आदरणीय साथिओ,
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अच्छी लघुकथा है आ. मनन जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
बहुत बहुत बधाई आद० मनन कुमार जी
हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार जी ।सुंदर लघुकथा।
गाँधी अभी जिंदा है
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रात के सन्नाटे को रौंदती हुईं भारी फौजी बूटों की डरावनी आवाज़ें ज्यों ज्यों पास आ रही थीं त्यों त्यों उन तीनो की साँसें रुक रुक जा रही थींI आवाजें खामोश हुईं तो दरवाज़े को जोर जोर से पीटते हुए एक कर्कश स्वर गूंजा:
“दरवाज़ा खोलो!”
वे जड़वत बैठे एक दूसरे को देख रहे थे. लेकिन दरवाज़ा फौजी चोट बर्दाश्त न कर सका और अचानक भड़भडाकर खुल गया. अंदर घुसते ही भय से कांपते वृद्ध दम्पत्ति के पीछे खड़े एक किशोर लड़के को देखकर फौजी अफसर ने माथे पर पट्टी बंधे हुए एक जवान से पूछा:
“क्या यही है वो?”
“जी! वही है सर येI” टॉर्च की रौशनी उसके चेहरे पर फेंकते हुए घायल जवान चिल्लाया: “उधर क्या दुबका बैठा है? बाहर निकल साले सूअर!”
“इसे माफ़ कर दो साहब, ये ऐसा लड़का नहीं है.” किशोर को कसकर अपने साथ लगते हुए हुए वृद्धा गिड़गिड़ाई.
“इसे बाहर ले जाकर बताते हैं कि फ़ौज पर पत्थर बरसाने वालों का क्या हश्र होता है.” एक अन्य उग्र जवान किशोर को पकड़ने के लिए आगे बढ़ा. अफसर ने हाथ के इशारे से जवान को रुकने का आदेश देते हुए कहा:
“ठहरो.”
अफसर ने पास जाकर डर से कांपते हुए उस युवक की उस किशोर के चेहरे पर नज़रें गड़ाते हुए पूछा:
“क्या नाम है तेरा?”
“गलती हो गई साहिब, आइन्दा ऐसा काम नहीं करूंगा.” किशोर सूखे पत्ते की तरह काँप रहा था.
“नाम बता अपना.” अफसर ने सख्त स्वर ने कहा.
“जी इसका नाम रौशन है.” वृद्ध ने हाथ जोड़ कर उत्तर दिया.
“और तुम लोग?”
“जी हम इस यतीम के दादा दादी हैं.”
“क्या काम करता है तू?” युवक को संबोधित करते हुए अफसर ने पूछा.
“जी, ग्यारहवीं क्लास में पढता हूँ.” गले का थूक निगलते हुए उसने उत्तर दिया.
“तुझे पता है न कि फौजिओं पर हमला करना संगीन अपराध है?” अफसर का स्वर इस बार थोडा नर्म था.
“जी, पहली बार ऐसी गलती हुई! वो लड़के ज़बरदस्ती धमका कर साथ ले गये थे.”
“अगर अभी तुझे गोली मार दें, तो सोचा है तेरे दादा दादी का क्या होगा?”
“नहीं नही साहिब! ये गज़ब मत करनाI हम कल ही इसे इसके मामू के पास दिल्ली भेज देंगे.”
“क्या करता है इसका मामू?”
“जी कॉलेज में प्रोफ़ेसर है.”
“ठीक है बाबा, इसे जितनी जल्दी हो सके दिल्ली के लिए रवाना कर दो. अगर ये दोबारा यहाँ दिखाई दिया तो..” अपनी बंदूक की नली उसकी तरफ करते हुए अफसर ने कहा. फिर जवानों को आदेश दिया: “चलो यहाँ से सब!”
दरवाज़े के बाहर पाँव रखते ही उस घायल जवान ने नाराज़गी व आश्चर्य भरे स्वर में पूछा:
“सर! आपने इस सपोले को जिंदा क्यों छोड़ दिया?”
पीछे मुड़कर उस किशोर की तरफ देखते हुए अफसर ने भावुक स्वर में उत्तर दिया:
“यार! मेरे भतीजे का नाम भी रौशन है और उसके बाल भी इसकी तरह ही घुंघराले हैं."
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(मौलिक और अप्रकाशित)
उत्साहवर्धन हेतु बहुत बहुत शुक्रिया भाई सुरेन्द नाथ सिंह जी.
आदरणीय सर पिछली एक कथा की तरह यह कथा भी दिल के करीब की लग रही है, जैसे इसके पीछे भी कोई कहानी है, पिछली बार एक कथा में आपके जीवन के तीन घटनाओं को आपने एक कथा में पिरो दिया था, इस बार की यह कथा भी कुछ वैसी ही प्रतीत हो रही है,क्या ऐसा कुछ सच में हुआ है या यह मेरा भ्रम है? क्या आप बताएँगे इस कथा के पीछे का राज़? सादर|
आ० कल्पना भट्ट जी, आप भी पता नहीं कहाँ-कहाँ से ऐसे प्रश्न खोद-खोद कर ले आती हैं. मगर सच तो यही है कि इस लघुकथा की प्रेरणा भी एक सच्ची घटना और एक आलेख से मिली है. दरअसल, बहुत वर्ष पहले मेरे पिता जी बाज़ार से गुज़र रहे थे कि पीछे से आ रहे एक मोटरसाइकिल नवयुवक ने उन्हें टक्कर मार दी. पिता जी गिर गए और उन्हें काफी चोटें लगीं. यह घटना देखकर दुकानदारों ने उस युवक को पकड़ लिया जो घटना के बाद वहां से भागने की फिराक में था. उग्र भीड़ उसकी सुताई करने को ही थी कि पिता जी ने अपनी चोटों की परवाह न करते हुए उन्हें कहा कि “इसको मत मारो”. यह सुनकर एक आदमी ने पिता जी से कहा: “बाऊ जी! कमाल करते हो आप भी, इसने आपको टक्कर मारी और इसे बख्श क्यों रहे हो?” तो पिता जी ने उस युवक की तरफ देखते हुए उत्तर दिया: “क्योंकि इसके बाल भी मेरे बेटे योगी की तरह घुंघराले हैं." बाद में घर पर उन्होंने बताया कि उसका मोटरसाइकिल भी मेरे मोटरसाइकिल जैसा लाल रंग का ही था.
इसके इलावा, बहुत साल पहले मैंने सुकेश साहनी जी का एक आलेख पढ़ा था कि घटना से लघुकथा कैसे बनाई जाए. हालाकि इस लघुकथा और पिता जी के एक्सीडेंट वाली घटना में ज़मीन आसमान का अंतर है, लेकिन केन्द्रीय भाव बिलकुल बिलकुल वही रहा. बस ये दोनों बातें मेरे ज़ेहन में थीं तो किसी तरह यह टूटी-फूटी लघुकथा बन गई.
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