कविता हमारे ह्रदय से सहज ही फूटती है, ये तो आवाज़ है दिल की ये तो गीत है धडकनों का एक बार जो लिख गया सो लिख गया ह्रदय के सहज भाव से ह्रदय क्या जाने व्याकरण दिल नही देखता वज्न ...वज्न तो दिमाग देखता है ...एक तो है जंगल जो अपने आप उगा है जहाँ मानव की बुद्धि ने अभी काम नही किया जिसे किसी ने सवारा नही बस सहज ही उगा जा रहा है , ऐसे ही है ह्रदय से निकली कविता ,,, पर दूसरे हैं बगीचे पार्क ये सजावटी हैं सुन्दर भी होते हैं बहुत काँट छाट होती है पेड़ो की, घास भी सजावटी तरीके से उगाई जाती है बस ज़रूरत भर ही रहने दिया जाता है , वहाँ सीमा है पेड़ एक सीमा से ज्यादा नही जा सकते ..तो ऐसे बगीचों में कुदरत के असीम सौन्दर्य को नही देखा जा सकता ,,,तो पूरे सच्चे भाव से लिखी कविता अपने असीम सौन्दर्य को लिए हुए है उसमे अब वज्न की कांट छांट नही होनी चाहिए फिर क्या पूछते हो विधा ये तो ऐसे ही हो गया जैसे हम किसी की जाति पूछे बस भाव देखो और देखो कवि क्या कह गया है जाने अनजाने, जब हम वज्न देखते हैं तो मूल सन्देश से भटक जाते हैं कविता की आत्मा खो जाती है और कविता के शरीर पर काम करना शुरू कर देते हैं कविता पर दिमाग चलाया कि कविता बदसूरत हो जाती है, दिमाग से शब्दों को तोड़ मरोड़ कर लिखी कविता में सौन्दर्य नही होता हो सकता है, आप शब्दों को सजाने में कामयाब हो गए हो और शब्दों की खूबसूरती भी नज़र आये तो भाव तो उसमे बिलकुल नज़र ही नही आएगा, ह्रदय का भाव तो सागर जैसा है सच तो ये है उसे शब्दों में नही बाँधा जा सकता है, बस एक नायाब कोशिश ही की जा सकती है और दिमाग से काम किया तो हाथ आयेंगे थोथे शब्द ही ....कवियों का पाठकों के मानस पटल से हटने का एक कारण ये भी है वो भाव से ज्यादा शब्दों की फिकर करते हैं . व्याकरण की फिकर करते हैं ..इसलिए तो पाठक कविताओं से ज्यादा शायरी पसंद करते हैं ..मै शब्दों के खिलाड़ी को कवि नही कहता हाँ अगर कोई भाव से भरा हो और उसके पास शब्द ना भी हो तो मेरी नज़र में वो कवि है ...उसके ह्रदय में कविता बह रही है, उसके पास से तो आ रही है काव्य की महक ....आप अगर दिमाग से कविता लिखोगे तो लोगो के दिमाग को ही छू पाओगे ,,,दिल से लिखी तो दिल को छू पाओगे ..और अगर आत्मा से लिखी तो सबकी आत्मा में बस जाओगे अपने ह्रदय की काव्य धारा को स्वतंत्र बहने दो मत बनाओ उसमे बाँध शब्दों के व्याकरण के वज्न के ..........बस इतना ही ..................आप सब आदरणीयों को प्रणाम करता हुआ .......
नीरज
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यह भी सही जगह नहीं है। आप जिस संदर्भ में उत्तर दे रहे हैं वह टिप्पणी ऊपर पोस्ट है।
बहरहाल!
