए उसके जैसी क़िताबी कीड़ा बीवी!"
"तुम्हें उच्च शिक्षित सुंदर स्मार्ट होनहार लड़की भी चाहिए और घर-गृहस्थी चला सकने वाली मॉडर्न भी!" माँ ने तंग आकर व्यंगात्मक लहज़े में कहा।
"हाँ, बिलकुल सही कहा आपने, ऐसी ही हो किन्तु मुझसे दब सके, मुझ पर कभी हावी न हो!" तरुण
ने तेज स्वर में इतना ही कहा था कि उसका दूसरा दोस्त बोला- "और तुम्हें दुबली, लम्बी भी चाहिए जो पूजा-पाठ, धर्म-कर्म करने वाली भी हो!"
"हाँ हाँ.. सब कुछ हो, जो मुझमें है, जो मुझमें नहीं है, जो मेरी माँ में है, जो मेरी माँ में नहीं है आज के ज़माने की मांग व ज़रूरत के अनुसार, वह सब कुछ उसमें हो, वरना!"
"वरना क्या?" दादी फिर बोल ही पड़ीं।
"वरना कुंवारा रहना ही बेहतर है, कई लोगों के दुखड़े सुन चुका हूँ! न उबाऊ वैवाहिक जीवन चाहिए मुझे , और न ही मशीनी! इस सदी में सुख-शांति, सुकून के लिए जैसी जीवन संगिनी की आज के शिक्षित युवा पुरुष को ज़रूरत है, क्या मिलेगी कभी कहीं?" तरुण ने टेबल पर बिखरी सभी तस्वीरों को समेटते हुए कहा और वहाँ से उठकर चला गया।
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(20). श्री सतविन्द्र कुमार जी
छलावा
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"भाई साहब मुझे टुल्लू पंप लेना है,जो कम्पनी का हो और कम सप्लाई में भी पूरा पानी खींच कर टँकी तक पहुँचा दे।",बलवान ने होलसेल डिस्ट्रीब्यूटर के कारिंदे को बोला।
"ये देखो भाई जी,यह एकदम दमदार टुल्लू पंप है,पानी की सप्लाई आनी चाहिए,कितनी भी कम हो यह पानी खींच देगा।",दिखाते हुए कारिंदा ने कहा।
कारिंदे ने बलवान को उसके चलने और वारंटी सम्बन्धी पूरी तस्सली दे दी।इस पर बलवान बोला,"भाई कीमत क्या है?"
" तीन हजार दो सौ रूपए।"
"कुछ छूट मिलेगी भाई?"
"सेठ से बात करके देख लो,शायद कुछ कम में लगा दें।",काउंटर पर बैठे एक युवक की ओर इशारा करते हुए कहा ।
उसके पास जाकर बोला,"सेठ जी,यह टुल्लू पंप कितने का है?"
मोबाइल से नजर हटाकर उसकी तरफ देखते हुए बोला,"लड़के ने नहीं बताया क्या?"
"जी,बत्तीस सौ रूपए बताया तो है।",कारिन्दा तुरंत बोल उठा।
"बस!उसने बोल तो दिया है।इतने का ही है।"
"कुछ तो छूट भी मिलनी चाहिए सेठ जी।",बलवान ने फिर आग्रह किया।
"अरे साहब!हमारा होल सेल का काम है।यहां ज्यादा माथा-पच्ची की जरूरत नहीं।इससे कम दाम में नहीं मिलेगा।"
काफी जद्दोजहद के बाद भी जब उसने दाम नहीं घटाए तो बलवान खरीदने को तैयार हो गया।जागो ग्राहक जागो का विज्ञापन उसे ध्यान था।वह तुरंत बोला,"सेठ जी इसका पक्का बिल बना दीजिए।"
"पक्का बिल! इसमें टैक्स के पैसे और जुड़ जाएँगे आपको महँगा पड़ेगा।आप हमारा कार्ड ले जाओ।कोई दिक्कत होगी तो आप फिर ले आना।वैसे इस कम्पनी के सामान में कोई दिक्कत नहीं आती।"
अब बलवान अड़ गया,"आप बस पक्का बिल दीजिए।"
सेठ ने तंज सा कसा,"हाँ-हाँ,टैक्स सरकार के खाते में जाएगा।जिससे वह सड़क बनाएगी,बिजली देगी और मेडिकल सुविधा देगी..."
