अपने देश में नेट के अति व्यापक होने के बाद से जो बात एकदम से देखने में आयी है वह यह है कि हिन्दी साहित्य का क्षेत्र तथाकथित ’साहित्यसेवियों’ और ’मान्यवरों’ के ’चंगुल’ से करीब-करीब स्वतंत्र होता जारहा है. एक लेखक के लिए भले ही आज भी स्थापित साहित्यकारों की सूची में शामिल होने का अर्थ उसके रचनाकर्म को प्रिण्ट-प्रकाशन से मिली मान्यता ही है. लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि नेट के प्रादुर्भाव के बाद से रचनाकर्म और भाव-संप्रेषण के संसार की परिधि एकदम से विस्तृत हो गयी है. प्रिण्ट-पत्रिकाओं की हैसियत भले ऊँची मानी जाती हो, लेकिन अपने वज़ूद के लिये आज प्रतिदिन लड़ाई लड़ रही पत्रिकायें क्या स्वयं को साधें और क्या रचनाकारों की हैसियत आँकें ? अधिकांश पत्रिकायें तबभी जन्मते दमा की मरीज़ हो जाया करती थीं जब नेट का नामोनिशान क्या कॉन्सेप्ट तक नहीं था, तो आज तो परिस्थितियाँ और भी विकट हैं. बल्कि सही कहें तो बिगड़ी ही हैं.
फिर भी, यह प्रिण्ट-पत्रिकाओं की ठसक ही है कि जिन साहित्यकारों की हैसियत, उनकी पृष्ठभूमि तथा उन्हें प्राप्त हुआ या करवाया गया अवसर, इन तीनों का यदि सम्यक सुयोग बन गया तो वे एकदम से लाइम-लाइट में आ जाते हैं, छा जाते हैं. समाज उन्हें पढ़ने-सुनने लगता है. अन्यथा, यह दृश्य आम ही रहा है कि सही मार्गदर्शन तक के लिए नव-हस्ताक्षर साहित्य के महासमुद्र के कुटिल शार्कों के मज़बूत-पैने जबड़ों में फँस कर अपनी संभावनाओं और समय दोनों से खिलवाड़ होता भोगने को विवश रहते हैं. संभावनाओं के साथ जैसा खिलवाड़ साहित्य के प्रकाशन-क्षेत्र में देखा-सुना जाता रहा है वह एक संवेदनशील रचनाकार या पाठक को इस प्रश्न के तमाचे जड़ देने के लिए काफी है कि क्या साहित्य का लक्ष्य वास्तव में मनुष्य या मानवीय समाज ही है ? मठाधीशों की अहं-तुष्टि नहीं !
लेकिन नेट के होने के बाद से से रचनाकारों की संख्या में जिसतरह का महाविस्फोट हुआ है, वह संपूर्ण साहित्य-संसार के लिए चौंका देने वाली घटना है. लेकिन अब भी जिस कमी को सबसे अधिक गंभीरता से महसूस की जा रही थी वह है रचनाकर्म के संदर्भ में नव-हस्ताक्षरों के लिए उचित मार्गदर्शन के उपलब्ध न होने की, जिसपर तथाकथित उस्तादों, पण्डितों, धुरंधरों और मठाधीशों का निरंकुश कब्ज़ा इतना मज़बूत हुआ करता है कि उसके विरुद्ध बोलने तक की धृष्ठता एक नये रचनाकार को हाशिये पर डाल देने का कारण हुआ करती है. नेट के कारण इन धुरंधरों के संसार में उथल-पुथल मच गयी है. नेट के माध्यम से ऊर्जस्वी युवाओं का वह वर्ग सामने आया जिसने आपस में ’सीखने-सिखाने’ की वह परिपाटी विकसित की है जिसे साहित्य के संसार में अबतक देखा क्या, सोचा तक नहीं गया था.
अपने स्थापना के प्रारम्भिक समय से ही ओपन बुक्स ऑनलाइन (ओबीओ) का प्रबन्धन प्रधान सम्पादक के सक्षम नेतृत्व में अपने सार्थक उद्येश्य ’सीखने-सिखाने’ और ’साहित्य का परिसर सबके लिए’ के दर्शन के प्रति सदा ही गंभीर रहा है. यही कारण है कि मात्र तीन साल की अल्पायु में यह मंच, ओबीओ, कई-कई विसंगतियों को बलात् झेलने के बावज़ूद अपने मार्ग पर दृढ़ता से अग्रसरित रहा है. नये रचनाकारों के लिए ऐसे वातावरण का होना एक सुखद आश्चर्य ही है, जैसाकि ओबीओ पर उपलब्ध होता है. रचनाकारों को उनके रचना-प्रयास के क्रम में सार्थक तथा पवित्र वातावरण में व्यावहारिक मार्गदर्शन का मिलना श्रद्धानत तो करता ही है, यह माहौल उनके प्रयास के लिए उत्प्रेरक का काम भी करता है.
