सुधीजनो,
दिनांक – 11 जून’ 13 को सम्पन्न हुए ओबीओ लाइव महा-उत्सव के अंक -32 की समस्त स्वीकृत रचनाएँ संकलित कर ली गयी हैं. सद्यः समाप्त हुए इस आयोजन हेतु आमंत्रित रचनाओं के लिए शीर्षक “पाखण्ड” था.
यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस पूर्णतः सफल आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.
सादर
डॉ. प्राची सिंह
संचालक
ओबीओ लाइव महा-उत्सव
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1.श्री सौरभ पाण्डेय जी
पहली दफ़ा जब मिले थे
दसेक साल के दो ठोले से
गब्दू मिले थे
उत्फुल्ल निर्द्वंद्व
अभिव्यक्त पारदर्शियों से.. .
आँखों में फूल
सपनों के मकरंद
खुद को खुद से खोलते हुए पँखुड़ियों से
प्रच्छन्नता की तटस्थता में फिर
बहुत कुछ बह गया--
समय
साथ
भाव.. .
दूसरी दफ़ा मिले
चालीसेक साल के _______
(जो कह लें)
दोनों वयस्क
दोनों क्लिष्ट
परस्पर तौलते ताड़ते आँकते परखते हुए से
खुद को खुद ही से बंद करते हुए से
आँखों के फूल / पुलक कर
फल न बन सके
कबके सड़ चुके थे
निर्वीर्यता जिनकी
सपने नहीं जनती अब..
अलबत्ता जीवन की निरंकुश रेह में
अपेक्षाओ के ढूह पर पाखण्ड पाथती है
अपने हिस्से के वृतों को
भरसक सार्थक रखने के लिए.. .
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2. श्री अरुण कुमार निगम जी
कुण्डलिया छंद
पाखण्डी पाखण्ड से , कभी न आयें बाज
पहन मुखौटे लूटते , सर पर साजे ताज
सर पर साजे ताज,मिली शह राजाओं की
कटती चाँदी नित्य, यहाँ पर आकाओं की
भयाक्रांत कर खूब , चलाते अपनी मण्डी
करते हैं गुमराह , हमेशा ये पाखण्डी ||
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3. श्री सुशील जोशी जी
मैच फिक्सिंग
पाखण्ड का दौर चला, देखो हर ओर चला,
बच पाया वो भी ना जो, सदियों सँभाला है।
इज्ज़त है तार तार, हर कोई दाग़दार,
क्रिकेट में आया नया, फिक्सिंग घोटाला है।
डोरियों में बँधी जान, जैसे देश की कमान,
सट्टेबाज़ों ने बनाया, खेल को निराला है।
नज़रें हैं जाँच पर, आएगी ना आँच पर,
कमेटी की आँख पर, मोतिया का जाला है।
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4. श्री वीनस केशरी जी
ग़ज़ल
पूछ मत क्यों फूल पत्थर हो गए
मान ले, हालात बेहतर हो गए
प्यास की चर्चा न उनसे कीजिये
वो जो दरया थे समंदर हो गए
कल तलक जो लोग रेशम थे, सभी
एक दिन में कैसे खद्दर हो गए
लोग क्यों हैरान हैं जो हम भी अब
दफअतन सब के बराबर हो गए
पीटते हैं सर, जो अब तक फूल हैं
मुस्कुराते हैं जो खंज़र हो गए
आप नैतिकता को ले कर चाटिए
सब के सब बाबू, कलेक्टर हो गए
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5. सुश्री कल्पना रामानी जी
गज़ल
पाप गठरी सिर धरे, गंगा नहाने आ गए।
जन्म भर का मैल, सलिला में मिलाने आ गए।
ये छिपे रुस्तम कहाते, देश के हैं सभ्य जन,
सात पीढ़ी तारने, माँ को मनाने आ गए।
मन चढ़ी कालिख, वसन तन धर धवल बगुले भगत,
मंदिरों में राम धुन के गीत गाने आ गए।
रक्त से निर्दोष के, घर बाग सींचे उम्र भर,
रामनामी ओढ़ अब, छींटे छुड़ाने आ गए।
चंद सिक्कों के लिए, बेचा किए अपना ज़मीर,
चंद सिक्के भीख दे, दानी कहाने आ गए।
लूटकर धन धान्य घट, भरते रहे ताज़िन्दगी,
गंग तीरे धर्म का, लंगर चलाने आ गए।
इन परम पाखंडियों को, दो सुमत भागीरथी,
दोष अर्पण कर तुझे, जो मोक्ष पाने आ गए।
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6. श्री अशोक कुमार रक्ताले जी
(1)
मन में विष के दंत सा, चुभता है पाखंड,
सीधे सच्चे सरल जन, पाते हैं बस दंड,
पाते हैं बस दंड, झूठ जो नहीं बोलते,
दुर्जन करे घमंड, सदा ही झूठ बोलके,
लग जाती है आग, सब ही के तन बदन में,
चुभते विष के दंत, सदा ही निर्मल मन में ||
नेताजी का प्यार ज्यों, होता है पाखण्ड,
जैसे कामी चोर मन, दिखता पाकर दंड,
दिखता पाकर दंड, भरा था क्या अंतर में,
ऐसा ही पाखण्ड, देख लो हर दफ्तर में,
रिश्वत बिन इक काम, नहीं अब क्यूँ होता जी,
अफसर है सब भ्रष्ट, और हैं सब नेता जी ||
(2)कुछ हाइकु
बोलते लब,
सत्य ! सदा ही सत्य,
पाखण्ड सब !