"क्या मतलब?",उसने बीच में ही टोका।
"कुछ नहीं,ऐसे ही मजाक कर रहा था।टैक्स सारा सरकार के खाते में जाएगा,मेरा कोई नुकसान नहीं आपका फायदा नहीं,ऐसे ही ले लेते तो.."
अब बलवान तल्ख हो उठा,"मैं फ़ालतू पैसे देने को तैयार हूँ।आप बिल क्यों नहीं बनाते।"
काफी जद्दोजहद हुई।तो सेठ को पक्का बिल बनाना ही पड़ा।
बिल के साथ बलवान को पचास रूपए लौटा दिए।
बलवान ने बिल को देखा,उसमें वैट सहित कीमत तीन हजार एक सौ पचास रुपए थी।हैरानी से सेठ की ओर देखा तो वह बगले झाँकता नजर आया।
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(21). सुश्री जानकी वाही जी 
औरत 
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"देवयानी की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है ।" सौमित्र ने साथी फोटोग्राफर अमोल से कहा ,जो इस बड़ी साहित्यिक गोष्ठी में देवयानी को कैमरे में कैद कर रहा था।
" अच्छा ! वो क्या ? "अमोल, सौमित्र की तरफ पलटा।
"देवयानी के शब्दों में बताऊँ जो उसने एक साक्षात्कार में कहा।"
" मैं उत्सुक हूँ सुनने को "
"तो सुनो ।"
"केवल महसूस होने वाले,गहरे दफ़्न ताबूत में छाया घना अँधेरा और सीलन भरी बदबू हर पल मेरा दम घोंटते रहते थे। धूप-छाँव की तरह दिल और दिमाग पल-छिन अलग-अलग परिदृश्य पैदा करते।
कभी मैं अपने को आज्ञाकारी बिटिया ,सुंदर सुघड़ पत्नी, ममतामयी माँ के सलोने रूप में निहारती तो कभी सामाजिक पटल पर सफ़ल,जो घर और बाहर अति कुशलता का सम्पूर्ण उदाहरण है,उस औरत के रूप में। जिसे देख लोग कहते, वाह ! वाह! वाह !
पर कभी -कभी मैं अपनी धुंधली पहचान को तलाशने की कोशिश करती।हर बीतते क्षण के साथ एकाकीपन की अँधेरी कोठरी में मन के ताबूत से बाहर निकलने की जद्दोज़हद करती।
अचानक नई तकनीक ने दीवारों के पीछे मुझे एक नए जहां में पहुँचा दिया।एक नया सूरज।जहाँ मेरी एक अलग पहचान और दुनिया बन गई।एक नये आत्मविश्वास की खुशबू से भर जब पहली बार,
की-बोर्ड पर अपनी ऊँगुलियां फिराई तो चमकते स्क्रीन पर कुछ शब्द उभर कर एक सुंदर कहानी बन गए। मेरे अपने वज़ूद और पहचान की कहानी।"
" बहुत ख़ूब ! सौमित्र दा , देवयानी की तरह हर औरत की यही सफ़ल कहानी होनी चाहिए।
" हाँ ! होनी तो चाहिए, अगर हर औरत पारिवारिक और सामाजिक अहमों की अँध सुरंग पार कर पाये तो ? ..."
