कथ्य व जानकारी
ओपन बुक्स ऑनलाइन (ओबीओ) पर प्रधान-संपादक आदरणीय योगराज प्रभाकरजी ने लुप्त-प्राय रचना विधा मुकरी या कह-मुकरी में रचनाएँ प्रस्तुत कर आज के सुधी-पाठकों के लिये महती कार्य किया है. इन अर्थों में आपका यह उत्कृष्ट प्रयास मात्र ओबीओ ही नहीं वर्तमान साहित्यिक परिवेश के लिये भी अभूतपूर्व योगदान है. मैंने अपने तईं इस संदर्भ में जो कुछ जानकारियाँ प्राप्त की हैं, उन्हें साझा कर रहा हूँ.
जैसा कि नाम से प्रतीत होता है, कह-मुकरियाँ या मुकरियाँ का सीधा सा अर्थ होता है कही हुई बातों से मुकर जाना. और इस बंद में होता भी यही है. ये चार पंक्तियों का बंद होती हैं, जिसमें पहली तीन पंक्तियाँ किसी संदर्भ या वर्णन को प्रस्तुत करती हैं, परन्तु स्पष्ट कुछ भी नहीं होता. चौथी पंक्ति दो वाक्य-भागों में विभक्त हुआ करती हैं. पहला वाक्य-भाग उस वर्णन या संदर्भ या इंगित को बूझ जाने के क्रम में अपेक्षित प्रश्न-सा होता है, जबकि दूसरा वाक्य-भाग वर्णनकर्ता का प्रत्युत्तर होता है जो पहले वाक्य-भाग में बूझ गयी संज्ञा से एकदम से अलग हुआ करता है. यानि किसी और संज्ञा को ही उत्तर के रूप में बतलाता है. इस लिहाज से मुकरियाँ एक तरह से अन्योक्ति हैं.
आदरणीय योगराज प्रभाकर के शब्दों में -
एक बहुत ही पुरातन और लुप्तप्राय: काव्य विधा है "कह-मुकरी" ! हज़रत अमीर खुसरो द्वारा विकसित इस विधा पर भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी स्तरीय काव्य-सृजन किया है. मगर बरसों से इस विधा पर कोई सार्थक काम नहीं हुआ है. "कह-मुकरी" अर्थात ’कह कर मुकर जाना’ !
वास्तव में इस विधा में दो सखियों के बीच का संवाद निहित होता है, जहाँ एक सखी अपने प्रियतम को याद करते हुए कुछ कहती है, जिसपर दूसरी सखी बूझती हुई पूछती है कि क्या वह अपने साजन की बात कर रही है तो पहली सखी बड़ी चालाकी से इनकार कर (अपने इशारों से मुकर कर) किसी अन्य सामान्य सी चीज़ की तरफ इशारा कर देती है.
ध्यातव्य है, कि साजन के वर्णित गुणों का बुझवायी हुई सामान्य या अन्य चीज़ के गुण में लगभग साम्यता होती है. तभी तो काव्य-कौतुक उत्पन्न होता है. और, दूसरी सखी को पहली सखी के उत्तर से संतुष्ट हो जाना पड़ता है यानि पाठक इस काव्य-वार्तालाप का मज़ा लेते हैं.
आदरणीय योगराज प्रभाकर की कुछ कह-मुकरियाँ उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत हैं -
इस बिन तो वन उपवन सूना,
सच बोलूँ तो सावन सूना,
सूनी सांझ है सूनी भोर,
ए सखि साजन ? ना सखि मोर !
ऐसा ना हो, वो ना आये,
घड़ी मिलन की बीती जाये,
सोचूँ, देखूँ शून्य की ओर,
ए सखि साजन ? ना सखि मोर !
देख बदरिया कारी कारी,
वा की चाल हुई मतवारी,
हो न जाए ये बरजोर,
ए सखि साजन ? ना सखि मोर !
मादक स्वर में ज्योंहिं पुकारे,
सजनी भूले कारज सारे ,
उठे हिया में अजब हिलोर,
ऐ सखि साजन ? न सखि मोर !
सारा गुलशन खिल जाएगा,
कुछ भी हो पर वो आएगा,
जब आए बादल घनघोर,
ऐ सखि साजन ? न सखि मोर !