.............
पा लिया रब,
संग-संग चलेंगे,
पाखण्ड सब !
.............
श्रेष्ठ चाहत.
इश्वर खुदा रब,
पाखण्ड सब !
..............
वादा है अब,
कहना भूल जाना,
पाखंड सब !
................
पवित्र नाते !
शोहर बीबी बच्चे,
पाखण्ड सब !
.............
जागोगे कब?
रोज ही आन्दोलन,
पाखण्ड सब !
..............
जाने दो अब,
राजनीति के खेल,
पाखण्ड सब !
.............
गिडगिडाना,
हरदम बहाना,
पाखंड सब !
..............
चोर-पुलिस,
नदिया के किनारे,
पाखंड सब !
..............
दूर के ढोल,
अंतर्जाल के दोस्त,
पाखंड सब !
.............
क्या कहें अब !
सूर्योदय सूर्यास्त,
पाखंड सब !
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7. श्री आबिद अली मंसूरी जी
ग़ज़ल
ऐसे भी सितम अब तो ढाने लगे हैँ लोग,
देकर जख्म दिल को मुस्कुराने लगे हैँ लोग!
चलने लगी हैँ जबसे अदाबत की आंधियाँ,
दीवार नफरतोँ की बनाने लगे हैँ लोग!
अपना है होश न दूसरोँ की है खबर,
उजाले के लिए घर जलाने लगे हैँ लोग!
हो गये बुलंद हौसले जालिम के इसलिए,
सर जुल्म के आगे झुकाने लगे हैँ लोग!
दुश्मन है कौन यहां दोस्त की पहचान नहीँ,
गोलियां फरेब की जबसे चलाने लगे हैँ लोग!
कायम हुये हैँ ऐसे यह ताअस्सुब के सिलसिले,
कभी मस्जिद तो कभी मन्दिर गिराने लगे हैँ लोग!
मिटने लगी है दिल से मोहब्बत की रोशनी,
सियासत के जाल जबसे बिछाने लगे हैँ लोग!
साहिल को यकीँ था समन्दर पे इसलिए,
कश्तियां खुद भी तो 'आबिद' डुबाने लगे हैँ लोग!
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8. श्री लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला जी
(1)
पहन मुखौटा घूमते, आया पास चुनाव,
खेती बो विश्वास की, तापे खूब अलाव ।
छलियाँ बनकर लूटने, करे प्रेम की बात,
सबकी बाते मानते, दिन हो चाहे रात ।
मीठा मंतर मारते, मन में रखते खोट,
बंजर को उर्वर कहे, लेने इनको वोट ।
पाखण्डी कुछ आ गए, देख हमारे गाँव,
आकर लूटे कारवाँ, बोझिल से है पाँव ।
छल-प्रपंच से पा रहे, जनता का विश्वास,
जागरूक जनता हुई, आया होश हवास ।
(2) कुंडलिया छंद
पाखंडी पाखण्ड का, रखे न कोई लेख
सट्टे के बाजार में, लेखा जोखा देख ।
लेखा जोखा देख, खोगए कितने सपने
कौन बना सरताज,बचे है कितने अपने
हो ना तुम गुमराह, देख पलड़े की डंडी
चांदी काटे नित्य, हरबार ये पाखंडी ।
लूट रहे हो नित्य ही,मानो वे पाखण्ड
पहन मुखोटा घूमते, रहे न मान अखंड ।
रहे न मान अखंड, सभी को छलते रहते
मौके की रख ताक, मिले जो लेते रहते
नहीं धर्म ईमान, सद्भाव में ठूठ रहे
इनकी कर पहचान,देश को ये लूट रहे |
(3)
हन मुखौटा आया मारीच, स्वर्णमृग रूप धरा छलने को
रावण आया साधू बनकर, ले गया हरणकर माँ सीता को
वात्सल्यमयी माँ बनी पूतना,विषपान कराने मोहन को
इतिहास भरा है इन कृत्यों से,पहन मुखौटा हरते जन को
खण्ड खण्ड हो रही पवित्रता, पाखण्डी के कृत्यों से
संभलकर रहना अपने घर में,छुपे हुए गद्दारों से ।
कौन छलेगा किसको कैसे, इसका भान नहीं होता
ओढ़े कौन मुखोटा किसका,यह भी ज्ञात नहीं होता ।
रिश्ते में भाई बन जाते, फिर छलते दुष्कर्मी बनकर
अपनेपन का भाव दिखाकर, लूट रहे सब झांसा देकर ।
भाई भाई का स्वर गूंजता, इन पाखण्डी नारों से
संभल कर रहना अपने घर में,छुपे हुए गद्दारों से ।
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9. श्री अरुण शर्मा अनन्त जी
लोभी पहने देखिये, पाखण्डी परिधान ।
