(१). श्री मिथिलेश वामनकर जी
निर्विकल्प
“लक्ष्मी तुम काम में बेईमानी करोगी तो नर्क में जाओगी।” मैंने लक्ष्मी से चुहल की।
“मैडमजी, जो है सो एही लोक में है। परलोक में कोई सुरग-नरक नहीं है।”
“यानी तुम परलोक को नहीं मानती?”
“मानती हूँ न मैडमजी, उहाँ भगवान् रहते है लेकिन उहाँ बैठकर सुरग-नरक का बंदरबाट नहीं करते। वो इत्ते सक्छम है कि उहीँ से इस लोक को चलाते है।”
“यानी स्वर्ग नरक सब इसी लोक में है।”
“जी मैडमजी, ये इत्ता बड़ा घर, बड़ी-बड़ी गाड़ी, साहबजी की इत्ती बड़ी नौकरी, इत्ता बढ़िया खाना-पीना, यही तो सुरग है।”
लक्ष्मी की बात से मैंने बहुत गौरवान्वित महसूस किया। अपने अहं तुष्टि के लिए जानबूझकर मैंने पूछा-
“अच्छा ये स्वर्ग है तो फिर नरक?”
“ये गरीबी है नरक, मैडमजी, नरक में तो हम रहते है। भरपेट खाने को नहीं, ढंग का कपड़ा नहीं। ऊपर से हम औरत जात। मर्द पैरों की जूती समझता है, इज्जत नहीं करता। शराब पीकर आये तो मारता है, न पीकर आये तो जबरदस्ती। पैसा नहीं दो तो बेचने को तैयार। पूरा दिन बाहर काम करते हुए मरों और रात को......। अब ये नरक नहीं तो क्या है मैडमजी?”
लक्ष्मी की बात सुनकर अचानक इनके हाथ उठाने से लेकर, इस बंगले को खरीदने के लिए पापा से हेल्प मांगने को कहना और पार्टी में बॉस को कम्पनी देने के लिए कहना, जैसी कितनी ही बातें मेरे दिमाग में कौंध गई। लेकिन न चाहते हुए भी मैंने लक्ष्मी के स्वर्ग की परिभाषा को स्वीकार कर लिया।
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(२). योगराज प्रभाकर
वर्ण व्यवस्था (लघुकथा)
.
"बाहर निकाल अपने बेटे को पंडित ! देखते हैं कितनी गर्मी है उसके खून में. आज छोड़ेंगे नही उसे। हमारे गाँव में आकर दंगा फ़साद करने का मज़ा चखाएंगे उसको आज। "
हाथों में तलवार लाठियाँ पकड़े हुए पड़ोसी गाँव के नौजवानों की उग्र भीड़ बीच चौराहे खड़ी ललकार रही थी।
"आज हम ज़िंदा नही छोड़ेंगे उसे।"
इन आवाज़ों को सुनकर कर किसी अनिष्ट की आशंका में धीरे धीरे चारों बस्तियों के घरों के दरवासे बंद हो गये,
"है कोई माई का लाल जो आज पंडित के बेटे को बचा सके?"
यह ललकार सुनकर अब बंद दरवाज़ों के पीछे की रोशनियाँ भी बुझा डी गईं।
तभी पिछली कामगार बस्ती से दो साए प्रकट हुए, हाथ में छड़ी पकड़े छज्जू धोबी और दुर्गा मेहरतरानी का बेटा जग्गू.
"अरे क्या बात हुई बेटा, काहे इतना भड़क रहे हो? छज्जू ने नौजवान टोले ने नेता के पास पहुचते हुया बड़े प्रेम से पूछा।
"तुम रास्ते से हट जयो काका, आज हम उस हरामी के पिल्ले को नही छोड़ेंगे।?"
"अरे काका भी कहते हो, और ...., अरे कहीं तुम चक्की वाले नाथ जी के बेटे तो नही?"
"नही, मैं मंडी वाले भोला शंकर जी का...."
"ओह.... भोला शंकर जी? अरे कितने दानवीर और दानी सज्जन पुरुष थे तुम्हारे पिता जी। वो तो मुझे हमेशा बड़े भाई की तरह माना करते थे । लेकिन ऐसे दयालु इंसान के बेटे में इतना गुस्सा?"
