ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की ऑनलाइन मासिक काव्य गोष्ठी 21 जून 2020 (रविवार) को हुई I सभी उत्साही सुधीजनों ने इसे एक अविस्मरणीय ’धज’ देकर गौरवान्वित किया I अध्यक्ष डॉ. कौशाम्बरी के निर्देशन में संचालक आलोक रावत ’आहत लखनवी’ ने अपनी भूमिका का समीचीन निर्वाह करते हुए डॉ. अशोक को सबसे पहले काव्य-पाठ के लिए बुलाया I डॉ. शर्मा आज अपनी कविता में भौतिक विज्ञान की Quantum theory लेकर आये I वैज्ञानिक प्लांक का यह सिद्धांत ऊर्जा के उत्सर्जन एवं अवशोषण और कणों की गति की बात करता है I डॉ. शर्मा ने इसमें एक सूत्र और निकाला कि –
तो जैसे हम ढूँढ लेते हैं / अपने जैसे लोगों का साथ / वैसे ही ये भी थाम लेती हैं / उस महासमुद्र में / अपने जैसी तरंगों के हाथ
यह बात कवि की कल्पना या मौलिक उद्भावना तो हो सकती है, परन्तु कवि जो कहना चाहता है, उसकी यह बड़ी सुव्यवस्थित प्रस्तावना है I प्रश्न यह है कि कवि कहना क्या चाहता है ? उसका कहना है कि यह सिद्धांत हमें बताता है –
मुस्कानें, मुस्कानों को / आँसू, आँसुओं को / हँसी, हँसी को / रुदन, रुदन को / प्रशंसा, प्रशंसाओं को / उजाले, उजालों को / और अँधेरे, अँधेरों को / आवाज़ देते ही रहते हैं I
अब प्रश्न यह है कि यह सारा कार्य व्यापार हमें संदेश क्या देता है ? यह बीज ही कविता का प्राण तत्व है और यह अत्युक्ति नहीं कि सारी सकारात्मकता को समेटते हुये, जिसके वे स्वयं सबसे बड़े समर्थक भी हैं, डॉ. शर्मा ने अपनी बात बड़े कलात्मक ढंग से कही है-
तो आइये सीखते हैं / मुस्कराना / हँसना / प्रशंसा करना, और उजालों को आवाज़ देना
अगली बारी थी डॉ अंजना मुखोपाध्याय जी की i उन्होंने ‘यश’ शीर्षक से अपनी कविता पढ़ी I प्रस्तावना से हटकर कविता ज्यों-ज्यों हम आगे बढ़ती है, उसमे जिजीविषा, संकल्प और अटूट विश्वास की अनुगूंज मुखर होने लगती है i यथा-
आँखें भर आती हैं / दर्द की दास्तां कहते कहते/ बारिश की बूंदों से धोती / खारा पानी, वारिद बहाते / बंद होंठों से कशिश दबाके / रुखसत नहीं अब होना है, / सकल संशय मिटाके मन का / विजय ठौर अब पाना है ।
कवि अजय श्रीवास्तव ‘विकल’ ओबीओ, लखनऊ चैप्टर के नये सदस्य हैं I उनकी यह पहला प्रस्तुति थी I इन्होंने गीतिका छंद (14,12) या (12,14 ) पर आधारित अपना एक सुंदर गीत पढ़ा I इस गीत में कवि ने एक स्थल पर कविता के उत्स की पारंपरिक परिभाषा का स्मरण किया है I विद्वान जानते है कि –‘कुंठत्वमायाति गुणः कवीनाम्, साहित्य, विद्या श्रम वर्जितेषु I ‘ कवि विकल जी ने इस मान्यता को अपने गीत में शब्द दिए हैं I
ह्रदय-घातों में हमारे, मधुरतम संगीत है l
दुःख भरे इस वक्ष से, अविरल निकलता गीत है ll
इस गीत की अनेक पंक्तियां अपना गहरा प्रभाव छोड़ती हैं I जैसे -
शुष्क शोषित कर्म के, बंजर धरा के वक्ष पर l
स्वेद की बूंदें चमकती, नील वर्णी अक्ष पर ll