चिकनी चुपड़ी बात में, आता है नादान ।।
नित पाखण्डी खेलता, तंत्र मंत्र का खेल ।
अपनी गाड़ी रुक गई, इनकी दौड़ी रेल ।।
पंडित बाबा मौलवी, जोगी नेता नाम ।
पाखण्डी ये लोग हैं, धोखा इनका काम ।।
मिलेगा बच्चा मांग ले, आया है दरबार ।
भेंट चढ़ा दे प्रेम से, खुश होगा परिवार ।।
होते पाखंडी सभी, बड़े पैंतरे बाज ।
धीरे धीरे हो रहा, इनका बड़ा समाज ।।
हींग लगे न फिटकरी, धंधा भाये खूब ।
इनकी चांदी हो गई, निर्धन जाता डूब ।।
ठग बैठा पोशाक में, बना महात्मा संत ।
अपनी झोली भर रहा, कर दूजे का अंत ।।
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10. सुश्री गीतिका वेदिका जी
(1)
तेली बाबा की महिमा प्रचंड हरे!
जय जय जय पाखंड हरे !
छल बल बुद्धि तीन तिगाड़
पत्थर लाये एक जुगाड़
शनिवार की चुनकर शाम
भजते कृष्णा भजते राम
छल बुद्धि बल का देखो मेल
खूब लपेटा चिकना तेल
संग सजाये पत्ते चार
लगी कथा फिर बीच बाज़ार
छुरी छुपा ले लाये है मुष्टंड हरे
जय जय जय पाखंड हरे !
रामखिलावन सुधिनाथ संग
बजरंगी ने ले काला रंग
इक मडिया डाली चौरस्ता
दुःख काटेंगे सबसे सस्ता
केवल तेल चढ़ाना होगा
हर पुन्न्म को आना होगा
हर मावस को पांच नारियल
फिर तेली बाबा देगा फल
फट से जुगड़ा फंड हरे
जय जय जय पाखंड हरे!
लाख चाहिए दस हजार दो
भक्तो निज जीवन संवार लो
पत्नी चंगुल में आएगी
प्रेमिका वश हो जाएगी
मूठकरनी ग्यारह सौ केवल
छिंटो उस पे अभिमंत्रित जल
धन पडोस का तुम पाओगे
नगद चढ़ावा जो लाओगे
पुत्री न, हाँ पुत्र मिलेगा
तेली बाबा तुम्हे फलेगा
दुश्मन भी चित हो जायेगा
वह आतंकित हो जायेगा
तय है उसका बीस हजार
सब दुःख काटो, कटे उधार
हर दुखों के अपने रेट
नकद करो बाबा को भेंट
अगर नही विश्वास भगत
तेली बाबा की ताकत
जो शंका करने बैठे
तो तेली बाबा रूठे
तुम्हे मिलेगा दंड हरे
जय जय जय पाखंड हरे!
(2)बाद शादी के
निभाया खूब दम भर कर
परन्तु अपेक्षा न पूर्ण कर पाई
किसी की भी
रोज ही खामी निकाले
अरे इतना अधिक खाना
खाती मुफ्त का तू यहाँ
रोज ही प्रताड़ना
रोज ही नई चाहना
रोज ही नाम लेके बाप माई का
बताना की गरीबी की पली है तू
वे तो हम लोग अच्छे है
की कोई और होता तो
तुझे पहुंचा दिया होता
वापिस ही तेरे घर
या फिर खुदा के घर
किया मन माई-घर चल दूँ
तजूं अपना-पराया घर
तब ही कुछ जहन में आया
जहाँ डोली गयी
अर्थी वही से हो
तब ही तुझको कहेंगे खानदानी सब
यही बोला विदा में था
पिता ने माई ने काका ने काकी ने
न जाने सोच कर क्या फिर
निहारा आसमां उसने
गुजारी रात भर के आह
सुबह भी आखिरी ही थी
नही कोई भी अनुभूति
नही कोई भी पीड़ा अब
ख़त्म अब देह का पाखंड
हाँ वो सच खानदानी थी
११.सुश्री महिमा श्री जी
पाखण्ड का नकाब
पहने हैं सब जनाब
सब मानते हैं
दुनिया है रंगमंच
तो क्यूँ ना पहने
रंग- बिरंगे मुखौटे
और करे नित्य प्रपंच
धर्म तो है बहाना
पाखण्ड का बुन ताना- बाना
बनाते स्वर्ग –नर्क के मापदंड
फिर खोलते धर्म की दूकान
भले कोई भी हो नाम
सबका एक ही है काम
सजाये स्वर्ग –नर्क के द्वार
और भरमाते दिखा के
पाप- पुण्य , दंड के कई विधान
फंसे जिसमे आमजन तमाम
मार्केटिंग होती जबर्रदस्त
होते रेट अलग-अलग
सिक्के खन्न खन्नाओ
हरे नोट बिछाओ
आडम्बर खूब फैलाओ
धुप –बत्ती की मधुर सुगंध
जो कर दे तुम्हे मलंग
औ फिर दिख जाए स्वर्ग के द्वार
गर नहीं है कर सकते जेब गर्म
तो बस समझ लो भईया
खुले है नर्क के द्वार
नहीं कोई कर सकता
तुम्हारा उद्धार... ...