"तो क्या कोई भी हमारे गाँव में आकर ऊधम मचा जाए और हम उसको सूखा छोड़ दें, उसको सजा देकर ही यहाँ से जायेंगे ?" टोले का नेता बहुत भड़का हुआ था I
"नहीं नहीं बेटा, उसको सज़ा मिलेगी. मैं कल भरी पंचायत में उसकी खबर लूँगा। अगर ज़रूरत पड़ी तो उसका हुक्का पानी भी बंद करवा देंगे I
"......................."
"देखो रात बहुत हो गयी है, अब तुम लोग भी अपने अपने घर जायो। " छज्जू ने उसके कंधे तो थपथपाते हुए कहा.
"नही, हम उसको सबक सिखाए बिना नही जाएँगे।" उग्र भीड़ शांत होने का नाम नहीं ले रही थी
"अगर हमारे काका की बात के बाद भी तुम लोग अपनी ज़िद पर आड़े हुए हो, तो हम भी मुकाबला करने को तयार हैं, हम ने भी चूड़ियाँ नहीं पहन रखी हैं I"
जग्गू की यह ललकार सुनकर से काई घरों की बुझी हुई बत्तियाँ फिर से जल उठीं।
"शांत बेटा शांत, देखो तीज त्योहार के दिन हैं। मन में नफ़रत मत पालो I"
दोनो नौजवानो को पीछे करते हुए छज्जू ने कहा। "देखो अगर फिर भी किसी को गुस्सा है, तो मुझे दे लो सज़ा जो देनी हो।"
छज्जू काका की इस बात ने असर दिखाया।
"हम जाते हैं काका, तुम्हारे कहने पर इस बार तो माफ़ कर देते हैं। लेकिन दोबारा ऐसी हरकत की तो हम से बुरा कोई नही होगा."
उग्र नौजवानों का टोला वापिस जा रहा था, काका की दलित बस्ती के काफी घरों में रौशनी दोबारा लौट आई थी।
बड़ी बस्तियों के बंद दरवाज़ों के पीछे काका की बुद्धिमत्ता और जग्गू के साहस को लेकर कानाफूसियाँ शुरू हो गईं थीं I
"देखा आपने पंडित जी, ये क्या हो रहा है ?"
"होना क्या है ठाकुर साहिब ! घोर कलयुग आ गया है, वर्ण व्यवस्था की धज्जियाँ उडाई जा रहीं हैं ।
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(३) सुश्री सीमा सिंह जी
अन्नपूर्णा
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सुबह से ही घर के नौकरों को निर्देश दे दे कर सब कुछ व्यवस्थित करने में जुटी थी मिसेज़ रॉय। एकलौती बेटी को लड़के वाले देखने आ रहे थे। पूरी तरह संतुष्ट होने के बाद रसोईघर की ओर बढ़ गईं, यही वह स्थान था जो श्रीमती रॉय को कतई पसंद न था, परन्तु आज अति विशिष्ठ अतिथि आ रहे थे तो सारी व्यवस्थाएं चाक-चौबंद कर देना चाहती थी I उनकी बेटी सुन्दर तो थी, इसी साल कंप्यूटर इन्जीनियर भी बन गई थी I तभी तो इतने बड़े घर से रिश्ता आ रहा था । तभी मेहमानों के आने की आहट हुई, लड़के के साथ उसके माता-पिता, चाचा-चाची, बहन-बहनोई और इन सबके अलावा दादी जो अपने पोते की भावी वधु देखने विशेष तौर पर आईं थी।
हलके फ़िरोजी रंग की शिफॉन की साड़ी में लिपटी लड़की ने कक्ष में प्रवेश किया I सबकी नज़रें उस पर ही केन्द्रित हो गई थीं। जिसे देखकर श्रीमती रॉय के चेहरे पर एक विजयी मुस्कान उभर आई। बेटी को सबसे मिलवाया, और उसके एक एक गुण की विवेचना करनें लग गईं I
“मेरी अन्नू कम्पूटर इंजीनियर है, वो भी गोल्ड मैडलिस्ट I” श्रीमती रॉय ने गर्व से बताया I
"ये जो आप पेंटिंग्स देख रहीं हैं न? मेरी अन्नू ने दसवीं कक्षा से ही बनानी शुरू कर दी थीं।” लड़के की माँ का ध्यान पेंटिंग्स पर देख श्रीमती रॉय ने कहा. “दो बार प्रदर्शनी भी लग चुकी है अन्नू की I”
“अरे ये अन्नू क्या नाम हुआ?” दादी ने पूछ ही लिया.
