For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

नए प्रतीकों की पहल में अज्ञेय का ‘बावरा अहेरी’ -

                                                                                             अज्ञेय के जन्म दिवस 7 मार्च 2015 पर विशेष

          हिंदी में प्रयोगवाद के अंतर्गत कविता के परम्परागत मानको को ध्वस्त कर वस्तु, शिल्प, शैली, प्रतीक ,बिम्ब आदि सभी स्तरों पर नए प्रयोग किये गए जिससे कविता का स्वरुप तेजी से बदला और छान्दसिक रचनाओ का स्थान अतुकांत कविता ने ले लिया I कविता के क्षेत्र में यह युगांतर उत्पन्न करने वाले कवि-नायक हीरानन्द सच्चिदानंद वात्स्यायन अज्ञेय’ (1911 -1987 ई०) ने न केवल प्रयोगवाद को स्थापित किया अपितु नयी कविता तक उसका  संवर्धन किया I  जिस काल में अज्ञेय का उद्भव और विकास हुआ उस समय तक लोग कविता के कमल और चाँद जैसे उपमानो से ऊब चुके थे और वे इसके परंपरागत प्रयोग से बचते हुये कुछ नए उपमान का प्रयोग करने के पक्षधर थे I  इसकी राह सबसे पहले अज्ञेय ने कलगी बाजरे में प्रस्तुत की और फिर यह सिलसिला  बढ़ते-बढ़ते  एक ऐसी महानदी के रूप में परिणित हो गया जो आज न केवल अथाह और गंभीर हुयी है अपितु उद्दाम गति से निरंतर प्रवाहमान है I ‘कलगी बाजरे की में जिस प्रकार अज्ञेय ने अपनी प्रेमिका को यह  अद्भुत उपमान दिया था उसी प्रकार बावरा अहेरी उपमेय सूर्य का नया उपमान है I

 

    अज्ञेय की नजर में सूर्य एक आखेटक है और वह भोर में आते ही अपनी स्वर्णिम रश्मियों का जाल पूरे संसार में फैला देता है I शिकारी प्रायः चेतन प्राणियों का ही शिकार करते है I  पर सूर्य बावरा अहेरी है वह जड़-चेतन में विभेद नहीं करता I वह अपने जाल का पसारा स्थावर और जंगम सभी पर प्रातःकालीन नर्म-रश्मियों द्वारा बड़े आहिस्ते से करता है किन्तु रश्मियों के गर्म होते ही वह जाल खीचता है, तब छोटी-छोटी चिड़ियाँ, कबूतर, भारी डील-डौल वाले बड़े पक्षी, वायुयान, कलश-त्रिशूल से युक्त मंदिर के आकाशचारी शिखर, तार-घर की नाटी-मोटी-चिपटी उभारदार मुहर सभी को समेट लेता है I यहाँ कवि ने मुहर को भी बड़ा ही सुन्दर उपमान दिया है उपयोग-सुन्दरी I काव्य-पंक्तियाँ निम्न प्रकार है

 

पर जब खीचता है जाल को

बाँध लेता है सभी को साथ

छोटी-छोटी चिड़ियां

मंझोले परेवे

बड़े-बड़े पंखी

डैनो वाले डील वाले

डौल के बेडौल

उड़ते जहाज

कलस-तिसूल वाले मंदिर शिखर से ले

तार घर की नाटी मोटी चिपटी गोल घुस्सों वाली

उपयोग-सुन्दरी

बेपनाह कार्यों को 

 

      आखेटक सूर्य का जाल संसार के सभी क्रिया-कलापों पर भी पड़ता है I गोधूलि-वेला की उडती हुयी धूल,  मोटर का धुंवा,  किसी पार्क के किनारे खिली कनक-चंपा के अग्रभाग की आलोकित पतली  सी पंखुड़ी का विन्यास और कचरे को जलाने वाली कारखाने की मशीनों से निकलता धुआं यह सब आखेट के जाल में है I  परन्तु  कारखाने से निकलने वाला धूम इतना प्रचंड है मानो वह अकेले ही सूर्य के रश्मि जाल को भेदने में समर्थ हो I कविता का संदर्भित अंश उदहारण स्वरुप प्रस्तुत है

 

--- दूर कचरा जलाने वाले कल की उद्दंड चिमनियो को,  जो

धुवाँ यों उगलती है मानू उसी मात्र से अहेरी को

हरा देंगी

 

      कवि के अनुसार सूर्य एक ऐसा बावरा अहेरी है जिससे संसार की कोई भी वस्तु अछूती नहीं है I उसका विस्तृत जाल निखिल संसृति को अपने में समेट लेता है I इस शिकारी के लिए कुछ भी अबध्य नहीं है I ऐसे दुर्धर्ष शिकारी के लिए भी कवि के पास एक चुनौती हैं I वह कहता है कि हे बावरे आखेटक तू हर जगह अपनी स्वर्ण रश्मि का जाल फैलाता है पर क्या तू मेरे मन के विवर में चुपके से दुबकी हुयी कलौंस (अन्धेरा, स्याह्पन, कालिमा ) को अपना शिकार नहीं बनाएगा और उस यथावत छोड़ कर चला जाएगा I सुलभ संदर्भ हेतु काव्यांश उद्धृत किया जा रहा है

 

बावरे अहेरी रे

कुछ भी अबध्य नहीं तुझे, सब आखेट है

एक बार मेरे मन-विवर में दुबकी कलौंस को

दुबकी ही छोड़कर क्या तू चला जाएगा ?

 

        इस कवि-कथन में कविता का वैशिष्ट्य शिखर पर है I सामान्यतः कोई भी प्राणी किसी आखेटक को निमंत्रण नहीं देता I  पर यहाँ न केवल शिकारी का आह्वान है अपितु उसके लिए कवि अपने शरीर के सारे कपाट खोलकर सहर्ष प्रस्तुत है I वह आखेटक की रश्मिरथी  सेना को अपने शरीर के प्रत्येक शिरा-भेद की स्वतन्त्रता देता है ताकि वह कवि के असफल दिनों की कालिमा रूपी अतीत के गढ़ को ध्वस्त कर एक ढूह में परिवर्तित कर दे और उसे अपनी रश्मियों से माँज दे,  आलोकित कर दे I यही नहीं उसकी प्रार्थना यह भी है कि बावरा अहेरी सूर्य कवि की आँखों को आँज कर उसे ऐसे ज्योतिर्मय प्रकाश से भर दे कि वह अपने उपकर्त्ता अहेरी को देख सके और कृतज्ञता ज्ञापित कर सके I अज्ञेय की यह भी एक अद्भुत कल्पना है कि वह सूर्य जैसे अहेरी से उपकृत होकर उसकी स्वर्ण रश्मियों को सिरोपाव के रूप में धारण करे I  कविता का संदर्भित अंश निम्नवत है-

 

विफल दिनो की तू कलौंस पर माँज जा

मेरी आँखे आँज जा

कि तुझे देखूं

देखूं और मन में कृतज्ञता उमड़ आये

पहनूं सिरोपे- से कनक-तार तेरे -

 

     ध्यानव्य है कि राज दरबारों में यह प्रथा रही है कि राजा या सामंत किसी दरबारी या व्यक्ति से उपकृत होने पर अथवा उसके किसी कारनामे से प्रसन्न होकर उसे सर से लेकर पाँव तक  पहनने का वस्त्र देते थे जिसे सिरोपाव कहा जाता था I सिरोपाव पाकर दरबारी या व्यक्ति राजा या सामंत का कृतज्ञ हो जाता था I यहाँ भी कवि आपाद रश्मि सिरोपाव पहनकर बावरे अहेरी सूर्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करने हेतु अभिलषित है पर शर्त यह है कि सूर्य उसके अतीत के विफल दिनों की कालिमा को माँज दे भास्वर कर दे I    

 

                                                                                                      ई एस-1/436, सीतापुर रोड योजना

                                            सेक्टर-ए, अलीगंज, लखनऊ

                                                                                                       मोबा0  9795518586

 

(मौलिक व् अप्रकाशित )

Views: 15292

Reply to This

Replies to This Discussion

अ० खुर्शीद खैरादी जी

आपके कोर्स में थी तब तो मेरी प्रस्तुति सार्थक हुयी .

आ० सौरभ जी

आपका आशीष पाकर  कृतकृत्य हूँ . सादर .

आ० निकोर जी

सादर प्रणाम !कितना मिस किया आपको . अब आश्वस्त हुआ हूँ . मैंने 'बावरा अहेरी' संकलन पर विचार  न कर केवल इस कविता पर विचार किया  है अज्ञेय जी ने बहुत लिखा  है  .  अभी कितनी नवो में कितनी बार पढ़ रहा हूँ . आगे  हरि इच्छा . सादर .

आदरणीय गोपाल नारायण सर, सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन “अज्ञेय” की रचना ‘बावरा अहेरी’ पर विवेचना से कई नई बातें सीखने मिली 

हार्दिक आभार 

आ० वामनकर जी आपका आभारी हूँ की आपने लेख को आत्मसात किया . सादर .

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

आशीष यादव added a discussion to the group भोजपुरी साहित्य
Thumbnail

दियनवा जरा के बुझावल ना जाला

दियनवा जरा के बुझावल ना जाला पिरितिया बढ़ा के घटावल ना जाला नजरिया मिलावल भइल आज माहुर खटाई भइल आज…See More
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आदरणीय सौरभ सर, क्या ही खूब दोहे हैं। विषय अनुरूप बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है। इस प्रस्तुति हेतु…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"हार्दिक आभार आदरणीय "
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी प्रदत्त विषय अनुरूप बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी प्रदत्त विषय अनुरूप बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण धामी जी।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। प्रदत्त विषय पर सुंदर रचना हुई है। हार्दिक बधाई।"
Sunday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . शृंगार

दोहा पंचक. . . . शृंगारबात हुई कुछ इस तरह,  उनसे मेरी यार ।सिरहाने खामोशियाँ, टूटी सौ- सौ बार…See More
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन।प्रदत्त विषय पर सुन्दर प्रस्तुति हुई है। हार्दिक बधाई।"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"बीते तो फिर बीत कर, पल छिन हुए अतीत जो है अपने बीच का, वह जायेगा बीत जीवन की गति बावरी, अकसर दिखी…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"वो भी क्या दिन थे,  ओ यारा, ओ भी क्या दिन थे। ख़बर भोर की घड़ियों से भी पहले मुर्गा…"
Sunday
Ravi Shukla commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - ( औपचारिकता न खा जाये सरलता ) गिरिराज भंडारी
"आदरणीय गिरिराज जी एक अच्छी गजल आपने पेश की है इसके लिए आपको बहुत-बहुत बधाई आदरणीय मिथिलेश जी ने…"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service