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12. सुश्री शिखा कौशिक जी
इन्द्रधनुष मुल्क मेरा हो गया बेरंग ,
दिख रहा चहुँ ओर बस पाखंड ही पाखंड !
मोह माया छोड़ दो जो दे रहे उपदेश ,
लाखों का दान लेने में उनको न शर्म लेश ,
संन्यास में विलास की उड़ा रहे पतंग !
दिख रहा चहुँ ओर बस पाखंड ही पाखंड !
कन्या भ्रूण नष्ट जो कर देते कोख में ,
पूजते देवी को नौ दिन वे ही लोभ में ,
इस पाप में पिता ही क्या माता भी संग संग !
दिख रहा चहुँ ओर बस पाखंड ही पाखंड !
जो वोट मांगते हैं हमसे हाथ जोड़कर,
हाथ काट देते हैं चुनाव जीतकर ,
नेता हुए गद्दार विश्वास खंड खंड !
दिख रहा चहुँ ओर बस पाखंड ही पाखंड !
माता पिता के वास्ते जिन पर नहीं है वक्त ,
मेल -चैटिंग में रहे मस्त होकर व्यस्त ,
परिवार में लिहाज़ के बिगड़ गए हैं ढंग !
दिख रहा चहुँ ओर बस पाखंड ही पाखंड !
गोद खेल जिसकी हुए आज हम बड़े ,
वंदन न उसका करने को हो लिए खड़े ,
औलाद नहीं आस्तीन के बने भुजंग !
दिख रहा चहुँ ओर बस पाखंड ही पाखंड !
(2)प्रेम का पाखण्ड
नारी के उर से खेल कर पा रहा आनंद
सदियों से कर रहा पुरुष प्रेम का पाखंड !
भोली प्रिया न जानती पुरुष के दांव -पेंच ,
सर्वस्व अर्पित कर रही रागिनी अचेत ,
भावनाओं में बही लुटा रही सुगंध !
सदियों से कर रहा पुरुष प्रेम का पाखंड !
छल कपट से मोह रहा नारी का ये ह्रदय ,
लक्ष्य देह की प्राप्ति किंचित न इसको भय ,
शकुन्तला को भूल जाते ये छली दुष्यंत !
सदियों से कर रहा पुरुष प्रेम का पाखंड !
शुचिता प्रमाण का दिया श्रीराम ने आदेश ,
चीखता सिया का उर सुन प्रभु -निर्देश ,
चौदह बरस काँटों पे चली इन्ही राम संग !
सदियों से कर रहा पुरुष प्रेम का पाखंड !
पुरुष ही जानते रहे पुरुष ह्रदय के भेद ,
विश्वामित्र के लिए मेनका दी भेज ,
नारी देहास्त्र से करवाते तप ये भंग !
सदियों से कर रहा पुरुष प्रेम का पाखंड !
छली गयी नारी स्वयं को देती स्वयं दंड ,
आत्महत्या कर मिटी आहत न पुरुष दंभ ,
उलझा हुआ ये जाल है न अंत न आरम्भ !
सदियों से कर रहा पुरुष प्रेम का पाखंड !
