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अरुण जी आपकी बात से सहमत हूँ कि हमारा रुख सुधारवादी और समालोचना का होना चाहिए
मगर कभी कभी ऐसा पढ़ने को मिल जाता है कि समझ ही नहीं आता क्या कहा जाये
खास कर तब जब जानकार लोग गलत लिखते हैं तो दुःख होता है (गुस्सा भी आता है)
वहाँ हमारा रुख सुधारवादी हो ही नहीं सकता क्योकि उन्हें पहले से पता होता है कि क्या गलत है और क्या सही
मान गये वीनस जी (कृपया बताईयेगा आपके नाम का हिंदी उच्चारण यही है न )| परन्तु फिर भी कहने का लहजा सलीकेदार ही होना चाहिए हर हाल में | लेखक की तलवार उसकी कलम ही होती है |
गणेश सर,
मुझे तो आप की बात बिलकुल ठीक लगी..
आलोचनाओं से गुणवत्ता में निखार आता है तो तारीफ़ से आत्मविश्वास ..
टिप्पणी तो आवश्यक है। पर हम जैसे नये लोगो के साथ समस्या ये है की क्या टिप्पणी करें, कंही हमारी टिप्पणी का विपरीत प्रभाव न पडे।
अमितेश भाई, आपकी बात से मैं सहमत हूँ कि नए लोग टिप्पणी करने से हिचकते है, और कुछ स्थापित साहित्यकार टिप्पणी देना शान के खिलाफ समझते है किन्तु मै अच्छी तरह से समझता हूँ कि साहित्य को बढ़ावा देना हो या साहित्यकार को बढ़ावा देना हो , दोनों स्थितियों में टिप्पणी देना आवश्यक है | नए लोग खुल कर लिखे, रचनाओं को पढने के बाद जो दिल में भाव आये वह सर्वज्ञात मर्यादा का पालन करते हुए टिप्पणी के रूप में लिखे,स्थापित साहित्यकारों से एक्सपर्ट कमेंट्स कि उम्मीद हम सभी रखते है |
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आदरणीया प्रभा जी , आपने ख्याल किया होगा कि मैने कुछ स्थापित साहित्यकार कहा, कुछ मतलब कुछ सभी नहीं.. :-) :-)
बिलकुल ठीक है रचनाओं पर यथा संभव टिपण्णी करना ही चाहिए
टिप्पणियां आलोचनात्मक हों तो और भी अच्छा रहेगा लेखन के लिए.
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