आदरणीय साथिओ,
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(1)देवी
बधाई हो दीपक भाई!” डॉ आनंद ने चैम्बर में प्रवेश किया तो दीपक और माधवी का ध्यान भंग हुआ।
“कैसी बधाई, यार?” डॉ दीपक ने अनमने स्वर में पूछा।
“अरे! तुझे और माधवी भाभी को यू. ऐस. में स्कॉलर-शिप मिली है।" आनन्द के स्वर में उल्लास था।
"हाँ, मिली तो है कल ही लेटर आया है।" दीपक ने बुझे ढंग से बताया।
"विदेश में विशेषज्ञता कोर्स, और वो भी पति-पत्नी दोनों को! बधाई की ही नहीं, ये तो दावत की बात है ।" आनन्द का उल्लास कम नहीं हुआ था।
“तू जानता तो है, यार! शैली को छोड़कर हम कहीं नही जा सकते, और न ही उसे साथ ले जा ही सकते हैं।” डॉ दीपक ने हताशा से भर कर कहा।
“तुझे और भाभी को कितना समझाया था, यार!" अब आनन्द उखड़ गया।
"पर, तब हम भी कहाँ जानते थे भैया?" माधवी ने सफाई देते हुए कहा।
"फिर भी, दया धर्म की भी एक सीमा होती हैं। बच्चा पाने के और भी बहुत से तरीके थे। कूड़े के ढेर में पड़ा न जाने किसका बच्चा था, उठा लाये घर में।" आनंद गुस्से से भरा बोलता चला जा रहा थाI
“अब हमको पता था कि ये बड़ी होकर मानसिक और शारीरिक रूप से विकलांग होगी?” दीपक के दिल का दर्द उभर आयाI
“ज़्यादा मत सोचो, ऐसे मौके बार बार नही आतेI” डॉ आनंद ने कुर्सी पर बैठे दीपक के कंधे थपथपाते हुए कहाI
“ठीक है आनंद भैया! कुछ सोचते हैं।” माधवी ने सर हिला कर स्वीकृति दी तो दीपक के चेहरे पर चमक आ गई।
“तो शांताबाई को हाँ बोल दूँ क्या? वो तो कई बार कह चुकी है कि आश्रम वाले महंत जी शैली बेबी को देवी बना देंगे।”
मौलिक एवं अप्रकाशित
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(2) धुंधले साये
“ओह कल याद ही नहीं रहा सिगरेट तो रात ही खत्म हो गई थी।” महेश खाली डिब्बी को मोड़कर फेंकते हुए बड़बड़ाया।
सिर खुजाते हुए इधर उधर देखा बड़ा बेटा स्कूल के लिए तैयार होकर, अपने स्कूल का काम निपटा रहा था। मझला देखते देखते नहाने घुस गया।
“ये तो आधे घंटे से पहले निकलने से रहा सुसरा लीचड़ कहीं का।”
पत्नी पर एक नजर डाली तो बिखरे बालों को समेटे बगल के पास से उधड़ी मैक्सी पहने बच्चों के खाने का डिब्बा तैयार करने में लगी थी। उसको इस समय काम बताना बर्र के छत्ते को छेड़ने जैसा था।
खुद इस हालत में नीचे उतर कर जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी।
तभी छोटे बेटे पर जाकर निगाह ठहर गई। जो बड़े जतन से अपने टूटे खिलौने का पहिया जोड़ने में लगा था।
“मुनुआ! ओ मुनुआ! सुन बाबू एक काम कर ज़रा।”
पिता की पुकार पर बालक उठकर चला आया, सिर हिला कर काम पूछा।
“चल ज़रा भाग कर जा सामने की दुकान से मेरी सिगरेट तो ला दे, मैं अभी तक बाथरूम नहीं गया हूँ। जा दौड़ कर जा और बोल देना पैसे पिताजी देंगे।”
मुन्नू उठ कर खड़ा ही हुआ कि माँ ने पुकारा,
“पिताजी की सिगरेट लेने जा रहा है? एक चाय का पैकिट भी लेता आना पत्ती खत्म हैं।” बच्चे ने फिर से पैसे के लिए माँ की ओर देखा।
"मम्मी पैसे?"
“पैसे जब पिताजी नीचे उतरेंगे, तो दे देंगे।”
बच्चा अपनी जगह खड़ा रहा तो माँ ने पूछा:
"अब क्या है?"
"अपने लिए भी एक पैकिट सुपारी का ले लूँ?” बच्चे ने माँ से खुशामदी लहज़े में पूछा।
“हाँ ले लेना पर एक ही।”
अनुमति पाकर मुन्नू उछलता कूदता नीचे चला गया, पर महेश की आखों में ऐसे किसी मौके पर अपनी माँ से मिली वो इक्कनी नाच गई जिस से खरीद कर उसने पहली बार सिगरेट पी थी। तेज़ी से सीढ़ियों से उतरते हुए बच्चे को पीछे से पुकारा,
“तू रहने से मुनुआ, मैं खुद जाकर ले आता हूँI”
मौलिक एवं अप्रकाशित
दोनों कथाएं एकदम चुस्त, सन्देश स्पष्ट, शिल्प कसा हुआ हैI पढ़कर आनंद आया सीमा सिंह जी, बहुत बहुत बधाई स्वीकार करेंI
वाह वाह दोनों ही कथाएं लाजवाब हुई हैं आदरणीया सीमा जी | हार्दिक बधाई |
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