आदरणीय साथिओ,
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अनकहे सवाल--
सुबह से ही उसका दिल बुरी तरह धड़क रहा था, कितने ही प्रकार की आशंका उसके मन में उमड़ घुमड़ रही थी| रह रह कर उसके दिमाग में उसके मित्र की बात आ रही थी "सिर्फ सही लिख देने से ही नहीं हो जाता सब कुछ, और भी बहुत कुछ करना पड़ता है इसके लिए| वैसे तुम कहो तो कुछ बात करूँ मैं, रेट तो सबको पता है और सही आदमी को मैं जानता हूँ"|
उसने सर हिलाकर इनकार कर दिया, कहना और भी बहुत कुछ चाह रहा था लेकिन उसने अपने अंदर ही जज्ब कर लिया| क्या इतनी जी तोड़ मेहनत उसने इसीलिए की थी कि अंत में यह भी करना पड़े, पैसे तो वैसे भी नहीं थे उसके पास|
दोपहर जैसे जैसे नजदीक आ रही थी, उसका घर में रहना कठिन होने लगा| एक तो माँ की नजर हमेशा कुछ सवाल करती रहती थी, हालाँकि कहती कुछ भी नहीं थी वह| दूसरे कहीं भाभी से आमना सामना हो गया तो कुछ न कुछ सुनना ही पड़ जाता था| उसने वही पुरानी वाली जीन्स पहनी और फोन लेकर चुपचाप निकल गया, पता नहीं क्यों उसको लगने लगा था कि जब भी वह इस जीन्स को पहनता था, कुछ बेहतर होने की सम्भावना लगती थी|
अपनी पुरानी चाय की दूकान वाले अड्डे पर आकर वह बैठ गया और कब उसके पास चाय आ गयी और वह पी भी गया, उसे पता नहीं चला| चाय वाले ने उसको टोका "क्या बात है भैया, आज कुछ बोल नहीं रहे" तो उसने अपने आप को यथासंभव सामान्य करते हुए मुस्कुराने की नाकाम कोशिश की|
"कुछ नहीं चाचा, आज रिजल्ट है ना, उसी के चलते थोड़ा सोच रहा था", और उसने एक बार अपने फोन में समय देखा| अब तक तो रिजल्ट आ गया होगा, सोचकर उसका दिल बैठने लगा| अगर उसका नाम होता तो जरूर फोन आता, आज भी वह खुद रिजल्ट देखने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था| तभी फोन बजा, स्क्रीन पर दोस्त का ही नाम था, उसने तुरंत उठाया और बात करने लगा|
कुछ ही मिनटों बाद वह सर झुकाये वापस जा रहा था, माँ की आँखों के सवालों का जवाब आज भी उसके पास नहीं था|
मौलिक एवम अप्रकाशित
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