“माफ कीजियेगा, नाम तो अन्नपूर्णा है इसका बस प्यार से अन्नू बुलाती हूँ मैं I” सकपकाते हुए श्रीमती रॉय ने कहा।
“अन्नपूर्णा ?? बहुत ही सुन्दर नाम है I अच्छा ये तो बताओ बेटी, खाने में क्या पसंद है ?”
“सब कुछ खाती है मेरी बेटी I" उत्तर श्रीमती रॉय ने दिया
जवाब सुनकर दादी हँस पड़ी,
“मैं खाने की नहीं, पकाने के बारे में पूछ रहीं हूँ I खाना तो बनाना आता हैं न ? देखो हमारे मुन्ना को घर के खाने का बहुत शौक़ है.”
“दादी माँ! खाना बनाना तो नहीं सिखाया मैंने.” श्रीमती रॉय का चेहरा पीला पड़ गया था,
“अरे खाना बनाना नहीं सिखाया? मगर क्यों?" दादी के स्वर में आश्चर्य था I
"नहीं I क्योंकि इतना पढ़ लिखकर भी ..............?"
बात को बीच में ही काटकर दादी माँ ने मिसेज़ रॉय के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा: "वो सब ठीक है, लेकिन अन्नपूर्णा की परिभाषा तो मत बदलो बेटी।”
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( ४). सुश्री रीता गुप्ता जी
परिभाषा
रीमा की अभी ससुराल में सबके साथ सामंजस्य बैठाने की कवायद चल ही रही थी . आज उसकी ननद के रिश्ते के लिए लड़केवाले आयें थे .लड़की दिखाने व् खाने पीने के कार्यक्रम के बाद अब मुद्दे पर बात हो रही थी कि तभी रीमा स्वीट डिश की ट्रे लिए बैठक में घुसी .उसके ससुर जी बोल रहें थें ,
“हम तो बिलकुल मार्डन विचारों वालें हैं ,ना दहेज लेतें हैं ना देते हैं .मेरी बहू से पूछ लीजिये,अभी दो महीने पहले ही तो शादी हुई है “
“रीमा, बताओ इन्हें “
लड़के के पिता लगभग शीशे में उतर चुके थे कि उनकी नज़र पलकें झुकाए रसमलाई परोसती बहू पर चली गयी जिसके सावन-भादो बनें नैन बहुत कुछ कह रहें थें . मेजबान की मार्डन विचारों वाली परिभाषा के किताब के सारे पन्ने उन दो झुकी नयनों ने सुना दिया था . नमकीन हो चली रसमलाई का प्लेट रखते हुए मेहमान ने कहा कि,
“हम भी दहेज़ लोभियों से सख्त नफरत करतें हैं, अपने विचार हम फोन पर बता देंगें “
कह मेहमान ने झट उस झूठे मक्कार माहौल से निजात पा लिया ,पर
“ क्यों री,कंगले की बेटी , तूने कुछ कहा क्या उन्हें .........”
.......... पीठ फेरते ही सुनी ये बात देर तक छद्म परिभाषाओं की धज्जियां उड़ाती रही .
