आदरणीय साथिओ,
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लघुकथा गोष्ठी क्र.51
स्वरचित एवं मौलिक
वसुंधरा की कोख में निरंतर बहने वाला जल विभिन्न रूप धरकर अपने अस्तित्व की रक्षा करने हेतु हमेशा सचेत रहता उसे कुछ गर्व था इस बात का कि वह जीवन के लिये अपरिहार्य बन चुका है .
कूप,झील,ताल-तलैया,बावड़ी,जोहड़,नदी,समन्दरऔर बर्फीले पर्वतों से पिघलती शिलाएं सभी उसकी आन बान शान बनकर साथ साथ चलते रहे मीठे और खारे जल का अपना अपना स्थान मानव मन में जगह बनाने में सफल रहा.पर हाय री कीस्मत!धरा के अंतःमार्ग से बाहर निकलकर जल दीर्घ निश्वासें भरने लगा था भू का पथरीला,माटीमसृण,हरियाला,जलजीवजंतुओं की पनाहगार वाला रास्ताउसे थकाने लगा था.लहरों की चंचलता,नमक निर्मिति का पुनीत दानकर्म,द्रव्य खनिजों की बहुलता जैसे गुण तिरोहित हो रहे थे.
नेत्र बंद किये जल ने अपने पालक वरूण देवको याद किया.अपनी विशिष्टताओं का हवाला देकर शपथ ली धरा गगन के बीच सृष्टि के अंत तक साथ देगा उस मानवका,जो उसे सजाता,संवारता,पूजता और
उपयोग में लाता है.
अपनी खूबियों की गठरी लिये फिर चल पड़ा 'जल'..अब उसे कैद करने के नाम पर बांधों में बांधा गया,
नलों,पाइपों,वाटर हार्वेस्टिंग यंत्रों में रोका गया,बोतलों में पैक किया गया,पर्वतों को काट वृक्षों को धराशायी कर नन्ही छिटपुट धाराओं में झलक दिखाने भर का अवसर मानव अपनी खुशफहमी कायम रखकर देने लगा था.
कहीं छायादार पेड़ मिलते तो दो पल आराम ही कर लेता..तपती धूप में बेहाल वह खुद को ही ढूंढने का प्रयास कर रहा था.कहीं कोई माटी का घड़ा या प्याऊ नहीं..ओफ्फ!मूर्च्छित हालत में देर तक उसांसे भरता वह संभला तो खेतिहर किसान के घर में हैंड पंप से फिसलते कनखियों से देख कान उधर ही लगा दिये.
किसान चार पांच पियक्कड़ों से घिरा जुआ खेलता हुआ बीवी पर चीख रहा था-'जा!टैंकर आ गओ.
ले आ पानी!चार दिन हो गए बिन न्हाए सबने.
-कुएं,बावड़ी,ताल,जोहड़ सारे पाट राखे हैं तम मानुसों ने...के करै धरती मैया भी...मजबूर है.
धरती मैया की कोख से बाहर निकालके तमनै बड़े जुलुम करे हैं जी!इस पवित्तर जल पै रहम करो नई तो कहर बरसैगा..योई पानी बहाके ले जागा सारी दुनिया नै जी.
बूंद बूंद भर लो अंजुरी में अपनी...जे हाथ ही हैं म्हारे जो अच्छे करम कर सकै हैं...
यो बहता पानी थक लिया अब...इसनै हाथों से संभाल लो बस.
मत करो इसका दोहन...नई पीढ़ी नै भी साथ जान दो.
जल पानी की ठेली को देखकर कुछ पल के लिये ठिठक गया था ...उसे अहसास हो रहा था मानो
उसके थके हारे तपते तन पर किसी भले मानस ने ठंडे छींटे मार दिये हैं अपनी कोमल हथेलियों की अंजुरी में भरकर...
बहुत सुंदर रचना, जल की महत्ता और पर्यावरण को समेटे ये रचना बहुत कुछ कहना चाहती है, रचना में आने वाले क्षेत्रीयसंवाद सहज ही बढ़िया बने है... हालांकि मुझे इसके प्रदत्त विषय पर होने में थोडा संशय है, बरहाल मेरी ओर से बधाई स्वीकार करें...
आदाब। विषयांतर्गत जल की कथा-व्यथा उभारती बहुत बढ़िया रचना हार्दिक बधाई आदरणीया डॉ. अंजू लता सिंह जी। विगत दिनों मैंने भी एक रचना लिखी थी "जल में ढल" । आशा है आपको भी पसंद आयेगी। कृपया सोशल मीडिया पर पढ़ियेगा और राय दीजिएगा। सादर।
जल की सुन्दर व्यथा-कथा आदरणीय अंजू लता सिंह जी . आदरनीय वीरेंदर वीर मेहता जी की बात विचारणीय है.
मुहतरमा डॉ. अंजू लता सिंह जी आदाब,प्रदत्त विषय पर अच्छी लघुकथा लिखी आपने,बधाई स्वीकार करें ।
आपने मंच के नियमानुसार रचना के नीचे मौलिक व अप्रकाशित नहीं लिखा?
बढिया साहित्यिक कथा , लेकिन शीर्षक को परिभाषित नही कर पा रही हैं।प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आपको ।
हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ अंजु लता सिंह्जी।बेहतरीन लघुकथा।
बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीया अंजु दी।
दुहाई रिमिक्स्ड ! (लघुकथा) :
"मैं क़ाफ़िर हूँ यारो; न धरम है, न ठिकाना!....
इबादत कर दिखाना है, पाखण्ड करते जाना है! बस, जीते जाना है!"
"तुम बेवफ़ा हरग़िज़ न थे; पर तुम वफ़ा कर न सके!"
"कितनी भलीं थीं, वो राहें हम जिन पे बाप-दादा संग थे चलते रहे!"
"तो फ़िर .. तू क़ाफ़िर तो नहीं! मग़र बदनसीब ये जग तूने देखा; तुझको काफ़िरी आ गई!"
"हाँ, प्यार का नाम मैंने सुना था मग़र; प्यार स्वार्थ है, ये जग ने दी है ख़बर!"
"जब से धन से मुहब्बत तू करने लगा! तू उसी की इबादत करने लगा!"
"मैं शातिर हूँ यारो; न घर है, न ठिकाना! धन कमाते जाना है, बस मॉडर्न होते जाना है!"
"होठों पे असली बात, ये कैसे अब आई! सुधर जा मेरे भाई; दुहाई है दुहाई!"
महानगर के अत्याधुनिक अपार्टमेंट्स की पाँचवी मंज़िल के अत्यंत महँगे किराये के फ़्लैट के अत्याधुनिक वॉशरुम में पूर्णनग्नावस्था में स्नान-आनंद लेते हुए तुकबंदी के ये स्वर गूंज रहे थे। लिव-इन-रिलेशनशिप के सफ़र में सब कुछ था उन दोनों स्मार्ट धनवान युवा युगल के पास; असंतोष और कुंठा भी!
(मौलिक व अप्रकाशित)
सुन्दर भाव के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी
आदाब। रचना पर समय देने के लिए शुक्रिया जनाब ओमप्रकाश क्षत्रीय 'प्रकाश' जी।
रचना संबंधित अपनी बात नीचे टिप्पणी में कह दी है। मार्गदर्शन निवेदित।
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,ये किस शैली की लघुकथा है? मैं समझ नहीं सका,बहरहाल बधाई स्वीकार करें ।
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