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“ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी” अंक-43 में शामिल सभी लघुकथाएँ

(1). आ० शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी
लुई शमाशा उई.. देख तमाशा..'
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डियर छुईमुई,

आज फिर सुई चुभा गईं तुम्हारी यादें! सच.. तुम जीतीं और मैं हारी! हारी; बुरी तरह हारी! ज़िद्दी थी! सनकी थी! हवाओं के तात्कालिक असरात से संक्रमित थी; सम्मोहित थी! दूरगामी नतीज़ों से अनजान तो नहीं थी, पर सतर्क-सावधान न रह सकी! 'क़ैद में कब तलक रहेगी बुलबुल' कहकर चिढ़ाती थी तुम्हें, दूसरों के तानों-कटाक्षों से पीड़ित या वशीभूत सी होकर! तुम संस्कारों और परम्पराओं के पिंजरे में क़ैद ज़रूर थीं, लेकिन तुम में अद्भुत प्रतिभायें, प्रत्युत्पन्नमति और दूरदर्शिता थी। लेकिन ज़माने की निरंतर बदलती चालों, फैशन, पश्चिमी अंधानुकरण, माया-मोह के मकड़जाल में मैं कब फंस गई, मुझे तो नहीं, तुम्हें ज़रूर आभास हो गया था और हां, तुमने मुझे आगाह भी तो किया था! लेकिन आत्मा के बजाय चंचल मन और जवां आकर्षक देह की ही सुनते रहने के कारण मैं आजकल की हवा, नहीं-नहीं, तेज़ आंधियों में बह गई, तो बहती ही गई! आज मैं आइने के समक्ष अपने आधुनिक मुखौटे को उतार कर तुम्हें सिद्दत से महसूस और याद कर 'छुईमुई' इसलिए कह रही थी कि मेरी तत्कालीन मित्रमंडली मुझे बतौर रैगिंग या प्रैंकिंग या मज़ाक तहत 'छुईमुई' ही कहा करते थे न! आजकल की माया का लगभग सब कुछ पा लिया, भोग लिया; मर्दों और औरतों की अत्याधुनिक बदलती दुनियावी समुंदर में ख़ूब गोते लगा-लगा कर विभिन्न विधाओं में अविवाहित यौन-सुख हासिल कर आज जब अपने अधेड़पन का नंगा सच जाना, तो तुम ख़ूब याद आईं! सोचा तुमसे ही अपने दर्द सांझा करूं, सो देर रात इतना लिख डाला अपनी किशोरावस्था और जवानी की दहलीज़ के दौर के फ़ोटो-एलबम देखते हुए! ओह, अब तो सिर्फ़ 'छुई-छुई' सी, तमाशा सी रह गई मैं 'छुईमुई'! साथी सेलिब्रिटीज की शौक़िया बीमारियों से ग्रसित हो कर मीडिया के 'हरेशमन्ट विरोधी अभियानों' के साथ अपने अनछुए अनुभवों को बयां कर 'अद्भुत हरेशमन्ट' ही महसूस हुआ टीका-टिप्पणियों के कुछ-एक फूल और अनेकबाण सहकर! जद्दोजहद से लवरेज़ जवानी के पड़ावों के हाइटेक असेस्मेंट, जांच-पड़ताल और कोर्ट-कचहरी की तफ़रीह क्षणिक विवादास्पद लोकप्रियता ज़रूर दे गई, किंतु आइने में अपने आज को देख अतीत को परख कर यह सब ओछा ही लगा, सो डायरी में तुमसे यानि अपनी ही खोई हुई छुईमुई से सब कुछ कह डाला! ... सचमुच दिल कुछ तो हल्का हुआ! लड़की हो या औरत; उसके 'छुईमुई' होने और 'तमाशा' हो जाने के बीच बहुत ही बारीक़ किंतु मज़बूत डोर है हिंदुस्तानी धर्म, संस्कृति और संस्कारों की! जिसने यह डोर काटी या कटवायी, समझो हुई जगहंसाई, क्रांति या फिर एकांत की रुलाई!
"लुई शमाशा उई ... ले जा प्यार ज़रा सा... दे जा प्यार ज़रा सा..!" बड़ी कसक और ललक के साथ तनिक संतोष और आनंद वास्ते एक हिट फ़िल्म का यह मशहूर नग़मा सुनते हुए अब सोने की कोशिश कर रही हूं!
शब्बा ख़ैर!

तुम्हारी ही,
'अस्मिता'
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(2).  आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी
आजकल
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श्रेया दो बार बाहर जा कर वापस आई. फिर मोबाइल चलाती हुई मम्मी से बोली, '' मम्मी ! सुनिए ना ?''
' बेटा ! पापा से बोलो. मुझे जरूरी काम है.''
श्रेया पापा के पास गई तो पापा ने भी मोबाइल चलाते हुए जवाब दिया, '' बेटा ! मम्मी से कहो. मैं जरूरी काम कर रहा हूं.''
श्रेया फिर बाहर जा कर वापस आई.
'' मम्मी !'' वह अपना पेट दबाते हुए धीरे से बोली, '' सुनिए ना !''
'' बेटा दादी होगी. उन से कहो ना.'' मम्मी ने मोबाइल में देखते हुए कहा.
तब तक दादी दूध ले कर आ चुकी थी, '' क्या हुआ बेटा ! मुझे कहो ?''
'' क्या कहूं दादी. शौचालय में कुत्ता बैठा हुआ था.'' कहते हुए वह अपने कपड़े और फर्श की ओर देख कर रो पड़ी.
दादी ने देखा कि बहूबेटे मोबाइल पर और श्रेया फर्श पर अपना आवेग फैला चुकी थी. इसलिए दादी कभी बहूबेटे को देख रही थी तो कभी रोती हुई श्रेया को. दोनों बहूबेटे एकदूसरे को देख कर नजर चुरा रहे थे.
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(3). आ० डॉ टी.आर सुकुल जी
मैपस्को
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"क्यों राधेश्याम ! अपना बबलू आजकल दिखता नहीं है , क्या कहीं बाहर गया है?"
