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ह्रदय से आभार, सर मैं कृत-कृत्य हो गई. आप भी मेरी तरह पिछड़ी सोच से ताल्लुक रखतें हैं.कथा शिल्प तो मैंने आपसे ही जाना हैं किन्तु समाज के लिए सोच पर आप की ही अनुगामिनी हूँ ,ऐसा सोच कर ही खुद पर मान हो रहा है. नारी की सम्पूर्णता, सम्पूर्ण नारी होने में है.अन्नपूर्णा होना स्त्रीत्व को सम्पूर्णता प्रदान करता है.आपके समर्थन का कोटि कोटि धन्यवाद सर.
आपका ह्रदय से धन्यवाद दीदी
आदरणीय श्रीमाली कथा पसंद करने के लिए ह्रदय से आभार...
आदरणीया सीमा सिंह जी, लघुकथा अच्छी बनी है। आपकी लघुकथा को पढकर मुझे अपने घर का दृश्य नजर आ गया। बेटियों से घर का काम बहुत कम करवाया जाता है उनको बस यही कहा जाता है अपनी पढाई पर ज्यादा ध्यान दो। घरेलू कामों में लगाने से उनकी शिक्षा पर असर पड़ता है। शिक्षा के बिना अन्नपूर्णा स्वरूप के कोई बड़े मायने नहीं हैं।
आदरणीय विनोद जी आपसे बहुत कुछ सीखा है मैंने.. उसका ह्रदय से आभार व्यक्त करती हूँ. परन्तु क्षमा कीजिये इस विषय पर आप से सहमत नहीं हूँ मैं..हर व्यक्ति को सामर्थ्यवान होना ही चाहिए... और पाक कला में प्रवीण होना भी एक प्रकार का स्वावलम्बन है.कथा पर आपकी उपस्थिति का बहुत धन्यवाद.
आपकी बात से सहमत हूं आ. सीमा जी। अभी पंद्रह दिन पहले ही मुझे मेरी एक पुरानी सहेली मिली। उसने मुझे बताया कि पति की नौकरी चली जाने के बाद उसने घर संभालने के लिए उसी पाककला को जरिया बनाया, जिसके लिए वह अब तक अपने परिजनों व मित्रों से वाह वाही पाती थी। उसी से वह अपने परिवार को उबार कर ले गई मुसीबतों से। आज वो सफल बिज़नेस वुमन है। कला तो कला है, इसमें कोई शंका नहीं होनी चाहिए और इस पर सदा से पहला अधिकार स्वभावतः भी स्त्रियों का रहा है। आजकल कामवालों से काम कराना नौकरी करने वाली महिला के लिए जरूरी है पर स्वयं को काम आना भी उतना ही जरूरी है।
खाना पकाना आना गुण है दीदी किसी भी दशा में अवगुण कैसे हो सकता है.. अगर कोई लड़की इंजिनीयर होने के साथ साथ पेंटिंग बनाती है, गाना गाती है, कवितायेँ लिखती है, तो ये उसका हुनर हुआ...और अगर भोजन बनाती है तो ये दकियानूसीपन और पिछड़े पन की निशानी हो गया ये समझ नहीं आया.
आदरणीय सीमा सिंह जी, मैं कुछ सीखाता भी हूँ इसका प्रचार करने के लिए आभारी हूँ। पाक कला में स्वावलंबन के साथ-साथ फिर तो अगर सारे परिवार के कपड़े धुलवाने, पूरे घर की सफाई करवाने, मटकों में पानी भरवाने, खेतों से जानवरों के लिए चारा लाने, उनके गोबर से उपले बनवाने और लकड़ियां इकट्ठी करके लाने में भी सामर्थ्यवान बनाया जाना चाहिए।
आदरणीय विनोद जी आप जैसे जमीन से जुड़े और साहित्य की गहरी समझ वाले व्यक्ति से तो मैं ऐसे कुतर्क कतई अपेक्षा नहीं कर रही थी..और आपने जो काम गिनवाए हैं वो क्या हमारी ग्रामीण बेटियाँ नहीं कर रही हैं...???
आदरणीया सीमा सिंह जी, आपने एक बार फिर से प्रशंसा की इसके लिए आपका आभार व्यक्त करता हूँ। आपको जो कुतर्क लग रहे हैं वह दरअसल एक सवाल है क्या पाक कला के स्वावलंबन के साथ-साथ इनमें भी सामर्थ्यवान नहीं बनाना चाहिए? आपकी पाक कला की निपुणता वाली बात पर मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मैंने तो अपनी प्रथम टिप्पणी में अपने घर की व दिल की बात रखी थी जिसे लगता है आपने मनभेद का रूप दे दिया है। मैं तो अपने बच्चों की दिनचर्या देखता हूँ उनको बिल्कुल भी समय नहीं मिल पाता है उनका स्कूल जाना। फिर ट्यूशन और पढाई। अगर उनसे घरेलू काम करवाने लगें तो उनकी पढाई में बहुत बाधा पड़ती है। आईएएस जैसी बड़ी परिक्षाओं के लिए बच्चे 20-20 घंटे तक पढते हैं। क्या ऐसी तैयारी के लिए ग्रामीण बेटियों को समय दिया जाता है? वहाँ भी सब आप जैसी सोच के ही लोग बैठे हैं जो बेटियों से जानवरों की तरह काम करवाते हैं फिर उनकी इस निपुणता की तारीफ में कसीदे पढते हैं। ये तो अपनी-अपनी सोच पर निर्भर करता है कौन अपनी बेटी को केवल घरेलू कार्यों में निपुण बनाता है और कौन उनको शिक्षित करके आर्थिक और सामाजिक तौर पर अपने पैरों पर खड़ा करता है।
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