दिव्य रत्नों से सुशोभित, व्योम का विस्तार है l
कर्म रत्नों की धरा पर, व्यक्ति का अवतार है ll
हारकर भी जीत को, जीवन में पाना है तुम्हें l
साध्य को भी साधना के पास लाना है तुम्हें ll
हास्य पुरोधा मृगांक श्रीवास्तव ने ‘योग दिवस’ पर एक नया योग सिखाते हए कहा -
पत्नी कुछ भी कहे, गर्दन दो बार ऊपर नीचे करें पति लोग।
पति के खुशहाल जीवन का, यही है सर्वश्रेष्ठ योग।
इसी प्रकार ‘नो टोबैको दिवस‘ पर रची अपनी एक बढिया रचना उन्होंने इस प्रकार पढ़ी -
धुंए के छल्ले बनाना सीखो, सुट्टे की आदत मुफ्त पाओ।
टायलेट में सुट्टा मारो, ओडोनिल की बचत कराओ।
सुट्टा मारो अलग दिखो इम्प्रेशन जमाओ।
सुट्टा मारो मेच्योर दिखो टेंशन भगाओ।
कवयित्री कुंती मुकर्जी की कविता में उनके मन की छटपटाहट को एक सूफी तितली के संसर्ग ने न केवल एक नया आयाम दिया बल्कि उसे महत्तम ऊँचाई भी प्रदान की I जो सूफी सिद्धांत से परचित है वह जानते हैं कि तसव्वुफ़ में ‘प्रेम’ ही सब कुछ है I कवयित्री के अधरों में जो विद्रोह की कडुवाहट थी वह केवल सूफी तितली के आने भर से हवा में घुल गयी, तब नैनो के द्वार से सरस शब्द फूट पड़े I सचमुच यही सूफी-प्रभाव है I कवयित्री जब तक जीवन-सफ़र की कुछ अनकही दास्तां शब्दों में बाँधने की सोचती तब तक उनका मन साधु हो चुका था I यह कविता साधारण कवि कर्म नहीं है, यह एक कालजयी रचना है I कविता स्वयं अपने आप इस कथन का साक्ष्य है -
"अपने मन की छटपटाहट को मैंने -/ उतार ली चंद शब्दों में...! /शब्द / जो उड़ रहे थे...!/ परिन्दे बनकर ...
/ मेरे मन-मस्तिष्क में...!!/ कुछ विक्षुब्ध शब्द-/ विद्रोही .. / अधर को कर रहे थे / जहरीले..!/ दूर कहीं से एक सूफ़ी तितली-/ उड़कर आयी/ न बात की न कुछ कहा.. / लेकिन / सरस शब्द-रसीले बोल फूट पड़े / नैनों के द्वार से...!/ होंठ जब खुले.../ जबान से फूल झड़े..! जीवन-सफ़र की कुछ अनकही दास्तां / अधूरी और जुदा सी../ जब शब्दों में बाँधने चली../ तब तक मन साधु हो चुका था। / अन्यमनस्क I
कवयित्री आभा खरे ने ‘पितृ दिवस’ पर अपने पिता के अभाव को जिस शिद्दत से जिया, वह उनकी कविता में मुखर है I अपनी पहली कविता में कवयित्री ने ‘माँ जैसे होते हैं पिता’ कहकर मानो पुरुषों के सामाजिक सरोकार पर मुहर लगा दी I साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया कि बेटी की नजर में पिता का महत्व माँ से किसी भाँति कम नहीं है I यह एक बेटी की पिता को दी गयी सबसे बड़ी श्रृद्धांजलि है I उनकी दूसरी कविता में पिता द्वारा दिए गए उन सस्कारों की चर्चा है जिनके बल पर बेटी जीवन के संघर्षों से जूझती भी है और विजय भी प्राप्त करती है – यथा –
आज भी ऐसा ही / एक धर्मयुद्ध लड़ रही हूँ / कर्मक्षेत्र में / उसूलों और मूल्यों को रौंदते / अन्याय के / विजय की / देखो चित पड़ा है अन्याय / अब कर सकती हूँ जयघोष .