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(22).  श्री तेजवीर सिंह जी 
असलियत

आदर्श अपने  चाचा रनबीर को ही पिता का दर्ज़ा देता था। पिता क्या वह तो उनको भगवान की तरह पूजता था।इसके पीछे बहुत बड़ा कारण भी था। उसके पिता की मौत तो उसके जन्म के कुछ दिन बाद ही हो गयी थी इसलिये उसे पिता के बारे में ज्यादा कुछ याद भी नहीं था। उसे सिर्फ़ इतना मालूम था कि उसके पिता की मौत ज़हर खाने से हुयी थी , यह उसकी माँ द्वारा बताया गया था। उसकी माँ ने ही उसे बताया था कि तेरे चाचा ने तेरे भविष्य को लेकर अपनी शादी नहीं की। उनका मानना था कि यही मेरी सबसे बड़ी जिम्मेवारी है।माँ के अनुसार चाचा ने अपना सारा जीवन एक तपस्वी की तरह बिता दिया। आदर्श के मन में चाचा के लिये बहुत इज्जत और श्रद्धा थी।
आज सुबह तड़के आदर्श खेतों से लौटा,वह  रात भर खेतों में पानी लगा रहा था, घर का दरवाजा खुला था।उसने सोचा माँ घेर में पशुओं की देख रेख करने गयी होगी। वह माँ के कमरे की कुंडी खोलकर अंदर चला गया।मां के बिस्तर पर चाचा को खर्राटे भरते देख आदर्श का खून सूख गया।वह उल्टे पैर बाहर आगया।घर से निकलते ही माँ का सामना हो गया,
"माँ, मैं हमेशा के लिये जा रहा हूँ।मुझे बस इतना बता दे कि मेरे पिता को ज़हर किसने दिया था"।
माँ की आँखों से टपकते आंसुओं से आदर्श सारी कहानी समझ गया।
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(23). श्री वीरेंद्र वीर मेहता जी 
सुख-सुविधाएं 
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पिछले कई दिनो से अजीब कश्माकश में था मैं। कुछ ही हफ़्तों पहले, बड़े भाई की सभी सुख-सुविधाओं के बाबजूद माँ के खुश न रहने की शिकायत के चलते माँ को कनाडा में अपने पास ले आने के बाद से ये कशमकश पैदा होने लगी थी। हालाँकि यहां के उन्मुक्त वातावरण और संस्कारी माँ को देखते हुए ऐसा कुछ सोचना मूर्खता ही थी लेकिन फिर भी पड़ोस के विधुर जेम्स अंकल का घर में आना-जाना और उनके साथ माँ का उन्मुक्त भाव से बोलना और नजदीकियां बढाना, मैं स्वीकार नही कर पा रहा था। लिहाजा आज मैंने माँ से इस बारें में खुलकर बात करने का निश्चय कर लिया था और यही सब सोचते हुए जब मैं घर में दाखिल हुआ।
"देखिये कैसा है ये?" दीवार की ओट में खड़ी माँ पारंपरिक पहनावे की जगह जेंट्स-शर्ट नुमा कपड़े पहने जेम्स से पूछ रही थी।
"बहुत सुंदर एक दम विदेशी मेम !" जेम्स मुस्कराने लगा।
"नही जेम्स, ऐसा तो कुछ भी नही !" कहते हुए माँ के चेहरे पर एक लज्जाभरी मुस्कान आ गयी।
"नही सच।" जेम्स एक क्षण रुककर हँसने लगा। "एक बारगी तो मुझे ऐसा लगा कि मानो मेरी नैंसी आ गयी हो।"
उसकी बात से कुछ आक्रोशित हो मैं आगे बढ़ने ही लगा था कि माँ की आवाज ने मेरे कदम रोक दिए।
"नैंसी ! नही नही जेम्स, मैं कभी तुम्हारी नैंसी नही बन सकती। ठीक वैसे ही जेम्स, जैसे तुम कभी मेरे 'राज' नही बन सकते।" माँ गंभीर हो गयी थी।
"जस्ट जोकिंग !" जेम्स खुलकर हँसा और फिर मुस्कराने लगा। "डोंट बी सीरियस फ्रेंड ! याद नही, हमने एक दूसरे को प्रॉमिस किया है कि जीवन के इस अंतिम पड़ाव पर जहां लोगों की बेरुखी ने हमें सिर्फ एक 'सामान' बना दिया है, हम निराश नही होंगे बल्कि जीवन का बाकि समय एक दूसरे को खुश रखने की कोशिश करेंगे। बस वही कर रहा था।"
"ओह तो मेरा मजाक बनाया जा रहा था, लेकिन सच तो ये है कि हम भी नैंसी से कम नही।" कहते हुए माँ खिलखिला उठी और उन दोनों की सम्मलित हँसी से कमरा भी खिलखिलाने लगा।
उनकी और मेरे बढ़ते कदम अनायास ही पीछे हट गए। बड़े भाई की तरह सुख-सुविधाओं को ही ख़ुशी का पर्याय मानने वाला आज साक्षात ख़ुशी का एक और पक्ष देख रहा था जिसके बारें में कभी मैंने सोचा ही नही था।
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(24). श्री धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी 
दूसरा पहलू
.
“मैं जो भी कहता हूँ तुम उसका बिल्कुल उल्टा कहते हो। तुम मेरी हर बात का विरोध करते हो। तुम मुझे बहुत दुख पहुँचाते हो। तुम मेरे दोस्त हो या दुश्मन।”
“मैं तुम्हारा दोस्त हूँ और यकीन मानो मैं दिल से तुम्हारा भला चाहता हूँ।”
“फिर ये विरोध क्यों?”