"हाॅं, सीताराम ! वह "मैपस्को" के काम से अनेक शहरों में जाता आता रहता है।"
"यह मैपस्को क्या है ?"
"उसने एक कंपनी बनाई है जिसका नाम है "मैन पावर सपलाइंग कंपनी" यह इसी का संक्षिप्त नाम है ।"
"यह क्या है?"
"अरे ! ये तो तुम्हें मालूम ही होगा कि आजकल का जमाना ठेके पर चल रहा है, इसलिये बबलू ने ‘मैन पावर सप्लाइंग कंपनी‘ बनाकर जिसे जितने आदमी /कार्यकर्ता चाहिये होते हैं उन्हें उस कार्य के लिये, उतने समय के लिये , उतने लोग एक मुश्त राशि लेकर भेज देता है यही उसकी कंपनी का कार्य है।"
"पर ये आते कहाॅं से हैं??"
"अरे भैया ! कहाॅं भूले हो ? कम से कम दो दिन पहले आर्डर तो दो, कितने चाहिये? बेरोजगारी इतनी है कि दैनिक मजदूरी पर सैकड़ों मिल जाते हैं। खेतों की जुताई कराना हो या कटाई, मकानों को बनवाना हो , चुनाव प्रचार कराना हो, नेताओं की सभाओं में भीड़ जुटाना हो, सभाओं में तालियाॅं बजवाना हो या हूट कराना हो, धरने पर बैठना हो या जुलूस मेें हो हल्ला कराना हो सब कुछ ठेके पर ही होता है। इतना ही नहीं अब तो स्कूलों / कालेजों की पढ़ाई लिखाई भी ठेके पर ही कराई जाती है, समझे?"
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(4). आ० मनन कुमार सिंह जी
आजकल

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 -मीलॉर्ड!इसने मुझे हमेशा गलत ढ़ंग से छुआ है,मेरी रजा के खिलाफ भी।
-और?
-मुझे नींद से भी जगाता रहा है।
-कब से?
-बहुत शुरू से ही।
-फिर भी?
-तबसे जब मैं कली हुआ करता था', फूल ने अपनी वेदना का इजहार किया।
जज ने अपने कोट में लगे फूल की तरफ देखा।वह अपनी जगह पर कायम था,शांतिपूर्वक।जज को तसल्ली हुई।
-फिर आज क्या हुआ?
-आज तो कुछ नहीं हुआ,मीलॉर्ड! पर अब भी इसकी आदतें तब्दील नहीं हुईं।यह आज भी कलियों को परेशान करता है।फूलों की नींद हराम करता है।
-तो फिर आपकी फरियाद क्या है?वादी कौन है,आप?
-नहीं हुजूर।मैं तो आज का जगा हुआ ईमान हूँ।कल की चुप्पी पर मर्सिया पढ़ने का ख्वाहिशमंद हूँ,जहां आलम।
-वादी हैं हुजूर।हम वादी है',यह कहते हुए दस-बारह फूल अकस्मात् उठ खड़े हुए।अदालत में थोड़ी अफरातफरी का माहौल हो गया।जोर जोर से कानाफूसी होने लगी।जज ने मेज पर हथौड़ा पटका।फिर जाकर शांति बहाल हुई।
फिर ' मुझे भी,मुझे भी......' की ध्वनि अदालत में गूँजने लगी।
अर्दली ने आवाज बुलंद की,'भौरा हाजिर हो।' भिनभिनाता हुआ भौरा पेश हुआ।उसे उसपर लगे आरोप की जानकारी दी गई।फिर जज ने सवाल किया
-तो बताओ,तुमने इन सब के साथ इतनी ज्यादती क्यों की?
-..मौन...।और फिर फिर ....मौन।जज भड़क गया
-तुम जबाब क्यों नहीं देते?',उसने हाथ से इशारा कर पूछा।
-न्यायपति! आपके हाथ हिलाकर गुस्सा होने से मुझे ज्ञात होता है कि आप मुझसे कुछ पूछना चाहते हैं।पर मैं सुनता नहीं।बोल सकता हूँ...गुन गुन गुन गुन.... जी बस।और आप कहें,तो कुछ कहूँ।जज ने इशारा किया।भ्रमर ने कहना शुरू किया--
-मैं गाता हूँ,बस।ये फूल मेरे गीत के दीवाने हैं।मेरे गीत से इनकी बेचैनी शांत होती है।फिर शांति से बेचैन हो जाते हैं।फिर मुझे गाना पड़ता है।कभी इन्हें शांत करने के लिए,तो कभी इन्हें बेचैन करने के लिए।हाँ,दोनों ही दशाओं में मर्जी इनकी ही होती है।
-ऐसी बात है?',जज ने सवाल किया।
-जी।
-फिर ये कलियाँ?इनका क्या कसूर है,जो तुमने इन्हें परेशान किया?
-मैंने किसी को परेशान नहीं किया,हुजूर।हाँ,इन्हें खिलने की जल्दी थी।और खिलने के लिए मेरे गीत जरूरी थे।मैंने गा दिए,बस।
-तो फिर यह फरियाद कैसा?
कोई कुछ नहीं बोला।फूल,कलियाँ सभी मौन थे।कुछ जा भी चुके थे।जज भिन्नाया---
--यह सब क्या हो रहा है आजकल?
-आजकल यही सब हो रहा है,मीलार्ड!नजर उठे न उठे,उँगलियाँ उठायी जा रही हैं।आजकल हर आदमी एक दूसरे पर उँगलियाँ उठा रहा है।किसी ने आईना नहीं देखा,न्यायाधिपति।
-कमाल है',जज दहाड़ा।
-कुछ कमाल वगैरह नहीं है,हुजूर',जज के कोट में टँगा गुलाब कहने लगा---
-याद है ,मैंने आपसे इज्जतबख्शी की रजा जताई थी।फिर आपने मुझे सीने से लगा लिया था।अब दीगर बात है कि मुझे आजतक फुर्सत ही नहीं मिली।मैं तबसे यहाँ लटका हुआ हूँ।जज सहसा बीती बातों में खो गया।अतीत उसके मानस पटल पर उभरने लगा।फूल जज के सीने में चुभने लगा ।वह बड़बड़ाया--
-यह क्या हो रहा है आजकल?'
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(5). आ० तेजवीर सिंह जी
मी टू


"अरी सुभद्रा,  आज चाय मिलेगी कि नहीं। सुबह से अखबार  लेकर बैठी है। एक एक पन्ना चाट लिया। कौनसी खास खबर खोज रही है?"
"कुछ नहीं बस ऐसे ही, अभी चाय लाई बुआजी।"
 सुभद्रा ने बुआजी को चाय की प्याली दी और फिर अखबार लेकर बैठ गयी।
"सुभद्रा, क्या हुआ?, तू तो कभी अखबार में इतनी रुचि नहीं लेती थी।"
"अब आपको क्या बताऊँ बुआजी? मुझे तो बड़ी शर्म आती है। कल मंदिर में भी कुछ औरतों ने पूछ लिया था।"
"क्या पूछ लिया? मुझे भी तो पता चले। मैं निबट लूंगी उन औरतों से।"
"यही पूछ रहीं थी कि तेरे पति का नाम क्यों नहीं आया अखबार में जबकि वह तो एक बड़ी नामी कंपनी के डाइरेक्टर के पद से रिटायर हुआ है? वहाँ तो बहुत सारी औरतें भी काम करती थीं। और उसकी तो पी॰ ए॰ भी एक खूबसूरत सी लड़की थी |"
"अरे किस बात में नाम नहीं आया?"
"वही किस्सा बुआ जी, "मी टू" वाला। जो आजकल टी वी अखबार सब जगह छाया हुआ है| इनकी कंपनी के कई लोगों के नाम आगये अखबार में|"
"अरी बाबरी, तेरे लिये तो यह तो खुशी की बात है कि तेरा पति एक शरीफ़ आदमी है।"
"पर मुहल्ले की औरतें तो कुछ और ही सोचती हैं। कहती हैं कि ऐसा मर्द किस काम का जिसके दो चार "मी टू" के किस्से ना हों।"
"चल तू ही बता,  तेरी खुद की सोच क्या है, इस बारे में?"
" बुआजी, मेरे विचार से मर्द जाति का कुछ तो प्यार मुहब्बत और छेड़छाड़ का अतीत होना ही चाहिये।"
"पर तेरा मर्द तो बचपन से ही बहुत झेंपू किस्म का था। लड़कियों  से तो हमेशा ही दूर भागता था।"
"मुझे भी कभी कभी इनकी यह आदत  बहुत अखरती है।"
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(6). आ० आशीष श्रीवास्तव जी
कैद या रिहाई


एक बंगले में पिंजरे में बंद तोता और एक पेड़ से उड़कर बंगले की खिड़की पर आकर बैठे तोते में संवाद।
पिंजरे वाला तोता : ‘‘और भाई क्या हाल हैं आजकल, क्या चल रहा है ?’’
खिड़की वाला तोता : ‘‘कहां? अब जंगल तो बचे नहीं, पेड़ भी गायब होते जा रहे हैं, दाने-पानी को बहुत भटकना पड़ता है।’’
पिंजरे वाला तोता : ‘‘तुमसे कहा तो था, कोई अच्छा-सा पिंजरा देख लो, समय पर खाना-पीना और चंद अंग्रेजी के शब्द बोलकर मजे करते, पर तुम रहे वहीं आवारा के आवारा, जाहिल, गंवार।
खिड़की वाला तोता : ‘‘भाई, कोई रास्ता हो तो बताओ न, क्या करें ऐसे हालात में !!
पिंजरे वाला तोता : ‘‘तुम अपने वाले हो, इसलिए बता रहा हूॅं दूसरे पक्षियों को तो मैं मुंह भी नहीं लगाता। ध्यान से सुनो! कुछ महीने पहले ही मालकिन के बेटे की शादी हुई है, बेटे-बहू रात में अलग घर में जाने की खुसुर-पुसुर कर रहे थे, वहां मौका मिल सकता है! आते रहना।‘‘
(तभी अंदर से मालकिन की धीमे से तेज होते हुए आवाज आई)
मालकिन : मिट्ठू-मिट्ठू तोता...... मिट्ठू-मिट्ठू तोता......
खिड़की वाला तोता : ‘‘अच्छा उड़ता हूं फिर मिलेंगे’’
पिंजरे वाला तोता : ‘‘ठीक है, और सुनो अबकी बार कुछ ताजे अमरूद अपने पेड़ के लेते आना। यहां तो पिज्जा, बर्गर, चाऊमीन खाकर बोर हो गया।’’
खिड़की वाला तोता : (उड़ते हुए) कह रहा है अंग्रेजी सीख और हो जा कैद पिंजरे में।’’ वो पढ़ा-लिखा और हम आवारा। वाह !! क्या जमाना आ गया है, आजकल तकलीफ बताओ तो भी सब फायदा उठाने की ही सोचते हैं !!
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(7). आ० बबीता गुप्ता जी
सब मिलता है.