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ ने पिता को याद करते हुए बड़ी ही सरल और स्वाभाविक कविता प्रस्तुत की I उनकी मनोहारी पंक्ति ‘मनुज रोता बिलखता याद आते, रब मेरे पापा,’ से पिता के गौरव को पूरा मान मिलता है I रचना की बानगी देखिये –
उमेठे कान, प्रवचन भी सुनाए और डाँटा भी,
लगाया जोर से मेरे घुमा कनटाप, चाँटा भी।
अरे तब पूछकर ढेरों मिठाई ख़ूब मिलती थीं,
मुरादें जो अधूरी थीं उसी दौरान फलती थीं।
मनुज रोता बिलखता याद आते, रब मेरे पापा,
मढ़ी तस्वीर में ही रह रहे हैं अब मेरे पापा।
डॉ. शरदिंदु मुकर्जी ने अपनी जो हालिया रचना प्रस्तुत की, उसका शीर्षक था- प्रतिच्छवि I इस सांग रूपक में कोमल बेल के विकास की गाथा उसी तरह है जैसे एक शिशु विकसित होता है, अपने परिजनों की गोद में i पर बात यहाँ खत्म नहीं होती I कवि के निहितार्थ और भी व्यापक हैं जिनका संकेत निम्नांकित पंक्तियों में उपलब्ध है -
बूढ़े बाबा और बाँस की खपच्ची में/ एक निष्ठुर समानता है, / दोनों कभी हरे थे - / आज दोनों / प्रतीक्षा में हैं / अन्तिम चिता की।
कवि अजय श्रीवास्तव के अनुसार इस कविता और रस्किन बांड की प्रसिद्ध कहानी ‘दि काइट मेकर’ में भाव साम्य है I बांड की कहानी अपेक्षाकृत, बड़ी है और यह कविता बहुत छोटी i कहानी में बूढ़े का किरदार जरूर है पर उसमे बॉस की खपच्ची नहीं है I
पुरानी स्मृतियाँ, सहचर का संग और अतीत-स्मृति-विभूति (NOSTALGIA) का विहंगम चित्र लेकर अपनी कविता में कवयित्री नमिता सुन्दर जी ने सात्विक पुलक और स्वच्छ रूमानियत को जिस अंदाज में प्रस्तुत किया है, वह उनके अंत:करण का आइना है और सचमुच बेमिसाल है i कविता का कौन सा बंद छोड़ा जाये और कौन सा यहाँ साझा किया जाय, यह कविता ऐसे द्वद्व में फंसाती है I इस असमंजस के बीच एक बानगी निम्नप्रकार प्रस्तुत है -
हरियल अंधियारे में/ टिमकते जुगनुओं ने / जो रचा था/ रौशन गीत/ झंकऱित कर जाता है/ आज भी / वह मेरा एकांत / सोचती हूं / क्या चांद पार ही / बसता है/ सपनों का वह गांव
/ क्यों भला नहीं ढूंढ पाते हम/ अपनी वह / खोई हुई नाव......
संचालक आलोक रावत ’आहत लखनवी’ अपने एक संजीदा गीत के साथ प्रस्तुत हुए i इस गीत में जीवन के वही सारे अनुभूत तथ्य हैं, जो हम सब के अनुभव के भी उपादान रहे हैं I इन सार्वभौम विषयों पर बहुत पहले से लिखा जाता रहा है, पर जब कोई नया कवि इस विषय पर चिंतन करता है तब वह निरंतर परिवर्तित होती युगीन परिस्थितियों को आत्मसात करता हुआ काव्य-पथ पर आगे बढ़ता है, यह बदलाव और प्रस्तुति का नया ढब अक्सर इन कविताओं को एक नया आयाम देता है जो हम हम ‘आहत’ के इस गीत में पाते हैं -
समय रहा अनुकूल अगर तो यूं लगता है
पग पग पर खुशियों के हरसिंगार बिछे हैं
और हुआ प्रतिकूल अगर मानव जीवन के
तो लगता है धधक रहे अंगार बिछे हैं
शीतल मंद फुहार कभी है जलता जीवन
चलने दो जैसे भी है ये चलता जीवन
गज़लकार भूपेंद्रसिंह ने बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम/ फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन/ 212 212 212 212 पर एक बेहतरीन ग़ज़ल प्रस्तुत की I इसके कुछ शेर तो बहुत ही नायाब हैं, जैसे -
किसकी ग़लती से ये क़ायदा हो गया.
इल्म से रास्ता खुरदरा हो गया.
वक़्त की देखिये, हाशिया हो गया
कवयित्री संध्या सिंह ने अपनी कविता ‘हे निर्देशक पर्दा डालो’ के अंतर्गत नारी उत्पीड़न की संवेदना लेकर आयीं I निर्देशक नारी के सम्मान की रक्षा करने के स्थान पर उसे और अधिक नीचे ले जाने पर आमादा है I अभिनेत्री इन सबसे ऊब चुकी है I उसे निदेशक से बहुत उम्मीद थी कि कभी तो वह परंपरा से विद्रोह करेगा और नारी की छवि संवारने के कुछ उद्योग करेगा I अभिनेत्री इसका निर्देश भी करती है कि -
पृष्ठभूमि में / रंग भरो कुछ / या थोड़ा उजियार बढ़ाओ / या मेरे / संवाद बदल दो / या फिर नये पात्र कुछ लाओ
कितु इस अनुरोध का कोई प्रभाव नहीं पड़ता और स्त्री की भोगवादी मानसिकता को ही परोसने का क्रम चलता रहता है तब अभिनेत्री यह सोचने को बाध्य होती है कि -
मुझे भरम था / मेरी खातिर / शायद कुछ पटकथा मोड़ दी / पर तुमने तो /मृत्यदंड का
निर्णय दे कर कलम तोड़ दी
अंततः अभिनेत्री को विद्रोह करना ही पड़ता है - नहीं खेलना अब ये नाटक / हे निर्देशक पर्दा डालो
डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने मात्रिक छंद ‘सरसी’ (16.10 ) में स्त्री-पुरुष के बीच उपजने वाले रागायित संबधों को बडी मोहकता से प्रस्तुत किया--
आवेशित विद्युत् तरंग सी
लहरों पर चलती I
मेरी नस-नस के प्रवाह में
पारा सा ढलती I
जीत नहीं फिर भी क्यों पाया, मैं तेरा विश्वास ?
मैं तेरी साँसों का परिमल, तू मेरा उच्छ्वास I
अंतिम प्रस्तुति अध्यक्ष डॉ. कौशाम्बरी की थी I उन्होंने ‘गन्तव्य,’ शीर्षक से अपनी कविता का पाठ किया I कवयित्री का कहना है कि आज समय हमसे प्रश्न करता है कि इस जीवन में क्या हमने अपने पथ का निर्धारण किया है और यदि किया है तो फिर उस पर निर्बाध चले है या नहीं और यदि चले नहीं तो चलो, मगर ध्यान रहे कि मार्ग में विचलित नहीं होना है I गन्तव्य का स्थिर और ध्रुव रहना आवश्यक है -
नाप लो वक्त को तुम / बढो तीव्र गति से / जीत लो तुम सभी को / सफल करके जीवन / सदा मुस्कराओ / मगर तय करो यह / तुमको जाना कहाँ है ?
जब शाम गहराती है, विराम और विश्राम हमें बुलाने लगते है I कार्यक्रम का अवसान हुआ, पर बुलावे के भुलावे देकर देकर मेरा मन कवयित्री कुंती मुकर्जी की सूफी-तितली पर जा अटका और फिर मन का सहसा साधु हो जाना तो मेरे अन्तर्यामी को भिगो ही गया I मैं सोचने लगा-
निसर्ग के आकर्षण
हमें खीचते तो हैं
शायद मन को बाँधते भी हैं
पर उनसे न अनुराग होता है और न राग
प्रकृति के रंग मनहर भले हों
पर उनके प्रति हमारे मन में
वह तड़प नहीं होती
जिसे सूफी तसव्वुफ़ कहता है
ऐसा नहीं है कि प्रकृति में
ईश्वर का आभास करना
केवल सूफियत में है
अद्वैतवादी इसे तादात्म्य
और प्रकृति से अनन्यता कहते है
जिसके मिलते ही प्रकृति ही नहीं
उस परवरदिगार या भगवान
के लिए मन में
स्वतः उत्पन्न होती है, वैसी ही तड़प
जिसमे मदहोश हो और स्वयं को भूल
एक सूफी बेखुदी में नाचता और रोता है
यही बेखुदी या समाधि
वह काल-खंड है
जब हम शायद
अपने अन्तर्यामी या आराध्य के
सबसे निकट होते हैं
उसके पास
उसके सहज-सानिध्य में I (सद्यरचित )
(अनन्यता- सो अनन्य जाके हृदय मति न टरइ हनुमंत I
मै सेवक सचराचर रूप स्वामी भगवंत II )
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
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