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13. श्री सत्यनारायण शिवराम सिंह जी
(1)
पाखंडी जीवन सदा, होकर भ्रमित निराश।
सदा सत्य की आड़ में, सुख की करे तलाश।।
सुख की करे तलाश, हांकता डींगें भारी।
कस आडम्बर फांस, फांसता दुनिया सारी।।
कहे सत्य कविराय, जगत है सुन्दर मंडी।
जीवन के हर भाव, समझ लूटें पाखंडी।।
(2)
जीना भी पाखंड इक, मरना भी पाखंड।
हर सांसों में पल रहा, जिसके सुन पाखंड।।
जिसके सुन पाखंड, बात मीठी वह करता।
चन्दन टीका भाल, नित पाखंड ही रचता।।
कहे सत्य कविराय, फुलाकर चलता सीना।
पाखंडी पहचान, दंभ मय जिसका जीना।।
(3)मनहरण घनाक्षरी
गलियों चौराहों पर, रेल बस लोकल में।
ढोंगी बाबाओं के लगे, विज्ञापन भारी हैं।।
सारा मीडिया जगत, आज गुणगान करे।
चमत्कारी बाबाओं की, लीला बड़ी न्यारी है।।
तंत्र मंत्र के सहारे, चंगाई का दावा करें।
धर्म की दूकानदारी, सरेआम जारी है।।
प्रभु का कृपा प्रसाद, आज इनसे ही मिले।
मानो कृपा बाँटने की, पायी ठेकेदारी है।।
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14. श्री राम शिरोमणी पाठक जी
(1)
भव्य स्वागत हो रहा था ,
जेल से छूटकर आये थे !
एक साल पहले ही ,
एक सज्जन को मार गिराए थे !!
इतनी बड़ी भीड़,
इतना बड़ा काफिला!
अनुमान लगाइये आप,
अंगुली का न रहा फासला !!
जब देने जगे भाषण,
उपलब्धि अपनी गिनाने लगे!
उनके अपने ही चमचे फिर,
खुश होकर ताली बजाने लगे !!
विकास किसे कहते है,
जीवंत करके दिखाउंगा!
गरीब हो या आमीर,
मै सबको उंचा उठाउंगा !!
मै गरीबों का नेता हूँ,
किसीसे भी डरता नहीं !
भरोसा रखें आप,
झूठे वादे करता नहीं !!
पांच साल पहले भी,
ऐसा ही आश्वासन दिया था!
विकाश की तो बात छोडो ,
दर्शन तक नहीं दिया था !!
(2)
टूटी चप्पल पहन टहले गाव में
आज पांच हजार का जूता
इन्हे सस्ता लग रहा है ///१
आज अपने ही बेटे ने
गाली दे दी मुझे
अब याद आया
काश !
बेटी को गर्भ में ना मारा होता ///२
तुम बदले
हम भी बदले
क्यूँ? पता है
हमारे बीच
पाखंड की दीवार जो ठहरी ///३
अहंकार बेईमानी बेशर्मी
का कुहासा व्याप्त है
फिर भी कहते है
रवि की किरणे देखो ///४
(3)
निर्मल बाबा नाम है ,मन में रखते मैल!
खुद को समझे लोमड़ी ,बाकी सब है बैल !!
बाहर से सुन्दर दिखें, भीतर मैला अंग।
असुर जैसा बदल रहे , भांति भांति से रंग।!
बोलबचन भौकाल से,छाप रहे है नोट,
पाखंडी लड्डू चखें , जनता चाटे होठ ।!
संसद हो या सड़क हो,लूट मची चहुँ ओर!
अब तो देश चला रहे , कातिल-डाकू-चोर।!
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15. श्री विजय निकोर जी
अंतर्द्वंद्व
कितने बर्फ़ीले दर्द दिल में छिपाए,
किसी एक गहरी गुफ़ा में उनको दबाए,
तुम्हारे सम्मुख आते ही हर बार
मैं हँस देता हूँ, हँसता चला जाता हूँ।
स्वयं को, तुमको
छलता चला जाता हूँ,
और तुम भी मेरी हर हँसी में
हँस देती हो नादान-सी
मेरे इस मुखौटे से अनभिज्ञ
कि अपने सुनसान अकेलों में
मैं वही नहीं हूँ।
बिंधती गहरी कोई आंतरिक वेदना मेरी
घसीट ले जाती है मुझको, और छोड़ आती है
उलझे विचारों के उस पहाड़ की उस चोटी पर
जहाँ वेदना की मटियाली धुंध में खड़े हुए,
किसी भी दिशा में मुझको
अंतर्द्वंद्व के धुंए के सिवा
कहीं कुछ और नहीं दिखता।
वहाँ उस चोटी पर खड़ा, असहाय-सा,
मैं करता हूँ दर्द से दर्द की बातें,
उसे सहलाता हूँ, संवारता हूँ, और
अनेकों मानसिक अदृश्य सूत्रों में ढूँढता हूँ
उस दर्द का आदि और उस दर्द का अंत,
और उस गहन आतंक में आतंकित,
उस समय सभी कुछ कांपता है मेरे भीतर ...