कह-मुकरियों का इतिहास
मुकरियों या कह-मुकरियों का प्रारम्भ, पहेलियों की तरह ही, अमीर खसरो से माना जाता है. उसी परंपरा को आगे बढाते हुए भारतेन्दु हरिश्चन्द्रजी ने अपने समय में इनपर बहुत काम किया. उन्होंने इनके माध्यम से हास्य, तीखे व्यंग्य, दर्शन आदि के साथ-साथ वर्त्तमान सामाजिक-राजनैतिक घटनाओं पर भी लिख कर बेहतर प्रयोग किये थे.
भारतेन्दु जी की कुछ मुकरियाँ जो सुलभ हो पायीं हैं उन्हें प्रस्तुत कर रहा हूँ.
भीतर भीतर सब रस चूसै ।
हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै ।
जाहिर बातन में अति तेज ।
क्यों सखि साजन ? नहिं अँगरेज !
सब गुरुजन को बुरो बतावै ।
अपनी खिचड़ी अलग पकावै ।
भीतर तत्व नहिं, झूठी तेजी ।
क्यों सखि साजन ? नहिं अँगरेजी !
तीन बुलाए तेरह आवैं ।
निज निज बिपता रोइ सुनावैं ।
आँखौ फूटी भरा न पेट ।
क्यों सखि साजन ? नहिं ग्रैजुएट !
मुँह जब लागै तब नहिं छूटै ।
जाति मान धरम धन लूटै ।
पागल करि मोहिं करे खराब ।
क्यों सखि साजन ? नहिं शराब !
सीटी देकर पास बुलावै ।
रुपया ले तो निकट बिठावै ।
ले भागै मोहिं खेलहिं खेल ।
क्यों सखि साजन ? नहिं सखि रेल !
धन लेकर कछु काम न आवै ।
ऊँची नीची राह दिखावै ।
समय पड़े पर सीधै गुंगी ।
क्यों सखि साजन ? नहिं सखि चुंगी !
मतलब ही की बोलै बात ।
राखै सदा काम की घात ।
डोले पहिने सुंदर समला ।
क्यों सखि साजन ? नहिं सखि अमला !
सुंदर बानी कहि समुझावैं ।
बिधवागन सों नेह बढ़ावैं ।
दयानिधान परम गुन-आगर ।
क्यों सखि साजन ? नहिं विद्यासागर ! (ईश्वरचंद्र विद्यासागर - बंगाल के उद्भट्ट विद्वान, शिक्षाविद और समाज-सुधारक)
रूप दिखावत सरबस लूटै ।
फंदे मैं जो पड़ै न छूटै ।
कपट कटारी जिय मैं हुलिस ।
क्यों सखि साजन ? नहिं सखि पुलिस !
एक गरभ मैं सौ सौ पूत ।
जनमावै ऐसा मजबूत ।
करै खटाखट काम सयाना ।
का सखि साजन ? नहिं छापाखाना !
सतएँ अठएँ मों घर आवै ।
तरह तरह की बात सुनावै ।
घर बैठे ही जोड़ै तार ।
क्यों सखि सजन ? नहिं अखबार !
नई नई नित तान सुनावै ।
अपने जाल मैं जगत फँसावै ।
नित नित हमैं करै बल-सून ।
क्यों सखि साजन ? नहिं कानून !
लंगर छोड़ि खड़ा हो झूमै ।
उलटी गति प्रति कूलहि चूमै ।
देस देस डोलै सजि साज ।
क्यों सखि साजन ? नहीं जहाज !
शिल्प व विधान
यह अवश्य है कि कोई रचना और उसके बंद पहले आते हैं उसके बाद बन गयी परिपाटियों को शिल्पगत अनुशासन मिलता है. अमीर खुसरो या भारतेन्दु आदि ने कथ्य और भाव-संप्रेषण पर अधिक ज़ोर दिया. कारण कि ऐसी प्रस्तुतियों का कोई विधान सम्मत इतिहास था ही नहीं. किन्तु, इस विधा में उपलब्ध प्रस्तुतियों के सजग वाचन से इसके शिल्प का अनुमान तो होता ही है. उस आधार पर कुछ बातें अवश्य साझा करना चाहूँगा.
