आदरणीय साथिओ,
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अच्छी कथाएँ , बहुत बहुत बधाई आपको ।
(1) " फर्ज "
( लघु कथा )
देख , रुचि - " अंश बहुत अच्छा लड़का है । घर के लोग भी कुलीन हैं और फिर बैंगलोर में ही है । शादी के बाद तुझे जॉब भी स्विच नहीं करना पड़ेगा । तेरे पिताजी ने तो पंडित जी से कुंडली भी मिलवा ली है।
अब तू ,ना ... मत करना । इन्हें भी तेरी बहुत चिंता है । एक ही साल तो रह गया है रिटायर होने में ।।
नहीं माँ , ... " मैं कितनी बार बोल चुकीं हूँ । अभी मुझे शादी नहीं करनी । जब करनी होगी तो बता दूँगी ।"
" क्यों नहीं करनी ... ?"
" आखिर , तेरे हाथ पीले करना हमारा फर्ज है । धीरे - धीरे समय भी गुज़रता जा रहा है । हर काम का एक समय नियत है । समय रहते काम हो , तभी अच्छा लगता है । यदि तेरे दिल में कोई और बात है तो खुल कर बोल
, ... न । हम तेरी हर खुशी में राजी हैं । मैं मना लूँगी तेरे पिताजी को , तू बोल तो सही ।"
नहीं ,माँ ... " ऐसी - वैसी कोई बात नहीं है । तू मुझे गलत समझ रही है ।"
तो फिर सही क्या है ... ?
अरे ! माँ - अब तू नहीं मानती तो , सुन ...
" आप लोगों ने हम दोनों बहनों को बड़े लाड़ - दुलार से पाला - पोसा । हमारी शिक्षा दीक्षा से लेकर हमारे शौक , पसंद -नापसंद में कभी कोई कमी नहीं आने दी । इसी कारण पिताजी ने अपने मकान बनाने तक के बारे में कभी नहीं सोचा । अब पिताजी के रिटायर होने पर ये क्वार्टर खाली करना ही पड़ेगा न। "
फिर श्रेया की पढ़ाई भी शेष है । अब तू ही बता ," मेरा भी कुछ फर्ज बनता है कि नहीं ?"
माँ , मैं ने तो प्रण किया है - " जब तक हम अपने घर में नहीं पहुँच जाएँगे । तब तक मैं शादी नहीं करूँगी ।"
( मौलिक व अप्रकाशित )
(2) -- " सृष्टि " -
( लघु कथा )
"गुड मॉर्निंग" , डार्लिंग।
"मॉर्निंग" - सूरज , "आजकल तुम्हारा मॉर्निंग वॉक भी कुछ ज़्यादा ही लम्बा होता जा रहा है।
वॉक तो अपनी जगह है ,फिर ये कभी शुक्ला जी तो कभी वर्मा जी के यहाँ टी पार्टी ?
और मोबाइल भी नहीं ले जाते।"
" कभी ,कुछ लौटते समय मंगाना हो तो, किस से कहूँ ?"
"आज तो मैडम , कुछ ज़्यादा ही नाराज़ लग रही हैं।"
ये तुम्हारी बगीचे की चिड़ियाँ भी लगता है तुम्हारा गुस्सा भांप चुकीं हैं।
बड़ी खामोश बैठीं हैं।नहीं तो सुबह से ही इस डाली से उस डाली पर चह -चहाती फिरतीं हैं।
और ये गुलाब का फूल कितना शानदार खिला है ?
" भई ! मान गए।" बहुत मेहनत करती हो इन सब पर।
तभी तो सुबह- सुबह यहाँ बैठ कर काफी पीने का आनन्द अलग ही होता है।
"अच्छा, अब जल्दी बताओ ,क्या हुआ है ?"
"तुम जान कर भी क्या करोगे ?"- सूरज
" तुम्हें मेरी परवाह तो है ,नहीं ?"
आज ,काफी बनाने के लिए जैसे ही फ्रिज से दूध निकालना चाहा ,पतीली हाथ से फिसल गई। सारा दूध किचिन में फैल गया।
एक तो मुझे रात भर, नींद भी तो नहीं आती।
सर वैसे ही भारी था। सोचा काफी पींने से तबीयत हलकी हो जाएगी।
मेरा मूड ख़राब हो गया, तुम्हारा फोन भी यहीं पड़ा था। मैं दूध किस से मंगाती ?
" मैं अभी ला देता हूँ। "
सृष्टि, मैं कुछ दिन से देख रहा हूँ तुम देर रात तक जागती रहती हो -" कभी कैंडी क्रेश ,तो कभी फेस बुक ?"
"क्या बताऊँ" - सूरज ,
" ये सब तो, किसी तरह दिल को बहलाने के तरीके हैं। "
अंदर से एक बेचैनी है,एक खालीपन ,,,,,,,तुम तो समझते हो.... न।"
" मैं लाख चाह कर भी तुम्हें एक वारिस नही दे पाई।
अब तो सारी आस भी टूट चुकी है।"
सृष्टि - "मैं कितने बार कह चुका हूँ। भूल जाओ इन सब बातों को। मुझे नहीं चाहिए वारिस।"
"मैं ने सदा तुम्हें चाहा है।"
तुम भूल गईं, -" जब मैं ने तुम्हें कालेज के गार्डन में प्रपोज़ किया था। और तुम जैसे, बिना सुने ही चल दीं थीं।"
मैं रात भर यही सोचता रहा था - "काश ! तुम एक बार मेरी हो जाओ।"
हाँ सूरज - फिर , एक बार कालेज से लौटते समय - तुमने अपनी बाइक ,मेरी कार के सामने अड़ा दी थी।
और कहा था। "या तो हाँ कर दो या........"
" मैं ,तुम्हारी ज़िद के आगे ..... "
" फिर मुझे तुम मिल चुकी थीं।
" तुम ही मेरी सृष्टि हो। "
( मौलिक व् अप्रकाशित )
आरिफ साहब , आदाब ,बहुत बहुत शुक्रिया मेरी हौसलाअफ़ज़ाई के लिए।
आपकी दोनों कथाएँ बेहद प्रभावशाली हैं ...शिल्प, सम्प्रेषण विषय सब अपनी छाप छोड़ रहा है हार्दिक बधाई आपको आदरणीय मुज्ज़फर इकबाल जी
आ.बहुत बहुत आभार आपका
प्रथम कथा अत्यंत भावुक करने वाली हैं।यही शब्द मेरी भांजी ने कहे थे और आपने उन्हें बढ़िया लघुकथा में ढाल दिया।हार्दिक बधाई आपको
चाहे प्रेम कितना भी क्यों ना हो निसंस्तान होने दर्द सालता ही रहता हैं ।उम्दा कथा के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय
आ. अर्चना जी ,उत्साहवर्धन हेतु धन्यवाद
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