स्कूल की पी टी एम में सभी बच्चे अपने पेरेंट्स के साथ टीचर्स से मिल रहे थे।बच्चों की पढाई में कितनी प्रगति हुई, अगर नहीं हुई तो क्यों नहीं, बगैरह बगैरह. ...नतीजन टीचर्स का इस बात पर जोर दिया जा रहा था कि हम तो बच्चों के साथ केवल छै घंटे व्यतीत करते हैं, पर आपके साथ तो बच्चा अट्ठारह घंटे समय व्यतीत करता है।सो बच्चों की विशेषरूप से उसके होमवर्क को लेकर, परीक्षा की तैयारी कराने को लेकर आपकी जिम्मेदारी ज्यादा बनती है।लेकिन पेरेंट्स का स्पष्ट शब्दों में कहना था कि अगर हम बच्चों को इतना ही देख लेते तो फिर स्कूल वालों की क्या जिम्मेदारी बनती हैं।इस तरह से दोनों के दोषारोपण का कोई अंत नहीं था।अंततः सभी पेरेंट्स टीचर्स के बेबाक रवैये से असंतुष्ट हो बाहर आपस में चर्चा करने लगे।
'अरे, देखो ना, इतनी फीस लेने पर भी बच्चों के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं बनती, सिर्फ पढाने भर के अलावा।'
और नही तो क्या? बच्चों की अधूरी कॉपी भी स्कूल में ना कराकर, व्हाट्सअप से पूरी कराने का जिम्मा भी हमारे सिर मत्थे।'
अरे, आप क्यों सिर खपाती हो? एक ट्यूटर लगवा दो।मैने तो अपने बच्चे का लगवा दिया, आप भी....'
ट्यूशन तो मेरा भी बच्चा जाता है, पर वही हाल है,  परीक्षा की तैयारी भी बहुत जोर देने पर भी ऐसी ही कराते है, होमवर्क की तो बात ही छोड, वो तो मैं ही करवाती हूँ।'
'आप भी कहा पचडे में पडी हो? होमवर्क कराने के लिए थोडा नानकुर किया, मैंने थोडी फीस और बढा दी ,बस।'
'लेकिन, ये तो.........'
आप भी कहा बनिया साई सोच लिए हो। वो भी खुश और हम भी बेफिक्र।और पैसे से तो आजकल क्या नहीं. .....'
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(8). आ०  विनय कुमार जी
वक़्त की नब्ज़
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सब कुछ जैसे एक फिल्म की तरह उनके जेहन में घूम रहा था, आखिर ऐसा क्यूँ हो गया| उनकी परवरिश में तो कोई खोट नहीं थी फिर रज्जब की गिरफ़्तारी, शायद इस राह पर चलने का यही परिणाम होता हो? रशीदा तो जैसे काठ हो गयी थी, लोगों की नज़रों का सामना करने की उसकी हिम्मत नहीं बची थी|
बहुत लाड़ से पाला था उन दोनों ने रज्जब को, यहाँ तक कि यूनिवर्सिटी में भी भेजा| उसकी बातें वैसे तो बहुत अच्छी लगती थीं उनको लेकिन कभी कभी थोड़ा डर भी लगता था| खासकर जब वह अपने ही धर्म के गुरुओं की बातों की धज्जियाँ उड़ाने लगता था| कई बार उन्होंने उसे समझाया भी कि अपने विचार तो ठीक हैं लेकिन इस तरह उनको व्यक्त करना लोगों को शायद नागवार गुजरेगा|
"देखिये अब्बू, मैं उनमे से नहीं हूँ जो इनके जाहिलपन को बर्दास्त करूँ| हमें सीख देते हैं कि मजहब की तालीम लो और उसे आगे बढ़ाओ, लेकिन खुद इनके बच्चे बाहर देशों में पढ़ते हैं और इसके लिए कोई इनको नहीं पूछता"|
"ठीक है, तू मत सुन इनकी बात और जो ठीक लगता है वैसी तालीम ले| हमने तो तुम्हें कभी मना नहीं किया इसके लिए, फिर क्यूँ बेकार में इनकी नज़र में चढ़ता है", मोहसिन ने उसको समझाया|
"दरअसल ये लोग चाहते ही नहीं हैं कि अपनी कौम पढ़े लिखे, इसलिए बस मज़हब और डर की बात करते रहते हैं लोगों से| इनका एक ही जवाब है अब्बू, अपने आप को शिक्षित करना और इनके फैलाये भ्रम के जाल को तोड़ना", रज्जब अपनी दलील रखता| मोहसिन को कभी कभी थोड़ी घबराहट भी होती लेकिन फिर वह रज्जब के आत्मविश्वास से वह अपने आप को तसल्ली दे देते|
रज्जब फिर भी वही करता जो उन धर्म के ठेकेदारों को बुरा लगता| युनिवर्सिटी से लौटने के बाद तो जैसे वह उनके पीछे ही पड़ गया था| अपने मोहल्ले के लोगों को उसने धीरे धीरे समझाना शुरू किया और लोगों को पढ़ने के लिए प्रेरित करता रहा| धीरे धीरे मोहल्ले के बहुत से लोग रज्जब की बात समझने लगे और यही बात उन चंद ठेकेदारों को बर्दास्त नहीं हुई.
पिछले दो दिन से रज्जब की कोई खबर नहीं थी उनको, लेकिन आज पुलिस स्टेशन जाते समय उन्होंने सोच लिया कि अब रज्जब को अब वक़्त के साथ चलने की नसीहत देने की जरुरत नहीं रह गयी है.
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(9). आ०  मोहन बेगोवाल जी
आज कल

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घर के गेट का दरवाज़ा अंदर से बिना लॉक किए ही वह सोफा पर आ कर बैठ गया। रोज आठ बजे तक वह खाना खा कर थोड़ी देर की चहल-पहल के बाद सीधे बिस्तर पर आ कर लेट जाता था। उसके लेटते ही नींद उसे अपने क़ाबू में कर लेती थी मगर आज बात कुछ अलग थी। घड़ी की दोनों मोटी सुइयाँ घड़ी के ऊपर के हिस्से के बीच आ कर एक दूसरे से मिल रही थीं। अभी तक उस के कान गेट की तरफ़ ही लगे थे। वह इस इंतजार में था कि कब डोरबेल सुनाई दे और वह कब शान्त हो कर अपने बिस्तर पर लेट जाए। दस बजे तक तो दफ्तर का काम चलता रहता है। फिर दफ्तर से निकलते हुए आधा घंटा और लग जाता है। वह अब तक घर आ जाती है मगर आज पता नहीं क्या हो गया? वह पिछले एक घंटे में दो-तीन बार गेट की तरफ़ हो आया था। एक बार तो वह बाहर सड़क तक जा कर कुछ देर वहाँ खड़ा भी रहा। अचानक धीरे से गेट पर थप-थप की आवाज़ हुई। वह हैरान था। बजनी तो बेल चाहिए थी? वह तेज़ी से सोफे से उठा और गेट की तरफ बढ़ा। बाहर एक अंजान आदमी खड़ा था।
"आप कौन?"
