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मसाला कम है?

हम भारतवासियों की एक आदत है..मसाला खाने की..यदि सब्जी में मसाला ना हो तो मजा ही नन्ही आता..अरे हम तो दाल भी तडके वाली खाते हैं..मसाला मसाला मसाला..ये हमारे जीवन का अभिन्न अंग हो गया है..मिर्ची थोड़ी कम हुई नन्ही की खाना बेस्वाद लगने लगता है..

अब तो ये हालत है की बिना मसाले के कुछ अच्छा लगता ही नन्ही..फिल्म में जब तक एकाध आईटम सॉन्ग ना हो..फिल्म अधूरा सा लगता है..टीवी सीरियल्स में जब तक एकाध अन्तरंग सीन ना हो..सीरियल्स बेमजा लगते हैं..रियल्टी शो में जब तक हाथा पाई या गाली गलौज ना हो तब तक रियल्टी शो भी फीका फीका लगता है..टीवी साक्षात्कारों में जब तक एंकर बिलकुल ही अशिष्ट तरीके से अपनी बात सामनेवाले के मुंह में ना ठूंस दे..वो अच्छा एंकर हो ही नन्ही सकता...बे सिर पैर के ख़बरों को मसाले का तडका लगा के जब तक रोचक ना बनाया जाए हमें वो स्वादहीन लगता है... अंतहीन सीरियल्स के चौंकाने वाले मोड़..वो झन्नाटेदार आवाज,वो स्लो मोसन में अवास्तविक बातों को वास्तविकता का जामा पहनाना...भाई क्या कहने हैं...

और तो और अब तो gentle man गेम कही जाने वाली क्रिकेट में भी जब तक IPL का तडका और चीयरगर्ल्स का तडका नन्ही लगता मजा ही नहीं आता.. अरे इस मसाले की प्रवृति ने तो अचानक से एकदम से अप्रासंगिक हो गए बापू को भी गांधीगिरी के माध्यम से प्रासंगिक बना दिया..

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बड़ा ही सुन्दर महत्व बताया गया है हमारे जिंदगी में मसाला का ,लेकिन इस पर मैं कल टिपण्णी करूँगा ,समय के अभाव
स्वागत है..
प्रीति जी, आप ने तो मसाले की व्याख्या जिस मसालेदार अंदाज से किया है वो काबिलेगौर है, जहाँ तक मेरा मानना है मसाला डालिये जरूर पर उसकी मात्रा और जगह उचित होना चाहिये, तभी वह अच्छा लगता है, बिना जरूरत के मसाला ठूसना अच्छे भले व्यंजन को भी बर्बाद कर देते है, कुछ दिन पहले मेरे एक मित्र श्री आशुतोष रंजन जी से इसी मुद्दे पर बात हो रही थी, वो कहे की डेली सोप सीरियल मे जो एक तमाचा को तीन बार दिखाते है दर्शक को उस चोट का एहसास तो नहीं होता हा हसी जरूर आती है |
धन्यवाद
सच्ची बानगी, सुंदर विचारपरक अभिव्यक्ति की .बधाई प्रीति जी. लेकिन साथ ही हमें धारा के खिलाफ चलने के लिए भी तैयार रहना है. अन्यथा ये मीडिया समाज को जाने कहाँ ले जाकर छोड़े.शायद वो असभ्यता का सूनसान टापू होगा .और होंगे हम मूल्य -आदर्श विहीन अमानव|
धन्यवाद, सहमत...
मसालेदार टिप्पणी का बखूब निवाला..
तिसपर मसाले का ही ओरहन-हवाला.. !
छिछला व्यवहार, हरसूँ बौड़म परिपाटी..
हल्ला हड़बोंग, काटे हरसूँ बवाला.. !! .. - अच्छा अंदाज़ है. ..
आपकी टिप्पणी ने तो चार चाँद लगा दी...धन्यवाद
बहुत ही सही कहा आपने priti jee... मसाला (खानें वाला) हमारे भारत की पहचान भी है... पर दिन-ब-दिन ये मसाला (publicity stunt) विश्व पटल पर हमारी भारतीय सभ्यता को भी मसाला लगा रहा है... फिल्मों में बेहूदा गानें और गालिया ये कहकर डालना कि ये reality है हमारे समाज की... हमे वही दिखाया जाता है जो हम देखना पसंद करते हैं... तो शायद इन मसलों के पीछे कहीं हमारे समाज का बदलता स्वाद भी जिम्मेदार है... बहुत ही अच्छा लगा पढ़ कर... इस विषय पर हम भी कुछ लिखना पसंद करेंगे अपने अंदाज़ में उम्मीद करती हूँ... अगर खुले आम आपसे आपका विषय चुरानें की इज़ाज़त मांगू तो आपको कोई ऐतराज़ ना होगा... शुक्रिया...!!
धन्यवाद, स्वागत है...

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