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आदरणीय योगराजभाईसाहब, जैसा कि मैं आपकी खुली टिप्पण्णी की प्रतीक्षा कर रहा था. आपने उसी अनुरूप समझाते हुए सारी बातें स्पष्ट की हैं. इससे रचनादृष्टि अपेक्षानुसार व्यापक होती है. इस विशिष्ट विधा के प्रति समझ और बढ़ती है. यह सही है कि ’बाबूजी कितना’ के बाद ’पर’ उतना अनिवार्य नहीं था. लेकिन ग्लानिवत मनोदशा में पड़े पात्र ’सुधाकर गुप्ता’ के वाक्-त्वरण (vocal acceleration) को संतुष्ट करने के क्रम में मैं इसे बाद में जोड़ दिया. आयोजन में प्रस्तुति के बाद भी एडिट करता रहा था न. लेट इनिशियेटिव और एफ़ोर्ट्स के ये भी साइड इफ़ेक्ट्स हैं.. :-))
अलबत्ता, नायक की पत्नी रोहिणी के मुँह से ’अब बबूल के पेड़ पर आम तो उगने से रहे’ कहवाना कथा-प्रभाव को अनावश्यक हल्का करना हो जाता ऐसा मैं मानता हूँ. प्रतिक्रिया स्वरूप ऐसी कोई कहावत पाठक के मन में तो आयेगी ही, ऐसा मेरा मानना है.
आदरणीय, आपसे मिली प्रशंसा इस विधा में मेरे प्रयास को मान्यता दे रही है यह जानना सुखकर है.
सादर
आदरणीय सर, शुरू में ऐसा लगा कि लम्बी होती जा रही है, लेकिन आखिरी पंक्ति पढ़ते ही सब कुछ सामने आ गया कि लिखे हुए की कितनी आवश्यकता थी| बधाई आपको !
आदरणीय चन्द्रेश छतलानीजी, आप जैसे लघुकथा के विशिष्ट सर्जकों से किसी प्रयास पर अनुमोदन पाना हर रचनाकार की अपेक्षा होती है. रचना यदि सार्थक लगी है तो हृदय से धन्यवाद स्वीकारें.
जी बिलकुल सहमत हूँ आपकी लघु कथा के मर्म से हम जो अपने बच्चों के व्यवहार से दुखी होते हैं उस वक़्त यदि हम खुद को रिवाइंड करें तो उसका कारण सामने आ जाएगा जिसको कहते हैं अपने गिरेबान में झांककर देखना |यही काम इस लघु कथा के पात्र गुप्ता जी ने किया बहुत बढ़िया लघु कथा है दिल से बधाई लीजिये आ० सौरभ जी.
आदरणीया राजेश कुमारीजी, आपसे मिला अनुमोदन आश्वस्तिकारी है. सादर धन्यवाद
ये परवरिश की बुनियाद है. जैसी बुनियाद माँ-बाप ने बनाई वही बुनियाद उनके बच्चे भी अपने बच्चों को देंगे. अपनी गलती का अहसास वक्त बीतने के साथ ही हो पाया. लेकिन उन्होंने इसे जिस सहजता से स्वीकार कर लिया वह विशिष्ट बात लगी. बहुत अच्छी लघुकथा लिखी आपने.
आदरणीया श्रद्धा जी, आपको संभवतः पहली बार इस आयोजन में देख रहा हूँ. आपकी उपस्थिति और आपसे मिला अनुमोदन प्रसन्नतादायक है.
सादर धन्यवाद
आदरणीय सौरभ भाईजी
अँग्रेजियत आजादी के आस पास उच्च वर्ग तक सीमित थी अब मध्यम वर्ग में यह लागू बीमारी की तरह फैल चुकी है। हर आने वाली पीढ़ी चाहती है कि बड़े बुजुर्ग साथ न रहें मजबूरी में रखना भी पड़े तो उन्हें 8 x 8 के कमरे तक ही सीमित कर दें। बस घर की रखवाली करते रहें । जैसे टामी वैसे माम डैड । यह माम डैड कहना जिसने भी सिखाया है भुगतना भी तो उसी को है। बोया पेड़ बबूल का ...।
शीर्षक को सार्थक करती बेहतरीन कथा, हार्दिक बधाई
आपकी संवेदनापूर्ण टिप्पणी से अपनी प्रस्तुति को मान पाते देखना सुखद है आदरणीय अखिलेश भाईजी.
सादर
गुप्ता जी का ज्वर आज तीसरे दिन भी तेज़ बना हुआ था.....
अच्छी लघुकथा हुई है, सुधाकर गुप्ता को केवल गुप्ता जी संबोधित करना भी ठीक होता, विषय बुनियाद को यथोचित स्थान मिला है, कथा विषयानुरूप अच्छी हुई है, बहुत बहुत बधाई आदरणीय सौरभ भईया.
//सुधाकर गुप्ता को केवल गुप्ता जी संबोधित करना भी ठीक होता//
इस विशिष्ट सुझाव के सापेक्ष रचना को मान देने केलिए धन्यवाद, गनेश भाई. आप जैसे सिद्धहस्त लघुकथाकार से अपनी रचना पर अनुमोदन और मान पाना हर अभ्यासी की अपेक्षा होती है जो कुछ बन पड़ा उसमें भी कुछ बेहतर लगा है तो यही मिला उत्साहवर्द्धन है.
शुभ-शुभ
बहुत अच्छी लघुकथा आ सौरभ पाण्डेय जी ,जो बोया वही काटना पड़ता है I
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