"सर जी, मुझे मैम ने भेजा है। दफ्तर में काम ज़्यादा होने के कारण वो आज वहीं पर रुक जाएंगी। उन्होंने आप को फोन किया था पर आप का फोन लगा नहीं। इसलिए उन्होंने यह बताने के लिए मुझे भेजा है।" वह एक ही साँस में ये सब कुछ कह गया।
उस ने जेब से मोबाइल निकाला, बैटरी ख़त्म हो चुकी थी। अब तक वह अंजान आदमी भी वहाँ से जा चुका था। वह लौट कर अपने बिस्तर पर लेट गया।
अचानक से बाहर तेज़ हवाएँ चलने लगीं। उसने घड़ी की तरफ़ देखा, दोनों सुइयाँ अब रुक चुकी थीं।
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(10). आ० मुज़फ्फर इकबाल सिद्दिक़ी जी 

मायाजाल
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"आशी आई लव यू। ये कितना अजीब इत्तिफ़ाक़ है कि इतने दूर, देशों में रहते हुए भी हमारे विचार, हमारी सोच, हमारी पसंद - नापसन्द सब एक जैसी है।" सेनेगल में रहने वाली वाली लॉरा ने कुछ दिन मैसेंजर पर बात करने के बाद टूटी - फूटी इंग्लिश में मैसेज किया।
"ऑफ कोर्स ,लॉरा। मैं भी कुछ इसी तरह महसूस करता हूँ। जब तक तुम से बात नहीं होती, कुछ भारी - भारी सा लगता है। तुमसे बात करके बिल्कुल फ्री सा फील होता है। हम एक दूसरे से बहुत अटैच होते जा रहे हैं। लेकिन कहाँ इंडिया और कहाँ तुम्हारा देश? शायद ही हम कभी मिल सकें।"
"नथिंग इज़ इम्पॉसिबल, आशी।" मेरे ज़िन्दगी मैं एक बहुत बड़ा राज़ है। मैं कभी फुर्सत से बताऊँगी।
"फुर्सत से क्यों अभी बताओ न लॉरा?" आशीष की बैचेनी बढ़ गई थी। ऐसी क्या राज़ है, लॉरा की ज़िन्दगी में? प्रोफाइल पिक्चर से तो एक दम बिंदास दिखती है। हाई प्रोफाइल भी लगती है। फिर ऐसी क्या परेशानी है उसे? एक साथ कई सवालों ने आशीष को घेर लिया।
आशीष ने बहुत किस्से सुने थे, विदेशी बालाओं की देशी नवयुवकों से सोशल मीडिया पर दोस्ती के। कितना गर्व होता था। जब किसी न्यूज़ पेपर में पढ़कर पता चलता था। "एक जापानी युवती, ठेठ हरियाणवी युवक से दोस्ती का वादा पूरा करने के लिए भारत आई। और उसने, उस गांव के युवक से शादी भी कर ली।"
"क्या लॉरा भी कभी इंडिया आ सकती है?"उसने अपने आप से सवाल किया।
साथ "ही नथिंग इम्पॉसिबल" वाला जवाब, लॉरा ने शायद यही सोच कर दिया हो। दिल ही दिल तसल्ली कर ली।
आज तो लॉरा ने कसम भी दिलाई कि "उसकी ज़िन्दगी में जो राज़ छिपा है। उसे वह अपने तक ही सीमित रखे। किसी को नहीं बताए नहीं।"
आशीष ने खुशी - खुशी हामी भी भर दी। वह तो रात - दिन, सोते - जागते लॉरा से मिलन के सपने सँजोए बैठा था। उसे तो हर वो शर्त मंज़ूर थी जो उसके मिलन के रास्ते की रुकावट दूर करती हो। अब तो बस उसे बैचेनी इन्तिज़ार था उस राज़ का।
लॉरा ने मैसेज में लिखा, "डिअर आशी, बदकिस्मती से मेरे मम्मी - पापा गृहयुद्ध में मारे गए। वो तो शुक्र करो, मैं हॉस्टल में थी इसलिए मेरी जान बच गई। मेरे पापा इस शहर के बहुत अमीर आदमी थे। उनके नाम अपार सम्पत्ति है। मैं तुम से इंडिया आकर मिलने के लिए बैचेन हूँ। लेकिन मैं इंडिया आने से पहले चाहती हूँ, कि ये अपार संपत्ति मेरी हो जाए। मेरे देश के नियमों के अनुशार, यह तभी संभव है, "जब कोई विदेशी अपना परिचय सहित, बैंक डिटेल्स मुझे भेज दे। और मेरी ज़मानत ले ले। अगर तुम ऐसा कर दोगे तो ये सारी संपत्ति हमारी हो जाएगी। हम इसे बेचकर हमेशा - हमेशा के लिए इंडिया में सुख चैन के साथ रहेंगे।"
आशीष भी उसकी मजबूरी सुनकर पिघल गया। अब तो आशीष को जंग और प्यार में सब कुछ जायज़ जैसा लगने लगा था। उसे तो अपना सपना साकार होते दिखाई दे रहा था। वह अपनी डिटेल्स भेजने को तैयार भी हो गया। लेकिन तभी उसका दोस्त सुनील उसे मिला। आशीष ने सुनील के सामने बातों ही बातों में अपना दिल खोल कर रख दिया। लेकिन सुनील को बैंक डिटेल्स वाली बात गले नहीं उतरी। उसे कुछ दाल में काला दिखाई दिया।
"आजकल दुनिया में फैले इस मायाजाल को बहुत अच्छी तरह जनता था।"
उसने आशीष को इस बात के लिए राज़ी कर लिया कि तुम थोड़ा टेस्ट तो कर लो।
लेकिन सुनील, मैं टेस्ट कैसे करूँगा?