“विरोध कैसा? मैं तो केवल तुम्हें सिक्के का दूसरा पहलू दिखा रहा हूँ। इससे सिक्के की सच्चाई का पता चलता है। सिक्के की कीमत कम नहीं होती है। वरना....”
“वरना क्या?”
“शोले फ़िल्म तो तुमने देखी ही होगी।”
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(25). सुश्री रश्मि तरीका जी 
ब्रेकअप...
.
"मम्मी ,अगर निकिता का फ़ोन आये तो आप उससे बात मत करना ।पिछले दो महीनों से वो मुझसे ही बात नहीं कर रही।ठीक है न ,अगर उसे मेरी परवाह नहीं तो भाड़ में जाए वो।"समीर ने गुस्से से कहा।
"तुम बच्चे भी न!आज झगड़ा किया कल बात करने लगोगे।मुझे तो निकिता बेहद प्यारी लगती है, बिल्कुल मेरी बेटी की तरह ।"सुजाता ने हँस कर बेटे के मूड को सही करने का प्रयास किया।
"वो मेरी गर्ल फ्रेंड है,आपकी बहू नहीं जो आप अपना रिश्ता बना रहे हो उससे।कह दिया न बात नहीं करनी ।मेरा ब्रेकअप हो चूका है उससे।"
"जानती हूँ मैं ...!" न चाहते हुए भी सुजाता के मुख से सच निकल गया।
"क्या..?? उसने आपको बता भी दिया ? मुझे उससे ऐसी उम्मीद नहीं थी।धोखेबाज़...!" हैरान परेशान समीर ने कहा।
"तुम्हारे करियर के लिए उसने तुमसे दूरी बनाई। इसलिये तुम्हारे इंटरव्यू तक उसने तुमसे बात न करने निर्णय लिया था।अब यह तुम सोचो ,ये तुम्हारे लिए उसका त्याग था या धोखा ?"कहकर सुजाता ने फ़ोन रख दिया।
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(26). श्री मिर्ज़ा हाफ़िज़ बेग जी 
जवाब
.
धाँय! धाँय!! धाँय!!!
जब बंदूकें बोल रही हों तब चुप रहने मे ही भलाई है । सभी बंदी यह समझते थे, लेकिन वह अकेला बोले जारहा था ।
“ न ये जिहाद है, न जंग है … ये मज़्लूम लोग तुम्हारे मुकाबिल आने वाले सिपाही नही है । इन्हे बंदी बनाने का तुम्हे कोई हक़ नही । अच्छी तरह जान लो कुरआन इसकी इजाज़त नही देता ।“
“तू मुसलमान है ?”
“हाँ ।“
“तो कुरआन की एक सूरह सुना; तुझे जाने देंगे ।“
“क्या तुम मुस्लिम हो ?”
“तुझे जितना कहा जाये उतना कर …”
“तो सूरह-ए-काफ़िरून सुनो_ … कुल या अय्योहल काफ़िरून । ल आबुदो मा ताबुदूना, व ला अन्तुम आबेदूना मआबूद । व ला अना आबेदतुम मआबत्तुम व ला अन्तुम आबेदूना मआबूद । लकुम दीनकुम वलीअ दीन । … और तुमने कुरआन पढ़ा है तो इसका मतलब समझाओ …”
“चल ठीक है… तू आज़ाद है… घर जा ।“
“क्यों ? इस सूरह से तुम्हे डर लगता है ? …”
“ज़्यादह ज़बान न चला । घर जा …”
“तो ठीक है… इसका अनुवाद भी सुन लो_ कहो कि अय विरोधियों । मै तुम्हारे आराध्य की उपासना नही करता और न तुम मेरे आराध्य की उपासना करते हो । न मै तुम्हारे आराध्य की उपासना करूंगा और न तुम मेरे आराध्य की उपासना करोगे । तो तुम अपनी आस्था के साथ रहो और मै अपनी आस्था के साथ ।“
इसके बाद दो आवाज़ें उठती हैं…
धाँय!…
“हर ज़बानदराज़ी का जवाब, बंदूक की गोली है …”
***********************************************************************************
(इस बार कोई भी रचना निरस्त नहीं हुई है, यदि कोई रचना भूलवश शामिल होने से रह गई हो तो अविलम्ब सूचित करें)

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ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक - २० के संचालन, संपादन और त्वरित संकलन हेतु आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी को हार्दिक बधाई एवम दिली मुबारकवाद।

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