एक बात और, ऐसे कई रचनाकार हैं जो हिन्दी के अलावे अन्य भाषाओं में भी कह-मुकरियों पर काम कर रहे हैं. यह स्वागतयोग्य है. लेकिन अधिकांश रचनाकारों के साथ दिक्कत यही है कि वे शिल्प के प्रति एकदम से निर्लिप्त हैं. इसकारण उनकी प्रस्तुतियाँ क्षणिक कौतुक का कारण भले बन जायें, विधागत रचना का मान पाने से वंचित रह जाती हैं.
खैर, उपरोक्त सभी मुकरियों के बंद को ध्यान से देखा जाय तो दो बातें स्पष्ट होती हैं --
प्रथम तीन पद या वर्णन-पंक्तियों के माध्यम से साजन या प्रियतम या पति के विभिन्न रूप परिलक्षित होते हैं, चौथी पंक्ति का प्रथम वाक्य-भाग ऐसा ही बूझ लेने को कहता हुआ प्रश्न भी करता है. परन्तु उसी पंक्ति का दूसरा वाक्य-भाग न सिर्फ़ उस बूझने का खण्डन करता है, अपितु कुछ और ही उत्तर देता है जोकि कवि का वास्तविक इशारा है.
दूसरी बात शिल्प के स्तर पर दिखती है.
शब्दों में मात्रिक व्यवस्था के साथ-साथ प्रथम दो पंक्तियाँ सोलह मात्राओं की होती हैं. यानि, प्रथम दो पंक्तियाँ गेयता को निभाती हुई शाब्दिकतः सोलह मात्राओं का निर्वहन करती हैं. तीसरी पंक्ति पन्द्रह या सोलह या सत्तरह मात्राओं की हो सकती है. कारण कि, तीसरी पंक्ति वस्तुतः बुझवायी हुई वस्तु या संज्ञा पर निर्भर करती है. फिर, चौथी पंक्ति दो भागों में विभक्त हो जाती है. तथा चौथी पंक्ति के दूसरे वाक्य-भाग में आये निर्णायक उत्तर से भ्रम या संदेह का निवारण होता है.
कह-मुकरियों की प्रकृति
इस हिसाब से कह-मुकरियाँ या मुकरियाँ पहेलियों के समकक्ष नहीं रखी जा सकतीं. कारण कि, पहेलियों का उत्तर पद्य-बंद का अन्योन्यश्रयाय भाग नहीं होता, बल्कि पुछल्ले की तरह संलग्न हुआ करता है. जबकि यहाँ उत्तर पद्य-बंद का ही हिस्सा है.
इसी तरह कबीर की उलटबासियों को भी कह-मुकरियों के दर्ज़े में नहीं रखा जा सकता जिनकी पूरी प्रकृति ही रहस्यमय है. उलटबासियों को ध्यान से देखा जाय तो ऐसा दीखता भी है. मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि उलटबासियाँ दर्शन-शास्त्र के मीमांसाओं (विशेष कर पूर्व-मीमांसा) से प्रभावित हैं और उनका इंगित भी कई-कई बार स्पष्ट नहीं होता.
विश्वास है, मुकरियों या कह-मुकरियों के रचयिताओं को वर्णित उपरोक्त विन्दुओं से रचना-कर्म के क्रम में आवश्यक लाभ मिल सकेगा.
*** *** ***
--सौरभ
Tags:
उत्साह वर्धन करने हेतु हार्दिक धन्यवाद आपके प्रयास/सहयोग स्वागत योग्य है
आदरणीय सौरभ भाई साहब आपका लाख लाख शुक्रिया हमरा मन इस छंद के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए व्याकुल था. इस विषय को मै चित्र काव्य में सम्मलित कहमुकरी छंद से समझने का प्रयास भी किया पर मूल तत्व समझ नहीं आये थे
आदरणीय, ओ.बी.ओ. मंच को हम इसीलिए ज्ञान मंच कहते है यहाँ ज्ञान गंगा बहती है. साहित्य विधा से जुडी समस्त गलतफहमियाँ यहाँ दूर हो जाती हैं.
