ओपन बुक्स ऑनलाईन परिवार के लखनऊ चैप्टर की मासिक गोष्ठी रविवार दिनांक 23 नवम्बर 2014 को रोहतास एंक्लेव, फैज़ाबाद रोड, लखनऊ में आयोजित की गयी. अपनी अक्षुण्ण उपस्थिति का आभास कराती रहती नगर की इस साहित्यिक संस्था ने उक्त आयोजन के साथ अपने कार्यक्रमों को एक नया आयाम दिया. काव्य-पाठ और साहित्यिक आलोचना/विचार-विमर्श ही इस मंच की अभी तक की पहचान रही है. नवम्बर 2014 से हमारे रोज़मर्रा की ज़िंदगी से जुड़े ऐसे हर उस पहलू की ओर दृष्टि डालने का निर्णय लिया गया जो किसी न किसी रूप में रचनाकर्म में बलिष्ठ भूमिका निभाते हैं अर्थात सीधे तौर पर इतिहास, खेलकूद, विज्ञान आदि विषय से सम्बद्ध वे सभी बातें जो हमारे जीवन को तथा, स्वाभाविक रूप से हमारे संसार को प्रभावित करते हैं. इसी सोच के अंतर्गत आयोजन के पहले सत्र में एक व्याख्यान सुना हम सबने. विषय था “गुजरे ज़माने की चंद बातें” और वक्ता थे सुपरिचित भूवैज्ञानिक, पत्रकार व लेखक श्री विजय कुमार जोशी. श्री जोशी ने यह कहते हुए अपनी बात शुरू की कि भूवैज्ञानिक होने के नाते उन्हें पुरानी चीज़ों से विशेष लगाव है और इसीलिए इतिहास उनका प्रिय विषय है. व्याख्यान का केंद्रबिंदु रहा लखनऊ तथा अवध का इतिहास. लखनऊ शहर के नामकरण का उत्स भगवान रामचंद्र के अनुज लक्ष्मण (जिसका सम्भावित अपभ्रंश ‘लखना’ से ‘लखनऊ’ हो सकता है) से है या कि सोलहवीं सदी में शेख अब्दुर्रहीम द्वारा बनवाए गए ‘मच्छी भवन’ के निर्माता कलाकार लखना अहीर से जुड़ा है – इसी प्रश्न से व्याख्यान की आकर्षक शुरुआत करते हुए श्री जोशी ने उपस्थित सदस्यों को पावर पॉयन्ट प्रस्तुति के सहारे लखनऊ के कुछ ऐतिहासिक इमारतों का सुरुचिपूर्ण तटस्थता के साथ परिचय कराया. आलोचित विषय की रोचकता और तथ्यों के साथ वैज्ञानिक के सुपरिकल्पित सोच से उत्पन्न मनोरम प्रस्तुति ने श्रोता समूह को मुग्ध कर दिया. इस हर्षदायी अनुभूति के साथ ही पहले सत्र का अंत हुआ.
आयोजन के दूसरे सत्र में प्रथानुकूल सरस्वति वंदना के उपरांत काव्य-पाठ हुआ. सभा का संचालन कर रहे श्री मनोज शुक्ला ‘मनुज’ जी द्वारा उदात्त स्वर में अवधी में रचित छंदबद्ध प्रार्थना से माँ शारदा का आवाहन करने के साथ ही काव्य-पाठ का सिलसिला शुरू हुआ.
सबसे पहले डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी ने कवि केदारनाथ सिंह की लम्बी कविता “मंच और मचान” का पाठ किया जिसमें सरकारी निर्देशों की संवेदनहीनता और उन्हें पालन करने वालों की मजबूरी का चित्र अंकित कर इंसान की दयनीय मन:स्थिति का वर्णन है.
इसके बाद डॉ श्रीवस्स्तव ने स्वरचित कविता “गुदगुदी” सुनायी. आज की व्यंग्य रचनाओं के छिछलेपन पर तीव्र प्रहार करते हुए अंतिम पंक्तियाँ पूरी रचना के सार को एक अद्भुत परिवेश की सृष्टि के साथ प्रस्तुत करती हैं –
हँसना अंतर का सुप्त आह्लाद है
मरे हुए अंतर में क्या रसवाद है
अब तो गुदगुदी से भी हँसी
मुझे आती नहीं
मरे हुए मन को
गुदगुदी हँसाती नहीं
दोस्तों,
कहते हुए सचमुच हँसी आती है
अब तो यह गुदगुदी बरबस रुलाती है
आपका आज का तीसरा निवेदन एक रूमानी गीत था जिसके शब्द व्यंजना ने सभी को मोहित किया –
विकल मन में जलधि के ज्वार फूटे
तार संयम अनेकों बार टूटे
प्राण आकंठ होकर थरथराए
नेह बंधन सजीले थे न छूटे
प्यास की वासना उद्दाम ऐसी, नयन सागर सहेजे आ गया हूँ
अगम है प्रेम पारावार फिर भी, प्रिये! पतवार लेकर आ गया हूँ
गोरखपुर से आए युवा रचनाकार श्री पवन कुमार ने साहसपूर्ण स्वाध्याय द्वारा जीवन की आपा-धापी से जूझने के लिए स्वयं को पुकार लगायी –
संघर्षों का जीवन तेरा
लगता जैसे नया सवेरा
सपने जिसमें करें बसेरा
तू हर रचना कर साकार
तेरी कभी न होगी हार
कानपुर से पधारे बहुचर्चित कवि पण्डित नवीन मणि त्रिपाठी ने बहुत ही मधुर स्वर में गाकर एक समाँ सा बाँध दिया -
प्रेम के आचमन की मुहूरत रचो
क्या पता फिर ये चिलमन खुले न खुले