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(५). सुश्री कांता रॉय जी
भ्रम /परिभाषा,
"आपके सामने वाले घर में सजायाफ्ता मुजरिम रहता है । " पडोसन के मुंह से सुनी बात पैनी -धार सी दिल में उतर गई । गृहप्रवेश की खुशी काफूर हो गई थी ।
" चाची , ओ चाची , .... जल्दी दौड़ों, चाचा को कुछ हो गया है ।" बाहर से आवाज आई ।
" क्या हुआ ? " रसोई से सीधे वह बाहर की ओर दौड़ पडीं ।
" ये जमीन पर कैसे ..... उठो ना जी, ... क्या हो गया तुम्हें ...? कोई तो डाॅक्टर बुलाओ जल्दी से ! " उनको जमीन पर औंधे पड़े देख वह काँप उठी ।
पल भर में ही वो अनाथ सी कलप उठी थी कि एक अनजाने ने अपनी गाड़ी में निष्प्राण से शरीर को जमीन से उठा कर लिटा दिया । संग उसे भी बैठने को कह गाड़ी अस्पताल की ओर दौडा दी ।
कहने को पूरा परिवार लेकिन ऐसे में कोई आगे ना बढ़ा । गला रूँध रहा था बार - बार । " भाई साहब, आप कहाँ ... कौन सा अस्पताल लिए जा रहे है ? इस वक्त तो मेरे पास रूपये का इंतजाम भी ...." चिंता से निर्बल मन अब और अधीर हो उठा ।
" अरे , कैसी बात करती है ! आप भाई साहब पर ध्यान दें ! हम हैं ना ...सब देख लेंगे ! " सुनते ही कलेजा गड्डमड्ड होने लगा । उसके अपनेपन से भरे बोल ने उसकी लडखडाहट को जैसे सम्बल दे गये ।
" चिंता की कोई बात नहीं , अब ठीक है मरीज । वक्त पर उपचार मिलना कारगर सिद्ध हुआ । ," जैसे ही डाॅक्टर नें कहा मन में होश - भरोस हो आया ।
"भाईसाहब , आप अनजान होकर मेरे पति की जान बचाये है । आप कौन है ...आपका घर कहाँ है ? " उसे वो देवदूत के समान लग रहे थे ।
" अरे बहन जी , अनजान कहाँ ....मै पडोसी हूँ । आपके सामने वाले घर में ही तो रहता हूँ ! "
" कौन ...? सजायाफ्ता मुजरिम .....! "
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(६). डॉ विजय शंकर जी
राजनीति की परिभाषा
" सर , मुझे काफी समय हो गया आपके साथ रहते हुए। आप अपने आदर्शों और सिद्धांतों के लिए जाने जाते हैं. आप सदैव कहते भी हैं कि आप सिद्धांतों की राजनीति करते हैं।" उनकें आगे से काॅफ़ी का खाली प्याला उठाते हुए उसने अकेले में आज उनसे पूछ ही लिया ," पर सर वो कौन से सिद्धांत हैं जिनकीं आप हमेशा दुहाई देते हैं , उनकीं क्या परिभाषा है ? मेरी तो कभी समझ नहीं आते।"
वो सोफे से उठते हुए बोले , " अवश्य , अवश्य तुम्हें जानना चाहिए , तुम मेरे कितने ख़ास , कितने करीबी हो। मेरे राजनैतिक उत्तराधिकारी हो। राजनैतिक सिद्धांत वो होते हैं जो कभी परिभाषित नहीं होते। कभी परिभाषित नहीं किये जाते। जब जैसा अवसर आये , वैसा कह लो।..... कहो , समय की यही मांग है , जनता यही चाहती है। यही मैं कहता हूँ , यही मेरे कहे का अर्थ है , "
अपने शयन- कक्ष में जाते-जाते रुक कर बोले , " …… और , हाँ , सही क्या है , राजनीति में यह किसी को नहीं पता होता , पर गलत क्या है , यह हर एक को पता होता है। "
" वो क्या है ? सर ,"
" बस , यही तो ज्ञान की बात है , राजनीति में कहीं , कुछ भी , कभी भी , तब तलक गलत नहीं होता जब तलक खुद तुम्हें उससे कोई नुक्सान नहीं होता।"
ये कहते हुए वे शयन - कक्ष में चले गए।
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(७). सुश्री डॉ नीरज शर्मा जी
नैतिकता
आज रमेश बहुत गुस्से में घर से निकला । रास्ते भर सोचता रहा कि बस अब बहुत हो गया, आज तो आर या पार करके ही लौटूंगा। अचानक पिता की मौत का समाचार मिलते ही उसे भारत आना पड़ा, छुट्टियां भी कम ही थीं। पिता की मौत के बाद कई काम निपटाने थे। उनके मृत्यु प्रमाणपत्र के बिना कई काम अधर में लटके पड़े थे। क्लर्क उसे रोज़ बहाने बनाकर कभी कोई तो कभी कोई कागज़ लाने को कह कर टरका देता। समय कम था अतः उसकी चिंता बढ़ती ही जा रही थी व साथ साथ गुस्सा भी।यही सब सोचता हुआ वह दफ्तर पहुंच गया।
सामने ही क्लर्क को देखकर, कहीं गुस्से से काम न बिगड़ जाए , यह सोच कर स्वयं को संयत करते हुए उसने दफ्तर में प्रवेश किया।
"आज तो मेरा काम हो जाएगा न बड़े बाबू?"