पर एक रमणीय मनोहर कोमल कमल-फूल
तुम्हारे निश्छल स्नेह का रहता है विकसित
मेरी सूक्ष्मतम मानवीय सम्भावनाओं को
वह रखता है सुगंधित,
और अलौकिक विश्वास के सुदॄढ़ कंधे पर
वह ले आता है वापस
मेरी आत्मा को तुम्हारी आत्मा के पास, और
असामान्य में सामान्य का मुखौटा ओढ़े
तुम्हारी उपस्थिति की महक में
मैं हँसता हूँ, तुम हँसती हो,
हम दोनों हँसते चले जाते हैं।
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16. श्री बृजेश नीरज जी
(1)जीवन
गली के आखिरी छोर पर
एक जर्जर मकान
और एक बुढ़िया।
एक होड़
कौन टिकता है देर तक।
देह का सिकुड़ता आवरण
और दीवार पर गहराती दरारें
चुनौती सी समय को।
दीवारों की
उखड़ी पपड़ियों ने
कई आकृतियां उकेरीं
चांद, सूरज, हाथी, घोड़े, कार
जो तन्हाई में मुंह बिराते हैं।
सीलन, पसीना और
बजबजाती नालियां
एक अजब गंध
वातावरण में।
हवा कतराती है
इधर गुजरने से
कभी आ जाता है
कोई झोंका
आंधियां दौड़ती हैं
दूर जब
रेलगाड़ी जैसी।
यहां तक पहुंचते
छीज जाती है किरन।
चांदनी ठिठकी सी
मंडराती है मोड़ पर।
रोटी पाथते कंपकंपाते हाथों को
चांद का आभास भर है।
आंखों की सूखी परतो में
कोई सपना शेष नहीं
फिर भी बारती हैं
रौशनी के पाखण्ड के लिए
देहरी पर दिया
जो टिमटिमाता है
किसी अनजानी आशा में।
(2)हम
अपनी प्रच्छन्नता में जीते
हम
छिछली आहों का पाखण्ड
फैलाए चारों तरफ
बहुत गहरे में कहीं
चोट के लिए
छिपाए खंजर
तैयार हैं
वार के लिए।
तभी
संवेदना के
लिजलिजाते बीजों से
उगे कुछेक फूल
पंखुड़ियां खोलते नहीं
बास देते
झड़ जाते हैं।
उथले भावों के ठूंठ
दरकने लगे
आसपास जमा होती
रेह और फफूंद के बीच।
शरीर पर उग आए
कैक्टस से
बेपरवाह
कायर दिमाग ने
फैला रखी हैं
उंगलियां दूसरों की तरफ।
आसन्न आहटों से
चैकन्ने
बंद किवाड़ों पर
दस्तक टालते, बचते
भागते जा रहे हैं
क्षितिज की ओर
जो खिसकता जा रहा
दूर और दूर।
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17 .सुश्री राजेश कुमारी जी
(1)
नस नस में
टीस रही दरारे
नैना बरसे
पर नहीं बरसे
पाखंडी तुम
व्यथित चित्त
सीली सीली दीवारें
निशा पिघले
पर नहीं पिघले
पाखंडी तुम
अग्नि समक्ष
भरे सात वचन
कहाँ बदले
पर बदल गए
पाखंडी तुम
मैं बनी मीन
रिश्तों की ग्रंथियों
में फंसी रही
केवल मुक्त हुए
पाखंडी तुम
(2)कुण्डलिया
कभी झुका न क्षीण हुआ,मस्तक अडिग अखंड
बही पीर आहत हुआ , भेद गया पाखण्ड
भेद गया पाखण्ड, स्वर्ण मृग बनके आया
हुई सिया आसक्त , छद्म रूप ने रिझाया
प्रतिशोधी सैलाब ,रक्त का ना रुका तभी
स्वाभिमानी शिखण्ड ,युद्ध से क्या झुका कभी
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18. सुश्री सरिता भाटिया जी
(1)
हाइकु
नारी की रक्षा
सरकारी पाखंड
रहो सचेत
चुनावी साल
नित नई योजना
पाखंडी नेता
भूखी जनता
अन्न श्री योजनाएं
सिर्फ पाखंड
आई पी एल
पाखंडी हैं अध्यक्ष
कुर्सी ना छोड़ें
नक्सलवादी
खुद बनाए जाएँ
आतंकवादी
पाखण्ड देखो
कांग्रेसी जो शहीद
लगें कीमती
पाखंड जानो
दुश्मन काटे सर
क्यों देशद्रोही?
किस लिए है
पाखंडी सरकार
बरक़रार
(2)
मुखौटे पर मुखौटा चढाए बैठे हैं सब
जाने असली चेहरा नजर आएगा कब
दुनिया हो गई है पाखंडी और चोर
घर में कुछ और है बाहर कुछ और
घर में मुखौटा उतारकर दूसरा चढाते हैं
अपने आप को गुणी और सभ्य बताते हैं
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19. सुश्री शालिनी कौशिक जी
भाईसाहब नमस्कार
कह रही थी मैडम ,
हाथ जोड़कर
और भाईसाहब
सिर घमंड से उठाकर
स्वीकार कर रहे थे .