वैज्ञानिक युवा कवि श्री प्रदीप कुमार शुक्ल विचारों और भावनाओं के धनी हैं. जीवन की हर छवि को वे अपनी सरल दृष्टि से देखते हुए काव्य की कोमलता से सँवारते हैं –
शिशु एक बेल, वृक्ष है ममता
बनती उसकी जीवन क्षमता
बचपन को आशा ममता की
दादी परिभाषा ममता की
श्री केवल प्रसाद सत्यम ने अपनी कविता के माध्यम से पीपल का वंदन करते हुए परोक्ष रूप से स्वस्थ पर्यावरण की ओर ही इंगित किया –
सत्य संकल्पों से हमने बीज था बोया कभी
ब्रह्म का अवतार हितकर पूजते पीपल सभी
सुश्री कुंती मुकर्जी की उपस्थिति में उनकी कविता “रात के अँधेरे में” का पाठ किया शरदिंदु मुकर्जी ने –
धीरे धीरे
बहुत कुछ समझ में आता है
रात के अँधेरे में
ढरकते दीवारों की खोह में
चिड़ियाँ भी बोलती हैं
इंसान की बोलियाँ
और
करती हैं बगावत
अपने आकाश से
इसके उपरांत वर्तमान प्रतिवेदक (शरदिंदु मुकर्जी) ने अंतरजाल से प्राप्त एक पसंदीदा कविता का पाठ किया. उनके शब्दों में ‘एक अनाम कवि द्वारा रचित’ इस रचना के माध्यम से स्वर्ग में राधा और कृष्ण के पुनर्मिलन का वर्णन है जहाँ राधा प्रेम को सर्वोच्च स्थान पर बैठाती हुई कृष्ण को उलाहना देती हैं –
....आज भी मैं मानती हूँ
लोग गीता के ज्ञान की बात करते हैं
उसके महत्त्व की बात करते हैं
मगर धरती के लोग
युद्ध वाले द्वारकाधीश पर नहीं
प्रेम वाले कान्हा पर भरोसा रखते हैं;
गीता में मेरा
दूर-दूर तक नाम भी नहीं है
पर आज भी लोग
उसके समापन पर
‘राधे-राधे’ करते हैं
सभा में उपस्थित एक कवि सज्जन ने सूचना दी कि यह कविता अंतरजाल द्वारा प्रसिद्धि पा चुकी है और इसके रचयिता हैं कवि नृपेंद्र पाण्डे.
शरदिंदु मुकर्जी ने तत्पश्चात स्वरचित रचना ‘प्रार्थना’ सुनायी –
जब तुम आओ
अपने स्पर्श से मेरी अज्ञानता को झंकृत कर
नए शब्दों की, नए संगीत की
और हरित वेदना की रश्मि डोर पकड़ा देना
मैं उसके आलोक में
तुम्हारे आनंदमय चरणों तक
स्वयं चलकर आऊंगा
मेरे प्रियतम.
सुपरिचित कवि व गज़लकार श्री राज लखनवी ने चुनिंदा शब्दों में बड़ी बातें कह डालीं –
गए थे फ़ख्र से जिसकी महफ़िल में
वो शख़्स भी, पुराना रक़ीब निकला
........
जाने क्या मस्ला था उसने दिये बुझा दिए
कहीं रोटी न मांग बैठे, बच्चे भूखे सुला दिए
अंत में तीन घंटे तक चला यह मनोज्ञ आयोजन श्री मनोज शुक्ल ‘मनुज’ जी के सफल संचालन में उन्हीं के द्वारा मधुर अवधी में रचित गीतों के साथ सम्पन्न हुआ.
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ओपन बुक्स ऑनलाइन, लखनऊ चैप्टर की गतिविधियों में आये सकारात्मक परिवर्तन से मासिक गोष्ठी का कलेवर बहुआयामी हुआ है, आदरणीय शरदिन्दुजी. आपने साझा कर समस्त पारिवारिक सदस्यों को असीम प्रसन्नता दी है.
गोष्ठी की रपट भी बहुत ही सधे ढंग में प्रस्तुत हुई है.
भूवैज्ञानिक आदरणीय विजय कुमार जोशी का व्याख्यान कितना विन्दुवत रहा होगा उसकी मैं कल्पना ही कर सकता हूँ. साहित्य के परिदृश्य में ऐसे आयाम को इन्फ़्यूज करने के लिए लखनऊ की पूरी टीम बधाई की पात्र है.
मासिक गोष्ठी का दूसरा सत्र भी आपकी निगरानी में एक नया कलेवर प्राप्त कर चुका है. आयोजन में पठन और पाठन को सार्थक बल मिलता देख मन उत्साहित है. उन्नत रचनाकर्म बिना गहन पठन के संभव ही नहीं. उस हिसाब से यह एक बढिया परिपाटी विकसित हो रही है कि उपस्थित रचनाकार अपनी रचनाओं का पाठ करने के पूर्व किसी अन्य की रचित रचना का पाठ करें. यह एक तरह से ’होलिस्टिक एप्रोच’ है.
आयोजन में सुधीजनों और विद्वानों की उपस्थिति साहित्य के एक बेहतर कल के प्रति आश्वस्त करती है.
आपको तथा आपकी ऊर्जस्वी टीम को साधुवाद तथा अतिशय शुभकामनाएँ.
सादर
आदरणीय अग्रज शरदिंदु जी
आपने गोष्ठी का हू-बहू चित्रांकन कर इसे अमर कर दिया i हमारी कमी यह रही कि आपका कोई चित्र इसमें नहीं आया i जोश में होश इसी तरह लुप्त होता है i सादर i
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