"आपका काम थोड़ा टेढ़ा है, इंकवायरी भी तो करनी पड़ती है, उसमें समय लगता है"-बड़े बाबू ने समझाया।
"समय ही तो नहीं है मेरे पास, मुझे अमेरिका वापस लौटना है।"
सामने बड़ी मुर्गी देखकर होठों पर जीभ फिराते हुए बाबू ने सलाह दी -"देखिए आप चाहेंगे तो काम जल्दी भी हो जाएगा, पर आपको कुछ सुविधा शुल्क का प्रबंध करना होगा।"
"सुविधा शुल्क?"
"जी ! यही कुछ चाय पानी के लिए"
"वो तो ठीक है , पर इस बात की क्या गारंटी कि इसके बाद मेरा काम हो ही जाएगा।"
"अरे जनाब !! कैसी बात कर रहे हैं ? आखिर नैतिकता भी कोई चीज़ है कि नहीं।"
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(८). श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय जी
लघुकथा- परिभाषाऍ
“ नेताजी ! यह समझ में नहीं आया. आप दिन में इन्हीं नेताजी को जनता के सामने जम कर कोस रहे थे और अभी इन की लड़की की शादी में ?”
“ बढ़चढ़ कर हिस्से ले रहे हैं. यही ना, “ नेताजी मुस्काए, “ भाई वे राजनीति मतभेद थे. यहाँ सामाजिक समानता का मामला है. इसलिए हम दोनों जगह सही हैं . एक जगह पार्टी के साथ न्याय कर रहे थे. दूसरी जगह सामाजिक समरसता व भाईचारा निभा रहे थे.”
“ मगर उस दिन आप ने उस छुट भैया नेताजी की सुपारी दी थी. वह आप का कौन सा न्याय सिद्धांत था ?”
“ मेरे शर्गिर्द ! मेरे साथ रहोगे तो सब राजनीति सीख जाओगे. वह हमारा मत्स्य न्याय सिद्धांत था. बड़ी मछली हमेशा..” कहते हुए नेताजी मुस्काए.
“ आप ने अपने आका. यानि उन नेताजी को ..”
“ धोखे से मरवा दिया था. यह हमारा बगुला न्याय था,” कहते हुए नेताजी कुटिल मुस्कान बिखेरने लगे.