पंडित जी ! प्रणाम
कह रहा था भक्त ,
और पंडित जी
गर्दन हिलाकर
हाथ उठाकर
भगवान बन रहे थे .
मम्मी जी पाय लागूं ,
कह बहु झुकी
सास के पैर छूने ,
पर घुटनों को ही
हाथ लगाकर
अपने कमरे में
चली गयी .
दोनों हाथ मिलाकर
सिर झुकाकर
खद्दरधारी नेता
मुख पर मुस्कान
बिखेर एक दूसरे का
अभिवादन कर रहे थे .
और झलक रहा था
सभी तरफ से
वो पाखंड
जो छिपाए नहीं छिपता .
भाईसाहब जिन्हें
नमस्कार किया
जा रहा था बढ़-चढ़कर
घर आने पर
चाय बनाने से इंकार कर .
पंडित जी को प्रणाम
पर दान के समय
सस्ते से सस्ते खरीदकर
और पंडित जी का
पैसे वाले को बड़ा
आशीर्वाद देकर .
बहू का सास
के खाने से
मिष्ठान को हटाकर
नेताओं का
पीठ पीछे
छुरा घोंपकर
सभी से
एक ही सत्य
था उजागर
सब पाखंड
घोर पाखंड
मात्र पाखंड .
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21. श्री अरुण श्रीवास्तव जी
कवि !
तुम कहते हो –
- कि आवश्यक है एक स्त्री होना
कवि होने के लिए !
- कि मुस्कुराना स्वीकार का लक्षण है !
जबकि -
- किसी स्त्री के हस्ताक्षर नहीं
तुम्हारे उपसंहारीय कथन के नीचे !
- तुम्हारे शीर्षक पर मुस्कुरा देती है स्त्री !
तुम स्त्रीत्व की कविताएँ लिखते हो
उसके स्त्रियोचित उभारों पर !
वो मुस्कुराकर दुपट्टा संभालना सीख लेती है !
तुम्हारे शब्द उसकी परिधि कम करते हैं !
वो बढ़ा लेती है अपनी मुस्कुराहटें !
और लगभग अंत में
तुम बंजर होने की प्रक्रिया कहते हो
मोनोपाज को !
उसके होंठो पर तैर जाती है
मुक्ति की मुस्कराहट !
आश्चर्य है-
- कि तुम उसे मोनालिसा नहीं समझते !
- कि एक पुरुष तय करता है
स्त्री होने की परिभाषा !
और ,
संभवतः नहीं देखा तुमने
स्त्रियों के अंतरंग क्षणों में -
- हँस देती है स्त्री
जब एक पुरुष करता है
स्त्री होने का पाखंड ! .
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21. प्रो० विशम्भर शुक्ल जी
(1)
बजाओगे अरे कब तक निरासा -राम ये भोंपू !
सुना है भौंकते कुत्ते तुम्हे अच्छे नहीं लगते ,
तुम्हारे 'ऐश-रम' में तो अँधेरे ही अँधेरे हैं !
तुम्हारी 'फुसफुसाहट ' से बड़ी दुर्गन्ध आती है !
(2)
चेले बोरा ओढते पहन रहे हैं टाट ,
बाबा अपने अरबपति,क्या बाबा के ठाठ !
शिष्य चबें लैया -चना ,बाबा काटें सेब,
मंहगी कारों पर जमे हैं अपने गुरुदेव !
अरबों-खरबों कैश है सम्पति कई करोड ,
दान-पुण्य के नाम का गए समंदर छोड़ !
जब सम्पदा अथाह हो बाबा साधें मौन,
सबसे बड़ा सवाल अब इसका मालिक कौन ?
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22. सुश्री अन्नपूर्णा बाजपेयी जी
(1)एक मुक्तक
ईश शास्त्र विरोधी जिनकी महिमा अपरम्पार,
भाल तिलक होवत गंग स्नान बारम्बार।
मुक्त कंठ से स्वगान करवाएँ सेवा पाखंडी ,
वातानुकूलित चौपाया चढ़ि चले भेस बनाए दंडी ।
(2)अतुकांत" कविता
जीव है पक्षी की अनुहार ,
उड़त नहि लागे नेक अपार ।
एक द्वार की कौन चलावे ,
लागे हैं नौ द्वार ।
किस द्वारे से किस द्वारे जावे,
कैसा ये पाखंड दिखावे ।
कोउ न जानन हार,
नित यहि मे भरमावे ।
गढ़ लइ कोट अटारी सुंदर ,
कीन्ही यहाँ तैयार ।
षटरस व्यंजन नित्य खवावे,
करि सोरह सिंगार ।
नित नए करतब दिखलावे ,
भूल समय का प्यार ।
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23 .डॉ० नूतन डिमरी गैरोला
एक चिकिस्त्सक क्या करता
शल्य चिकित्सा अभी शुरू हुई ही नहीं थी
कि निश्चेतन से पहले
मरीज की देह पर देवता नाच उठा
और मरीज था बस से बाहर
जितना संभाला उतना बहका
चीखा और चिल्लाया ....