आदरणीय सौरभ जी ने बहुत ही सरल और सहज ढंग से समझाया है. मै उनका शुक्रगुजार हूँ| आशा करता हूँ कि इस विषय में रचना करने की कोशिश भी करूँगा. सौरभ भाई धन्यवाद इस प्रसाद के लिए.
भाई उमाशंकरजी, परस्पर ’सीखना-सिखाना’ ही इस मंच की विशेषता रही है. आपको प्रस्तुत आलेख से थोड़ी-बहुत सहुलियत मिली है यह जान कर अपार संतोष हो रहा है.
सादर
आदरणीय सौरभ सर,
डॉ प्राची जी, सितम्बर २०११ में जब पहली बार कहमुकरी इस मंच पर प्रस्तुत की गई थी, तब से लेकर आज तक इस विधा में ओबीओ पर संजीदा रचनाएँ ही पेश की गई हैं. मुझे इस बात का हमेशा गर्व रहेगा कि हज़रत अमीर खुसरो और भारतेंदु हरिश्चन्द्र की इस बहुत ही प्यारी सी विधा को डाईलिसिस से उठा कर पुन: सुरजीत करने का श्रेय ओबीओ को ही जाता है.
//तो क्या अमीर खुसरों जी यह विधा उर्दू भाषा से लेकर आये थे और उसे नया कलेवर प्रदान किया था//
सीमाजी, उर्दू कोई आयातित भाषा नहीं है, हाँ, अन्यान्य कारणों से अलबत्ता यह आयातित शब्दों पर निर्भर अवश्य रहती है.
इस सुन्दर भाषा का जन्मदाता अपना देश भारत ही है. उर्दू भाषा के प्रारम्भिक प्रयोगकर्ताओं में अमीर खुसरो शलाका पुरुष सदृश हैं, जिन्हों ने हिन्दी की तरह इसे अपनाया था और आगे बढ़ाया था. आप यदि ध्यान दें तो दिखेगा कि सिवा लिपि में अंतर के प्रारम्भ में इन दोनों भाषाओं में कोई अन्तर नहीं था. खुसरो ही ’कह-मुकरी’ या ’मुकरी’ विधा के जनक माने जाते हैं.
विषयान्तर न हो तो यह भी कहा जाता है कि यही अमीर खुसरो तबला के भी प्रथम प्रयोगकर्ता हैं.
विधाओं और शिल्प में प्रयोगों का क्या है. ये दो तरीकों से होते हैं. एक, यदि रचनाकार गहन अध्ययन करके कुछ विशेष करना चाहता है और विधा को एक अभिनव आयाम मिलता है. दूसरे, रचनाकार को कुछ नहीं आता है और विधा और शिल्प को ठेंगे पर रखता है. वैसे एक तीसरी श्रेणी भी होती है रचनाकारों की. जिसे अब तब देखा अवश्य जाता है लेकिन सुधीजन मान्यता नहीं देते. वह श्रेणी है, ढीठ रचनाकारों की. जो ’खूँटा वहीं गाड़ेंगे’ की तर्ज़ पर किन्हीं मान्य विधाओं की एँवी-एँवी करते फिरते हैं.
वैसे, कुल मिला कर सुधी पाठकों की स्वीकार्यता ही हर तरह की विधाओं के पुष्पित-पल्लवित होने का कारण होती है.
सादर
सौरभ जी सादर नमस्कार ! हिन्दी साहित्य की इस अनुपम विधा को जो की लगभग विलुप्त होती जा रही है इस मंच पर साझा करके बहुत ही सराहनीय कार्य किया है। इससे हिन्दी के क्षेत्र में करी कर रहे मनीषियों को अपनी बात कहने के एक अलग ढंग मिलेगा और हिन्दी साहित्य समृध्द होगा। बहुत बहुत आभार !!
सौरभ जी बहुत ही लाभकारी पोस्ट है कह्मुकरियाँ की बहुत सी गुत्थी सुलझ जायेंगी इन्हें पढ़कर मात्रा के विषय में भी स्पष्ट हुआ की प्रथम तीन पंक्तियों में ही १६ की बंदिश है योगराज जी जो सर्वप्रथम इस विधा को ओ बी ओ मंच पर लाये और आपने इस विधा की बहुत सी गुत्थी को इस पोस्ट के माध्यम से सुलझाया आप दोनों ही बधाई के पात्र हैं |
वन्दे मातरम आदरणीय बंधुओं,
आदरणीय गुनीजनों मै साहित्य का विशेष ज्ञान नही रखता हूँ कह मुकरियों के बारे में लिखा है की शाब्दिकतः सोलह की मात्रा का निर्वहन करती हैं. यह बात बड़े ही पते की है.