अब आपकी प्रतिक्रिया की बात की जाए।
प्रथम, इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि मैं आपको जमता हूं या नहीं। चर्चा अपनी जगह है। जमना या न जमना अपनी जगह। इस मंच पर प्रथम दृष्टया हम सब कुछ सीखने के लिए एकत्रित हुए हैं। फिर किसको कौन जमता है या नहीं यह सब तो आपसी संवाद और समझ पर निर्भर करता है।
दूसरा आप इस समय विषयांतर कर रहे हैं। यहां हम प्रपंच करने या टाइमपास के लिए नहीं बैठे हैं। जिन बिन्दुओं को आपने अपने लेख में उठाया है उन्हीं बिन्दुओं पर बात करें तो उचित होगा। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने मरते समय क्या कहा था यह चर्चा का विषय नहीं है। रवीन्द्रनाथ टैगोर से लेकर राहुल सांकृत्यायन तक को जो व्यक्ति पढ़ चुका हो उससे मैं क्या कोई भी व्यक्ति ऐसे आलेख की उम्मीद नहीं करेगा। किस पर अफसोस करूं आपके पढ़ने पर या फिर आलेख पर?
तो सबसे पहले हमारे अरुण जी बहुत प्यारे इंसान हैं और बिलकुल बहुत अच्छी बातें कहीं आपने ,,,पर मेरे अंतस से जो सवाल
आदरणीय नीरज जी आपसे एक निवेदन है कि आप जिस व्यक्ति की टिप्पणी का प्रत्युत्तर दे रहे हैं उसे उस व्यक्ति की टिप्पणी के नीचे के Reply button को क्लिक करके पोस्ट करें। इससे चर्चा की तारतम्यता बनी रहेगी।
नीरज जी, कृपया संबंधित टिप्पणी के ठीक नीचे बने रिप्लाइ बॅटन को क्लिक कर प्रतिउत्तर दें |
भाई नीरजजी, आपने जिस तरह से परिचर्चा को उठाया है, ऐसा नहीं कि इन विन्दुओं के गिर्द इसी मंच पर कई-कई बार परिचर्चाएँ न हो चुकी हों. यह भी अवश्य है कि आगे भी होंगी. कारण कि पद्य भाव-संप्रेषण को मात्र ’लिखने का व्यामोह’ नहीं माना जा सक्ता है. आगे की सारी कहानी इसी के साथ नत्थी है.
लेकिन आपकी जो पहली टिप्पणी आयी है --संभवतः भाई अरुन अनन्त के कहे पर आपकी प्रतिक्रिया है लेकिन गलत स्थान पर अंकित हुई है-- वह पूरी परिचर्चा की औकात को ही एक झटके में नीचे ले आती है. भाई, आप किन ’महानुभाव’ की बात कर रहे हैं यह स्पष्ट तो नहीं ही है, वे कुछ ग़लत कह रहे हों यह भी नहीं लग रहा है. मग़र उनका जैसा व्यक्तित्व आपने साझा किया है अग़र् वह सही है तो वह किसी स्तर से नव-हस्ताक्षरों के लिए न तो अनुकरणीय है, न ही ऐसे व्यक्तित्व के सापेक्ष कोई चर्चा होनी चाहिये.
आग्रह है, और जैसा अन्य टिप्पणियों से स्पष्ट हो रहा है, आप अध्ययन करें और खूब अध्ययन करें. धीरे-धीरे आपके सामने निहितार्थ और तथ्य स्वयं पारदर्शी हो कर खुलते जायेंगे.
एक बात और, हर कवि भावुक होता है, हर कविता भाव-संप्रेषण ही है, किन्तु, न हर भावुक कवि होता है, न हर भाव-संप्रेषण कविता होती है. यह अलग बात होगी कि कोई कविता की संज्ञा को किस लिहाज़ से परिभाषित करता है. लेकिन सम्पूर्णता में व्यक्तिवादी सोच का कोई महत्व नहीं होता.
शुभ-शुभ
आदरनीय नीरज जी!
,पर मेरे अंतस से जो सवाल
गीतिका जी मै किसी को झुठलाना नही चाहता और ना ही खुद को सही साबित करना चाहता हूँ ,,,
//कबीर केशब्द भी सब गवारुं हैं //
क्या क्या कह जाते हैं जनाब? ये गंवारू शब्द क्या होते हैं? गांव में बोली जाने वाली भाषा, भोजपुरी, अवधी, ब्रज आदि आदि सब गंवारू भाषायें हैं क्या?