“ वाह नेताजी ! आप धन्य है. मगर एक बात और बताइए , आप विधानसभा में सब से ज्यादा क्रोधित दिख रहे थे. वहां आप ने जम कर कुर्सियां फेंकी थी. लोकतंत्र के मंदिर में यह सब. यह समझ में नहीं आया आदरणीय नेताजी ? ”
“ यह भी सही था मेरे शर्गिर्द . प्रजातंत्र में यही विरोध का तरीका है. यह भी जंगलन्याय है. हम सब यही न्याय सिद्धांत का पालन करते हैं .” सुनते ही शर्गिर्द नेताजी के पाँव में गिर गया, “ धन्य हैं नेताजी आप और आप का न्याय सिद्धांत. जो चारों और फ़ैल रहा हैं. ”
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(३३). सुश्री शशि बांसल जी
वक्ती-रिश्ते
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चार रोज़ गुजर चुके थे ।मायके से कोई फ़ोन नहीं आया था । जब भी ऐसा होता मधु स्वयं उनका हालचाल जान लेती ।वह सबको बार बार फ़ोन लगा रही थी , परंतु कोई प्रत्युत्तर नहीं मिल रहा था । वह घबराते हुए पति को साथ ले मायके दौड़ी ।दरवाज़े हलके से धक्के से खुल गया ।माँ, बाऊजी , भैया , भाभी और उनकी एकमात्र बिटिया चित्त पड़े हुए थे ।मधु समझ गई सब कुछ ख़त्म हो चुका है । ' उनकी बर्दाश्त की हद ख़त्म हो गई थी शायद , इसलिए इतना बड़ा कदम उठाने से पहले उससे बात भी नहीं की ।' मधु मायके के सब हालातों से वाक़िफ़ थी ।उन्हें व्यवसाय में घाटा क्या लगा उनकी पूरी दुनिया ही बदल गई थी । सारे रिश्ते - नाते दूर जा छिटके थे और इस कुपरिस्थिति का आनंद ले रहे थे। सब ओर से मिल रहे अपमान , परेशानी व दुःख से वे टूट चुके थे । आशा के सभी द्वार भी बंद हो गए थे ।हालात इतने भयावह थे कि मधु और उसके पति द्वारा किये प्रयास ऊँट के मुँह में जीरे के समान थे । कर्ज के बोझ ने उन्हें अधमरा पहले ही कर दिया था , आज रस्मअदायगी भी हो गई थी ।अचानक मधु ने पथरायी आँखों से एक हृदय-विदारक निर्णय लेते हुए पुलिस को फ़ोन लगा रहे पति से कहा ," सुनिए , आप सब कार्यवाही के बाद इनके दाह - संस्कार की तैयारी कीजिये , मुखाग्नि मैं दूँगी । विनती है कि किसी नातेदार को सूचित न करें । जो रिश्ते इनके जीतेजी साथ में दो सूखी रोटी नहीं खा सके , उन्हें मृत्यु-भोज खाने का भी अधिकार नहीं "**********************************************
(३४). श्री सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा जी
लघुकथा .......................परिभाषा
सुधा ने बेटी की सगाई फिक्स की तो पुरानी मित्रता के चलते उसे भी सूचना भिजवा दी . जब से अरविन्द गए थे , मैच्योर बच्चों के बीच सुधा ने उसके साथ दूरिओं को जगह दे दी . उसे तकलीफ ही नहीं सदमा भी लगा था पर बच्चों के बीच सुधा के मातृत्व की गरिमा और विश्वास को कोई ठेस न लगे उसने अपने दिल की हर उलझन पर पत्थरों की परते जमा दी थीं . अरविन्द , सुधा के कमजोर कंधों पर बिटिया के विवाह की महती जिम्मेदारी छोड़कर अचानक इस दुनिया से चले गए थे . समय ने घावों को आधा - अधूरा ही सही पर भरा जरूर और जब उसे सुधा की बेटी के विवाह की सूचना मिली तो उसके हाथ ईश्वर के प्रति धन्यवाद के लिए उठ गए वह सोचने लगा आज अरविन्द जी की आत्मा निश्चय ही शांत हो गयी होगी .वह नियत समय पर विवाह स्थल पर बेटी को आशीर्वाद देने पहुंच गया .
' जरा इधर आकर मेरी बात सुनो .' भीड़भाड़ से थोड़ा अलगाव मिलते ही उसने सुधा से कहा .
' जल्दी बोलो ! कोई भी देख सकता है . बच्चे वैसे ही तुम्हे यहां देखकर मुझपर शक़ की निगाह डाल चुके हैं .
' बेटी का विवाह है और उसी की उतरी हुई साड़ी पहन कर रस्म - अदायगी कर रही हो ! हमेशा की तरह इस बार नई साड़ी नहीं ले सकती थीं ?
' फालतू बातें करनी हैं तो चले जाओ . किसी ने यह बातें करते देख - सुन लिया तो बवंडर आ जायेगा .'