बहुत आसान है आशीष, तुम उसे मैसेज में लिखो - "सॉरी मेडम, वी आर इन द सेम प्रोफेशन।"
फिर देखो क्या जवाब आता है।
"आशीष आज तक उसके जवाब की प्रतीक्षा कर रहा है।"
यदि सुनील समय रहते नहीं आया होता तो, आशीष किसी विदेशी को अपने बैंक डिटेल्स देकर किसी षड्यंत्र का शिकार हो चुका होता।
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(11). आ० महेंद्र कुमार
अलार्म


जो कोई भी इसे पढ़ रहा हो,
मैं एक वैज्ञानिक हूँ और मैंने टाइम मशीन का आविष्कार किया है। दुनिया को समझने की चाहत में मैंने भूत व भविष्य, दोनों समयों की यात्राएँ कीं। अतीत में जा कर दुनिया के सारे बड़े युद्ध देखे, भीषण नरसंहार देखा, बड़ी-बड़ी सभ्यताएँ देखीं, नामचीन लोगों से मिला और प्रमुख हत्याओं का गवाह बना। जब इसकी तुलना मैं अपने वर्तमान से करता हूँ तो पाता हूँ कि हज़ारों सालों के इतिहास में भी हम कहीं नहीं पहुँचे। कंक्रीट के जंगलों के सिवा हमने कोई तरक्की नहीं की, अगर इसे तरक्की कहते हैं तो। शोषण की जो मूल प्रवृत्ति अतीत में दिखायी देती है, वो आज भी मौजूद है। ताकतवर कमज़ोर को हर जगह खा रहा है, छोटे से ले कर बड़े स्तर तक। धर्म की जकड़ जैसी पहले थी, वैसी ही आज भी है। हमारी संवेदनाएँ कहीं नहीं पहुँची, वो जहाँ थीं, वहीं की वहीं हैं। ग़रीब भूख से मर रहे हैं और मानवता का बड़ा तबका आज भी ग़ुलाम है। पर शायद वर्तमान को पूरी तरह से समझना अभी बाकी था, इसलिए मैं भविष्य में गया।
भविष्य में वक़्त का पहिया घूम कर वहीं पहुँचा जहाँ से हमने शुरुआत की थी। हमारे समय में पर्यावरणीय संकट तो था ही, उभरते हुए राष्ट्रवाद ने इसे और भी जटिल बना दिया। इसमें घी डाला राजसत्ता और उद्योगपतियों के गठजोड़ ने। अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ मुखौटा भर थीं। उन्होंने दीमक की तरह ग़रीब देशों को खोखला कर डाला। सिर्फ़ अपने विषय में सोचने वाली मनुष्य की प्रकृति अन्ततः हमें विश्वयुद्ध तक ले आयी जिसने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। हम फिर से आदि मानव बन गए।  
इस प्रकार मैंने पाया कि हमारी वर्तमान पीढ़ी वक़्त के एक नाज़ुक मोड़ पर खड़ी है। यदि हमने अभी भी कुछ नहीं किया तो आने वाले वक़्त में कुछ भी शेष नहीं बचेगा। पर मेरी टाइम मशीन की एक सीमा थी। अतीत और भविष्य में आना-जाना तो मेरे लिए सम्भव था लेकिन कुछ बदलना नहीं। तब? तब मैंने क्रान्ति करने की सोची। इसके लिए मैंने लोगों को जागरुक करना शुरू किया पर जल्द ही सरकार मेरे पीछे पड़ गयी। उसने मीडिया के द्वारा मुझे देशद्रोही घोषित करवा दिया। अब मैं इधर-उधर छुपता फिर रहा हूँ। सरकार मुझे ख़त्म कर देना चाहती है। टाइम मशीन किसी गलत हाथों में न पड़े इसलिए मैंने उसे नष्ट कर दिया है।  
मुझे नहीं पता कि जिस वक़्त आप इसे पढ़ रहे होंगे उस वक़्त मैं कहाँ होऊँगा या कहीं होऊँगा भी कि नहीं। अगर दुनिया अभी भी नष्ट नहीं हुई है तो कृपया इसे बचा लें।
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(12).  आ० डॉ विजय सिंह जी
वरदान ही समझो

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आज पार्टी में मिसेज़ शालिनी कुछ अधिक ही खुश नज़र आ रहीं थीं , बिल्कुल निश्चिन्त सी , उन्मुक्त। वरना प्रायः तो वे पार्टियों में जातीहीं नहीं , जाती भी हैं तो परेशान सी , जल्दी वापस जाना है , बच्चों को जल्दी टाइम से सुलाना है , सुबह जल्दी उठना है , बच्चों को डे-केअर में छोड़ना है , जैसे बहाने, सदैव।  
आखिर ऋतु ने उनसे पूछ ही लिया , “ क्या बात है शालिनी आज बड़ी निश्चिंतता है ? कोई उलझन नहीं?कोई जल्दी नहीं ?”
शालिनी मुस्करा दी।  कुछ बोली नहीं।  फिर कुछ रुक कर बोली , “ डांस फ्लोर पर चलें ?”
“ अरे वाह ” , ऋतु के मुंह से निकला और वह शालिनी का हाथ पकड़ कर फ्लोर की ओर चल दी। रास्ते में विवेक से उसकी हॉय हेलोभी हुई , आज उसे विवेक भी कुछ एक्ट्रा मस्त नज़र आये।  उसने एक बार फिर शालिनी की ओर प्रश्न भरी नज़र डाली , जैसे आश्चर्य सेपूछ रही हो , पति पत्नि दोनों इतने प्रसन्न। वह फिर मुस्करा दी।  
डांस फ्लोर पर काफी भीड़ थी , लेडीज़ के साथ बच्चे भी उलटे सीधे हाथ - पाँव चला रहे थे।पर सबसे बेखबर शालिनी अपने में मस्तथिरक रही थी। उसे देख कर ऋतु को लगा कि कुछ तो अवश्य है , वह शालिनी को पिछले तीन साल से जानती है , उसे इतना खुशऔर निश्चिन्त उसने उसे कभी नहीं देखा।हमेशा घर , जॉब, बच्चों की बातें करते मिलती , विवेक भी उसी तरह व्यथित।आजकल जॉबवाली गृहणियों को कैसी-कैसी समस्याओं से रोज़ हे दो-चार होना पड़ता है। उसने सोचा , पूछना ही पड़ेगा , अचानक कौन सी बहारआ गई ?