इसी मंच पर सद्यः समाप्त आयोजन ओबीओ लाइव महा-उत्सव का अंक -30 कई मायनों में ओबीओ के प्रबन्धकों, रचनाकारों, पाठकों और समस्त शुभचिंतकों के लिए आत्म-विश्वास के बढ़ने कारण हुआ है. इस आयोजन की आशातीत सफलता ने स्पष्टतः रेखांकित कर दिया है कि साहित्य का वातावरण विधा-शिल्प के विशेषज्ञों की अपेक्षा तो करता है लेकिन आत्मश्लाघा में प्रतिपल जीने वालों से प्रभावित भी नहीं होता. ओबीओ का वातावरण ठोस वैचारिकता के सापेक्ष दृढवत सबल हो रहा है. तभी तो ओबीओ पर चल रहे आयोजनों का मर्सिया पढ़ने को तैयार बैठे कई-कई आत्म-मुग्ध मठाधीशों के लिए एक त्रिदिवसीय आयोजन में प्रविष्टियों और प्रतिक्रियाओं के 1700 से अधिक अपडेट्स संज्ञा-शून्य कर देने के लिए काफी हैं, जैसाकि सद्यः समाप्त हुए महा-उत्सव के दौरान हुआ.
लाइव महा-उत्सव के अंक- 30 का शीर्षक शिशु/बाल-रचना था. कोई संदेह नहीं कि प्रबन्धन समिति के जागरुक सदस्य इस शीर्षक की सफलता के प्रति वास्तव में सशंकित थे. इसके अपने कारण भी हैं. इसी मंच पर बाल साहित्य का एक विशेष ग्रुप भी है जिसमें बावज़ूद कई-कई स्तरीय रचनाओं के नई रचनाओं और प्रविष्टियों की निरंतरता का अक्सर टोंटा पड़ा रहता है.
लेकिन प्रतिभागियों ने सारे भ्रम और संदेहों को दरकिनार करते हुए दिनांक 08 अप्रैल’13 को आयोजन की सफलता का एक नया मील का पत्थर जड़ दिया.
आयोजन में तैंतीस प्रतिभागियों की कुल 63 प्रविष्टियाँ प्राप्त हुईं.
प्रतिभागियों और उनकी प्रविष्टि की सूची इस प्रकार से है.
अनवर सुहैल - 1, अमित मिश्र - 2, अमिताभ त्रिपाठी – 1, अरुण कुमार निगम – 2, अरुण शर्मा अनन्त – 2, अशोक कुमार रक्ताले – 3, आशीष नैथानी सलिल – 1, कुन्ती मुखर्जी – 1, कुमार गौरव अजीतेन्दु – 2, केवल प्रसाद – 3, गणेश बाग़ी – 1, गीतिका वेदिका – 3, ज्योर्तिमय पन्त – 1, दिनेश ध्यानी – 3, परवीन मल्लिक – 1, प्रदीप कुमार कुशवाहा – 3, प्राची सिंह – 1, बृजेश कुमार – 3, राजेश कुमारी – 3, राम शिरोमणि पाठक – 3, लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला – 3, वन्दना तिवारी – 1, विजया श्री – 2, विंध्य्श्वरी प्रसाद त्रिपाठी विनय – 2, शालिनी कौशिक – 1, शिखा कौशिक – 3, सीमा अग्रवाल – 1, सतीश मापतपुरी – 1, सत्यनारायण शिवराम सिंह – 2, सरोज गुप्ता – 1, सौरभ पाण्डेय – 1, एसके चौधरी – 3, संदीप कुमार पटेल दीप – 2
इससे पूर्व कि आयोजन के रचनाकारों और उनकी प्रविष्टियों पर एक सांकेतिक या संक्षिप्त चर्चा हो, एक बात जो चौंकाने वाली हुई कि अधिकतर प्रतिभागी या तो ओबीओ के सक्रियतम सदस्य थे, या एकदम से नये सदस्य थे जिन्हों ने आयोजन से कुछ ही हफ़्तों या कुछ माह पूर्व ओबीओ की सदस्यता ग्रहण की थी. यानि, एक बड़ा और पुराना वर्ग जो ओबीओ के पटल से ’सीखने-सिखाने’ की परिपाटी के तहत महत्तम ग्रहण कर अपनी कई-कई सीमाओं के कारण अन्यमन्स्क हो चला था, आयोजनों के ऊर्जस्वी माहौल से दूर रह रहा था, ओबीओ की सरपट चाल के आगे स्वयं ही मुख्य राह से किनारे हो गया.