अनर्गल प्रलाप करने से बातें सिद्ध नहीं होतीं। बातें कबीर की आप करते हैं और सुर, लय, ताल, नियम सब भूल जाते हैं। महोदय, कबीर, मीरा सबने हृदय के उदगार ही व्यक्त किए हैं।
कबीर गाते चले जाते थे तो क्या कुछ भी गाते चले जाते थे। क्या कुछ भी गाया जा सकता है? शब्दों का कोई समूह किस तरह गीत बनता है? यह आपको ज्ञान नहीं है लेकिन कबीर को था। रवीन्द्र, राहुल, मीरा, तुलसी आदि आदि सबको था। बेहतर होगा जिन कबीर, रवीन्द्र, राहुल की बात आप कर रहे हैं उनको फिर पढ़ें और देखें उन्होंने क्या लिखा, क्यों लिखा और कैसे लिखा?
दार्शनिकता झाड़ने से शब्दों के भयंकर मकड़जाल तैयार कर देने से कुछ न तो सिद्ध किया जा सकता है और न ही हासिल हो सकता है।
//अगर मै सही हूँ तो मुझे मेरे सही होने का
पता चल जाएगा और अगर मै गलत हूँ तो मुझे मेरे गलत होने का पता चल जाएगा ,,,,,//
आपने यहां एक आलेख पोस्ट किया और फिर भाग गए कविता पोस्ट करने और उन पर आयी टिप्पणियों का उत्तर देने। अगर आपने यहां समय दिया होता और प्राप्त हुई टिप्पणियों का अध्ययन किया होता तो शायद सब कुछ स्पष्ट हो गया होता।
आपने सबसे पहले तो कबीर जी के दोहे पर ध्यान दीजिये जिस में व्याकरण साफ झलक रहा है ...जो आपने खुद ही स्वीकार किया है ..
नीरज जी आपके ही प्रतिउत्तर की प्रतीक्षा कर रहा था, यदि आप स्वयं दुबारा पढ़ें कि आपने क्या लिखा तो शायद आप पुनः वही बात दोहराएंगे नहीं....
,मैंने पूछा एक से तो उन्होंने ने
हो जाती है की शब्दों में उसे ढालना नामुमकिन हो जाता है तो एक निशब्द कविता की अनुभूति भी कवि को होती है
भाई जरा पंक्तियों पर पुनः गौर फरमाएं, देखें आपने स्वयं जिनसे पूंछा उनका उत्तर क्या था, आपको स्वयं आपके सभी प्रश्नों का उत्तर इन्हीं में समाहित है.
नीरज जी, आपकी मानसिक स्थिति तो ठीक है ना, देखिए कहीं दिमाग और घुटने ने जगह तो नहीं बदल ली है । अमां यार, क्यों अपना मजाक उड़वा रहे हो, और आप कौन हो ? कोई ऋषि-मुनि, विज्ञान विशारद तो नहीं दिखते ? काहे भैया बेसिर-पैर की उड़ा रहे हो ? मंच में एंट्री मिल गई तो लगे थोपने अपनी बात । आपने तो एक झटके में लाखों ज्ञानियों को हाशिये पर खड़ा कर दिया । एक कहावत है, याद रखें '' चौबे जी चले छब्बे बनने, दूबे बनके आए '', बंद करो अपनी बकवास और अपने भावों का ये रोना-धोना । प्रकृति की बात आप बात करते हो तो उसके संतुलन को भी समझना जरूरी है, मिट्टी में भी खनिज एक अनुपात में जब तक नहीं होते वहां हर पेड़ नहीं उग सकता । हवा में भी विभिन्न गैसों की मात्रा नियत होती है जिसमें कमी-वृद्धि होने से प्राण पर संकट आ जाते हैं, यहां तक कि पूरा ब्रह्मांड केवल इसलिए नित फैल रहा है कि हर ग्रह-नक्षत्र एक दूसरे की गुरूत्वाकर्षण शक्ति से बंधे हैं, आप वाकई अजीब हो, जाने कैसे सजीव हो ।
भाई जी आपकी बातें पढ़ कर कुछ बातें मेरे दिमाग में भी आई ...
