लघुकथा भले ही कहानी का बोनसाई रूप लगती हो किन्तु यह भी सत्य है कि अपने विशिष्ट कलेवर एवं फ्लेवर के कारण ही लघुकथा को एक स्वतंत्र विधा के रूप में पहचान प्राप्त हुई है I मुख्यत: दो बातों की वजह से लघुकथा को कहानी से अलग माना जाता है :
१. लघु आकार 
 २.एकांगी व इकहरा स्वरूप
लघुकथा एक एकांगी-इकहरी लघु आकार की एक गद्य बानगी है जिसमे विस्तार की अधिक गुंजाइश नहीं होती है I लघुकथा किसी बड़े परिपेक्ष्य से किसी विशेष क्षण का सूक्ष्म निरीक्षण कर उसे मेग्निफाई करके उभारने का नाम है I लघुकथा विधा के सन्दर्भ में यहाँ "क्षण" शब्द के अर्थ जानना नितांत आवश्यक हो जाता है I यह "क्षण" कोई घटना हो सकती है, कोई सन्देश हो सकता है, अथवा कोई विशेष भाव भी हो सकता है I यदि लघुकथा किसी विशेष घटना को उभारने वाली एकांगी विधा का नाम है तो ज़ाहिर है कि लघुकथा एक ही कालखंड में सीमित होती है I अर्थात लघुकथा में एक से अधिक कालखंड होने से वह "कालखंड दोष" से ग्रसित मानी जाएगी तथा लघुकथा न रहकर एक कहानी (शार्ट-स्टोरी) हो जाएगी तथा I इस विषय में डॉ. शमीम शर्मा की बात का ज़िक्र करना आवश्यक हो जाता है I उसके कथनानुसार कथावस्तु कहानी की तरह लघुकथा की रीढ़ है। उसमें उपकथाएँ, अंत:कथाएं या प्रासंगिक कथानक नहीं होते, केवल आधिकारिक कथा ही रहती है। लघुकथा में कथावस्तु की एकतंता, लघुता और एकांगिता अति आवश्यक है। लघुकथा की कथावस्तु अत्यंत प्वाइंटिड होती है। लघुकथा रचना के मूल में एक बिंदु होता है। यहाँ भी "एक बिंदु" की बात कही गई है जिसका सीधा सादा अर्थ यह है कि अर्जुन की भांति एक लघुकथा का निशाना भी केवल मछली की आँख पर ही केन्द्रित रहना चाहिए I
लघुकथा का एकांगी स्वाभाव का होना भी यही इंगित करता है कि लघुकथा केवल एक ही कालखंड पर आधारित होनी चाहिए I अत: माना जाना चाहिए कि कोई भी कथा-तत्व युक्त गद्य रचना मात्र अपने लघु आकार के कारण ही लघुकथा नहीं कहलाती, वस्तुत: उसका कालखंड दोष से मुक्त रहना ही उसे लघुकथा बनाता है I डॉ. मनोज श्रीवास्तव के अनुसार: लघुकथा के लिए किसी भी काल या स्थान का एक छोटा-सा दृष्टांत या प्रसंग़ ही पर्याप्त है जिसमें कथाकार अपनी गहन अनुभूति के माध्यम से समाजोन्नयन का महान लक्ष्य साकार कर सके और वह अपने साधारणीकृत अनुभव के जरिए जन-सामान्य से तादात्म्य स्थापित कर सके। यहाँ डॉ. मनोज श्रीवास्तव जी के "किसी भी काल" तथा "स्थान" पर ध्यान देना आवश्यक है, इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि लघुकथा में एक से अधिक कालखंड की कोई गुंजाइश ही नहीं है I श्री कृष्णानन्द कृष्ण ने भी कहा है कि "लघुकथा के कथानक का आधार जीवन के क्षण विशेष के कालखंड की घटना पर आधारित होना चाहिए।"
