आदरणीय साथिओ,
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प्रतिदान (दिवास्वप्न )
" दीपक ,संभल कर चलाओ ,एक तो कच्ची टूटी-फूटी सड़क ऊपर से तुम्हारी स्पीड ?मेरी कमर का तो कचूमर हो गया।अब कितनी दूर है तुम्हारे ननिहाल का गाँव?" सुरभि की आवाज़ में दर्द के साथ थोड़ी चिड़चिड़ाहट झलक रही थी।बड़े शहर में पली-बढ़ी थोड़ी भी परेशानी विश्वव्यापी समस्या बन जाती थी उसके लिए।
" बस थोड़ी दूर और फिर गाँव की अमराई की ठंडी छांव में वहाँ के पनघट का मीठा और ठण्डा पानी पियोगी तो सारी थकान भूल जाओगी।" फिर सुरभि की उफ...आह को नज़रअंदाज़ कर गुनगुनाने लगा।
"सास मोर मारई ननद ललकारई
मैं बैठी रोऊँ बलम लेई कनिया
मैं फैशन वाली बलम मोर बनिया..."
" दीप, प्लीज बन्द भी करो अपना ये बेसुरा गाना।मेरी तो ये समझ मे भी नहीं आ रहा क्या रखा है इस गाँव में जिसके लिए तुम्हारे दो दोस्त विदेश से भी आ रहे हैं?"
" हम अपने पुराने शिक्षक से मिलने जा रहे हैं वर्षों हो गए उन्हें देखे।"
" शिक्षक से मिलने? ऐसा क्या है उनमें? यही था तुम्हारा स्टुपिड सरप्राइज़?" " सुरभि ने दीप को ऐसे घूरा मानों उसके सिर पर सींग उग आए हों।
" जो समझो।वे ऐसे आदमी थे जिन्होनें खुद को और एक निहायत ही पिछड़े गॉंव के मिट्टी में लौटने वाले बच्चों को खुली आँखों से दिवास्वप्न देखना सिखाया। आकाश में अपने पंखों को परवाज़ देना सिखाया।" बोलते-बोलते दीप की आवाज़ भर्रा उठी।
" समझ गई जनाब तो आप तीनों ही वे दोस्त हैं ? और उनसे मिलकर उन्हें धन्यवाद कहने जा रहे हैं।" अब सुरभि को बातों में रस आने लगा।
" नहीं ,हम उनका आभार भला क्या कर सकते हैं सुना है वे आज भी गाँव के बच्चों को धुंधली होती आँखों और झुर्रियों भरे हाथों से अपने सीमित संसाधनों के बल पर सपने देखने की आज़ादी देते हैं। पर आज हम दूसरी वज़ह से जा रहे हैं।
" वो क्या?"
" हम तीनों उस गाँव को गोद ले रहे हैं अब मास्टर जी के सपनों के साथ हमारे सपने भी मिलकर गाँव और बच्चों को ऊँची परवाज़ देंगे। यही हमारा प्रतिदान होगा।"
" मतलब उनके हाथों की मशाल को अपने हाथों में ले रहे हो ? ये जलती रहनी चाहिए। मोरे नटखट पिया। "
अब जिन नज़रों से सुरभि ने दीप को देखा उसमें प्यार की गज़ब ऊँचाइयाँ थी।
मौलिक एवम अप्रकाशित
बहुत बढ़िया शीर्षक के साथ बढ़िया उम्दा रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया जानकी बिष्ट वाही जी। आपकी बेहतरीन शैली। सपनों और दिवास्वप्न के बीच डोलती रचना प्रदत्त विषय को कितना उभार रही है; विचारार्थ। पुराने शिक्षक के दिवास्वप्न को साकार होने जा रहे सपने में तब्दील करने का संदेश देती रचना।
सादर तहेदिल से शुक्रिया शहज़ाद जी।जागती आँखों से भी सपने देखने चाहिए और उन्हें पूरा करने की कोशिश भी।सोती आँखे सपने देखती हैं और जागती ऑंखें (ख्यालों में गुम) से दिवास्वप्न देखे जाते हैं।
मुहतर्मा जानकी साहिबा ,प्रदत्त विषय पर अच्छी लघुकथा हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं।
हार्दिक आभार आ.तस्किद साहब जी
वाह, बहुत खूबसूरत रचना प्रदत्त विषय पर, इसी की जरुरत है आज के समाज में. बहुत बहुत बधाई आ जानकी वाही जी
कथा को मान देकर हौसलाअफ़ज़ाई करने के लिए हार्दिक आभार आ.विनय सर जी।
आद0 जानकी वाही जी सादर अभिवादन। एक बेहतरीन लघुकथा जो प्रदत्त विषय के साथ पूरा न्याय कर रही है। बहुत बहुत बधाई आपको इस प्रस्तुति पर।
हार्दिक आभार आ.सुरेंद्र नाथ सिंह जी, हर प्रशंसा प्रेरित करती है।
बहुत सुन्दर.. एक गंभीर कथानक को सहज प्रस्तुतीकरण ने और भी ऊँचाइयाँ दे दी हार्दिक बधाई इस रचना पर आदरणीया जानकी जी
तहेदिल से शुक्रिया आ.प्रतिभा जी, आपकी उपस्थिति को तो सार्थक करती ही है मेरी हौसलाअफ़ज़ाई भी खूब करती है।हमेशा आपकी प्रतिक्रिया की चाह रहती हैं।
हार्दिक आभार सुनील जी, कथा को आपका सकारात्मक नज़रिया मिला ये मेरे लिए प्रेरणमय तो है ही साथ ही हौसलाअफ़ज़ाई भी कर गया।इस तरह की टिप्पणी बेहतर लेखन के लिए ऐनर्जी का काम करती है।
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