आदरणीय साथिओ,
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बहुत बहुत आभार डॉ विजय जी।
आयोजन का श्रीगणेश करने की हार्दिक बधाई! //उद्धव (8)// कथा का प्राण तत्व है...आठ वर्ष के बच्चे के पिता की मानसिकता को आइना दिखाती हुई कथा है। पत्नी पर तो अविश्वास ही हद है ही, साथ ही सोचने वाली बात यह है कि आठ वर्ष क्या आठ दिन में ही जानवर तक से प्रेम हो जाता है। ऐसा व्यक्ति पति अथवा पिता कहलाने के योग्य भी है! मुझे कथा अच्छी लगी बधाई।
विस्तृत टिप्पणी से उत्साह बढ़ाने के लिए तथा समीक्षात्मक दृष्टिकोण से रचना का आंकलन करने के लिए अति आभार सीमा जी
आदरणीय अजय गुप्ता जी, लघुकथा गोष्ठी का आगाज बहुत ही अच्छी लघुकथा से करने के लिए हार्दिक बधाई । पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं के भी कामकाजी अवसर तो बढे हैं, उनके कामकाजी होने की स्वीकार्यता भी बढ़ी है लेकिन क्या उनकी संवेदनशीलता को भी स्वीकार किया गया है ? नहीं । अक्सर उन्हें अपने संवेगों को दबाना ही पड़ता है। अक्सर वो अपनी भावनाओं को खुलकर वो व्यक्त नहीं कर सकती। संदेशपरक बढ़िया लघुकथा।
आभार नीलम जी
भाई अजय गुप्ता जी, सबसे पहले तो आयोजन का शुभारम्भ करने हेतु अभिनन्दन स्वीकार करेंI आपकी लघुकथा प्रदत्त विषय के साथ काफी हद तक न्याय कर रही हैI जिसे देखकर मन प्रसन्न हुआI आपने जो सन्देश देना चाहा वह बिलकुल स्पष्ट भी है और अर्थगर्भित भीI वास्तव में परस्पर विश्वास और संबंधों में आस्था से ही वैवाहिक जीवन सफल माना जाता हैI
अगर कथ्य और शिल्प की बात करें तो मुझे इस कथा में अभी भी सम्पादन की काफी गुंजाइश नज़र आ रही हैI पहले पैरे में डी.एन.ए. मिलान की बात को बहुत ही सादगी और बिना भूमिका से कहा जा सकता था, बाप-बेटे की उम्र का ज़िक्र करना भी आवश्यक नहीं थाI
//आनंद के चेहरे के भाव इतनी तेज़ी से बदले जितनी तेज़ी से गिरगिट रंग बदलता है. आँखों में चमक उभर आई. एकदम से तपस्या की और देखते हुए बोला, “ओ तपस्या, देखो. सब ग़लतफ़हमियाँ दूर हो गई. उद्भव मेरा ही खून है. मैं ही उसका पिता हूँ. ओह तपस्या, मैं कितना खुश हूँ, ब्यान नहीं कर सकता.”//
//तपस्या का हाथ पकड़ कर बोलता ही चला गया, “अब मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं. पहले भी नहीं थी. पर मैं क्या करता. लोग क्या-क्या बोलते थे तुम्हारे और तुम्हारे कलीग अरुण के बारे में. उसपर उद्भव की शक्ल भी कहाँ मिलती हैं मुझ से. कोई भी होता तो यही करता. खैर अब सब पहले सा हो जाएगा. तुमने मेरा विश्वास फिर पा लिया है.”//
यहाँ दोनों जगह आनंद के ही संवाद हैं, जिन्हें छोटे, चुस्त और चुटीले करके एक ही जगह कर देने से रचना में कसावट आएगीI
यह संवाद देखें,
//“आनंद, पति-पत्नी का सम्बन्ध विश्वास का होता है और पिता-पुत्र का आस्था का. आज तुमने दोनों को सिद्ध तो किया//
आनंद ने विश्वास और आस्था को सिद्ध कहाँ किया है? सिद्ध तो जो कुछ किया है, मेडिकल रिपोर्ट ने किया हैI बहरहाल, थोड़ी काट-छील से रचना सोने की तरह चमक उठेगीI इस सद्प्रयास पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करेंI
बहुत बहुत आभार योगराज जी।
आपसे इतनी विस्तृत समीक्षा पाकर मन अभिभूत है।
आपके दिए प्रत्येक सुझाव को इसमें समाहित करके रचना को बेहतर स्वरूप देने का प्रयास करूंगा और इन बातों का आगामी रचनाओं में भी ध्यान रखूंगा।
विश्वास
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" ये क्या है बच्चों ?" शकूर चाचा ने बड़े आश्चर्य से बच्चों के
हाथ से लिफाफें लेते हुए कहा ।
" कुछ नहीं , थोड़ी-सी मदद है ।" बच्चों का लीडर सौम्य मुस्कुराकर बोला ।
" मगर क्यों ?" शकूर चाचा अभी भी आश्चर्य में थे ।
" पिछले दिनों हमारे मोहल्ले में कुछ शरारती तत्वों ने दंगा करवा दिया जिसमें आपका घर भी चपेट में आ गया था । फिर दंगाइयों ने देवशरण जी के घर में लूटपाट की थी । हम मोहल्ले के सभी बच्चों ने दंगा पीड़ितों की मदद करने की ठानी और 'रिलीफ फॉर रिओट विक्टिम बाय चिल्ड्रन ' युनियन बनाई । सभी ने मिलकर चंदा इकट्ठा किया । समाज के सभी वर्गों से चंदा माँगा । सभी ने बढ़चढ़कर चंदा दिया । अब हम देवशरण जी को लिफाफा देने जा रहे हैं ।"
" मगर जाते-जाते यह तो बताते जाओ बेटा कि तुम यह सब किसलिए कर रहे हो ?" शकूर चाचा ने ऐनक नाक के ऊपर सरकाते हुए कहा ।
" कुछ नहीं चाचा , हम चाहते हैं कि सभी धर्मों के लोगों के बीच विश्वास बना रहे । हमारी आस्था को कोई डिगा न सकें ।" सौम्य कहते हुए आगे बढ़ गया ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।
बढिया रचना , चाहे कुछ भी हो आस्था बरकरार रहे तो पुनः सब ठीक हो जाएगा।हार्दिक बधाई आपको आ. मोहम्मद आरिफ जी
रचना पर अमूल्य प्रतिक्रिया देकर सफल बनाने का बहुत-बहुत आभार आदरणीया अर्चना जी ।
विषयांतर्गत बाल-जागरूकता और सक्रियता की संदेश वाहक बढ़िया रचना।.हार्दिक बधाई मुहतरम जनाब मोहम्मद आरिफ़ साहिब।
अपनी अमूल्य प्रतिक्रिया से रचना को सफल बनाने का हार्दिक आभार आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी ।
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