पिछले तीन-चार महीनों में ओबीओ के ऑनलाइन आयोजनों को देखा जाय तो हालत बिल्कुल समीचीन नहीं थे. कारण कुछ भी हों, कई हैं ! इसी दौरान ओबीओ के सबसे सक्षम व क्रियाशील इकाई अपने प्रधान सम्पादक आदरणीय योगराज प्रभाकर जी का लम्बी बीमारी के कारण एक तरह से विलग रहना भी हमारे धैर्य की नित नयी परीक्षा लेता रहा. इसीतरह वायु सेना के अपने दायित्व के कारण सियाचिन ग्लैशियर पर स्थानान्तरित प्रबन्ध समिति के मानद सदस्य भाई राणा प्रताप सिंह की अनुपस्थिति भी मंच के लिए अपूरणीय खालीपन सी रही है. हाँ, शुभ सूचना यही है कि दोनों महानुभावों की अनुपस्थिति यथाशीघ्र समाप्त होने जारही है. लेकिन... .लेकिन नये और उत्साही सदस्यों की उत्फुल्ल भागीदारिता ने सकारात्मक माहौल के पुनः व्यापने के संकेत दे दिये हैं. यह एक शुभ सूचना, एक शुभ संकेत है.
आयोजन के रचनाकारों और उनकी प्रविष्टियों की समीक्षा –
एक तथ्य जो उभर कर कर सामने आया वो ये कि इस आयोजन में अधिकतर प्रतिभागी पहली-पहली बार शिशु/बाल-रचना पर कलमगोई कर रहे थे. ओबीओ के मुख्य प्रबन्धक श्री गणेश बाग़ी के शब्दों में कहा जाय तो बाल-रचनाओं पर हाथ आज़माना कोई बच्चों का खेल नहीं है. इन्हीं भावों को अपने शब्दों में निवेदित किया अपनी प्रथम बाल-रचना से ही अपनी संवेदनशीलता का लोहा मनवाने वाले आदरणीय अरुण निगमजी ने, कि, बाल-रचनाएँ रचनाकर्म और विधा के लिहाज से कत्तई सहज नहीं हुआ करतीं. तभी तो इस बार के आयोजन में बाल-समस्या, बाल-दशा या बाल-वातावरण पर कई-कई मान्य रचनाकारों की प्रविष्टियाँ अति उच्च स्तर की रहीं मगर वे बाल-रचना की संज्ञा से ही खारिज़ हो गयीं.
इस आयोजन की महती उपलब्धि यह भी रही कि बच्चों पर हुई रचनाओं और बाल-रचनाओं के अंतर को ओबीओ के पटल पर पहली दफ़ा स्पष्टता से रेखांकित किया गया. आयोजन के दौरान सभी रचनाओं पर उदारता से अपनी बातें कहती टिप्पणियों, प्रतिक्रियाओं और यदा-कदा होती अपरिहार्य परिचर्चाओं के कारण बहुत कुछ स्पष्ट हो कर समझ में आता गया. बालकों या बालिकाओं के ऊपर या उनकी दशा पर लिखी रचनाओं का पाठक प्रबुद्ध और सचेत वयस्क होता है, न कि बच्चे. जबकि सार्थक शिशु/बाल-रचनाओं का प्रमुख पाठक बच्चा ही होता है. शिशु या बाल-रचनाएँ अपनी संप्रेषणीयता के लिहाज से बच्चों के मनस और उनके मनोविज्ञान को संतुष्ट करने के उद्येश्य को ही जीती हैं. फिर, शिशु-बच्चा-किशोर-युवा की संज्ञा पर खुल कर चर्चा हुई. शिशु की अवस्था का पाठक जो कुछ चाहता है वह बच्चे के वर्ग के पाठक की आवश्यकता से एकदम अलग होता है. जबकि कैशोर्यावस्था की पाठकीय मांग अलग ही होती है. वहीं अपनी गहरी हो रही समझ और आयु-अवस्था की आवश्यकतानुसार युवा लघु-वयस्क की तरह होता है, जिसमें वयस्कों के अपार अनुभव की अभी कमी होती है.