' कुछ नहीं होगा . कह लेने दो मुझे . लगता है अपने ही घर में जहां हर बात की मंजूरी के लिए तुम्हारी भोहों की गति पर बात तय होती थी , वहीं पर एक अतिरिक्त बोझ की तरह रह रही हो .बहू के श्रगार के लिए चमचमाता परिधान , बेटी के लिए भी कोई कमी नहीं और इन सबके स्रोत यानी तुम्हारे लिए पुरानी उतरन ! स्वर्गवास अरविन्द जी का हुआ है और वनवास तुम भोग रही हो .'
' अब चुप भी रहो . यह सब नहीं देख सकते तो चले जाओ .'
' चाह कर भी नहीं रुक सकता ? याद करो एक - एक साड़ी के लिए दस - दस दुकानों पर जा - जा कर दस - दस साड़ियां खुलवाती थीं और तब कहीं जाकर बड़ी मुश्किल से अच्छी तरह पहनने - परखने के बाद एक साड़ी तुम्हे पसंद आती थी . अब उसी सुधा को जब बेटी की उतरन पहने हुए देखा तो रहा नहीं गया .'
' बहुत रो चुकी हूँ अब मत रुलाओ .बताओ किसके साथ जाती अपने लिए साड़ी पसंद करने .'
' बुला नहीं सकती थीं . अब भी तो बुलाया ही है न . तभी तो आया हूँ .'
' क्या कहती बच्चों को . कौन से रिश्ते की डोर से बंध कर जाती तुम्हारे साथ अपने लिए साड़ी पसंद करने ?'
' क्या जीवन में हर रिश्ते को परिभाषा देना जरूरी होता है . सब कुछ परभाषित होता तो क्यों आता तुम्हारे एक बुलावे पर !'
' ठीक है ! आये हो तो दूल्हा - दुल्हन को आशीर्वाद दो और जाओ . '
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(३५) सुश्री रश्मि तारिका जी
( खातिरदारी)
" बहू ..तुम विजय जवाईं जी से बात क्यों नहीं करती ।नंदोई हैं तुम्हारे ..उनका मान सम्मान करना तुम्हारा फ़र्ज़ है ...नाराज़ नहीं होने चाहिए। इस बात का ध्यान रखना ।"
"माँजी..उनकी खातिरदारी में कोई कमी न रहे मैं ध्यान रख रही हूँ "।अपनी सफाई देते हुए निशा ने कहा।
" खाने पिलाने से केवल खातिरदारी नहीं होती । विजय जी शिकायत कर रहे थे कि तुम उनसे बात नहीं करती ।यह गलत बात है बहू।"
अपनी सास की बात सुनकर निशा अवाक रह गई। पिछली बार सबकी उपस्तिथि में भी नंदोई जी से ज़रा सी हँस कर बात की तो सासू माँ ने मर्यादा में रहने का एलान कर दिया और आज उनके आदेश का पालन करते हुए वो खामोश है तो नंदोई से बात करना अनिवार्य कर दिया गया। इसी कशमकश में उसने अचानक अपने कंधे पर हाथ महसूस हुआ ।
"अरे सलहज जी..क्या बात है ! हमसे नाराज़ हैं क्या ...कुछ सेवा भी नहीं करती ..."।
"आप अंदर जाइये ...मैं इनको भेजती हूँ आपकी खातिरदारी के लिए ।" निशा ने गुस्से से अंदर जाने का इशारा किया तो वो खिसिया कर अंदर चले गए।
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पूज्यनीय सर जी , लघुकथा मूल के स्थान पर निम्नलिखित लघुकथा को प्रतिस्थापित करने का मेरा निवेदन स्वीकार करें -
भ्रम /परिभाषा, विषयानुरूप प्रस्तुति /
"आपके सामने वाले घर में सजायाफ्ता मुजरिम रहता है ।" पडोसन के मुंह से सुनी बात पैनी -धार सी दिल में उतर गई । गृहप्रवेश की खुशी काफूर हो गई थी ।