आदमजात नंगा पैदा होता है, तो क्यों हम कपड़े पहनते हैं ?
यदि यह सामाजिक होने की अनिवार्य शर्त भी है तो हम ७६ तरह के फैंसी कपड़े क्यों सिलवाते हैं ? नग्नता तो कपड़े के एक टुकड़े से भी छुप सकती है
यदि बात मौलिक सुंदरता की है और हम उससे संतुष्ट हो सकते हैं तो किसी सामाजिक कार्यक्रम में हम क्रीम पाउडर क्यों लगाते हैं मौलिक रूप से तो हम वैसे ही सुन्दर है और सुंदरता तो मन के अंदर होती है
निश्चित ही आप भी यह सब करते होंगे ....
अगर किसी उत्सव में सामान्य कपडे पहन कर भी चले जायेंगे तो भी सामान्यतः हमें वहाँ से भगाया नहीं जायेगा परन्तु यदि हम नग्नावस्था में पहुँच जाएँ तब ? निश्चित ही सामाजिक रूप से हमें स्वीकार नहीं किया जायेगा और भगा दिया जायेगा
सामाजिक रूप से यही सारी बातें काव्य रचनाओं पर भी लागू होती हैं
जब काव्यात्मक भाव हमारे मन में तो वो नग्न वस्था में होते हैं मौलिक रूप से सुन्दर होने के बावजूद सामाजिक स्वीकार्यता के लिए हमें उन पर छन्द के सुन्दर सुन्दर कपड़े और अलंकारिक क्रीम पाउडर लगाना पड़ता है
वैसे अगर अपने घर के अंदर कोई नग्न रहना चाहे तो कोई नहीं रोकता है, कोई बिना छन्द के लिखे और खुद तक सीमित रखे तो किसी को क्या आपत्ति होगी
वैसे यह मेरा निजी अनुभव है कि इस तरह के तर्क और विचार प्रस्तुत करने वाले अक्सर छन्द और अरूज़ को जानने और समझने को समय की बर्बादी मानते हैं मुझे हैरत होती है कि लोग किसी विषय को समझे बिना उसकी उपयोगिता और सार्थकता को नकारने की बात क्यों करते हैं
हो सकता है आप इससे सहमत न हों
एक बात और जोड़ना चाहूंगा कि अगर आप खुद अपने तर्कों को उचित मानते हैं तो सबको समझाने और अपने तर्क से प्रभावित करने की जगह खुद बिना छन्द के क्यों नहीं लिखते ? अगर लोगों को सही लगेगा तो खुद अनुसरण करेंगे
वजहों के बोझों तले क्यों , बेवजह है ज़िन्दगी |
जीने वालों के लिए , जैसे सज़ा है ज़िन्दगी |
साँसों के संग ही चल रही साँसों के संग थम जायेगी ,
आती जाती सांसो का एक सिलसिला है ज़िन्दगी |
आप ने यह रचना लिखते समय छन्द की शरण क्यों ली भाई ?
जिस बात को आप खुद अमल में नहीं ला पा रहे हैं उस पर बहस और चर्चा करेंगे तो कैसे बात बनेगी भाई जी ?
आप अपनी रचनाओं में खुद छन्द की ओर भागते दिखाई पड़ते हैं
// .उसके ह्रदय में कविता बह रही है, उसके पास से तो आ रही है काव्य की महक ....आप अगर दिमाग से कविता लिखोगे तो लोगो के दिमाग को ही छू पाओगे ,,,दिल से लिखी तो दिल को छू पाओगे ..और अगर आत्मा से लिखी तो सबकी आत्मा में बस जाओगे अपने ह्रदय की काव्य धारा को स्वतंत्र बहने दो मत बनाओ उसमे बाँध शब्दों के व्याकरण के वज्न के .... //
भाई इतना तो आपको भी पता होगा कि मयखाने में बैठ कर गीता नहीं बांची जाती ...
सादर
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