डा० शंकर पुणतांबेकर मानते हैं कि लघुकथा की खिड़की से हम जीवन के किसी कमरे में ही झाँकते हैं, खिड़की का छोटापन यहाँ बाधक नहीं बनता। उलटे वह हमारी दृष्टि को ठीक उस जगह केंद्रित करता है जिसे दिखाना खिड़की का मन्तव्य है। कहानी के कथानक को लघुकथा के रूप में नहीं रखा जा सकता क्योंकि कथानक जिन बिंदुओं पर विस्तार चाहता है, वरित्रों का रूपायन चाहता है, वह लघुकथा नहीं दे सकती। इस प्रकार लघुकथा में एक अवयव,सक व्यक्तित्व की केवल एक विशिष्टता, एक घटनांश विशेष, एक संकेत, एक जीवन खंडांश हो सकता है। विश्लेषण की अपेक्षा एकान्विति की गहनता ही इसके कथानक को सुगुंफित रख सकती है।
डॉ बलराम अग्रवाल जी के अनुसार "लघुकथा किसी एक ही संवेदन बिंदु को उद्भाषित करती हुई होनी चाहिए, अनेक को नहीं कथा-प्रस्तुति की आवश्यकतानुरूप इसमें लम्बे कालखंड का आभास भले ही दिलाया गया हो लेकिन उसका विस्तृत ब्यौरा देने से बचा गया हो I लघुकथा में जिसे हम "क्षण" कहते हैं वह द्वंद्व को उभारने वाला या या पाठक मस्तिष्क को उस ओर प्रेरित करने वाला होना चाहिए I
लघुकथा में एकल कालखंड वाली बात तो स्पष्ट हो गई, किन्तु अब प्रश्न यह है कि कालखंड दोष से बचाव कैसे हो I उसके लिए आ० सुभाष नीरव के "एक ही कालखंड" को समझना बेहद आवश्यक है, श्री सुभाष नीरव जी के शब्दों में: एक श्रेष्ठ लघुकथा में जिन आवश्यक तत्वों की दरकार आज की जाती है, मसलन वह आकार में बड़ी न हो, कम पात्र हों, समय के "एक ही कालखंड" को समाहित किए हो I
लघुकथा के "समय के एक ही कालखंड" से सम्बंधित होने से बात शीशे की तरह साफ़ हो जाती है I किन्तु यह समझना भी बेहद आवश्यक है कि कोई भी लघुकथा मात्र इसी कारण कालखंड दोष से ग्रसित नहीं हो जाती कि वह एक से अधिक कालखंड में विभक्त है I वस्तुत: एक से अधिक घटनायों, कालखंडों अथवा अंतराल को आपस में जोड़ने की कुशलता के अभाव से कालखंड दोष पैदा होता है I उदाहरण के लिए एक माँ द्वारा अपने बच्चे को सुबह स्कूल छोड़ने जाना और फिर बाद दोपहर वापिस लाना प्रथम दृश्या एक ही घटना है I किन्तु बच्चे को सुबह स्कूल छोड़ने और शाम को उसे लेने जाने के मध्य जो "अंतराल" है, उसके कारण घटनाक्रम दो कालखंडों में विभाजित हो गया है I लेकिन एक कुशल और अनुभवी रचनाकार विभिन्न कालखंडों में ऐसा सामंजस्य पैदा कर सकता है कि कालखंड दोष का स्वत: निवारण हो जाता है I यहाँ सुप्रसिद्ध लघुकथा मर्मज्ञ मधुदीप गुप्ता जी की लघुकथा "समय का पहिया घूम रहा है" की बात करना समीचीन होगा I इस लघुकथा में लघुकथा 400 वर्ष एवं एक से अधिक कालखंडों में विभाजित होने के बावजूद भी कालखंड-दोष से मुक्त है I अलग अलग कालखंड से सम्बंधित घटनायों को इस प्रकार एक सूत्र में पिरोया गया है कि पाठक दांतों तले उँगलियाँ दबाने पर विवश हो जाता है I कालखंड दोष से बचने का दूसरा आसान उपाय है फ्लैशबैक तकनीक, यह तरीका अपना कर इस दोष से बचा जा सकता है, किन्तु कुशलतापूर्वक ऐसा करने के लिए भी एक लघुकथाकार को गहन अध्ययन, अभ्यास और अनुभव की आवश्यकता होती है I
अंत में केवल इतना ही निवेदन करना कहूँगा कि लघुकथा में शब्द-सीमा का अतिक्रमण कुछ हद तक क्षम्य भी है किन्तु कालखंड दोष से ग्रसित रचना तो लघुकथा ही नहीं रह जाती है, अत: इससे हर हाल में बचा जाना चाहिए I 
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हार्दिक आभार भाई शेख़ उस्मानी जीI
हम सब लघुकथाकारों के भ्रमित होने से बचने के लिए सही समय पर , मार्गदर्शन हेतु बेहद जरुरी तथ्य खंगालकर , स्पष्ट दस्तावेज हमे उपहार में दिए है। सादर अभिनन्दन सर जी।
यह आपका स्नेह है आ० कांता रॉय जीI
अगर इस आलेख से किसी को लाभ हो तो यह मेरे लिए बेहद ख़ुशी की बात होगीI
देर से ही सही, लेकिन आपके हुक्म की तामील हो ही गई आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जीI
आदरणीय योगराज सर, लघुकथा विधा में इस बिंदु पर मुझसे कई बार त्रुटियाँ हुई है. कालखंड दोष की बारीकी को समझना एक लघुकथाकार अभ्यासी के लिए सबसे जरुरी है, ये बात आज पानी की तरह साफ़ हो गई. क्योकि इस दोष से ग्रसित रचना लघुकथा हो ही नहीं सकती. आपने बिन्दुवार सटीक, संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित तथ्य साझा कर हम नव अभ्यासियों का जो मार्गदर्शन किया है उसके लिए हार्दिक आभारी हूँ. इस आलेख ने कई कई प्रश्नों, जिज्ञासाओं और पूर्वाग्रहों का समाधान प्रस्तुत किया है. सादर नमन
अगर कालखंड दोष ही आ गया तो लघुकथा रहती ही नहीं भाई मिथिलेश वामनकर जी, आकार के इलावा यह एक महत्वपूर्ण बिंदु है जो लघुकथा और कहानी में फर्क पैदा करता हैI
एक अपरिहार्य आलेख की प्रस्तुति हुई है, आदरणीय योगराजभाईसाहब.
लघुकथा देखने में जितनी नन्हीं-मुन्नी, निहायत कमसिन-सी विधा मालूम होती है, प्रभाव में कई बार तितैये के दंश का आभास करा देती है. कारण है, उसकी बेइन्तहा सान्द्रता. यह सान्द्रता काई एक विन्दु पर निर्भर करती है जिसे आपने इस आलेख सोद्धरण प्रस्तुत किया है. यह आपकी इस विधा के प्रति तथा इस मंच के विशिष्ट वातावरण के प्रति अत्युच्च दायित्व निर्वहन का परिचायक है.
जिस काल-खण्ड दोष के बारे में आपने जानकारी साझा की है, वह किसी लघुकथा के कथ्य को कितना विरल कर सकती है इसे तभी समझा जा सकता है, जब हम लघुकथा विधा के सान्द्रता को समझें.
इस आलेख हेतु हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय.
एक बात :
आलेख में एक विद्वान सज्जन का नाम आया है जो दो तरह से उच्चारित (शाब्दिक) हुआ है - आदरणीय सुभाष का ! इनका उपनाम ’नीरव’ है या ’नीरज’ ?
सादर
उन सज्जन का नाम सुभाष नीरव है, "नीरज" गलती से लिखा गयाI
दरअसल इस कालखंड को लेकर बहुत सी भ्रांतियाँ फैलाई जा रही हैं, जिनसे नवोदित रचनाकार भ्रमित हो रहे थेI तभी मुझे यह आलेख लिखने की सूझीI आपकी शाबाशी से सातवें आसमान पर हूँI
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