" चाची , ओ चाची , जल्दी दौड़ों, चाचा को कुछ हो गया है ।" बाहर से आवाज आई ।
" क्या हुआ ? " रसोई से सीधे वह बाहर की ओर दौड़ पडीं ।
" ये जमीन पर कैसे ! उठो ना जी, क्या हो गया तुम्हें ? कोई तो डाॅक्टर बुलाओ जल्दी से ! " उनको जमीन पर औंधे पड़े देख वह काँप उठी ।
पल भर में ही वो अनाथ सी कलप उठी थी कि एक अनजाने ने अपनी गाड़ी में निष्प्राण से शरीर को जमीन से उठा कर लिटा दिया । संग उसे भी बैठने को कह गाड़ी अस्पताल की ओर दौडा दी ।
कहने को पूरा परिवार लेकिन ऐसे में कोई आगे ना बढ़ा । गला रूँध रहा था बार - बार । " भाई साहब, आप कहाँ ,कौन से अस्पताल लिए जा रहे है ? इस वक्त तो मेरे पास रूपये का इंतजाम भी ...." चिंता से निर्बल मन अब और अधीर हो उठा ।
" अरे , कैसी बात करती है ! आप भाई साहब पर ध्यान दें ! हम हैं ना ! सब देख लेंगे ! " सुनते ही कलेजा गड्डमड्ड होने लगा । उसके अपनेपन से भरे बोल उसकी लडखडाहट को जैसे सम्बल दे गये ।
" चिंता की कोई बात नहीं , अब ठीक है मरीज । वक्त पर उपचार मिलना कारगर सिद्ध हुआ । ," जैसे ही डाॅक्टर नें कहा मन में होश - भरोस हो आया ।
"भाईसाहब , आपने अनजान होकर भी मेरे पति की जान बचाई है । आप कौन है , आपका घर कहाँ है ? " उसे वो देवदूत के समान लग रहे थे ।
" अरे बहन जी , अनजान कहाँ , मै पडोसी हूँ । आपके सामने वाले घर में ही तो रहता हूँ ! "
" कौन ? सजायाफ्ता मुजरिम .....! "
मौलिक और अप्रकाशित
निर्विकल्प
“लक्ष्मी तुम काम में बेईमानी करोगी तो नर्क में जाओगी।” मैंने लक्ष्मी से चुहल की।
“मैडमजी, जो है सो एही लोक में है। परलोक में कोई सुरग-नरक नहीं है।”
“यानी तुम परलोक को नहीं मानती?”
“मानती हूँ न मैडमजी, उहाँ भगवान् रहते है लेकिन उहाँ बैठकर सुरग-नरक का बंदरबाट नहीं करते। वो इत्ते सक्छम है कि उहीँ से इस लोक को चलाते है।”
“यानी स्वर्ग नरक सब इसी लोक में है।”
“जी मैडमजी, ये इत्ता बड़ा घर, बड़ी-बड़ी गाड़ी, साहबजी की इत्ती बड़ी नौकरी, इत्ता बढ़िया खाना-पीना, यही तो सुरग है।”
लक्ष्मी की बात से मैंने बहुत गौरवान्वित महसूस किया। अपने अहं तुष्टि के लिए जानबूझकर मैंने पूछा-
“अच्छा ये स्वर्ग है तो फिर नरक?”
“ये गरीबी है नरक, मैडमजी, नरक में तो हम रहते है। भरपेट खाने को नहीं, ढंग का कपड़ा नहीं। ऊपर से हम औरत जात। मर्द पैरों की जूती समझता है, इज्जत नहीं करता। शराब पीकर आये तो मारता है, न पीकर आये तो जबरदस्ती। पैसा नहीं दो तो बेचने को तैयार। पूरा दिन बाहर काम करते हुए मरों और रात को......। अब ये नरक नहीं तो क्या है मैडमजी?”
लक्ष्मी की बात सुनकर अचानक इनके हाथ उठाने से लेकर, इस बंगले को खरीदने के लिए पापा से हेल्प मांगने को कहना और पार्टी में बॉस को कम्पनी देने के लिए कहना, जैसी कितनी ही बातें मेरे दिमाग में कौंध गई। लेकिन न चाहते हुए भी मैंने लक्ष्मी के स्वर्ग की परिभाषा को स्वीकार कर लिया।
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