तब शल्य चिकित्सक ने
अपने अंतर्मन को मार
एक पाखण्ड किया
उसने रोली अक्षत और धूप से
पूजा अर्चना की
देवता हुए शांत
(अस्थायी )
और शल्य चिकित्सा हुई निष्पादित|
ओ टी से बाहर आ
डॉक्टर ने कहा
लोहे को लोहा काटता है
और पाखण्ड को पाखण्ड ही मारता है
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24. श्री प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा जी
तत्पर जीवन भर रहा करने को विध्वंस
सामने आ खड़ा हुआ बगुला बन कर हंस
बगुला बन कर हंस चोंच पैरों में दबाय
मन भीतर कछु और बाहर आदर्श बघराय
देश अब समझ चुका हर पल ये बदलें रंग
कथनी करनी भेद बात बात में पाखंड
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25. श्री आशीष नैथानी सलिल जी
एक मुक्तक
हमारे बाद इस महफ़िल में जाने कौन आयेगा
किसी से दिल लगायेगा, किसी का दिल दुखायेगा ।
ये कैसा झूठ है, पाखण्ड है, तेरी मुहब्बत में
परिंदा कैद भी होगा नहीं, उड़ भी न पायेगा ॥
ताँका (हाइकू की तरह एक जापानी विधा, ५ पद, ५,७,५,७,७)
गली-गली में
झूठे-पाखण्डी लोग
कई रूप में
करते अत्याचार
छलते मासूमों को ||1||
झूठी बातें हैं
बड़े-बड़े हैं वादे
राजनीति में,
जनता से छल है
पाखण्ड ही तो है ये ||2||
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आदरणीया प्राची जी:
कृतकृत्य हूँ ..... हार्दिक धन्यवाद।
सादर,
विजय
आदरणीय विजय जी,
संकलन आपको पसंद आया और आपने इस श्रम को मान दिया इस हेतु आपकी हृदय से आभारी हूँ.
कुछ व्यक्तिगत और कुछ हल्द्वानी में आयोजन की व्यस्तताओं के चलते इस बार महोत्सव की सभी प्रविष्टियों के संकलन को प्रस्तुत करने में कुछ विलम्ब आ गया, अन्यथा आयोजन के बाद एक दो दिन में ही संकलन प्रस्तुत हो जाता है.
सादर.
आयोजन की सभी प्रस्तुतियों को इकट्ठे पढ़ने का सुख ही नहीं बल्कि सापेक्ष पढने का मौका भी संकलन उपलब्ध कराता है, आदरणीया. हलद्वानी के कार्यक्रम के कारण इस संकलन में विलम्ब तो हुआ लेकिन यह सबको समझ में आने वाली बात है.
इस कष्टसाध्य और समय काटू कार्य को जिस तन्मयता से आप साध जाती हैं वह स्वयं में एक उदाहरण है हम सभी के लिए.
सादर
आदरणीय सौरभ जी
इस कार्य को करने के पीछे यह भाव भी मन में ज़रूर आता है कि "भविष्य में भी कभी इन संकलनो को पढ़ने में कितना आनंद आएगा "
और व्यव्स्था को तो व्यवस्था का हिस्सा बन कर ही व्यस्थित किया जाता है...बाहर बैठ कर नहीं....:))
फिर ये दायित्व स्वैच्छिक रूप से ही लिया गया है..जब मंच के वरिष्ठ सदस्य ये कार्य(कष्टसाध्य और समय काटू कार्य :))) पूरे उत्साह से करते हैं..तो मैं आप सब से ही प्राप्त इस सीख से कैसे विमुख हो सकती हूँ.
आप सब हर बार इस छोटी सी निष्काम सेवा को इतना मान देते हैं... कि मैं अभिभूत हूँ.
सादर.
अति व्यस्तता के चलते इस श्रम साध्य संकलन कार्य के लिए समय निकालकर सुधि पाठको के लिए एक विषय पर
सभी रचनाए एक साथ पढने के लिए प्रस्तुत करना, वाकई सराहनीय कार्य है | इसके लिए बहुत बहुत बधाई
आदरणीया डॉ प्राची जी |
हार्दिक आभार आ० लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला जी
आभार आदरणीया प्राची जी!
आपने संकलन उपलब्ध कराया आपकी व्यस्तता के बाद भी।
आपका हर समय में एक जैसा व्यवहार और सभी के लिए समान और सहज होना बहुत बड़ी बात है..
प्रिय गीतिका जी
आपके स्नेहिल कथ्य के लिए आपकी हृदय से आभारी हूँ.
आदरणीया डा॰ प्राची जी एक ही विषय पर इतनी सारी रचनाएँ एक ही साथ संकलित करने के लिए हार्दिक आभार ।
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