आखिर थोड़ी देर बाद वह शालिनी को लेकर एक खाली टेबल की ओर बढ़ी और बली , “ चल एक एक कोल्ड ड्रिंक लेते हैं।”
दो सिप लेते ही फिर पूछ ही बैठी , “ ये चक्कार क्या है , आज तुझे बिलकुल कोई फ़िक्र नहीं न बच्चों की , न घर की।  बच्चे नाना केयहां गए हैं क्या ? ”
“ नहीं तो “ बड़ा संक्षिप्त सा उत्तर दिया शालिनी ने।  
“ तो फिर कौन सा वरदान बरस पड़ा जो मैडम बिलकुल बेखबर , उन्मुक्त ? ”
“ हाँ ये बात तो है , वरदान ही समझो ” फिर कुछ रुक कर बोली , “ पापा जी पिछले महीने रिटायर हो गए और अब मम्मी जी औरपापा जी दोनों यहां आ गए , हम लोगों के साथ रहने।”
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(13). आ० कनक हरलालका जी
होड़ की दौड़
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मध्यम वर्गीय परिवार की गृहणी थी रमा । दो बच्चे थे ।लड़की धीरे धीरे बड़ी हो रही थी । सपनों के साथ साथ चिन्ताएं भी रमा की आँखों में पलने लगी थी ।सपने थे बच्चों के उज्जवल भविष्य ,उच्च शिक्षा अच्छा रहन सहन , साथ ही जहाँ तक हो सके बहुत अच्छे संस्कार दे सकने के । चिंता थी आज के उच्श्रृंखल समाज के बिगड़ते हुए माहौल से अपने बच्चों को सुरक्षित रख सकने की । अपनी चादर से बाहर पाँव फैलाते हुये कल उसने मंहगे स्कूल में बच्चों का दाखिला करवाया था । उसका विश्वास था कि अगर बुनियाद मजबूत होगी तभी तो इमारत ऊंचाईयों को छू सकेगी । केवल स्कूल की मंहगी फीस ही नहीं बल्कि उसके वातावरण व अन्य आवश्यकताओं से सामंजस्य बैठाने में भी उसे काफी संघर्ष करना पड़ता था । हर इच्छाओं के साथ समझौता करना पड़ता था । आजकल टी वी पर बढ़ते अपराधों और व्यभिचारों की खबरें सुन सुन कर उसने अपनी बिटिया को मोबाइल खरीद कर देने की सोची । बेटी कई दिनों से कह भी रही थी । उसकी सभी सहेलियों के पास मोबाइल थे ।लड़की अकेली स्कूल जाती थी । इस से कम से कम उसे इतनी सूचना तो मिलती रहेगी कि बेटी है कहाँ । किसी भी आपदा में वह समपर्क भी कर सकेगी । पर साथ ही मोबाइल के बढ़ते दुरुपयोग उसकी चिन्ता के कारण भी थे । अधिक अनुशासन संभव भी न था । " ओफः ,बाजार में कितने नए नए तरीकों के और कितने मंहगे मोबाइल थे ।" लौट कर परेशान होती हुई सी वह बड़बड़ाती रही थी । खैर , फिर भी उसने एक अच्छा सा मोबाइल खरीद ही लिया था । हालांकि वह उसकी जेब पर कुछ भारी ही पड़ा था । शाम को स्कूल से लौटने के बाद बेटी का उतरा चेहरा देख कर उसका माथा ठनका । बिटिया ने न ढंग से खाना खाया न तरीके से बात की । बार बार पूछने पर उसने गुस्से से मोबाइल पटकते हुये कहा " आप भी कहाँ से कूड़ा उठा लाती हैं । अनीता कह रही थी कि ऐसा मोबाइल तो उसकी काम वाली बाई के पास है ।मैं तो इसकी तरफ नजर उठा कर भी न देखूं । तू तो इसी पर इतरा रही है । " रमा पहले ही बेटी की अमीर सहेलियों के नखरों का तंज भोगती रहती थी । अबकी बार भी उसे लगने लगा था कि होड़ की दौड़ की इस आंधी में उसके पाँव कैसे टिक पाएंगे । वह कहीं लड़खड़ा कर गिर न पड़े।
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(14). आ० प्रतिभा पाण्डेय जी
अदालत
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अदालत के अंदर प्रसिद्ध सितारे के मामले की सुनवाई चल रही थी और बाहर सितारे के चाहने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही थी।  अदालत परिसर से कुछ दूर एक घने बरगद से लटके दो  गरीब भूत भी फैसला सुनने को बेसब्र थे। उनकी गरीबी मरने के बाद भी उनके चेहरों पर चिपकी हुई थी। 
" क्या कहते हो दद्दा ? आज हो जायेगी सजा ?'' युवा भूत बुज़ुर्ग भूत के पास खिसक आया। 
" कुछ नहीं कह सकते बेटा।   माहौल देखकर तो नहीं लग रहा। '' बुज़ुर्ग भूत की आवाज़ में निराशा थी। 
तभी एक संपन्न दिखने वाला भूत उनके बीच में टपक पड़ा।  उसकी अमीरी मरने के बाद भी उसके चेहरे से फूटी पड़  रही थी। 
'' अच्छा ! हमारे भैया की  सजा के इंतज़ार में हो तुम दोनों ।  हो कौन तुम ? शक़्ल  से तो भिखारी लग रहे हो । '' अमीर भूत ने आँखें तरेरी। 
युवा भूत को  आक्रोशित होकर जवाब देने के लिए आगे  बढ़ता  देख बुज़ुर्ग भूत ने उसे रोक लिया।   ''उस रात आपके भैया जी ने जिन सोते  हुए लोगों पर गाडी चढ़ा  दी थी,  वो हमारे ही लोग थे।'' बुज़ुर्ग भूत की आवाज़ से साफ़ था कि  उसे भी गुस्सा संभालने में मेहनत लग रही थी।
'' तो !  सड़कों पर सोते क्यों हो तुम लोग।  गलती  तुम्हारे लोगों की थी  भैया की नहीं। अरे वाह!   लगता है भैया  के फेवर में  फैसला आ गया। ''    चाहने वालों की भीड़ को ख़ुशी से नाचता देख संपन्न भूत भी उस दिशा में हवाई चुम्मियाँ फेंकने लगा।
'' चल बेटा '' बुजुर्ग  भूत ने युवा का हाथ थाम लिया। 
'' एक और ख़ुशी की  बात तो सुनते जाओ  तुम दोनों । ''  गरीब  भूतों को  जाता देख अमीर भूत चिल्लाया। 
'' क्या है ?''  
