आदरणीय साथिओ,
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मोहतरम Omprakash Kshatriya जी बहुत ख़ूब बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें आदाब
हौसला अफजाई करने के लिए आदरणीय आसिफ जैदी का हार्दिक अभिनंदन।
जनाब ओमप्रकाश क्षत्रिय जी आदाब,प्रदत्त विषय पर अच्छी लघुकथा लिखी आपने,बधाई स्वीकार करें ।
हार्दिक आभार आदरणीय समर कबीर जी इस हौसला अफजाई के लिए।
मार्मिक संवेदनशील रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीय ओमप्रकाश सरजी ।
फिंगर प्रिंट्स
‘‘ क्यों मिस्त्री! ये पीले रंग वाली वही बिल्डिंग है जिसे हमलोगों ने दिनरात काम करके बनाया था’’
‘‘ हाॅं, इसकी ही नहीं इस कालोनी के अनेक मकानों की ईंट ईंट पर हमारी अंगुलियों के निशान मिलेंगे। पर तुम क्यों पूछ रहे हो?’’
‘‘ कुछ नहीं, बहुत साल बाद यहाॅं आया हॅूं इसलिए भूल सा रहा रहा था। वाह! वे भी क्या दिन थे, अपनी मर्जी के बिना इसके भीतर पत्ता भी नहीं हिल सकता था।’’
‘‘ जरा अब अन्दर जाकर देखो, वाचमेन गेट के पास भी नहीं फटकने देगा।’’
‘‘ अन्दर जाने की क्या जरूरत मिस्त्री! यही क्या कम है कि इसे हमने बनाया था।’’
मौलिक व अप्रकाशित
जनाब Dr T R Sukul जी बहुत बहुत बधाई सुुुन्दर पेेेशकश के लिये आदााब
विनम्र आभार , आदरणीय आसिफ जी
आदाब। कम शब्दों में चिर-परिचित विषय को नये तरीक़े से विषयांतर्गत उभारने की बढ़िया कोशिश है। शीर्षक बहुत बढ़िया लगा। हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ. टी आर शुक्ल साहिब। दो बातें मन में आ रहीं हैं। अव्वल तो यह कि दोनों पात्रों के या किसी एक के संवाद क्षेत्रीय भाषा में हो जायें। दूसरी यह कि समापन किसी ऐसे तीखे या संदेशवाहक पंचपंक्ति वाले संवाद से हो कि जागृति अधिक स्पष्ट उभर जाये। (मेरे अभ्ययासानुसार, यथा:
//हम न सही; कभी कोई और मिस्त्री या आर्कीटेक्ट अंदर जायेगा, तो कुछ पायेगा ही हमारी निशानियों से!//
विनम्र आभार , आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी।
सुन्दर सुझावों के लिए धन्यवाद। निवेदन है कि मजदूर वर्ग अपनी बातचीत को जिन शब्दों से शुरू करता है और जिन से अंत करता है यदि उन्हें ज्यों का त्यों लिखा जाता है तो वह साहित्य में विकृति मानी जाएगी साथ ही स्थानीय बोली के शब्दों को अलग से अर्थ देना पड़ते , इसलिए उन्हें सहज भाषा में ही लिखना उचित समझा गया ।
समापन के लिए आपके द्वारा प्रस्तावित वाक्य तब उपयुक्त होता जब निर्माण कौशल की बात केंद्र के शीर्ष में होती। चूकि यहाँ "जागृति" पर कथन को फोकस करना है अतः यह दर्शाने का प्रयत्न किया गया है कि मजदूर लोग अपने जीवन में बड़े और छोटे सैकड़ों मकान बनाते हैं पर अपनी सीमाओं के बारे में जागृत रहते हैं परन्तु मकान बनवाने वाले, मेरा भवन , मेरा महल, कहते कहते सीमाएं लाँघते हैं और अंत में उनमें चमगीदड़ों का ही निवास देखा जाता है। सादर।
जनाब सुकुल जी आदाब,प्रदत्त विषय पर अच्छी लघुकथा लिखी आपने,बधाई स्वीकार करें ।
विनम्र आभार , आदरणीय समर कबीर जी
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