आयोजन के दौरान शिशु/बाल-रचनाओं के अत्यंत सफल रचनाकारों में जहाँ भाई कुमार गौरव अजीतेन्दु, भाई संदीप पटेल ’दीप’, डॉ. प्राची सिंह, आदरणीय अरुण निगमजी, भाई गणेश बाग़ीजी, आदरणीय अमिताभ त्रिपाठी प्रमुखता से स्वीकारे गये. वहीं आयोजन के दौरान अपनी परिपक्व समझ और मुखर आत्म-विश्वास से सभी सदस्यों को चौंकाया भाई बृजेश नीरज जी ने. इन सभी रचनाकारों में आदरणीया प्राचीजी की पूर्व प्रकाशित इक्का-दुक्का रचनाओं को छोड़ दिया जाय तो सभी के सभी साहित्य की इस विधा में पहली बार ही प्रयासरत हुए थे. अर्थात, इन रचनाकारों की रचनाओं की सफलता उनकी अति उन्नत संवेदनशीलता के कारण रही. इस क्रम में आदरणीया राजेश कुमारी जी तथा आदरणीय अशोक कुमार रक्तालेजी के नाम प्रमुखता से लेना चाहूँगा जिन्होंने इस विधा की रचनाओं के माध्यम से अपनी असीम रचना-संभावनाओं से मंच को आह्लादित किया. ख़ाकसार की रचना को भी पाठकों का अच्छा प्रतिसाद मिला है. इसके लिए मैं सभी पाठकों का हृदय से आभारी हूँ.
अपनी रचनाओं की विधाओं के निर्दोष अमलीकरण से मंच को चकित कर देने वालों में भाई आशीष ’सलिल’ का नाम सबसे प्रमुखता से उभर कर आता है. आपके दोहे उत्कृष्ट बाल-दोहों का अत्युत्तम उदाहरण की तरह सामने आये हैं. आदरणीया गीतिका ’वेदिका’ की उत्फुल्लता से जहाँ आयोजन का वातावरण समरस रहा, वहीं यह भी महसूस किया गया कि आपकी रचनाओं को विधाजन्य सक्षम सहयोग मिले तो उनका दायरा और उनकी पहुँच दोनों आशातीत रूप से बढ़ सकती हैं. इस क्रम में भाई राम शिरोमणि जी का निष्ठावान आचरण, उनकी गहन लगन और उनका अनथक रचना-प्रयास इस मंच पर उदाहरण सदृश है. नये रचनाकारों में आदरणीया कुन्ती मुखर्जी, भाई केवल प्रसादजी, आदरणीया ज्योर्तिमय पन्तजी, आदरणीया वन्दना तिवारीजी, आदरणीया विजया श्रीजी, आदरणीया शिखा कौशिकजी के रचना-प्रयास को सभी ने सराहा. इसके साथ-साथ आदरणीया सीमा अग्रवालजी की अहम् मौज़ूदग़ी ने माहौल को सार्थक बनाये रखा जिसके बिना आयोजन की सफलता की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी. आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवालाजी की सक्रियता तथा सकारात्मकता इस मंच की थाती है.
एक महत्वपूर्ण तथ्य जिसे साझा न किया गया तो इस रिपोर्ट की सार्थकता ही न्यून हो जायेगी, वह है, रचनाओं पर मिली टिप्पणियों और प्रतिक्रियाओं पर रचनाकारों की व्यक्तिगत सोच. इस संदर्भ में सदा-सदा से स्पष्ट किया जाता रहा है कि यह मंच मात्र ’सुनाने’ का कोई सोशल-साइट टाइप स्थान नहीं है, जहाँ अनावश्यक वाहवाहियाँ किसी उभरते रचनाकार को आत्म-मुग्धता के चरम सोपान पर जा फेंकती हैं, जो उतना ही छलावा हुआ करता है जितना कि रचनाकार का आत्म-विश्वास. इस मंच की परिपाटी रही है प्रस्तुत रचनाओं पर आवश्यक और सकारात्मक टिप्पणियाँ. ताकि एक रचनाकार अपने रचनाकर्म में हर प्रकार के उत्थान के लिए प्रयासरत हो. तदोपरान्त रचना-प्रयास को हुए लाभ के कारण उसमें अदम्य किन्तु सार्थक आत्म-विश्वास का संचरण हो. इस लिहाज से सकारात्मक ही नहीं नकारात्मक टिप्पणियों का महत्व भी बहुगुणा हो जाता है.