'' अब भैया जी अपनी आत्मकथा  लिखवाएँगे   और फिर उसपर फिल्म बनेगी।  और उसके बाद उनका क़द इतना बढ़ जायगा कि कोई अदालत उन्हें छू भी नहीं सकेगी।  ना नीचे की ना ऊपर की। '' उसका चेहरा दम्भ से दमक रहा था। 
'' बिल्कुल ठीक कह रहे हैं आप।''   युवा भूत का  चेहरा दर्द से तन गया। '' नीचे की अदालतें तो देख लीं  और ऊपर कोई अदालत है ही नहीं  ।'' वो अब गुस्से से आसमान को ताक  रहा था। 
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(15). आ० वीरेंद्र वीर मेहता जी
मददगार

"कैसे हो सकता है ये? इतने करीब रहकर भी मैं, इसके मन को नहीं पढ़ पाया।" दोनों के मध्य छाई गहरी चुप्पी के बीच पुरु विचारमग्न था। "ऋचा मेरे लिये कोई अजनबी नहीं है। 'टीनएज' से चली आ रही हमारी दोस्ती आज भी कायम हैं, बेशक कुछ वर्षों के लिये मैं डॉक्टरी करने विदेश चला गया लेकिन हम हमेशा संपर्क में रहे हैं। और इस बार तो अपने निश्चय अनुसार मैंने ऋचा का हाथ भी उसके परिवार वालों से मांग लिया लेकिन अभी जो कुछ ऋचा ने कहा, क्या वह......?"
"तुमने जवाब नहीं दिया पुरु, मेरी मदद करोगे न!" ऋचा ने बीच की चुप्पी को भंग करते हुए उसकी ओर देखा।
"क्या कहूँ ऋचा? समझ नहीं पा रहा मैं। बारह वर्षों की दोस्ती में एक क्षण भी ऐसा नहीं आया जब मुझे लगा हो कि तुम्हारा मुझसे अधिक 'उसमें' इंटरेस्ट है।"
"पुरु, जीवन में बहुत कुछ ऐसा होता है जिस पर हमारा नियंत्रण नहीं होता। तुम मेरे 'मॉम-डैड' को सच बताकर शादी के लिये मना कर दो। मैं नहीं चाहती कि मेरी 'एबनॉर्मलटी' की वजह से तुम्हारा जीवन खराब हो जाये।"
"और तुम्हारा जीवन...!"
"काट लूंगी, अकेले ही या फिर 'उसी' के साथ.....।" अपनी बात अधूरी ही छोड़ दी उसने।
"नहीं ऋचा नहीं, वह तुम्हें 'मिस-गाइड' कर रही है। गलत है यह सब।"
"ग़लत! नहीं पुरु, 'इट्स नेचुरल'। अब तो कानून की स्वीक़ृति भी मिल गई है इसे।" कहते हुये ऋचा ने अपनी नजरें उस पर टिका दी।
"कानून.....!  ऋचा कानून समाज को नियंत्रित करने के लिये बनाये जाते हैं और ये जरूरी नहीं कि कानून के हिसाब से ही समाज और भावी पीढ़ी को तैयार किया जाएं।" कहते हुये पुरु के शब्दों में एक डॉक्टरी दृष्टिकोण आ चुका था। "ऋचा मेरी तरफ देखो प्लीज, यू आर मेंटली एबनॉर्मल, नॉट फीजिकली!"
".......!" ऋचा ने एक नजर उसकी ओर देखा और सर झुका लिया।
"मैं तुम्हारी मदद करूँगा ऋचा, आओ खुद को मुझे सौंप दो ताकि मैं तुम्हें, तुम्हारे जीवन की सार्थकता समझा पाऊं। यकीं मानों हम बहुत खुश रहेंगें एक साथ, एक बार चलकर तो देखो।मेरे साथ।" कहते हुये उसने अपने हाथ आगे बढ़ा दिए।
पुरु के मन का विश्वास ऋचा की आँखों में भी एक नई आस जगाने लगा था।
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आदाब। आजकल के परिदृश्य और मुद्दों पर विचारोत्तेजक रचनाओं के साथ सम्पन्न लघुकथा गोष्ठी 43 के बेहतरीन संकलन हेतु आदरणीय मंच संचालक महोदय श्री   योगराज प्रभाकर साहिब तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद और आभार। काफ़ी इंतज़ार के बाद पर्व-व्यस्तता के चलते मेरी रचना से गोष्ठी का आग़ाज़ हुआ। सौभाग्य रहा एक नवीन अनुभव का। सभी साथी/वरिष्ठ सहयोगी रचनाकारों और टिप्पणीकारों को हार्दिक बधाई और आभार। मेरी रचना को पहले क्रम पर स्थापित करने हेतु हार्दिक धन्यवाद।

ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक - 43 के बेहतरीन संकलन हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी।

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