मगर मुझे इन कह मुकरियों में कुछ चीजे खल रही हैं, या तो मेरा गणित बेहद कमजोर है या फिर गणना का तरीका, गुनिजन सुधीजन समझायेंगे तो मेहरवानी होगी.
सीटी देकर पास बुलावै ।
22 2 11 21 2 2 2=17
रुपया ले तो निकट बिठावै ।
212 2 2 211 222=19
धन लेकर कछु काम न आवै ।
11 211 12 21 1 22=17
ऊँची नीची राह दिखावै ।
2 2 22 21 222=17
भीतर भीतर सब रस चूसै ।
2 1 1 211 11 11 22 =16
हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै
22 22 2 11 11 11 22=20
एक गरभ मैं सौ सौ पूत ।
11 111 2 2 2 21= 14
जनमावै ऐसा मजबूत ।
11 22 22 1121 =15
मतलब ही की बोलै बात ।
1111 2 2 22 21 =15
राखै सदा काम की घात ।
2 2 1 2 21 2 21 =१५
आदरणीय मेरी गणना के हिसाब से इन सभी में सोलह की मात्रा ठीक नही बैठ रही है,
आदरणीय यदि ये मात्रिक गणना क्रम मैं ठीक प्रकार से समझ सका तो शायद गजल में भी मैं अपनी कमियों को पकड़ सकूंगा
सादर
सीटी देकर पास बुलावै ।
22 2 11 21 2 2 2=17
22 211 21 122 = 16
रुपया ले तो निकट बिठावै ।
212 2 2 211 222=19
112 2 2 111 122 = 16
भाई राकेशजी, आपकी गणना ही गलत हुई है.आप ह्रस्व स्वर की मात्रा को भी गुरु की तरह ले रहे हैं. अतः पंक्तियों में मात्रा का गलत योग आ रहा है.
वैसे पुरानी ये रचनाएँ है, सीधे रचनाकार(रों) से प्राप्त नहीं हुई है. अतः संभव है, संग्रहकर्त्ताओं की कमसमझी भी कई रचनाओं का सत्यानाश कर डाले.
22 2 11 21 1 2 2=16
सीटी देकर पास बुलावै ।
212 2 2 111 122=16
रुपया ले तो निकट बिठावै ।
11 211 11 21 1 22=16
धन लेकर कछु काम न आवै ।
2 2 22 21 122=16
ऊँची नीची राह दिखावै ।
2 1 1 211 11 11 22 =16
भीतर भीतर सब रस चूसै ।
11 11 2 11 11 11 22=16
हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै
21 111 2 2 2 21= 15
एक गरभ मैं सौ सौ पूत ।
1122 22 1121 =15
जनमावै ऐसा मजबूत ।
1111 2 2 22 21 =15
मतलब ही की बोलै बात ।
22 12 21 2 21 =15
राखै सदा काम की घात।
भाई राकेश जी, आदरणीय सौरभ जी ने सत्य कहा है कि ‘आप ह्रस्व स्वर की मात्रा को भी गुरु की तरह ले रहे हैं’! परिणामतः योग गलत आ रहा है !
//वैसे पुरानी ये रचनाएँ है, सीधे रचनाकार(रों) से प्राप्त नहीं हुई है. अतः संभव है, संग्रहकर्त्ताओं की कमसमझी भी कई रचनाओं का सत्यानाश कर डाले.//
सौरभ जी का यह कथन भी सत्य प्रतीत हो रहा है .... तभी कुछ पंक्तियों में मात्राओं का योग १५ आ रहा है
ऐसा भी हो सकता है कि ‘एक गरभ मैं सौ सौ पूत’ (१५) के बजाय ‘एक गरभ मैं सौ सौ पूता’ (१६) रहा हो ......
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
Switch to the Mobile Optimized View
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |