आदरणीय साथिओ,
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आद० ओम प्रकाश जी बच्चों के एसे जिज्ञासा भरे प्रश्नों से न जाने कितनी बार माँ बाप को दो चार होना पड़ता है आप सही कह रहे हैं उन्हें समझाना बहुत मुश्किल भी है एक प्रश्न हल करने पर फिर दूसरा तीसरा खडा कर देते हैं मैंने एक बाल कविता लिखी थी वो याद आ गई ...माँ कहाँ से आई चुनिया ?
बहुत अच्छा अंत सोचा लघु कथा का | बहुत बहुत बधाई आपको
वास्तव में ऐसे प्रश्न बच्चों से ज्यादा माँ-बाप को एक अजीब सी स्थिति में ला खड़ा करते हैं, जहाँ सब जानते हुए भी कहने को कुछ नहीं होताI ऐसे प्रश्न माँ-बाप के सामने प्रश्न-चिन्हों के अम्बार लगा देते है और उन्हें जानबूझ कर ऐसे सवालों को अनदेखा करना ही पड़ता हैI लघूकथा अच्छी बनी है हालाकि इससे कहीं बेहतर बन सकती है, जिस हेतु आपको हार्दिक बधाईI
मैं आपकी iइस लघुकथा पर आई टिप्पणियों को देख रहा था कि मेरे ज़ेहन में एक बात आईI देखिए, हम सभी जानते हैं कि एक लघुकथाकार से यह अपेक्षा की जाती है वह भूसे के ढेर में से सुई ढून्ढ कर लाएI मेरा निजी मत है कि लघुकथा के समीक्षाकार का भी यह दायित्व बनता है कि वह भी लघुकथा के हर पहलू से अध्ययन कर उसके गुण दोषों पर चर्चा करेI इस कथा के संदर्भ में एक बात अवश्य कहना चाहूँगा कि आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी ने अनजाने में ही सही, एक तीर से दो शिकार कर लिए हैंI यह बिलकुल वैसा ही है जैसे कोई बच्चा बेरी से बेर तोड़ने के लिए ढेला फेंके और वह ढेला बेर का एक गुच्छा गिराकर अमरूद की शाखा पर जा लगे जिससे कई अमरूद ज़मीन पर आ गिरेंII इस कथा में बच्चे के प्रश्न को अनुत्तरित जान कर कथा का अंत कर दिया गया हैII लेकिन वास्तव में देखा जाए तो प्रश्न बाप का भी अनुत्तरित रह गया, क्योंकि बच्चे के प्रश्न के बाद बाप नें स्वयं से भी पूछा होगा कि वह अपने बच्चे दे तो क्या उत्तर देI तो इस प्रकार इस लघुकथा में केवल एक नहीं बल्कि दो-दो प्रश्न अनुत्तरित रह गएII
मुझे इस कथा का अंत पसंद नहीं आया, इसलिए मैंने आपकी इस लघुकथा में स्वयं को उस पिता के स्थान पर रखकर सोचाI कल्पना की कि मेरा बच्चे ने मुझ से ऐसा कोई प्रश्न पूछाI उसके सवाल ने मुझे बगलें झाँकने पर विवश कर दिया, बच्चे ने मुझे मौन देखकर अपना प्रश्न पुन: दोहरायाI मैंने सामने बैठी पत्नी की ओर देखा और आँखों ही आँखों में उनसे पूछा:
“अब इसको क्या कहूँ?”
मेरी बीवी ने भी कंधे उचका कर उत्तर दिया:
“अब मैं क्या कहूँ?"
धन्यवाद भाई सुनील जीI वैसे कथा की कमियाँ ढूँढने में क्या बुराई है भाई? कमियाँ पता चलेंगी तभी तो सुधार के रास्ते खुलेंगे?
"जस्ट कीप इट अप".
आभार आदरणीय सुनील वर्मा जी आप की वजह से लघुकथा पर सार्थक बहस हो पाई . और एक कमजोर लघुकथा सशक्त रूप में सामने आ सकी.
आदरणीय योगराज प्रभाकर जी भाई साहब, आप की विस्तृत, समीक्षात्मक व स्नेहिल व्याख्या पढ़ कर सुखद लगा. आप का शुक्रिया आप ने इस का लघुकथात्मक उपचार प्रदान कर मेरा मनोबल बढाया. साथ ही सुखद अंत भी सुझा कर लघुकथा को बेहतर बनाया. यही तो गुरुत्व की निशानी है. कुछ इस तरह कहा जाए कि सामने वाले को बुरा भी न लगे और अपनी बात भी कह दी जाए.
लघुकथा-- अनुत्तरित प्रश्न
टेबल लैंप के सामने पुस्तक रखते हुए पुत्र ने कहा , " पापाजी ! सर कल यह चित्रवाला पाठ पढ़ाएंगे. आप समझा दीजिए."
" लाओ ! यह तो बहुत सरल है. मैं समझा देता हूं."
फिर बारीबारी से चित्र पर हाथ रखते हुए बताया, " यह बीज है . इसे जमीन में बोया जाता है. यह अंकुरित होता है . पौधा बनता है . बड़ा होता है. पेड़ बनता है. इस में फूल आते हैं फिर फल लगते हैं." इस तरह पापा ने पाठ समझा दिया.
पुत्र की जिज्ञासा बढ़ी, "पापाजी ! पेड़ के बीज से पेड़ पैदा होता है ?"
" हां."
" मुर्गी अंडे देती है . उस से मुर्गी के बच्चे निकलते हैं," उसने मासूमसा सवाल पूछा.
" हां."
" तो पापाजी, यह बताइए कि हम कैसे पैदा होते हैं ?"
यह प्रश्न सुन कर पापाजी चकरा गए. कुछ नहीं सुझा . क्या कहूं ? क्या जवाब दूं ? कैसे जवाब दूं ?
बस दिमाग में यह प्रश्न घूम ने लगा, " हम कैसे पैदा होते है ?"
उस के सवाल ने मुझे बगलें झाँकने पर विवश कर दिया, बच्चे ने मुझे मौन देख कर अपना प्रश्न पुन: दोहराया. मैं ने सामने बैठी पत्नी की ओर देखा और आँखों ही आँखों में उन से पूछा, “अब इसको क्या कहूँ?”
मेरी बीवी ने भी कंधे उचका कर उत्तर दिया:
“अब मैं क्या कहूँ?"
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