इस आयोजन में भी पूर्व के आयोजनों की तरह कई रचनाकार अपनी प्रविष्टियाँ डाल कर दुबारा देखने तक नहीं आये कि उन प्रस्तुतियों का सचेत पाठकों की दृष्टि में स्थान क्या रहा. आदरणीया सरोज गुप्ता जी ने उपयुक्त अंतराल पर दो रचनायें प्रस्तुत कीं. लेकिन यह भी देखना उचित नहीं समझा कि उन रचनाओं का हश्र क्या हुआ. आपकी दोनों रचनाएँ गलत स्थान पर पोस्ट हुईं, जिसमें से एक रचना को बलात् डिलीट तक करना पड़ा. आदरणीय अमिताभ त्रिपाठी जी की रचना तो लगभग सभी सदस्यों-पाठकों से भूरिशः बधाइयों की हक़दार रही, लेकिन आप अपनी व्यस्तता के मद्देनज़र दुबारा नमूदार तक नहीं हो पाये. इस आयोजन में बाल-रचना की विधा पर आपकी रचना भी आपका प्रथम प्रयास ही थी. कई रचनाकार अपनी अभी तक की आदत के अनुसार रचना प्रस्तुत करते तो हैं लेकिन उन पर मिली सलाहों को अपनी जानी-अनजानी सीमाओं के कारण अमल नहीं पाते. कारण यह होता है, उनकी रचनाओं में दीखता महीनों पुराना विधाजन्य दोष आजतक बना हुआ है. इस रचनाकर्म का क्या उद्येश्य है यह ख़ाकसार की समझ से कत्तई बाहर है.
रचनाकारों को यह अवश्य मानना होगा कि रचनाकर्म मनस रंजन मात्र न होकर एक अति महत्वपूर्ण सामाजिक दायित्व भी है. एक रचनाकार अपनी संवेदनशीलता और तथ्यों को परख लेने की अपनी नैसर्गिक तथा विशेष शक्ति के कारण सामान्य जन से विशिष्ट हुआ करता है. इस विशिष्टता को रचनाकार जाया न जाने दें.
कुल मिला कर एक सफल आयोजन के बाद जिसमें नये प्रतिभागियों की संख्या आनुपातिक रूप से अधिक रही, हम अधिक आत्मविश्वासी हुए हैं. किन्तु समय की मांग यही है कि अपने उद्येश्य और अपनाये गये कार्य के प्रति श्रद्धानत हो कर पुनः रचनाकर्म और नये आयोजन के लिए जुट जायँ.
नये आयोजन में पुनः इसी ऊर्जस्विता और तार्किकता के साथ पुनः भेंट होगी. अस्तु.. .
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आदरणीय सौरभजी सादर प्रणाम, इस रपट पर देरी से अपनी प्रतिक्रिया के लिए क्षमा चाहता हूँ. शिशु गीत पर आधारित ओ बी ओ महा उत्सव अंक -३० की आशातीत सफलता के लिए बहुत बहुत बधाई. इसी सन्दर्भ में आपके विचार एवं आयोजन की विस्तृत एवं सारगर्भित समीक्षा करती तथ्य सम्यक रपट पढ़कर मन को बहुत ही सुकून मिला अतएव आपका आभारी हूँ.
आदरणीय भाई सत्यनारायण जी, आपको रिपोर्ट का कथ्य सटीक लगा तो यह सभी सदस्यों की भागीदारी का ही नतीज़ा है.
सहयोग बना रहे.
सादर
आपका स्नेह और शुभकामनाएँ बनी रहें, आदरणीय अजय शर्माजी.
रचनाकर्म पर प्रयास निरंतर हो.
सादर
आदरणीय सौरभ सर, इस रपट के तारतम्य में साझा हुई बातों को मनन करने की कितनी ज्यादा आवश्यकता है, उनकी वर्तमान में भी कितनी प्रासंगिकता है, ये कहने की जरुरत नहीं है. बस नव हस्ताक्षरों के मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार आपका.
आदरणीय सौरभ जी , अपनी प्रासंगिकता के कारण 2013 की यह रिपोर्ट फिर से नुमयान्हुयी. तब मैं ओ बी ओ का सदस्य भी नहीं था . लेख के आरम्भिक कथन में जो बाते कही गयी है वह चौंकाने वाली हो सकती हैं पर आज का यथार्थ वही है . बड़े मनोयोग से लिखेगाये इस लेख से कई महत्वपूर्ण जानकारिया मिलती हैं . खेद है की मैं अपनी व्यस्त्तताओं के कारण ओ बी ओ का पूरा लाभ नहीं ले पा रहा .इसलिये भगोड़ों में मेरी शुमार भी होती होगी पर सत्य यही है कि ओ बी ओ मेरी प्रतिबद्धता है . इस सुन्दर आलेख के लिए आपको अभिनन्दन . सादर .
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